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Friday, May 11, 2012

पूंजी का खेल समझना है तो दिनोंदिन अभेद्य होते जा रहे ममताराज का तिलिस्म देखिये !

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पूंजी का खेल समझना है तो दिनोंदिन अभेद्य होते जा रहे ममताराज का तिलिस्म देखिये !

पलाश विश्वास

पूंजी का खेल समझना हो तो बंगाल में दिनोंदिन अभेद्य होते जा रहे ममताराज का तिलिस्म को जरूर देखना चाहिए। कोलकाता के चप्पे चप्पे में विकास की ऐसी झांकियां सजने लगीं हैं कि आंखें चकाचौंध। कोलकाता और महानगरों में सर्वत्र मेट्रो और फ्लाईओवर निर्माणाधीन। सडकों से दूर दराज के एक एक इंच जमीन पर प्रोमोटरों बिल्डरों का कब्जा। तेजी से खत्म होते जारहे हैं मोहल्ले और निजी मकान। खत्म हो रहे हैं हाट बाजार। डायमंड हारबर से लेकर कल्याणी बारासात तक बहुमंजिली इमारतों और कंक्रीट का विस्तृत साम्राज्य। शापिंग माल और मल्टीप्लेक्स का अनंत नेटवर्क। हाईलैंड पार्क को दखकर कौन कह सकता है कि आस पास के तमाम इलाकों में कुछेक साल पहले कितने गांव थे और वहां रहने वाले लोग कहां गुम हो गये।ममता इस विकास की गति को और तेज करने के पिराक में हैं और उन्हें इसके लिए और पूंजी चाहिए। ममता के इस जुनून को प्रबल जनसमर्थन  है। लोगों को विकास दीख रहा है जो उन्हें पिछले ३४ सालों से नहीं दीख रहा था। ममता को बाजार का समर्थन है, चाहे वह आर्थिक सुधारों में अड़ंगा डालकर ही क्यों न अपने कार्यक्रम के लिए पूंजी जुटायें। ​​मार्क्सवादी दानव का वध करने वाली ममता के सात खून तो माफ हो ही सकते हैं। पर किसी भी तरह मार्क्सवादियों का पुनुरूत्थान नहीं होना चाहिए। बाकी जो लड़ाई है , वह सत्ता और उसके मुनाफे में हिस्सेदारी की लड़ाई है और उसके पीछे न कोई विचारधारा है और न आंदोलन। हिलेरिया की सवारी में बाजार के जश्न और कोलकाता और बंगाल की खामोश भागेदारी का रहस्य यही है।

भारत सरकार की नीतियां बदलने के लिए, भारत की विदेश नीति की दिशा बदलने और रीटेल एफडीआई जैसे अर्थ व्यवस्था की बुनियाद बदलने​ ​के लिए अमेरिका की विदेश मंत्री किसी राज्य के मुख्यमंत्री से क्यों बात करनी चाहिए और क्या यह भारत की एकता और अखंडता पर ​​ कुठाराघात नहीं है, जाहिर है मनमोहनसिंह, सोनिया गांधी और प्रणव मुखर्जी राजनीतिक बाध्यताओं के चलते ऐसे सवाल नहीं कर सकते। पर संसद में इस पर क्या किसी ने , क्या वामपंथियों ने भी कोई सवाल उठाये हैं? मीडिया में चर्चा हुई है? विपक्ष क्यों खामोश है? जाहिर है कि यह जो जनता है , वह ममता के तिलिस्म का ही पैरोकार है और खुले बाजार का समर्थक भी। महज राजनीतिक सौदेबाजी का खेल समझने की कृपया नादानी न करें, कृपया देखें कि बंगाल और ममता के प्रति बाजार, केंद्र और अमेरिकी अभूतपूर्व सहयोग के पीछे सत्ता के वर्चस्व का वही​ ​गणित है, जो लोक के पुरा ध्वंसावशेष से शुरी होता है और प्रतिरोध और जनांदोलन की हर संभावना की भ्रूणहत्या को तत्पर रहता है। हिलेरिया और दीदी की बातचीत के ब्यौरे को लेकर भी एक तिलिस्म गढ़ा गया है, राइटर्स और नई दिल्ली तक वर्चस्व के समीकरण में जनमत, राजनीति और राजनय को साधने के लिए। हिलेरिया पक्ष कहता है कि रीटेल एफडीआई से लेकर तीस्ता विवाद तक हर मुद्दे को छुआ गया है पर दीदी कहती हैं​​ कि इन मुद्दों पर बात ही नहीं हुई। गनीमत है कि बंगाल के अमेरिका के पार्टनर बनने की बात दीदी ने कबूल कर ली है क्योंकि यह विकास के तिलिस्म को मजबूत करती है। भारत अमेरिका के आतंक विरोधी युद्ध में में पार्टनर है, तो बंगाल की अमेरिका के साथ यह पार्टनरशिप क्या महज ​​वाणिज्यिक है या इसके गूढ़ अर्थ कुछ और है? मीडिया में बंगाल और अमेरिका की पार्टनरशिप की गहरी छानबीन तो क्या सूचनाएं तक नदारद हैं।
हिलेरिया के आने से पहले कोलकाता में परिवर्तन के साल भर में रवींद्र, विवेकानंद, नेताजी के देसी आइकनों को प्रोमोट करने का अभूतपूर्व काम ​ हुआ। पर फिर भी याद नहीं किये गये अस्पृश्य पुरखों को। नीलविद्रोह और अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन के पितामह, ब्राह्मणवाद विरोधी मतुआ ​​ आंदोलन के संस्थापक हरिचांद ठाकुर की दो सौवीं जयंती महज मतुआ अनुयायियों तक सीमित रही, मंजुल ठाकुर के ममता मंत्रिमंडल में होने के​​ बावजूद। हरिचांद ठाकुर अस्पृश्य चंडाल जाति के किसान परिवार में जनमे। उन्होंने किसान आंदोलन और समाज सुधार के जो कार्यक्रम शुरू किये, वे महाराष्ट्र में ज्योतिबा फूले के आंदोलन से पहले की बात है। धर्मांतरण के बदले ब्राह्माणवाद को खारिज करके मूलनिवासी अस्मिता का आंदोलन था यह, जिसमें शिक्षा के प्रसार और स्वाभिमान के अलावा जमीन पर किसानों के हक और स्त्री के अधिकारों की बातें प्रमुख थीं। हरिचांद ठाकुर के पुत्र गुरुचांद ठाकुर ने प्रसिद्ध चंडाल आंदोलन का नेतृत्व ​​किया, जिसके फलस्वरूप बाबा साहेब के अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन से पहले बंगाल में अस्पृस्यतामोचन कानून बन गया और चंडालों को नमोशूद्र कहा जाने लगा। इसी मतुआ धर्म के दो प्रमुख अनुयायी मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्र नाथ मंडल ने दलित मुसलिम एकता के​ ​ माध्यम से भारत में सबसे पहले न सिर्फ ब्राहमणवादी वर्चस्व को खत्म किया बल्कि जब बाबा साहब डा. अंबेडकर महाराष्ट्र से चुनाव हार गये, तब उन्हें बंगाल से जितवाकर संविधान सभा में भिजवाया। भारत विभाजन से पहले बंगाल की तीनों सरकारे मुसलमानों और अछूतों की ​​साझा सरकारें थीं।​ मतुआ अनुयायी जरूर हरिचांद ठाकुर की दो सौवीं जयंती मना रहे हैं, जिसमें बाकी बंगाल की कोई हिस्सेदारी नहीं है। ​​
जिस रवींद्र पर इतना हो हल्ला होता रहा देश विदेश में, जिस पर मौजूदा शिक्षा मंत्री नाट्यकार ब्रात्य बसु ने वामपंथ की हिटलरशाही का पर्दापाश करने वाला नाटक ब्रात्य जनेर रूद्ध संगीत लिखा, उन्हीं अछूत रवींद्र संगीत शिल्पी देवव्रत विश्वास की जन्म शताब्दी की चर्चा फेस बुक के वाल​ ​ तक सीमित हैं।चौराहों पर रवींद्रसंगीत बजाने का लोकप्रिय आयोजन वामपंथ के सशक्त प्रतिरोध का हथियार बना तो स्थानों और स्टेशनों के नाम बदले गये। लाल रंग को जहां संभव वहां मिटा दिया गया। भारत में कम्युनिस्ट विरोधी सांस्कृतिक आंदोलन के पुरोधा अज्ञेय पर उत्सव का आयोजन ​देश विख्यात वामपंथी बुद्धिजीवियों की सक्रिय हिस्सेदारी के साथ मनाया गया समारोह पूर्वक। लोग इसके लिए जनसत्ता संपादक ओम थानवी ​ को कोसते हुए थकते नहीं। पर अज्ञेय के नये सिरे से मूल्यांकन करके नये मोती चुगनेवाले नक्सलपंथी आलोचक मैनेजर पांडेय और अचानक अज्ञेय में तमाम साहित्यिक गुणों का आविष्कार कर लेने वाले वामपंथियों के पाखंड पर खामोश हैं। बाबा नागार्जुन की  जन्मशताब्दी पर कोलकाता में ऐसे​ आयोजन नहीं हुए, जबकि हिंदी और मैथिली के इस अप्रतिम कवि की जड़ें कोलकाता में हैं। ऐसी छोटी छोटी बेमिसाल कारीगरी से बना है ममता का यह तिलिस्म, जिसकी संघर्षगाथा अब हिलेरिया के सुपुर्द है।
पश्चिम बंगाल सरकार का खेल मंत्रालय सचिन तेंदुलकर को 100 अंतरराष्ट्रीय शतक लगाने की उपलब्धि पाने के लिए यहां 12 मई को कोलकाता नाइटराइडर्स और मुंबई इंडियंस के बीच होने वाले आईपीएल-5 मैच के दौरान सम्मानित करेगा। राज्य के खेल मंत्री मदन मित्रा ने बताया कि सचिन से इस बारे में बात हो गई है और उन्होंने कार्यक्रम के लिए सहमति दे दी है। मित्रा के अनुसार सचिन ने अपने जवाबी ईमेल में कह, 'मैं इस अवसर के प्रति आशावान हूं। मैं ऐतिहासिक ईडन गार्डंस में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के हाथों सम्मान पाकर गर्व महसूस कंरुगा।'
बंगाल में दीदी के समर्थक बम बम है कि पश्चिम बंगाल और राष्ट्रीय राजनीति के बाद अब अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर भी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी का कद बढ़ रहा है। हिलेरी से मुलाकात के बाद ममता ने कहा, हिलेरी क्लिंटन के साथ बातचीत सकारात्मक, रचनात्मक और ठोस रही। मुख्यमंत्री ने कहा, उन्होंने एक साझेदार राज्य के तौर पर बंगाल में निवेश की इच्छा जताई है। जाहिर है कि इस मुलाकात से जिस तरह उदारीकरण को तेज करने के लिए बेचैन मीडिया उत्साहित हुआ है और स्वयं ममता बनर्जी के करीबी नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इसके परिणामों में रुचि दिखाई है, वह बंगाल ही नहीं भारत के दूसरे राज्यों के लिए भी एक नजीर बन सकता है। चीन व बांग्लादेश के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का दिल्ली से पहले कोलकाता का दौरा कूटनीतिक मिशन का हिस्सा माना जा रहा है। इतना ही नहीं कोलकाता में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हिलेरी की बैठक और उससे पहले पाकिस्तान, ईरान, बांग्लादेश व भारत के अन्य पड़ोसी देशों को लेकर परिचर्चा के दौरान उनके द्वारा दिये गये बयान भी कहीं न कहीं पहले से ही एजेंडे में शामिल होने की ओर इशारा कर रहे हैं। हिलेरी ने ममता से मिलकर विदेश नीति में एक नई परंपरा डाल दी है। अमेरिका उन्हें पूर्वोन्मुखी विकास का सूत्रधार बनाना चाहता है और संभव है कि इसके लिए उनके मन में महत्वाकांक्षा जग गई हो। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की ताजा भारत यात्रा इसलिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस बार उन्होंने राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ मेल-मुलाकात करने के अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी भेंट की। उन्होंने ढाका के बाद कोलकाता आकर जिस तरह यह अपेक्षा जताई कि भारत और बांग्लादेश के बीच जल बंटवारे का मुद्दा सुलझे उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने यह बात कोलकाता में कही।  नई दिल्ली आने से पहले कोलकाता में क्लिंटन ने यह कहा कि भारत जैसे देशों पर ईरान से तेल का आयात घटाने के लिए दबाव बनाया जा रहा है, ताकि ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के लिए मजबूर हो जाए। हिलेरी ने ममता बनर्जी की जिस तरह से तारीफ की और उनसे मिलने की साध जताई, उससे लगता है कि अमेरिकी प्रशासन उन तमाम गांठों को खोलना चाहता है जहां पर उदारीकरण की प्रक्रिया अटकी हुई है। इस घटना से एक बात साफ है कि अब उदारीकरण को तेज करने के लिए इस तरह के प्रयास बढ़ेंगे. अमेरिका उन तमाम भारतीय नेताओं से संपर्क करने में परहेज नहीं करेगा जिनका रसूख है। यह अनायास नहीं है कि मोदी अब अमेरिका के लिए स्वीकार्य हो रहे हैं और टाइम पत्रिका की कवर स्टोरी बन रहे हैं। अमेरिका देख रहा है कि उदारीकरण के सफल मॉडल के रूप में काम करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था में क्षेत्रीय अड़चनें लगातार दिक्कत पैदा कर रही हैं।
अमेरिका लौटकर जाहिर है कि पूंजी की इस बेमिसाल जीत के जश्न का जिक्र करना नहीं भूलीं हिलेरिया। अपनी एशिया यात्रा समाप्त कर अमेरिका पहुंचते ही विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भारत में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जमकर तारीफ की। कोलकाता की अपनी यात्रा को अहम करार देते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा कि महिला होने के बावजूद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सफलतापूर्वक राज्य में वाममोर्चा के 34 वर्षों के शासन को समाप्त किया। गौरतलब है कि हिलेरी सात मई से तीन दिनों की भारत यात्रा पर आई थी और पहली बार किसी अमेरिकी विदेश मंत्री ने रायटर्स बिल्डिंग में मुख्यमंत्री के साथ बैठक की। टाइम पत्रिका में हिलेरी और ममता दोनों को दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में रखा गया है। न्यूयार्क वुमेन फाउंडेशन ब्रेकफास्ट में शताब्दी पुरस्कार ग्रहण करने के बाद अपने संबोधन में हिलेरी ने कोलकाता की अपनी यात्रा को उल्लेखनीय करार दिया। उन्होंने कहा कि मैं पिछले सप्ताह भारत के पूर्वी क्षेत्र पश्चिम बंगाल गई थी जहां मुक्षे दो उल्लेखनीय अनुभव हुए। पहला मैंने राज्य के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री से मुलाकात की जो एक महिला है और जिन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी बनाई और सफलतापूर्वक कम्यूनिस्ट पार्टी के लगभग 34 वर्षों से जारी शासन को समाप्त किया। वह अब राज्य के नौ करोड़ लोगों का प्रशासन देख रही हैं।
बंगाल में राजनीतिक सामाजिक तौर पर हमेशा शक्तिशाली रहे मध्यवर्ग का कायाकल्प हो गया है और निम्न मध्यवर्ग का वजूद ही मिट गया है।​ ​ दूसरी तरफ बांग्लादेश में सामाजिक ध्रूवीकरण के बावजूद, आर्थिक संसाधनों के सत्तावर्ग में समाहित हो जाने के बावजूद राजनीतिक और​ ​ सामाजिक, खासतौर पर सांस्कृतिक क्षेत्र में मध्यवर्ग की प्रबल उपस्थिति देखने लायक है। सीमा के आर पार बंगाली पहचान का यह द्वैत संक्रमणकाल चकित करनेवाला है और नहीं भी है। बंगाल जहां कोलकाता के वर्चस्व में अपनी पहचान खोता जा रहा है, वहां बांग्लादेश में लोक अब भी सर्व व्यापी है।दरअसल लोक का विलोप ही बंगाल और भारत का मुख्य संकट है, इसीको फोकस बनाने के लिए बांग्लादेश का यह शुरुआती दृष्टांत। हम लोग खुले बाजार के तिलिस्म में जी रहे हैं और इस तिलिस्म के टूटने के आसार नहीं है। बंगाल में सत्ता ब्राह्मण वर्चस्व का पर्याय है। इसके लोग इतने आदी हो गये हैं कि गैर ब्राह्मण​ मूल बंगाल की किसी को याद नहीं। इसे याद करने के दो उपाय हैं, या तो आप सीमापार बांग्लादेश को देखें या भारत भर में बिखेर दिया गया​ ​बहिष्कृत अछूत बंगाल। ब्राह्मणी वर्चस्व के नीचे दबे जिस बंगाल को आप बंगाल में खोज ही नहीं सकते। यहां उसका कोई अता पता नहीं मिलेगा। भारत विभाजन के फलस्वरूप जनसंख्या स्थानांतरण से बंगाल में जिस वर्चस्व की स्थापना हुई, विडंबना है कि मार्क्सवाद तो क्या माओवाद भी उसे तोड़ने के बजाय निरंतर मजबूत ही करता रहा, बहुजनों का अस्तित्व मिटाते हुए।
बाकी भारत में चूंकि सत्ता में भागेदारी और पहचान की राजनीति से इस हालात में थोड़े बहुत रददोबदल दीखते हैं कुछ पिछड़ी और अछूत मजबूत जातियों के उत्थान से, इसलिए लोगों को गलतफहमी है कि वर्चस्व का तिलिस्म वहां मौजूद ही नहीं है। आज वर्चस्व और पूंजी के दोहरे तिलिस्म में कैद बंगाल को समझे बगैर हम भारत को समझ ही नहीं सकते। गौर करने लायक है कि ग्यारहवीं सदी तक बंगाल बौद्धमय रहा है, शोष भारत में काफी पहले बौद्धदर्म के अवसान के बावजूद सेनवंश के शासन तक बंगाल में ब्राह्मण अनुपस्थित था। मनुस्मृति से बाहर जो बंगाल था उसका ब्राह्मणीकरण तेरहवीं सदी से शुरू हुआ और इस्लामी शासनकाल में वह निरंतर मजबूत होता रहा और नतीजतन बहिस्कृत जनसमुदायों का धर्मांतरण तेज होता रहा। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान आदिवासी और किसान विद्रोहों, चंडाल आंदोलनों से बंगाल में जो महाविस्फोट हुआ, उसी धमाके में आज की पहचान की विचारधाराओं और आंदोलनों का जन्म हुआ, इसे बाकी भारत भूल गया है। बंगाल की तो कोई स्मृति ही शेष नहीं रही। स्मृतियां मिटाने में बंगाली सत्तावर्ग को विशेषज्ञता हासिल है। कल तक प्रबल वामपंथी बंगाल का जो ममता के अवतार की​ ​ छत्रछाया में धूर दक्षिणपंथी कायाकल्प हो गया, वह इसे समझने के लिए एक अच्छा दृष्टांत है।​
हरिचांद ठाकुर के अश्पृश्यता मोचन आन्दोलन की वजह से १९२२ में बाबासाहेब के आन्दोलन से काफी पहले बंगाल में अंग्रेजों ने अस्पृश्यता निषिद्ध कर दी। बंगाल के किसान मूलनिवासी आंदोलन के खिलाफ सवर्ण समाज और नवजागरण के तमाम मसीहा लगातार अंग्रेजों का साथ देते रहे। बैरकपुर से १८५७ को महाविद्रोह की शुरुआत पर गर्व जताने वाले बंगाल के सत्तावर्ग ने तब अंग्रेजों का ही साथ दिया था। गुरूचांद ठाकुर ने कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के महात्मा गांधी की अपील को यह कहकर ठुकरा दिया था कि पहले सवर्ण अछूतों को अपना भाई मानकर गले तो लगा ले। आजादी से पहले बंगाल में बनी तीनों सरकारों के प्रधानमंत्री मुसलमान थे और मंत्रिमंडल में श्यामा हक मंत्रीसभा को छोड़कर दलित ही मंत्री थे। बंगाल अविभाजित होता तो सत्ता में आना तो दूर, ज्योति बसु, बुद्धदेव, विधान राय , सिद्धा्र्थ शंकर राय या ममता बनर्जी का कोई राजनीतिक वजूद ही नहीं होता। इसीलिए सवर्ण सत्ता के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा थी कि भारत का विभाजन हो या न हो, पर बंगाल का विभाजन होकर रहेगा। क्योंकि हम हिंदू समाज के धर्मांतरित तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं कर सकते। बंगाल से शुरू हुआ थ राष्ट्रीय दलित आन्दोलन , जिसके नेता अंबेडकर और जोगेन्द्र नाथ मंडल थे। बंगाल के अछूत मानते थे कि गोरों से सत्ता का हस्तान्तरण ब्राह्ममों को हुआ तो उनका सर्वनाश। मंडल ने साफ साफ कहा था कि स्वतन्त्र भारत में अछूतों का कोई भविष्य नहींहै। बंगाल का विभाजन हुआ। और पूर्वी बंगाल के दलित देश भर में बिखेर दिये गये। बंगाल से बाहर वे फिर भी बेहतर हालत में हैं। हालिए नागरिकता कानून पास होने के बाद ब्राह्मण प्रणव बुद्ध की अगुवाई में उनके विरुद्ध देश निकाला अभियान से पहले भारत के दूसरे राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों ने कभी किसी किस्म के भेदभाव की शिकायत नहीं की।
पर बंगाल में मूलनिवासी तमाम लोग अलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।
वामपंथी राज में क्या हाल थे। मैंने पहले ही लिखा है। आपको याद दिलाने के लिए वही पुरानी बाते उद्धृत कर रहा हूं:
राजनीतिक आरक्षण बेमतलब। पब्लिक को उल्लू बनाकर वोट बैंक की राजनीति में समानता मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। मीना – गुर्जर विवाद हो या फिर महिला आरक्षण विधायक, हिन्दूराष्ड्र हो या गांधीवाद समाजवाद या मार्क्सवाद माओवाद सत्तावर्ग का रंग बदलता है, चेहरा नहीं। विचारधाराएं अब धर्म की तरह अफीम है और सामाजिक संरचना जस का तस।
ये दावा करते रहे हैं की अस्पृश्यता अब अतीत की बात है। जात पांत और साम्प्रदायिकता , फासीवाद का केंद्र है नवजागरण से वंचित उत्तर भारत। इनका दावा था कि बंगाल में दलित आन्दोलन की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहां समाज तो पहले ही बदल गया है।

दरअसल कुछ भी नहीं बदला है। प्रगतिवाद और उदारता के बहाने मूलनिवासियों को गुलाम बनाकर ब्राह्मण तंत्र जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज है। बंगाल और केरल वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद की चपेट में हैं।

बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।

बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज २.८ प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज ३.४ प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३.६ प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। २.८ प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३.६ फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का ५.६ प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों के विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की क्या औकात है, इसे नीतिगत मामलों और विधायी कार्यवाहियों में समझा जासकता है। बंगाल में सारे महत्वपूर्ण विभाग या तो ब्राह्मणों के पास हैं या फिर कायस के पास। बाकी सिर्फ कोटा। ज्योति बसु मंत्रिमंडल और पिछली सरकार में शिक्षा मंत्री कान्ति विश्वास अनुसूचित जातियों के बड़े नेता हैं। उन्हें प्राथमिक शिक्षा मंत्रालय मिला हुआ था। जबकि उच्च शिक्षा मंत्रालय सत्य साधन चकत्रवर्ती के पास। नयी सरकार में कांति बाबू का पत्ता साफ हो गया। अनूसूचित चार मंत्रियों के पास गौरतलब कोई मंत्रालय नहीं है। इसीतरह उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना न होना बराबर है। रेज्जाक अली मोल्ला के पास भूमि राजस्व दफ्तर जैसा महत्वपूर्ण महकमा है। वे अपने इलाके में मुसलमान किसानों को तो बचा ही नहीं पाये, जबकि नन्दीग्राम में मुसलमान बहुल इलाके में माकपाई कहर के बबावजूद खामोश बने रहे। शहरी करण और औद्यौगीकरण के बहाने मुसलमाल किसानों का सर्वनाश रोकने के लिए वे अपनी जुबान तक खोलने की जुर्रत नहीं करते। दरअसल सवर्ण मंत्रियों विधायकों के अलावा बाकी तमाम तथाकथित जनप्रतिनिधियों की भूमिका हाथ उठाने के सिवाय कुछ भी नहीं है।

ऐसे में राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वोट के अलावा और क्या हासिल हो सकता है?

शरद यादव और राम विलास पासवान जैसे लोग उदाहरण हैं कि राजनीतिक आरक्षण का हश्र अंतत क्या होता है। १९७७ के बाद से हर रंग की सरकार में ये दोनों कोई न कोई सिद्धान्त बघारकर चिरकुट की तरह चिपक जाते हैं।

बंगाल के किसी सांसद या विधायक नें पूर्वी बंगाल के मूलनिवासी पुनवार्सित शरणार्थियों के देश निकाले के लिए तैयार नये नागरिकता कानून का विरोध नहीं किया है। हजारों लोग जेलों में सड़ रहे हैं। किसी ने खबर नहीं ली।

अब क्या फर्क पड़ता है कि है कि मुख्यमंत्री बुद्धबाबू रहे या फिर ममता बनर्जी? बंगाल के सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। जो नागरिक समाज और बुद्धिजीवी आज वामपंथ के खिलाफ खड़े हैं और नन्दीग्राम सिंगुर जनविद्रोह के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं, वे भी ब्राह्मण हितों के विरुद्ध एक लफ्ज नहीं बोलते। महाश्वेता देवी मूलनिवासी दलित शरणार्थियों के पक्ष में एक शब्द नहीं लिखती। हालांकि वे भी नन्दीग्राम जनविद्रोह को दलित आंदोलन बताती हैं। मीडिया में मुलनिवासी हक हकूक के लिए एक इंच जगह नहीं मिलती।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा कार्टून प्रसारित करने वाले प्रोफेसर की गिरफ्तारी की कार्रवाई पर उनके ही पार्टी के सांसद कबीर सुमन ने एक गाना बनाकर मजाक उड़ाया है। सुमन ने राज्य सरकार का मजाक उड़ाते हुए गाना लिखा है जिसके बोल हैं, "हंसी निये थाको" (लाइव विथ अ स्माइल)।

जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र द्वारा एक कार्टून प्रसारित करने पर ममता द्वारा की गई कार्रवाई की चौतरफा आलोचना हो रही है। बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग और आम आदमी में भी इस कदम के बाद अभिव्यक्ति को लेकर भय व्याप्त है। महापात्र ने यह साफ कर दिया था कि उन्होंने मजाक में इस कार्टून को अपने मित्रों के बीच साझा किया था।

कबीर सुमन के जादवपुर संसदीय क्षेत्र से ही सांसद हैं। उन्होंने लगातार ममता सरकार की आलोचना की है। इससे पहले ब्लॉग और गानों के जरिए लोगों के बीच अपनी बात रखते रहे हैं।

सुमन इस गाने में कहते हैं, "हंसी के साथ जियो। हंसते हुए जियो। दर्द में भी रहो तो बंगाल के लोग हंसते रहो। जब बच्चा पहली बार अपनी मां का दूध पीता है तो खुश होता है। हंसता है। वह उस हंसी का अर्थ समझता है। तुम्हें हंसने के लिए धम खर्च करने की जरूरत नहीं है। सभी आसानी से हंस सकते हैं।"

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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