Sunday, 06 May 2012 13:35 |
चंचल चौहान यह एक पवित्र उद्देश्य ही होता कि लेखक विचारधारा के आधार पर छुआछूत न बरतें, सौ तरह के फूलों को खिलने दें, मानव इतिहास अपने सौंदर्यबोध से गुलाब और धतूरे का फर्क कर लेगा। यह तो भारत की सांस्कृतिक परंपरा है कि 'वाद' से ही सत्य का जन्म होता है, इसलिए वाद से परहेज रखना भी स्वस्थ समाज की अवस्था नहीं माना जाएगा। दरअसल, ओम थानवी की टिप्पणी में व्यक्त नजरिया वही दोषपूर्ण नजरिया है, जो हमारे समाज के बहुत से बुद्धिजीवियों, संपादकों को सामंती परंपरा से मिला है और जिसके इस्तेमाल को आज विश्वपूंजीवाद की नई शक्ति यानी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी, बढ़ावा दे रही है। जनवादी लेखक संघ जम्हूरियत-पसंद संगठन होने की वजह से आलोचना पसंद करता है, आलोचनात्मक विवेक को बढ़ावा देता है और आलोचना करने का अधिकार भी रखता है। जो लेखक हमारे सांगठनिक और आयोजनात्मक कामों से जुड़े रहे हैं, वे इस बात के साक्षी हैं कि हम कड़वी से कड़वी आलोचना के विषपायी हैं, लेकिन आलोचना का आधार जरूर होना चाहिए। आजादी तो हम निराधार आलोचना को भी देते हैं, वह तो अभिव्यक्ति की आजादी है, जिसके लिए हिंदी-उर्दू के लेखकों ने मिल कर इतिहास के एक ऐसे दौर में इस संगठन की रचना की जब लेखक का लिखने का ही अधिकार खतरे में था, पत्रकारों का सत्यशोधक अखबारनवीसी का अधिकार भी खतरे में था। यह देख कर दुखभरा आश्चर्य होता है कि ओम थानवी जैसा संपादक अपनी टिप्पणी में संगठन को 'पार्टी का पोशीदा अखाड़ा' कह कर उसके प्रति अपनी हिकारत का इजहार करता है। क्या वे इतने अबोध हैं कि यह भी नहीं जानते कि कोई राजनीतिक पार्टी या अवाम के विभिन्न हिस्सों के संगठन सामाजिक विकास प्रक्रिया के दौरान ही वजूद में आते हैं, और बहुत से विलीन भी हो जाते हैं! ओम थानवी की लंबी टिप्पणी में एक पूरा पैरा संगठनों के बनने देने के लिए 'विचारवान' लेखकों को कसूरवार ठहराने पर केंद्रित किया गया है। वे लिखते हैं, 'प्रगति या जनगण की बात करने वाले अपनी ही विचारधारा के घेरे में गोलबंद होने लगे, इसके लिए खुद 'विचारवान' लेखक कम कसूरवार नहीं हैं'। ओम थानवी जैसे 'विचारवान' कम से कम अपराधी होने से तो बचे हैं, बाकी सारे तो अपराधी हैं, भई वाह! वे नहीं जानते कि मुक्तिबोध के 'अंधेरे में' कविता के वाचक ने ऐसे ही पत्रकारों को उस जुलूस में गोलबंद देखा था, जो मध्यवर्ग को संगठित सर्वहारा वर्ग से अलग रहने की सलाह देते थे। अगर ओम थानवी यह सोचते हैं कि वे गोलबंद नहीं हैं तो यह उनकी मिथ्या चेतना है। वर्गविभाजित समाज में कोई व्यक्ति खुद को सर्वस्वतंत्र और विचारवान मान कर अपना पक्ष या अपना 'अखाड़ा' छिपाए रहे, यह संभव नहीं। इसी मिथ्या चेतना के चलते उन्हें लेखक संगठनों के बनने और टूटने की प्रक्रिया का वैज्ञानिक आधार नहीं दिखाई देता। वे बस एक सरलीकरण से काम चला लेते हैं, कि 'पार्टी टूटी तो संघ के लेखक भी टूट गए'। पार्टी तो 1964 में टूटी थी, जबकि जनवादी लेखक संघ 1982 में बना, यही नहीं, भाकपा तो 1925 में बनी, प्रलेस 1936 में बना, नक्सलवादी तो 1970 से पहले ही अलग गुटों में विभाजित हो गए थे, उनके समांतर लेखक संगठन तो वजूद में नहीं आए। ओम थानवी इन सारे पेचीदा पचड़ों में जाने वाले 'विचारवान' संपादक नहीं हैं। बस जो हांक लग गई, सो उन्होंने लगा दी। उन्हें तो लेखकों को अपराधी ठहरा कर गालियां देनी थीं, सो दे लीं, दिल-दिमाग ठंडा कर लिया। उन्होंने लिखा, 'इन लेखक संघों ने अक्सर अपने मत के लेखकों को ऊंचा उठाने की कोशिश की है और दूसरों को गिराने की। ...इसी संकीर्णता की ताजा परिणति यह है कि कौन लेखक कहां जाए, कहां बैठे, क्या कहे, क्या सुने, इसका निर्णय भी अब लेखक संघ या सहमत विचारों वाले दूसरे लेखक करने लगे हैं।' यह कैसी खोजी पत्रकारिता है जो आधारहीन तर्कों से लेखक संघों को लांछित और इसलिए अवांछित करार दे रही है। 'ऊंचा उठाने' या नीचे गिराने जैसे कामों के आरोप संगठनों पर लगाना आधारहीन है। हां, लेखक संघ के सदस्य लेखकों को भी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है कि वे अपने आलोचनात्मक विवेक से किसी लेखक का कैसा आकलन करते हैं, संघों ने उन्हें कोई निर्देश नहीं दिए। जनवादी लेखक संघ का घोषणा-पत्र इस तरह की आलोचनात्मक बहुलता का आदर करता है, किसी तरह की संकीर्णता को प्रश्रय देने का नहीं।
(लेखक जनवादी लेखक संघ के महासचिव हैं) |
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