Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Saturday, January 14, 2012

मीडिया के नए मापदंड

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/5500-2011-12-03-05-02-08

Saturday, 03 December 2011 10:30

पुण्य प्रसून वाजपेयी 
जनसत्ता, 3 दिसंबर, 2011 : अपराध जगत की खबर देने वाला एक पत्रकार मारा गया। मारे गए पत्रकार को अपराध जगत की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। सरकारी गवाह एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अपराध जगत से जुड़ी खबरें तलाशते पत्रकार कब अपराध जगत के लिए काम करने लगे, यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है कि पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्वसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है, जब मीडिया की साख को लेकर सवाल और कोई नहीं, प्रेस परिषद उठा रही है। 
पत्रकार को पत्रकार होने या कहने से बचने के लिए मीडिया शब्द से ही हर कोई काम चला रहा है, जिसे संयोग से इस दौर में उद्योग मान लिया गया है। 'मीडिया इंडस्ट्री' शब्द का भी खुल कर प्रयोग किया जा रहा है। तो इस बारे में कुछ कहने से पहले जरा पत्रकारीय काम से संबंधित उस सवाल को समझ लें, जो मुंबई में 'मिड डे' के पत्रकार जे डे की हत्या के बाद 'एशियन एज' की पत्रकार जिग्ना वोरा की मकोका में गिरफ्तारी के बाद उठा है। पुलिस फाइलों में दर्ज टिप्पणियां बताती हैं कि जे डे की हत्या छोटा राजन ने इसलिए करवाई, क्योंकि जे डे उसके बारे में जानकारी एक दूसरे अपराध-सरगना दाऊद इब्राहिम को दे रहे थे। 'एशियन एज' की पत्रकार जिग्ना वोरा ने छोटा राजन को जे डे के बारे में फोन पर जानकारी इसलिए बिना हिचक दी, क्योंकि उसे अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने-दिखाने में अपना कद जे डे से भी बड़ा करना था। 
दरअसल, पत्रकारीय हुनर में कथित विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे उसका कद बड़ा माना जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाऊद इब्राहिम ने करवाया यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नों पर जे डे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ गया था। क्योंकि अपराध जगत के बारे में जानकारी रखने के मामले में जे डे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। उस खबर को देख कर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनीतिक तक सक्रिय हुए, क्योंकि सियासत के तार हर धंधे से, यहां तक कि अपराध जगत से भी कहीं न कहीं मुंबई में जुडेÞ हैं। यानी अपराध जगत से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिए क्या मायने रखती है और ऐसी खबरें बताने वाले पत्रकार की हैसियत क्या हो सकती है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 
ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को लाता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उस संस्थान या उन व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है? या फिर, यह अब के दौर में एक पत्रकारीय जरूरत है? 
अगर बारीकी से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है।  प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते हैं अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कॉरपोरेट घरानों की नई पहल की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार और कौन मंत्री बन सकता है इस बारे में पहले से जानकारी देने देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है जब वह सही होता है। 
मगर क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरें देते हैं वे उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता का नया मापदंड हो गया है। क्या यह संभावना खारिज की जा सकती है कि जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता किसी पत्रकार को खबर देती है तो सबसे पहले खबर पाने या लाने की उसकी विश्वसनीयता का लाभ न उठा रही हो। पत्रकार सत्ता के जरिए अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक न बना रहा हो। 
ये सारे सवाल इसलिए मौजूं हैं, क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि 'एशियन एज' की पत्रकार जिग्ना वोरा पर तो मकोका लग जाता है, क्योंकि अपराध जगतउस कानून के दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में शामिल किसी पत्रकार के खिलाफ कभी कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिए भी यह विशेषाधिकार है? 
दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते-निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। धीरे-धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागीदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है उसे आगे बढ़ाने में राजनीतिकों से लेकर कॉरपोरेट या अपने-अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। 
यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया कारोबार का सबसे चमकता हीरा माना जाता है। यहां हीरे


की परख खबरों से नहीं मीडिया कारोबार में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होती है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को भी मीडिया क्षेत्र में पूंजी लगाने   के लिए ललचाता है। 
हाल के दौर में समाचार चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिटफंड कंपनियों से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के समाचार चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही संदिग्ध तरीके से चलती है। मसलन, लाइसेंस पाने वालों की फेहरिस्त में वैसे भी हैं जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं। 
लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार की जो शर्तें पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिए हैं, उन्हें कोई पूरा करता है तो संबंधित धंधा कर सकता है। लेकिन ये परिस्थितियां कई सवाल भी खडेÞ करती हैं। मसलन, पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की गरज पर ही टिका है। फिर सरकार का भी कोई फर्ज है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बनाए-टिकाए रखने के लिए पत्रकारीय मिशन के अनुकूल कोई व्यवस्था करे। 
दरअसल, इस दौर में तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया, बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारों का कद महत्त्वपूर्ण बनाया गया जो सत्ता के अनुकूल हो या राजनेता के लाभ को खबर बना दे।
अखबार की दुनिया में पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन समाचार चैनलों में कैसे यह हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय समाचार चैनलों की होड़ को देखें तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है जिसकी स्क्रीन पर सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने-बताने के समांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का अहसास कराने की ही है। इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिए पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा। 
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया। अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड़ कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो, पैसा है तो काम करने का अपना आधारभूत ढांचा बनाओ, प्रतिद्वंद्वी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो, तो क्या होगा? ध्यान दीजिए, मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कॉरपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है! अगर नहीं हो सकती तो फिर चौथे खंभे का मतलब क्या है? सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कॉरपोरेट में क्या फर्क होगा? कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यों नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। 
मसलन, सरकार कौन-सी नीति ला रही है, मंत्रिमंडल की बैठक में किस मुद्दे पर चर्चा होनी है, ऊर्जा क्षेत्र हो या आधारभूत ढांचा या फिर संचार हो या खनन, सरकारी दस्तावेज अगर पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह न बता पाए कि सरकार किस कॉरपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा। जाहिर है, सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिए बेचैन किसी कॉरपोरेट घराने के लिए काम करने लगेगा। राजनीतिकों के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुंबई में पत्रकारों की एक बड़ी फौज मीडिया छोड़ कॉरपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिए दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी हुई है। 
ये परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया घराने की रफ्तार निजी कंपनी से होते हुए कॉरपोरेट बनने की दिशा पकड़ रही है। और पत्रकार होने का मतलब किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर अपने मीडिया घराने को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। ऐसे में प्रेस परिषद मीडिया को लेकर सवाल खड़े करती है तो चौथा खंभा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आने लगती है। मगर नई परिस्थितियों में संकट दोहरा है। 
सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त होते ही न्यायमूर्ति काटजू प्रेस परिषद के अध्यक्ष बन जाते हैं और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने-अपने मीडिया घरानों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की मशक्कत में जुटी संपादकों की फौज खुद का संगठन बना कर और मीडिया की नुमाइंदी का एलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिए प्रेस परिषद के तौर-तरीकों पर बहस शुरू कर देती है। 
ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के संदर्भ में मीडिया पर बहस हो। अगर नहीं, तो फिर आज 'एशियन एज' की जिग्ना वोरा कटघरे में हैं, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले की बिसात पर हैं तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे।

No comments:

Post a Comment