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Saturday, May 5, 2012

बिखरता जा रहा है बुनियादी बदलाव का एक बड़ा आंदोलन

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बिखरता जा रहा है बुनियादी बदलाव का एक बड़ा आंदोलन

बिखरता जा रहा है बुनियादी बदलाव का एक बड़ा आंदोलन

By  | May 5, 2012 at 10:45 am | No comments | मुद्दा

 

  • वामपंथी अराजकतावाद का शिकार हो गया है माओवाद
  • माओवादी आंदोलन में राजनीति पर बंदूक हावी हो गई है

आनंद प्रधान

माओवादियों द्वारा पहले उडीशा में बी.जे.डी विधायक झीना हिकाका और दो इतालवी पर्यटकों और फिर छत्तीसगढ़ में सुकमा के कलक्टर अलेक्स पाल मेनन के अपहरण और उन्हें बंधक बनाए जाने की घटनाओं से एक बार फिर साफ़ हो गया है कि माओवादी आंदोलन न सिर्फ भारतीय राज्य के साथ एक अंतहीन सैन्य घिसाव-थकाव की लड़ाई में फंस गया है बल्कि उसकी राजनीति पर बंदूक पूरी तरह से हावी हो गई है.
माओवादी आंदोलन के पैरोकारों और उसके रोमांटिक समर्थकों को 'अपहरण-बंधक बनाने और राज्य सरकारों को समर्पण करने के लिए मजबूर करनेवाली' ये सैन्य कार्रवाइयों चाहे जितनी 'साहसिक, चमकदार और सफल' लगती हों लेकिन सच यह है कि इनमें सी.पी.आई (माओवादी) की हताशा, दिशाहीनता और बिखराव को साफ़ देखा जा सकता है.
खुद लेनिन ने लिखा है कि "अराजकतावाद हताशा की पैदाइश है." अफ़सोस की बात यह है कि माओवादी आंदोलन भी अराजकतावाद का शिकार हो गया है. तथ्य यह है कि पिछले तीन-चार वर्षों में भारतीय राज्य के साथ खुले-छिपे युद्ध में माओवादी आंदोलन को न सिर्फ भारी सैन्य नुकसान उठाना पड़ा है बल्कि राजनीतिक तौर भी उसकी स्थिति कमजोर हुई है.
आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ सालों में भारतीय राज्य द्वारा माओवादी आंदोलन को 'आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा' बताये जाने और उसके खिलाफ खुला युद्ध छेड दिए जाने के बाद से सी.पी.आई (माओवादी) के शीर्ष नेतृत्व के आधे से अधिक नेता या तो मारे गए हैं या पकड़ लिए गए हैं.
बढते राज्य दमन और हमले के कारण हालत यह हो गई है कि माओवादी पार्टी के विभिन्न राज्य और क्षेत्रीय इकाइयों के बीच संपर्क कमजोर हो गया है, पार्टी एक तरह से कई गुटों में बंट गई है, अलग-अलग इलाकों में सक्रिय पार्टी इकाइयों के बीच तालमेल नहीं है और वे स्वतंत्र इकाइयों की तरह काम करने लगी हैं, इससे आपसी प्रतिद्वंद्विता और खींचतान बढ़ी है, मनमानी और अराजक सैन्य कार्रवाइयां बढ़ी हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कारण माओवादी पार्टी कोई बड़ी राजनीतिक पहलकदमी लेने में नाकाम रही है.
नतीजा यह कि वह सिर्फ बचाव की लड़ाई लड़ रही है जिसमें जब-तब सुरक्षा बलों के खिलाफ गुरिल्ला सैन्य कार्रवाइयों को छोड़ दिया जाये तो पार्टी राजनीतिक रूप से कहीं दिखाई नहीं देती है. चाहे वह झारखंड हो या छत्तीसगढ़ या उडीशा या आंध्र प्रदेश- अपनी सक्रियता के सभी इलाकों में सी.पी.आई (माओवादी) अच्छे-खासे जनाधार के बावजूद राजनीतिक रूप से न सिर्फ हाशिए पर है बल्कि इन राज्यों/क्षेत्रों की राजनीति में उसका कोई हस्तक्षेप भी नहीं दिखाई देता है.

हैरानी की बात नहीं है कि उन सभी इलाकों में जहाँ माओवादियों का सबसे अधिक प्रभाव और सक्रियता है, कहते हैं कि वहाँ उनकी जनताना सरकार भी चलती है, वहाँ भाजपा और दूसरे शासकवर्गीय दलों का बोलबाला है.
माओवादियों के इस राजनीतिक हाशियाकरण की बड़ी वजह उनकी वैचारिक-रणनीतिक-कार्यनीतिक लाइन में निहित है जो देश में 'क्रांति और बदलाव' के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर आँख मूंदकर चल रहे हैं. लेकिन पिछले पचास वर्षों में दुनिया और भारत में राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक रूप से इतना बदलाव आया है कि माओवादियों की सशस्त्र क्रांति की लाइन मौजूदा दौर में आत्महत्या का पर्याय बन गई है.
खासकर जब वह लाइन जनता को गोलबंद करके उनकी फौरी और दूरगामी मांगों पर खुली राजनीतिक कार्रवाइयों में उतारने और राजनीतिक हस्तक्षेप का निषेध करती हो. इससे जनता के राजनीतिकरण, गोलबंदी और उसकी पहलकदमी खोलने का काम पीछे छूट गया है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रभाव के क्षेत्रों में खुद आम जनता की माओवादी गुरिल्लाओं के बंदूकों पर निर्भरता इस हद तक बढ़ गई है कि दमन की स्थिति में वह कोई राजनीतिक प्रतिरोध नहीं कर पाती है और माओवादी सैन्य दस्तों का इंतज़ार करती रह जाती है.
जनता की भूमिका मूकदर्शक और ज्यादातर मामलों में माओवादी सैन्य कार्रवाइयों के बाद जवाबी पुलिसिया जुल्म और दमन की मार झेलने तक सीमित हो जाती है. दूसरी ओर, राज्य दमन के प्रतिरोध में जवाबी सैन्य कार्रवाइयों का दबाव और आकर्षण बढ़ता जाता है. नतीजे में, माओवादी सैन्य दस्ते सुरक्षा बलों पर जवाबी हमले करते हैं और यह एक दुष्चक्र की तरह बन जाता है.
असल में, राज्य भी यही चाहता है कि यह लड़ाई उसके और माओवादी गुरिल्लाओं के बीच रहे और जनता इसमें मूकदर्शक बनी रहे. माओवादी राजनीति राज्य के इस ट्रैप में फंस गई है. इस तरह माओवादी आंदोलन सुरक्षा बलों के साथ घिसाव-थकाव की एक ऐसी लड़ाई में फंस गया है जहाँ बंदूक ही उसकी राजनीति की दिशा भी तय करने लगी है.

यह एक ऐसा राजनीतिक विचलन है जिसमें फंसने के बाद माओवादी आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन कम और सैन्य दस्ता अधिक लगता है जिसकी कमान राजनीति के बजाय बंदूक के हाथों में चली गई है. इसके कारण पूरा आंदोलन एक सैन्यवादी दलदल में फंस गया है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्याओं, जातिवादी नरसंहारों, अपहरण-फिरौती से लेकर ठेकेदारों-बड़ी कंपनियों से लेवी वसूल कर उन्हें प्राकृतिक और खनिज संसाधनों के दोहन की इजाजत देना है.
सवाल यह है कि जो माओवादी आंदोलन जंगलों और आदिवासी इलाकों में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा प्राकृतिक/खनिज संसाधनों की लूट और मनमाने दोहन को सबसे बड़ा मुद्दा बनाता है, वह उन्हीं कंपनियों को लेवी लेकर लूटने की छूट क्यों दे देता है?
यही नहीं, माओवादी आंदोलन में राजनीति के पीछे चले जाने का सबूत यह भी है कि वह अधिकांश मौकों पर उन शासकवर्गीय पार्टियों के लिए एक मोहरा भर बन जाता है जो उसका राजनीतिक-रणनीतिक इस्तेमाल करके किनारे छोड़ देते हैं. आंध्र प्रदेश में पहले चंद्रबाबू नायडू, फिर वाई एस राजशेखर रेड्डी ने, हाल में बंगाल में ममता बैनर्जी ने, बिहार में लालू प्रसाद ने चुनावों के दौरान उनका इस्तेमाल किया और बाद में उनके खिलाफ सैन्य आपरेशन शुरू करने में कोई हिचक नहीं दिखाई.
असल में, वाम आंदोलन में बंदूक के प्रति अति आकर्षण कोई नई बात नहीं है. लेकिन इसके साथ ही वाम राजनीति में बंदूक की भूमिका और उसकी शक्ति और सीमाओं को लेकर चलनेवाली बहसें भी बहुत पुरानी हैं. भारत में भी कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत से ही ये सवाल उठते रहे हैं. यहाँ तक कि भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों के बीच भी ये बहसें चलीं और भगत सिंह ने 'बम का दर्शन' शीर्षक लंबा लेख लिखकर स्थिति साफ़ की.
आज़ादी के बाद भी देश में क्रांति और बदलाव के रास्ते को लेकर ये बहसें जारी रहीं. वाम आंदोलन में इस सवाल पर विभाजन भी हुए और बंदूक का रास्ता पकड़नेवाले कई नक्सलवादी वाम दलों ने बंदूक के बजाय जनसंघर्षों और जन गोलबंदी की खुली राजनीति का रास्ता अपनाया जिनमें सी.पी.आई (एम.एल-लिबरेशन) प्रमुख है.

लेकिन माओवादी अभी भी हथियारबंद क्रांति की राह पर डटे हुए हैं. लेकिन बंदूक पर अति निर्भरता और राजनीति के पीछे चले जाने के कारण यह पूरा आंदोलन वामपंथी अराजकतावाद में फंस गया है. उसके विचलन साफ़ दिखाई दे रहे हैं.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि माओवादी आंदोलन में इसे लेकर कोई पुनर्विचार या बहस नहीं दिखाई दे रही है और बुनियादी बदलाव का एक बड़ा आंदोलन बिखरता जा रहा है. यह एक त्रासदी है लेकिन इसके लिए माओवादी खुद सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में प्रकाशित )

हार्डकोर वामपंथी छात्र राजनीति से पत्रकारिता में आये आनंद प्रधान का पत्रकारिता में भी महत्वपूर्ण स्थान है. छात्र राजनीति में रहकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में AISA के बैनर तले छात्र संघ अध्यक्ष बनकर इतिहास रचा. आजकल Indian Institute of Mass Communication में Associate Professor . पत्रकारों की एक पूरी पीढी उनसे शिक्षा लेकर पत्रकारिता को जनोन्मुखी बनाने में लगी है साभार--तीसरा रास्ता

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