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Thursday, May 17, 2012

दूधनाथ के ‘निष्कासन’ और अखिलेश के ‘ग्रहण’ के बहाने दलित विमर्श पर कुछ सवाल

दूधनाथ के 'निष्कासन' और अखिलेश के 'ग्रहण' के बहाने दलित विमर्श पर कुछ सवाल


दूधनाथ के 'निष्कासन' और अखिलेश के 'ग्रहण' के बहाने दलित विमर्श पर कुछ सवाल

By  | May 17, 2012 at 7:13 pm | No comments | शब्द

दयानंद पांडेय

यहां दलित पृष्ठभूमि पर आधारित दो लंबी कहानियां चर्चा-ए-नज़र हैं। जो कोई एक दशक पहले कथादेश में एक साथ छपी थीं। एक दूधनाथ सिंह की निष्कासन, दूसरी अखिलेश की ग्रहण। अलग बात है अगर इन दोनों कहानियों को दलित पृष्ठभूमि का ठप्पा लगा कर न भी छापा गया होता तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। क्यों कि इन कहानियों की क्रमश: नायिका और नायक किसी अन्य वर्ग से होते तो भी उन के इस संघर्ष में, उन की इस अपमान कथा और यातना में कोई कमी आने वाली नहीं थी। हालां कि अखिलेश ने अपनी कहानी 'ग्रहण' के शुरू में ही नोट दर्ज कर दिया है कि इस कहानी को दलित गैर दलित लेखक की कसौटी पर परखने के लिए हर कोई स्वतंत्र है। और कि उन का आग्रह भी है कि इसे सब से पहले एक कहानी के रूप में पढ़ा जाए ! तो क्या यह माना जाए कि जैसे पहले ब्राह्मणवादी व्यवस्था दलित को मंदिर में आने से रोकती थी, और अब दलित विमर्श के इस नए 'मंदिर' में दलित, गैर दलित को आने से रोक रहा है ! 
मज़ा यह कि अखिलेश की तरह दूधनाथ सिंह की कहानी 'निष्कासन' के भी शुरू में प्रेमचंद का एक उद्धरण बतौर नोट दर्ज है। दोनों ही कहानीकारों ने अपनी-अपनी कथाओं के काल्पनिक होने की भी चुगली चलाई है। दूधनाथ सिंह ने तो एक सांस में तीन काम कर दिए हैं। कहानी के पहले। पहला काम प्रेमचंद का उद्धरण ठोंका है दूसरे, इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं बताया है और तुरंत ही 'उस लड़की' से क्षमा याचना सहित जिस की यह कहानी है दर्ज कर दिया है। भई वाह! क्या बात है। 'काल्पनिक' भी क्षमा-याचना भी। यह कौन सा अपराध बोध है? दलित-विमर्श के दरवाज़े में बिना इज़ाज़त घुस जाने का ?
जो भी हो दूधनाथ सिंह के निष्कासन की लड़की अगर खटिक नहीं कायस्थ, गुप्ता, ब्राह्मण, ठाकुर या किसी भी अन्य वर्ग से होती तो भी उस की अपमान कथा, उस के संघर्ष, उस की यातना, उस के सपने जोड़ने और टूटने में ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। उस की अवश दारुणता और करुणा की कसक ऐसे ही मथती। फिर भी दूधनाथ सिंह ने लड़की को खटिक के बाने में गूंथ कर ही सही कथा कही है। महत्वपूर्ण यही है। यह कहानी बताती है कि बाकी कानून तो दोगले हैं ही अनुसूचित जाति के लिए बनाए गए विशेष कानून और भी ज़्यादा दोगले और दिखावे वाले हैं। और इन के नेता और भी बड़े हिजड़े ! यूनिवर्सिटियों, कॉलेजों या राजकीय संवासनी गृहों की लड़कियां बड़े लोगों और धन्ना सेठों के लिए 'सप्लाई' होती हैं। ऐसी घटनाएं जब-तब अखबारों में खबरों का विषय बनती रहती हैं। पर बड़े लोगों का कभी कुछ नहीं होता। यह तथ्य अखबारी खबरों में भी गूंजता है और दूधनाथ सिंह के निष्कासन में भी। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि दूधनाथ के यहां लड़की की यातना ज्यादा सघन, मनोवैज्ञानिक और ब्यौरेवार है जब कि अखबारों में लड़की की यातना, मनोविज्ञान और उस की सघनता अमूमन अनुपस्थित  होती है। लड़की की यातना में कानून और समाज की भी व्यवस्थाएं उसे न सिर्फ नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़तीं बल्कि उसे तोड़ने में भी चार कदम आगे-आगे ही चलती हैं। दूधनाथ के यहां यह ब्यौरा भी बड़ी विकलता और आजिजी के साथ रेशा-रेशा उपस्थित है और पूरी तल्खी के साथ। हॉस्टल की अधीक्षिका, संरक्षिका, अधिष्ठाता, मुख्य कुलानुशासक से लगायत कुलपति तक लड़की के न सिर्फ़ खिलाफ हैं बल्कि नख-दंत विहीन अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष भी कितने विवश हैं। दलित राज्यपाल जो इस दलित लड़की की मदद भी करना चाहते हैं, राजनीतिक चश्मे में फिट हो कर कितने अवश हो जाते हैं। दूधनाथ के निष्कासन में यह छटपाटहट भी दर्ज होते जाना न सिर्फ़ हिला कर रख देता है बल्कि यह बात भी रेखांकित होती है और कि पूरी ताकत से कि व्यवस्था से लड़ने वाला , व्यवस्था भले न तोड़ पाए खुद ज़रूर टूट जाता है। बतर्ज वाली आसी कि: 'टूटना मेरा मुकद्दर है कि मैं शीशा हूं / और शीशा कभी फौलाद नहीं हो सकता।'
मुख्यमंत्री समेत कामरेडी और बसपाई गलियारों में अपमान भरी धूल खाते टहलते सभी जगह से थक-हार कर लड़की को लगता है कि 'खुदा का दरवाज़ा बंद हो सकता है, माननीय न्यायमूर्तियों का नहीं। उन्हीं के भरोसे हम सब कुछ सह लेते हैं, लड़ते-भिड़ते, थकते-थकाते मुंह के बल गिरते हैं और आंख उठाते हैं तो पाते हैं कि माननीय न्यायमूर्ति का सघन तर्क मंडित पुलिंदा पकड़े खड़े हैं… तो लड़की भी अपनी उसी शाश्वत और तर्क-संकुल घिघियाहट के साथ माननीय न्यायमूर्ति के चैंबर में खड़ी थी- 'आप ही मुझे न्याय दिला सकते है।' और माननीय न्यायमूर्ति आदेश भी देते हैं: मेरे विचार से इस तरह के आदेश में दखलंदाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं। अत: याचिका नियमत: खारिज की जाती है।' लड़की हॉस्टल से पहले ही भगाई जा चुकी है अंतत: वह ज़िंदगी से भी भाग लेती है। लड़की की आत्महत्या इस कहानी में उपजे विरोध को हालां कि कुंद भी करती है और सवाल भी। कि जब सारी व्यवस्था लड़की के खिलाफ थी, बावजूद हॉस्टल में उस के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा के लड़कियों का एक बड़ा हिस्सा लड़की के पक्ष में गोलबंद हो कर उसे न सिर्फ़ नैतिक, व्यावहारिक समर्थन भी देता है, हरिजन एक्ट का समर्थ कानून भी है देश में, उस की बड़ी बहन और उस का दोस्त मनोज पांडेय भी उस के साथ है, फिर वह लड़की इतनी अकेली कैसे पड़ गई कहानीकार की कलम में, कि उस का अवसाद इतना घना कैसे हो गया कि अंजाम आत्महत्या में तब्दील दीखता है?
छेद और भी बहुत हैं दूधानाथ के निष्कासन में। और इस कदर कि जैसे लड़की के सलवार कुर्ते के भीतर काले चींटे का रूपक कहानी में भी बार-बार उतरता रहता है।
जैसे कि पृष्ठ-57 पर वह राज्यपाल के साथ पचासों गाड़ियों का काफिला गुज़ार देते हैं। राज्यपाल राजनीतिक चोले में नहीं होता कि उस के साथ पचासों गाड़ियां चलें। पचास छोड़िए, कुल दस गाड़ियां भी नहीं होती। पृष्ठ-29 पर लड़की की बड़ी बहन कहती है, 'और घर फ़ोन मत कर देना!' पहले ही कहानी के ब्यौरे है कि लड़की का पिता ठेला लगाता है। ठेले वाले के घर भी फ़ोन? विकास दर तब इतना तो उछाल नहीं खा पाई थी, जब कि यह कहानी है, न ही तब मोबाइल का ज़माना था इस तरह। पृष्ठ-33 पर लड़की कहती है, 'मेरा ऐडमिशन हो गया है सर!' पर इस के 7 लाइन बाद ही वह कहती है, 'ऐडमिशन हो जाएगा सर!' पृष्ठ-37 पर राज्य के कैबिनेट सचिव का ज़िक्र चलता है। लेकिन कैबिनेट सचिव भारत सरकार में ही एक होता है। किसी प्रदेश में तो यह पद तब अलग से था ही नहीं। अब फिर नहीं है। मुख्य सचिव में ही यह पद निहित होता है। बीच के एक अपवाद कोछोड कर। पर अब यह कौन बताए दूधनाथ जी को? इसी तरह कहानी के कई हिस्से विश्लेषण और अखबारी रिपोर्ट की गंध देते हैं। तो यह खटकता है। अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष कम अफसर को एक जगह 'राजनीति' से असहाय दिखाया गया है। दिक्कत यह है कि अफसरों से ज़्यादा दलित राजनीति कर कौन रहा है? और वह भी उन के छागला साहब? प्रशासनिक अधिकारी होते हुए भी यह राजनीतिक पद क्या यों ही हथिया ले गए थे? और इस कहानी में यह और ऐसे बहुतेरे छेद हैं। पर सब से बड़ा छेद जो है वह यह कि दूधनाथ सिंह लड़की के समूचे संघर्ष को आत्महत्या में सुला देते हैं। व्यवस्था से वह जीतती भले न, न सही पर लड़ती तो रह सकती ही थी!
अखिलेश की ग्रहण कहानी इस मामले में दूधनाथ के निष्कासन से अलग है। अखिलेश का राजकुमार आत्महत्या नहीं करता। मरता नहीं, मारता है लोगों को। यह एक दूसरे किसिम की अति है, कहानी में। और सत्तर के दशक में 'लाल सलाम' के उबाल में पकी 'क्रांतिकारी' कहानियों की याद दिलाती है। वह कहानियां जो देखते-देखते ही दफन हो गई हैं।
तो भी 'ग्रहण' में विपद का व्यक्ति-चित्र अच्छा बन पड़ा है। उस का अनथक संघर्ष मथता है। खास कर महात्मा गांधी से इस गांव के गांधी विपद का तुलनात्मक ब्यौरा। यह सिर्फ़ ब्यौरा नहीं, सामाजिक व्यवस्था की दुरभिसंधि पर तमाचा भी है और जूता भी। पर महिपाल बाबा का ब्यौरा 'वर्ग चेतना' नहीं अंधविश्वास बोता है। 'ग्रहण' में एक ऐसे राजकुमार की कथा पिरोई गई है जो पैदाइशी अन्याय का शिकार है। वह बिना गुदा के पैदा होता है। सो पेट में छेद बना कर डॉक्टर द्वारा उस का मलद्वार बनाया जाता है। दलित है, निर्धन है सो 'बड़ा ऑपरेशन' नहीं होता और राजकुमार बड़ा हो जाता है। (अब अलग बात है कि पहले इस तरह के ऑपरेशन सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में मुफ़्त में हो जाते थे और अब भी दस-पंद्रह ह्ज़ार रुपए में हो जाते हैं।) साथ ही उस के साथ हो रहा निरंतर अन्याय भी दिन-ब-दिन गाढ़ा होता जाता है। स्कूल में गुरू जी लोग, समाज में सवर्ण लोग उसे पेटहगना कह कर न सिर्फ़ अपमानित करते रहते हैं, उसे तोड़ते भी रहते हैं। वह भट्ठे पर मजूरी कर आर्थिक स्थिति ठीक करने और आपरेशन के इरादे से दो मुर्गियां लाता है ताकि अंडा बेच सके। पर वह दलित है, बुद्धि है नहीं सो मुर्गा नहीं लाता। फिर ले जाता है दोनों मुर्गियां बदलने। रास्ते में मंदिर के सामने खड़े हो कर हाथ जोड़ रहा होता है कि सवर्णों के लड़के पेटहगना को देख लेते हैं। उसे मुर्गा बना कर मुर्गियां उस की पीठ पर रखने की सज़ा देते हैं। फिर मारते पीटते हैं, उस की मुर्गियां छीन लेते हैं।
मुर्गियां छिनवा कर टूटा फूटा वह अस्पताल में होता है। वह पुलिस में मुकदमा लिखवाना चाहता है। पर प्रधान जी के दबाव में उस का पिता विपद और मां बटुली झुक जाते हैं। नतीज़तन एक सुबह राजकुमार अस्पताल से 'गायब' हो लेता है। विपद अनिष्ट से सहमा-सहमा पत्नी बटुली के साथ घर पहुंचता है। फिर तो राजकुमार उर्फ़ पेटहगना रॉबिनहुड उर्फ़ क्रांतिकारी बन पुरोहित के बेटे को मार डालता है, पुरोहित की आंखें फोड़ डालता है आदि-आदि करना शुरू कर देता है। गांव में ताकतवर लोग स्टैब्लिश कर देते हैं कि यह सब राजकुमार की प्रेतात्मा कर रही है। फिर उस की पिटाई स्थल को पुण्य स्थल मान उस की आत्मा को खुश करने की गरज से वहां भजन कीर्तन शुरू कर दिया गया। यहां वही लोग सब से ज़्यादा झूम-झूम कर गाते, जिन लोगों ने राजकुमार को पीटा था, सताया था। पर राजकुमार के माता पिता वहां नहीं आते। अचानक एक रात राजकुमार अपने घर 'प्रकट' होता है। बताता है कि वह जीवित है। फिर स्थितियों को देखते हुए तय होता है कि बार बार मिलना तो अब हो नहीं पाएगा सो महिपाल बाबा की समाधि पर फूल चढ़ाते रहना ताकि कुशल क्षेम मिलती रहे। समाधि पर पहले एक या दो फूल मिलते। फिर आठ हुए और फिर बारह फूल। गरज यह कि अब प्रतिशोध और हिंसा में जलते जलाते एक नहीं बारह राजकुमार हो गए थे।
दो समानताएं ग्रहण और निष्कासन दोनों कहानियों में यह है कि कहानीकार बेवजह ही टिप्पणी करने जब-तब बतौर कहानीकार कूद पड़ते हैं। इस से रसाघात होता है। दूसरी समानता इन दोनों कहानियों में यह है कि दोनों ही कहानियां बहन मायावती की आंच में झुलसी हुईं है। दूधनाथ के निष्कासन की लड़की बहन जी के पास उम्मीदों की गठरी ले कर लखनऊ जाती है तो वह मिलती ही नहीं। जब कि अखिलेश के ग्रहण का राजकुमार बहन जी चूंकि उस के कस्बे में जनसभा करने गई हुई हैं सो एक पत्रकार के मार्फ़त उन से मिलने में सफल हो जाता है।[पत्रकार भी मिल पाते रहे हैं क्या कभी बहन जी से? वह भी छोटी जगह पर भी?] पर चूंकि वह पेटहगना है और बदबू कर रहा होता है सो वह उसे बेइज़्ज़त कर ढकेलवा कर भगा देती हैं। वह भाषा भी ऐसी बोलती हैं जो राजकुमार समझ नहीं पाता।
इस एक बिंदु के बहाने, इस एक सच के बहाने दलित लेखक और गैर दलित लेखक बहस चलाने वाले दलित विमर्श के पुरोधाओं से कहने का मन होता है कि मायावती के तानाशाह रवैए, भ्रष्टाचार में आकंठ सने उन के रुप और बसपा विमर्श पर भी ज़रा लिखिए न? क्यों कि आज का असली दलित विमर्श यही है। दलितों के ठेकेदार राजनीतिज्ञ और अफसर जितना दलितों को दूह रहे हैं, शोषण, अपमान और नुकसान कर रहे हैं उतना कोई और नहीं। सत्ता और धन के शिखर पर बैठा दलित नीचे कतार के आखिरी दलित को कैसे और कितना पीछे कर के अपने व्यवस्था की मलाई उड़ाए, इस कुचक्र में लगा बैठा है। पूछने का मन होता है दलित विमर्श के ठेकेदारों से क्यों भई क्यों? क्या इस लिए कि आप की वर्ग चेतना हेरा गई है? और आप जातियों के परनाले में गच्च हैं! यह वर्ग चेतना जाति चेतना में क्यों तब्दील हो गई? तभी तो आज की तारीख में दलित विमर्श के नाम पर ब्राह्मण ही नहीं ब्राह्मण की लड़कियां भी निशाने पर हैं। दलित या पिछड़ा जो किसी वर्ग का नायक है वह एक 'ब्राह्मण' लड़की फसांता है, 'प्रेम' के बाद संभोग करते हुए वह 'आघात पर आघात' प्रतिशोध लेता है। आज के दलित विमर्श में ज़्यादातर खल चरित्र ब्राह्मण होगा और दलित नायक उस से, उस की लड़की से संभोग कर प्रतिशोध लेगा। 
गरज यह कि कहानी में अब एक नया सामंत टोह ले रहा है। दलित सामंत! दलित विमर्श के पुरोधा दलित सामंतवाद के इस नन्हे और मुर्च्छित बीज को रातो-रात बरगद बनाने की फिराक में युद्धरत हैं। अनवरत! मनुवादी सदी में हुए ज़ुल्म–अत्याचार को आज के समाज में तौल कर! वह मुहम्मद गोरी, गजनवी और बाबर के आक्रमण-अत्याचार यहां तक कि विक्टोरियन गुलामी और अत्याचार तक को भूल जाना चाहते हैं। पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अत्याचार, उस के घाव हरे हैं तो इस लिए कि उन की, उन के दलित विमर्श की दुकान की भट्ठी गरम रहनी चाहिए! दिक्कत तब और होती है जब श्रीलाल शुक्ल जैसा परिपक्व और प्रतिष्ठित लेखक भी इसी डगर पर चला गया। 'तद्भव' में छपे उन के एक लघु उपन्यास 'राग विराग' का नायक भी ब्राह्णणी नायिका के साथ और कुछ नहीं कुछ तो 'मड बाथ' ही कर लेता है। स्कूटर पर बिठा कर उस के वक्ष का ताप और दाब ही ले लेता है। तब जब कि उस ब्राह्मणी नायिका के पिता को नायक अपने पिता की मौत का ज़िम्मेदार ही नहीं, दोषी भी मानता है। यह कैसा प्रतिशोध है? गौर तलब है कि यह कहानियां जा कहां रही हैं? और किस समाज की कथा कह रहीं हैं? यह कहानियां यह कैसे भूलती जा रही हैं कि दुनिया के किसी भी समाज में दो ही वर्ग होते हैं, एक शोषक , दूसरा शोषित। बस! और कहानियां या दुनिया का कोई भी साहित्य हमेशा शोषक के खिलाफ पीड़ित के पक्ष में रचा जाता है और रचा जाएगा।
फसली साहित्य की शौकिया बाजीगरी यहां अपवाद है। जिस के नतीज़े में अगर कोई लेखक, 'साले हरामजादे, कुलटा लौड़िया टहलाता है?' जैसा संवाद भी लिख देता है तो कोई उफ नहीं करता। नहीं पूछ पाता कि पुरूष के लिए 'कुलटा' विशेषण कैसे और कब से चलन में आ गया? उलटे उस की विरुदावली गाते हुए ये दलित विमर्श के पुरोधा उस रचना पर केंद्रित गोष्ठियां आयोजित कर के उस को चमकाने में लग जाते हैं। खैर…दलित विमर्श के पेंदे में ऐसी ढेरों विसंगतियां हैं। लेकिन हमारा साहित्य शोषक-शोषित , सत्ता-प्रजा, जमींदार, सामंत, गुंडा और पूंजीपति के समीकरण भूल कर जातियों की पैमाईश और प्रतिशोध में अटा और डटा पड़ा है। तो क्या यह पुरोधा समाज की ओर बिल्कुल नहीं देखते? झांकते भी नहीं? यह तथ्य भी अनदेखा करते चलते हैं कि बड़े बड़े पूज्यपाद टाइप के ब्राह्मण भारी भारी टीका लगाए हुए भी बहन मायावती के पैरों पर गिरते हुए कैसे तलवे चाटते हैं? तो यह क्या वह ब्राह्मणवाद को स्थापित कर रहे होते हैं कि सत्ता का शहद चाट रहे होते हैं? समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य के सारथी क्या यह दर्पण भी नहीं निहार पाते? या कि कुतर्क की नींव खड़ी करके एक नए डरबन में जाने की तैयारी है यह हिंदी कहानी में? कहना और बूझना दोनों मुश्किल है और यह हद बूझना तब और मुश्किल हो जाता है जब मुद्राराक्षस जैसे लेखक यह लिखते नहीं अघाते कि चूहे की देह के किस हिस्से का मांस अच्छा होता है कोई ब्राह्मण कैसे बता सकता है? अब मुद्रा जी से यह कौन बताए कि ब्राह्मण भी अब खुलेआम भांति-भांति के मांस खाता है। और रही बात चूहे की तो उसे अब 'मुसहर' कहे जाने वाले दलित भी नहीं पूछते। और तो और मुद्रा जी को कारखानों में मजूरी करते या रिक्शा चलाते कोई क्षत्रिय या ब्राह्मण भी नहीं मिलता। ऐसा वह लिखते हैं। मुद्रा जी ही क्यों उन के जैसे तमाम और लेखकों को भी सवर्णों में विपन्नता नहीं दिखती सुहाती। वह तो बस 'खल चरित्र' हैं उन के लिए बस! तो क्या कीजिएगा अगर ब्राह्मण विरोध का उन का यह खोखला तिलिस्म टूट जाएगा, तो दलित विमर्श की दुकान के लिए उन्हें तेल कहां से मिलेगा? तिस पर शिकायत यह भी कि लोग पढ़ते नहीं, किताबें खरीदते नहीं! तरस तब और आता है कि यह दलित विमर्श के पुरोधा समाज में बढ़ती बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, गुंडई, राजनीतिक पतन और उसके दोगलेपन, बढ़ते उपभोक्तावाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव, खेतिहरों मज़दूरों और ट्रेड यूनियनों के क्षरण क्या लगभग समाप्ति जैसे तमाम मसलों को अनदेखा कर वोटों के भुखाए राजनितिज्ञों के मानिंद जातियों की पैमाइश और पड़ताल में पस्त लेकिन मस्त दीखते हैं। सारा हल यहीं ढूंढ लेना चाहते हैं। एक नए डरबन की नींव डालती यह फसली कहानियां यह कौन सा दर्पण रच रही हैं?
दलित विमर्श ज़रूरी है। पर क्या ऐसे और इसी तरह? इन्हीं खोखली कहानियों से, और इन कहानियों में इस्तेमाल जंग लगे इन्हीं औज़ारों से?
सरोकारनामा

दयानंद पांडेय

दयानंद पांडेय ,लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नही पर प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह 'एक जीनियस की विवादास्पद मौत' पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब 'माई आइडल्स' का हिंदी अनुवाद 'मेरे प्रिय खिलाड़ी' नाम से प्रकाशित। उनका ब्लाग है- सरोकारनामा

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