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Thursday, May 10, 2012

एक अच्‍छी चीज के पीछे खां म खां क्‍यों पड़ गये हैं आपलोग?

http://mohallalive.com/2012/05/10/jai-kaushal-react-on-worst-debate-about-satyamev-jayate/

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एक अच्‍छी चीज के पीछे खां म खां क्‍यों पड़ गये हैं आपलोग?

10 MAY 2012 7 COMMENTS

♦ जय कौशल


विवार (6 मई, 2012) को टीवी पर आमिर खान की मेजबानी में एक नया रीयलिटी शो शुरू हुआ – सत्यमेव जयते। सामाजिक मुद्दों को केंद्र में रख कर बनाया गया यह शो अबसे प्रत्येक रविवार को दूरदर्शन सहित स्टार प्लस चैनल पर देखा जा सकेगा। आमिर ने इस शो की तैयारी में देशभर में दूर-दराज की यात्राएं की हैं, कई गांवों में टीवी सेट लगवाये हैं ताकि वहां के लोग भी इस कार्यक्रम को देख सकें। इस बार का विषय "कन्या भ्रूण हत्या" था, जिस पर शो के दौरान न केवल इसके उत्पीड़न की शिकार कुछ माताओं से बात की गयी, बल्कि आंकड़ों के विश्लेषण के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं और आमजन के 'व्यू' भी लिये गये, पूर्व में किया गया एक 'स्टिंग ऑपरेशन' भी दिखाया गया ताकि इस समस्या की तह तक पहुंचा जा सके। जाहिर है, 'भ्रूण हत्या' जैसे बेहद संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण विषय पर एक-दो घंटे का कोई भी कार्यक्रम पर्याप्त नहीं हो सकता। खासकर तब, जब उसमें इतनी वैरायटी हो।

पहले दिन से ही विभिन्न न्यूज चैनलों और फेसबुक पर इसके पक्ष-विपक्ष में कई किस्म की राय देखने में आ रही हैं। यथा 'सत्यमेव जयते सामाजिक बदलाव के लिए नाकाफी है', 'समाज के पुरुषवादी नजरिये और चारों ओर स्त्री-विरोधी नीतियों के चलते ऐसे शो ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं', 'आमिर खान की यह एक नयी नौटंकी है', उन्होंने तीन करोड़ रुपये लेकर यह शो किया है, पैसे लेकर तो कोई कुछ भी बोल सकता है', 'इसकी भूमिका मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं 'है', 'यह एक एनजीओ टाइप शो है', 'कोई क्रांतिकारी आधार नहीं देता', 'इसमें मानसिकता के बदलाव की कोई मांग नहीं है', 'यह तो शहरी-इलीट-हिंदू-सवर्ण की समस्या है' आदि-आदि।

कभी-कभी मुझे लगता है कि कहीं हमारे अवचेतन में नकारात्मकता ने इस कदर घुसपैठ तो नहीं कर ली है कि अब किसी सदिच्छा या बेहतर उद्देश्य को लेकर कोई काम शुरू भी हो, तो हम उसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। कोसने लगते हैं।

रविवार के शो में आयीं तीनों महिलाओं ने जब अपने उत्पीड़न की दास्तान सुनायी, तो शायद कोई संवेदनशील मन ऐसा नहीं होगा, जो दु:खी न हो गया हो, रो न दिया हो। गौर करने की बात यह है कि उक्त तीनों महिलाएं मध्य-भारत की रहने वाली थीं। जिसे हम 'हिंदी पट्टी' भी कहते हैं। इसे चाहें तो पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के बजाय मध्य-भारत में सामंतवादी, पुरुषवादी स्थितियों की अधिकता से जोड़कर देख सकते हैं। क्या कारण है कि स्त्रियों (दलित भी) पर अत्याचार के जितने मामले हिंदी-पट्टी में होते हैं, उतने देश के अन्य हिस्सों में नहीं!

पूछना यह भी है कि जब 'बिग बॉस', 'राखी का स्वयंवर' 'द खान सिस्टर्स' और 'इमोशनल अत्याचार' जैसे रीयलिटी शो आते हैं, तब हमारे आलोचनात्मक विवेक को क्या हो जाता है? 'दबंग' जैसी वास्तव में नौटंकी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार दे दिया गया, जिसकी किसी सकारात्मक बदलाव में भूमिका नहीं है, तब हममें से कितनों से इसकी आलोचना की थी? सचिन तेंदुलकर, जो खेल के स्तर पर निस्‍संदेह हमारे राष्ट्रीय गौरव हैं, पर मैंने तो आज तक उन्हें किसी सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे पर टिप्पणी करते नहीं सुना, किंतु हम उनके राज्यसभा-सदस्य नामित होने पर गर्व से भर उठते हैं। रेखा, जो निस्‍सदेह बड़ी कलाकार रही हैं, पर उनकी सामाजिक बदलाव में पर्दे से बाहर क्या भूमिका है – शून्य। हम उनके राज्यसभा आने पर भी तालियां पीटते हैं। आखिर आमिर खान से इतनी समस्या क्यों? हमें उनके 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' में भाग लेने से दिक्कत थी, उनकी फिल्मों के पोस्टर तक फाड़े गये। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी मुद्दे पर उनके मंच पर आने से दिक्कत थी। उनके द्वारा 'अतिथि देवो भव' के विज्ञापन करने पर भी हमें उन पर विश्वास नहीं हुआ। 'रंग दे बसंती', 'मंगल पांडे' और 'तारे जमीन पर' जैसी गंभीर फिल्में आयीं, तो भी हममें से कुछ ने उसे नौटंकी ही माना। अब 'सत्यमेव जयते' शक के घेरे में है।

असल में, साहित्य और कला जैसे माध्यम हमारे मन में उठ रही सकारात्मक विद्रोह की चिंगारी को बढ़ाने का काम करते हैं। हमें सत्ता और व्यवस्था के संदर्भ में ज्यादा जागरूक और अधिक मानवीय बनाने का प्रयास करते हैं और हम हैं कि इनसे कुछ ज्यादा ही मांग करने लगते हैं। 'सत्यमेव जयते' जैसे कार्यक्रम को सामाजिक दृष्टि से ऊंट के मुंह में जीरा कहना, कोई क्रांतिकारी आधार न देने वाला बताना, इसी तरह की अतिरंजित मांगें हैं। एक मत यह भी आया कि इस कार्यक्रम में 'फास्ट-ट्रैक कोर्ट' बनाने की मांग की गयी है, न कि समाज की मानसिकता में बदलाव की। पता नहीं ऐसे आलोचकों के लिए 'बिट्वीन द लाइन्स' का क्या मतलब होता है, वे ही जानें।

ये सिर्फ 'शहरी-इलीट-हिंदू-सवर्ण' समस्या-भर नहीं है, ऐसा मानने से पहले समाज में पुरुषवाद, वंशवाद और सामंतवाद से इस समस्या का गहरा जुड़ाव समझ लेना जरूरी है। साथ ही, स्त्री के प्रति उत्पीड़न की पाशविक मानसिकता को भी। फिर चाहे वह किसी जाति, वर्ग की हो। संभव है, आंकड़ों में दलित और ओबीसी वर्गों में यह समस्या उतनी तथ्यात्मक न मिलती हो, तो क्या इसकी गंभीरता कम हो जाती है? बल्कि मैं तो राजस्थान और हरियाणा के ऐसे अनेक दलित और ओबीसी परिवारों से परिचित रहा हूं, जिनके यहां एक अदद बेटे की चाह में बार-बार गर्भपात कराये गये हैं, कमोबेश आज भी जारी हैं। अगर कभी-कभार समय पर ऐसा नहीं हो पाया, तो ऐसे परिवारों में पैदा हुई बेटियों की कदम-कदम पर नारकीय दशा देखने लायक होती है। भ्रूण-हत्या से किसी तरह बच गयी बेटियों की जीवन-स्थितियों पर विचार भी स्त्रियों से जुड़ी समस्या ही है, जो केवल 'शहरी-इलीट-हिंदू-सवर्णों' में नहीं है। बेटे की चाह में बेटी पर बेटी पैदा होते जाने से शायद 'जेंडर रेशियो' सुधरा हुआ लगे, पर इससे औरतों की समस्या खत्म नहीं हो जाती, बढ़ती ही है और न ही उनको 'कमोडिटी' मानने का रवैया बंद हो जाता है।

हां, मुझे इस मुद्दे पर आमिर द्वारा अलग से कोर्ट बनाने की मांग जरूर उतनी कारगर नहीं लगी। इस बार 'कन्या भ्रूण हत्या' का एक मुद्दा उठाया गया था, जिस पर कोर्ट की मांग हुई है, कल दूसरा मुद्दा आएगा, इस तरह कुल तेरह कोर्ट चाहिए, जो व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है। यद्यपि इस शो का असर भी सत्ता, प्रशासन और समाज में दिखाई देने लगा है। राजस्थान (जहां इस विषय को लेकर 'स्टिंग ऑपरेशन' किया गया था) की सरकार ने न केवल अपने यहां कोर्ट बनाने की मांग मान ली है और सुस्त पड़े केसों को मुस्तैदी से निपटाने की ओर संज्ञान लिया है, वरन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने स्वयं पहल कर आमिर से इस विषय पर मुलाकात की इच्छा जाहिर की है। हिंदी पट्टी सहित देश में अन्य जगहों पर भी 'कन्या भ्रूण हत्या' को लेकर भरपूर जागरूकता देखी जा रही है। बेहतर होगा कि हम 'संदेश का सकारात्मक असर देखें', इसे एक 'स्टार' द्वारा उठाया गया है, सिर्फ इसलिए आलोचना न करें।

खैर, इस पर ढेर सारे तर्कों-कुतर्कों के बीच ट्विटर पर किरण बेदी की लिखत काफी सार्थक लगी। उन्होंने लिखा, 'मैं आमिर के टेलीविजन कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते' को पूरे अंक देती हूं। यह बेहद रचनात्मक, साक्ष्य पर आधारित, भावनात्मक रूप से लोगों को जोड़ने वाला और प्रेरित करने वाला है।'

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(जय कौशल। हिंदी के प्राध्‍यापक। त्रिपुरा युनिवर्सिटी के हिंदी डिपार्टमेंट में हिंदी के असिस्‍टेंट प्रोफेसर। जवाहरलाल नेहरु विश्‍वविद्यालय से उच्‍च शिक्षा। अगरतला में रहते हैं। उनसे jaikaushal81@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


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