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Wednesday, May 16, 2012

अगले राष्ट्रपति की तलाश में

अगले राष्ट्रपति की तलाश में


Tuesday, 15 May 2012 11:35

कुमार प्रशांत 
जनसत्ता 15 मई, 2012: देश देख रहा है और राजनीतिक दलों के लोग अगले राष्ट्रपति की जोड़-तोड़ में लगे हैं।

शरद पवार ने अपनी राजनीतिक अनुकूलता भांप कर कहा है कि अगला राष्ट्रपति गैर-राजनीतिक व्यक्तिहोना चाहिए तो मुलायम सिंह यादव ने अपनी संभावना जिंदा रखने की गरज से कहा कि अगला राष्ट्रपति सक्रिय राजनीतिक व्यक्तिही होना चाहिए। ममता बनर्जी, मायावती आदि की दिलचस्पी इसमें नहीं है कि राष्ट्रपति कौन बनता है, बल्कि इसमें है कि किसके बनने की प्रक्रिया में शरीक होकर वे ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सकती हैं। और फिर भारतीय जनता पार्टी है जिसके पास राष्ट्रपति बनने की योग्यता वाले कई नाम हैं, लेकिन उनमें एक भी ऐसा नहीं है कि जिसका नाम भी लेना कोई दूसरा चाहेगा। इसलिए वह भी दूसरों के पत्ते का इंतजार कर रही है। और संघ परिवार की जगजाहिर रणनीति के मुताबिक कई मुंह से, कई बातें हवा में छोड़ रही हैं। 
प्रणब मुखर्जी का नाम दूसरों की अपेक्षा ज्यादा चलाया जा रहा है, क्योंकि मोटे तौर पर ऐसी समझ बनी हुई है कि नेहरू-परिवार उन्हें नहीं चाहता है। तो इस मुद्दे पर कांग्रेस का अंतर्विरोध उभारने में जिनकी दिलचस्पी ज्यादा है, वे प्रणब दा का नाम उछाल रहे हैं। यह सच है कि प्रणब दा देश के सबसे पके राजनीतिक हैं और अपनी सरकारी जिम्मेवारियों के निर्वाह में उनसे कुशल दूसरा कोई मनमोहन सरकार में नहीं है। फिर, सभी राजनीतिक दलों में प्रणब दा को चाहने और मानने वाले लोग हैं। लंबी राजनीतिक पारी खेलने के बाद प्रणब मुखर्जी उम्र की ऐसी अवस्था में पहुंच भी गए हैं कि अब राष्ट्रपति भवन में उन्हें आराम करने का मौका मिले तो किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए। 
लेकिन देश की जरूरत और हमारे पूरे राजनीतिक तंत्र की विफलता हमें जिस मुकाम पर पहुंचा रही है क्या उसमें हमें ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत है जो थक कर और चुक कर आराम करने की अवस्था में पहुंच गया है? महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के बाद जो कई खरी-खरी बातें कहीं थीं उनमें यह भी कहा था कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में तब्दील कर देना चाहिए। ऐसा कहने के पीछे उनके मन में दो बातें थीं- एक तो यह कि आजाद हिंदुस्तान को तामझाम और खर्चीले प्रतिमानों से स्वयं को अलग कर लेना चाहिए ताकि गरीब देश की मितव्ययिता में उसे अभिमान हो। 
दूसरी दृष्टि यह थी कि हमारा सबसे बड़ा सरकारी आदमी अपने ज्ञान, विवेक और व्यक्तित्व से हमारे बीच मान्य हो, न कि कुर्सी और उसके वैभव से। राष्ट्रपति की हैसियत उसके नैतिक वजन से तय हो और वह देश की अंतरात्मा का प्रहरी बन कर हमारे बीच खड़ा हो, ऐसा वे चाहते थे। इसलिए राष्ट्रपति भवन का क्या हो, यह भी उन्होंने हमें बताया था और यह भी कि राष्ट्रपति कौन हो। उन्होंने कहा था कि हमारा पहला राष्ट्रपति दलित समाज से आए और वह भी दलित महिला हो। उन्होंने चाहा था कि वह दलित महिला अपने चारित्र्य और पवित्रता के बल पर हमारा नेतृत्व करेगी।     
हमारे संविधान में भी राष्ट्रपति की परिकल्पना ऐसी ही है। अगर इन शब्दों में नहीं है तो भी उसके पीछे की आत्मा ऐसी ही है और अगर हम आत्मा को समझ लेते हैं तो शब्दों की सही खोज भी कर लेते हैं। हमारा सर्वोच्च न्यायालय जब संविधान की व्याख्या करता है तो दूसरा क्या करता है? उसने संविधान की आत्मा को जैसा समझा है, उसे शब्द देता है और हम उसकी रोशनी में आगे बढ़ते हैं।
इस वक्तदेश असमंजस, अनिर्णय और अविश्वास के तिराहे पर खड़ा है। संसदीय राजनीति अपने पतन की चरमावस्था पर पहुंच गई है। इसे या तो नवसंस्कार मिलेगा या यह बिखर जाएगी, ऐसा लग रहा है। यह खुद से खुद में कोई सुधार ला सकेगी, ऐसा लगता नहीं है। हमारे संविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सारी व्यवस्थाएं स्वायत्त भी हैं और परस्परावलंबित भी। कोई भी स्वयंभू नहीं है- संसद भी नहीं, न्यायपालिका भी नहीं और विधायिका भी नहीं। अपने-अपने दायरे में ये सर्वोच्च हैं तो दूसरी तरफ एक दूसरे से बंधी भी हैं और एक दूसरे पर अवलंबित भी। इसलिए यह संभव है और जरूरी भी कि जब इनमें से कोई, कहीं, कभी कमजोर पडेÞ, गिर पडेÞ तो दूसरी व्यवस्था स्थिति को संभाले और गिरे को उठने का, संभलने का मौका दे। आज संसदीय राजनीति का पतन चरम पर पहुंच गया है तो जरूरी है कि दूसरी संवैधानिक संस्थाएं दृढ़ता से, निष्पक्षता से और संविधान के प्रति ईमानदार रह कर स्थिति को संभालें और लोकतंत्र की गाड़ी को पटरी पर लौटने का मौका दें। 
मुझे लगता है आने वाले दिनों में राष्ट्रपति, न्यायपालिका और चुनाव आयोग को अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने का ऐतिहासिक मौका मिलने वाला है। आने वाले दिनों में ये तीनों मिल कर क्या करते हैं, इस पर ही निर्भर करेगा कि भारतीय लोकतंत्र किस दिशा में जाता है और कहां पहुंचता है। 
इसलिए हमारा अगला राष्ट्रपति कौन हो, यह सवाल बहुत महत्त्व का हो जाता है। इस वक्त शोभा का कोई पात्र हमारे काम का नहीं होगा, जैसा हमने पिछली बार किया था। यह भी शुभ नहीं होगा कि हम किसी मान्य टेक्नोक्रैट को इस जगह बिठा दें जिसकी कोई सामाजिक समझ या प्रतिबद्धता न हो। 

इस घड़ी में हमें संविधान का कोई मान्य भाष्यकार भी नहीं चाहिए और न चाहिए कोई मान्य दार्शनिक। इन सबकी हमारे लोकतंत्र में जगह भी है और जरूरत भी, लेकिन इस वक्त हमें ऐसे आदमी की जरूरत है जो   भारतीय लोक की आकांक्षाओं को समझता हो और हमारे तंत्र की जटिलताओं से वाकिफ हो। जो हमारे तंत्र को बता सके कि लोक को क्या चाहिए या और उसे पाने के लिए किस दिशा में हमें जाना होगा। 
इसका अर्थ यह नहीं कि इस वक्तहमें किसी स्वयंभू राष्ट्रपति की जरूरत है। पर हमें संविधान से मिली मर्यादा के भीतर अपनी जगह और भूमिका तलाशने वाला राष्ट्रपति चाहिए। न्यायपालिका में भी और चुनाव आयोग में भी हमें ऐसी ही भूमिका निभाने वाले आदमियों की जरूरत है। यह तिकड़ी अगर सही बैठ गई तो हम संसदीय लोकतंत्र की गाड़ी को वापस पटरी पर ला पाएंगे। राष्ट्रपति न्यायपालिका से बंधा होगा, चुनाव आयोग संविधान से बंधा होगा और न्यायपालिका संविधान की आत्मा को शब्द देने की अपनी जिम्मेवारी से बंधी होगी। सारी नजाकत इसमें ही है कि आप संविधान की आत्मा को किस तरह समझते और उसे क्या और कैसे शब्द देते हैं। 
एक पार्टी के खुदमुख्तार नेता और संसद में लंबी पारी खेल रहे सांसद ने अभी मुझसे पूरी गंभीरता से कहा कि चुनाव का एक ही आधार होता है- जाति! जाति छोड़ कर चुनाव न तो लड़ा जा सकता है और न जीता जा सकता है! और आप बताइए कि संविधान में कहां लिखा है कि जाति के आधार पर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए? जाति गैर-संवैधानिक नहीं है भाई! मैं सोचता ही रह गया कि इस भाई को संविधान पढ़ना कैसे सिखाया जाए और कैसे यह अहसास भी जगाया जाए कि संविधान में सब कुछ शब्दों में नहीं लिखा है, कुछ तो उसकी दिशा भी है न! उसे समझ कर, उसे शब्द देना ही सही राजनेता का काम है- अगर वह राजनेता है। जब वह ऐसा करना छोड़ देता है या जब ऐसा करने का बौद्धिक सामर्थ्य या ईमानदारी उसमें नहीं होती तब न्यायपालिका को आगे बढ़ कर सूत्र संभालना पड़ता है। 
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पटरी से उतर गई संसद से हमारी दुश्मनी नहीं है और न उसके प्रति हमारे मन में कोई खटका है। हमारी कोशिश तो उसे फिर से पोंछ-पांछ कर, पटरी पर खड़ा करने की ही है ताकि वह गाड़ी के साथ तालमेल बिठा कर दौड़ सके। वह दौड़ेगी तभी उसका विकास भी होगा। अभी वह हमारे समाज की सबसे गर्हित शक्तियों से गठजोड़ बिठा कर सांस ले रही है, क्योंकि वह दौड़ नहीं रही है। दौड़ने में जीवन भी है और दिशा खोजने की जरूरत भी तभी पड़ती है जब आप दौड़ते हैं। 
ऐसे किसी भी प्रसंग में आधारभूत बातों का जिक्र कर देना काफी माना जाता है। नाम देने की जरूरत नहीं समझी जाती है। लेकिन मुझे लगता है कि आज परिस्थिति की मांग है कि हम इस परिपाटी को छोड़ें और नाम के साथ आगे आएं। परिपाटी यह भी है कि आप जिसका नाम आगे करें, पहले उससे स्वीकृति ले लें ताकि वह भी और आप भी शर्मिंदा न हों। लेकिन मुझे लगता है कि ऐसी औपचारिकताओं के निर्वाह का भी एक वक्तहोता है। 
अभी तो वक्त है कि आप अपना सिर आगे करें तो हम कांटों से भरा यह ठीकरा आपके सिर पर फोड़ें। इसलिए इस बार, इस घड़ी में राष्ट्रपति बनने की योग्यता रखने वाला एक नाम मैं सुझाता हूं- ब्रह्मदेव शर्मा। अभी-अभी सुकमा के कलेक्टर को नक्सलियों के अपहरण से वापस लाने वाले बीडी शर्मा गहरे अनुभव वाले, भारत सरकार के उच्च प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं। उनकी कुशलता और ईमानदारी के बारे में कोई विपरीत टिप्पणी की ही नहीं जा सकती- उनके तरीकों से असहमति-सहमति की बात दूसरी है। वे भारतीय समाज के सबसे कमजोर, उपेक्षित और शोषित वर्ग के साथ एकाकार होकर अरसे से देश में काम कर रहे हैं। वे किसी राजनीतिक दल से जुडेÞ, बंधे नहीं हैं। 
सामाजिक न्याय और आर्थिक समता से अलग किसी दूसरे राजनीतिक दर्शन के वे हामी नहीं हैं। उनकी विद्वत्ता कई दूसरे तरह के विद्वानों से भारी पड़ती है। राष्ट्रप्रमुख की परिपक्वता भी उनमें है और बाजवक्त राज्यप्रमुख की भूमिका निभाने का साहस भी। वे भारतीय संविधान के अच्छे जानकार ही नहीं हैं, उसे सही शब्द देने की गहरी कुशलता भी उनमें है। 
हमारे लोकतंत्र की इस नाजुक घड़ी में वे हमारे सबसे अच्छे मार्गदर्शक कप्तान हो सकते हैं- बशर्ते कि हम उनसे यह अनुरोध करें और वे हमारा अनुरोध स्वीकार करें। हमारी दलीय राजनीति में कितनी दूरदृष्टि बची है और कितना लचीलापन शेष है, इसकी कसौटी भी हो जाएगी, अगर बीडी शर्मा का नाम हमारा कोई प्रमुख राजनीतिक दल आगे करता है।

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