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तानाशाह कौन

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/6068-2011-12-09-05-33-51

Friday, 09 December 2011 11:02

अजेय कुमार 
जनसत्ता, 9 दिसंबर, 2011 : यूरोप, विशेषकर लंदन में लोग बिल्लियों से बहुत प्यार करते हैं। मध्यवर्गीय घरों में एक-दो बिल्लियां जरूर मिल जाती हैं। लंदन के बाजार में, दुर्भाग्यवश अगर कोई बिल्ली किसी गाड़ी के नीचे आ जाए और खुदा-न-खास्ता वह मर जाए तो अखबारों में तूफान मच जाता है। अखबार इस खबर से कई दिनों तक भरे रहते हैं कि बिल्ली कैसे मरी, ड्राइवर को पकड़ा गया या नहीं, बिल्ली को कौन-से अस्पताल ले जाया गया और वहां बिल्ली की खास चोट का विशेष इलाज करने की सुविधाएं थीं या नहीं। नहीं थीं तो क्यों नहीं थीं और जो लोग बिल्ली की मौत के लिए जिम्मेदार थे, उन्हें कोई सजा हुई या नहीं, आदि। 
पिछले दिनों अरब का एक और अमेरिका-विरोधी शासक नाटो की गोलियों का शिकार हुआ। दुनिया भर के मीडिया ने कहीं यह खबर नहीं छापी कि नाटो के हमले में न केवल कज्जाफी, बल्कि उनका एक पुत्र और तीन पोते भी मारे गए। हां, पहली खबर जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिखाई वह यह थी कि उनके शव को जूतों से मारा गया, उनके बाल खींचे गए, उनके शरीर को कमर तक नंगा किया गया और उसे मिस्रूता की गलियों में घुमाया गया। एक रिपोर्ट यह भी छपी कि उनके मृत शरीर को एक ऐसे चलते-फिरते रेफ्रिजरेटर में रख कर घुमाया गया जिसमें आर-पार सब दिखाई देता था।
इन सब खबरों का उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि वह इसी लायक था और इसीलिए उसका यह हश्र करना लीबियावासियों के लिए अत्यंत आवश्यक था। प्राय: सभी अंतरराष्ट्रीय अखबारों, 'गार्डियन' से लेकर 'डेली टेलीग्राफ' तक ने 21 अक्तूबर के अपने संस्करण में कज्जाफी की हत्या के एक दिन बाद खुशियों का इजहार किया। कुछ सुर्खियां इस तरह थीं- 'गंदे सीवर में कज्जाफी को गोलियों से भूना गया- चूहों को स्वादिष्ट भोजन मिला', 'दयाहीन तानाशाह पर कोई दया नहीं' आदि। 
यह सच है कि कज्जाफी कई अन्य तानाशाहों की तरह एक तानाशाह था। अपने कबीले का वह नेता था। कबीलों में प्राय: आपसी लड़ाइयां होती हैं। लीबिया के त्रिपोलीतानिया क्षेत्र में कर्नल कज्जाफी के कबीले का नाम ही 'कज्जाफी कबीला' था। ऐतिहासिक तौर पर तेल और प्राकृतिक गैस पर जिस कबीले का अधिकार हो जाता था, वही लीबिया की गद्दी पर बैठता था। प्रशासन में अपने कबीले के लोगों को प्राय: वरीयता दी जाती थी। चार दशकों तक कज्जाफी का एकछत्र शासन रहा। 'फाइनेंशियल टाइम्स' ने, जो प्राय: तर्कशील खबरों के लिए जाना जाता है, कज्जाफी के बारे में लिखा, 'एक ऐसा तानाशाह, जिसने अपनी जनता को गरीब बनाया'। लेकिन यह कहना सरासर झूठ है। 
कज्जाफी पर विचारधारा की दृष्टि से मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासर और उनके अरब राष्ट्रवाद का बहुत प्रभाव रहा। 1977 में कज्जाफी ने अपने कार्यक्रम की घोषणा की थी और उसका नाम रखा 'जमहीरिया', जिसे 'जनता का राज्य,' एक खास तरह के 'अरब समाजवाद' की संज्ञा दी गई। संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट ने स्वीकार किया है कि पूरे अफ्रीका में लीबिया में लोगों का जीवन-स्तर सबसे अच्छा है। वहां साक्षरता दर पंचानवे प्रतिशत है, औसत जीवन प्रत्याशा या संभावित आयु सत्तर वर्ष से ऊपर है और प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन 16500 डॉलर प्रतिवर्ष रहा है। 
हर लीबियावासी के लिए शिक्षा, आवास और स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त उपलब्ध हैं। हर लीबियावासी को शादी के वक्त नया जीवन शुरू करने के लिए पचास हजार डॉलर के बराबर राशि दी जाती है। जो आमदनी लीबिया राष्ट्र को तेल से प्राप्त होती है, उसमें से हर वर्ष पांच हजार डॉलर हर लीबियावासी के खाते में जमा कर दिए जाते हैं। 
कज्जाफी के शासनकाल के ये तमाम आंकडेÞ केवल संयुक्त राष्ट्र की मोटी-मोटी रिपोर्टों में कैद होकर रह जाते हैं, जिन्हें कोई नहीं पढ़ता। लेकिन 'द सन'- जिसे लंदन में पचास लाख लोग पढ़ते हैं- ने कज्जाफी  को 'दुनिया का सबसे खूंखार आतंकवादी', 'लीबिया का पागल कुत्ता' कह डाला और उसकी मौत के लिए ब्रिटेन के 'बहादुर सिपाहियों' की तारीफ की है जो नाटो हमले में शामिल थे। किसी अखबार ने यह नहीं लिखा कि लीबिया पर हमले में केवल कज्जाफी नहीं, पचास हजार से अधिक नागरिक भी मारे गए। 
इन सिपाहियों को 'बहादुर' कहना भी बड़ा विचित्र लगता है। जो सिपाही जमीन से कई मील ऊपर, एक सुरक्षित विमान से, बेकसूर नागरिकों पर बमबारी करते हैं और जिन्हें नागरिकों की तरफ से किसी भी पलटवार की कोई आशंका नहीं होती, उन्हें 'बहादुर' कहना कहां तक उचित है? आप उन्हें 'पेशेवर हत्यारे' कह सकते हैं, जो कि वे हैं, पर इसके लिए उन्हें इज्जत तो नहीं बख्शी जा सकती। अगर ऐसी बमबारी करना बहादुरी है तो हर कंप्यूटर गेम या वीडियो गेम खेलने वाला सात-आठ वर्ष का बच्चा भी उतना ही बहादुर है। कंप्यूटर द्वारा निर्धारित और संचालित बम-वर्षकों से बम गिराना क्या 'बहादुरी' है! 
प्रथम विश्वयुद्ध के समय सौ लोग मारे जाते थे तो उनमें पंचानवे सैनिक और पांच नागरिक होते थे। आज दस सैनिक मारे जाते हैं और नब्बे नागरिक। आज नागरिकों के साथ-साथ अस्पतालों, बिजलीघरों, रेडियो और टेलीविजन प्रसार तंत्रों को भी स्वाहा कर दिया जाता है। जो नागरिक जीवित बच जाते हैं, उन्हें भी जीवन की बुनियादी सहूलियतों से महीनों तक वंचित रहना पड़ता है।
आज


सवाल यह है कि वर्तमान वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों में 'तानाशाह' किसे कहा जाए। अमेरिका ने कई तानाशाहों का   समर्थन किया है, वह ईरान का शाह रहा हो या पाकिस्तान के तमाम फौजी शासक रहे हों। यानी कोई तानाशाह तब तक तानाशाह नहीं है जब तक वह अमेरिका द्वारा निर्धारित शर्तों को मानने से इनकार नहीं करता। ग्यारह सितंबर के हमले में जो अठारह या उन्नीस लोग शामिल थे, उनमें से पंद्रह सऊदी अरब से थे और सभी बेहद अमीर परिवारों से संबंधित थे। अमेरिका ने सऊदी अरब का बाल भी बांका नहीं किया। 
सद्दाम हुसैन अमेरिका के तत्कालीन रक्षा मंत्री रम्सफेल्ड और डिक चेनी का घनिष्ठ मित्र था, पर वह खुमैनी के खिलाफ था, इसलिए अमेरिका ने कुछ देर मित्रता निभाई। जब वह दौर निकल गया तो बदली हुई परिस्थिति में उसे फांसी पर लटका दिया गया। लीबिया में अमेरिका ने तमाम आतंकवादी गुटों और पूर्व राजा इदरिस के अनुयायियों की मदद की, सिर्फ इसलिए कि वे कज्जाफी के विरुद्ध थे। जो लोग वाइट हाउस या दस, डाउनिंग स्ट्रीट में बैठ कर तय करते हैं कि हमले के लिए किस राष्ट्र का नंबर कब लगना चाहिए, क्या वे लोग तानाशाह नहीं हैं? उन्हें क्या तानाशाह नहीं कहेंगे जिन्होंने अपनी वेबसाइट पर खुलेआम घोषणा कर रखी है कि कोई भी ऐसा देश पनपने नहीं दिया जाएगा जो अमेरिका को सोवियत संघ जैसी टक्कर दे सके। 'आप या तो हमारे मित्र हैं या दुश्मन हैं', यह रवैया क्या तानाशाही भरा है? 
आज वे यह तय कर रहे हैं कि अब सीरिया से पहले निपटें या ईरान से। ईरान के बारे में मिथ्या अभियान लगभग पूर्वनियोजित ढंग से चल रहा है। आईएईए की रिपोर्ट प्रकाशित भी नहीं हुई थी कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने 'बेनाम पश्चिमी स्रोतों' के हवाले से ईरान के परमाणु-कार्यक्रम के बारे में कुछ नए रहस्योद्घाटन प्रकाशित कर दिए। इससे होता यह है कि जब वास्तव में रिपोर्ट छप कर सामने आती है तो कोई व्यक्ति यह जहमत नहीं उठाता कि उसकी बारीकियों को जांचे-परखे। पहले प्रकाशित हुए नए रहस्योद्घाटन ही जेहन में रह जाते हैं। 2008 से जितनी भी आईएईए की रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं, उन सबका लब्बो-लुवाब एक ही है कि ईरान परमाणु हथियार बनाने में जुटा हुआ है।
इस बार की रिपोर्ट में नया तत्त्व यह जोड़ा गया है कि सैटेलाइट द्वारा तेहरान के नजदीक पार्चिन में एक बस के आकार के बड़े-से कंटेनर की तस्वीरें मिली हैं जिनका इस्तेमाल, उनके अनुसार, विस्फोट-परीक्षण में किया जा सकता है। भूमिगत परीक्षण की सभी सुविधाओं के होते हुए ईरान जमीन के ऊपर पडेÞ कंटेनर का इस्तेमाल क्यों करेगा, यह कल्पनातीत है। असल में सवाल यहां यह है कि इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता कुछ भी हो, अमेरिका अगर तय कर ले कि हमला करना है तो वह किसी न किसी बहाने से करेगा। 
सीरिया और वहां का नेतृत्व, विशेषकर बशर-अल-असाद भी अमेरिका के निशाने पर हैं। वहां भी सैटेलाइट द्वारा खींची फोटो के आधार पर आईएईए ने बेनाम पश्चिमी हवालों से निष्कर्ष निकाला कि सीरिया में अल-हसकाह टेक्सटाइल फैक्ट्री का इस्तेमाल यूरेनियम-र्इंधन के प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के लिए हो रहा है। यह खबर जब बडेÞ-बड़े अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपी तो जर्मन पत्रकार पॉल-अंतोन क्रूगर को लिखना पड़ा कि यह टेक्सटाइल फैक्ट्री ही थी, और आज भी है, और साथ में जोड़ा कि 1980 के दशक के शुरू में इसे किस जर्मन इंजीनियर ने बनाया था। यह खंडन अखबारों के अंदर कहीं कोने में दब कर रह गया। 
आज बहस के लिए मुख्य मुद्दा यह होना चाहिए कि क्या चालीस करोड़ की आबादी वाले मध्य-पूर्व क्षेत्र में केवल साठ लाख की आबादी वाले देश इजराइल के पास ही नाभिकीय एकाधिकार होना चाहिए, सिर्फ इसलिए कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी ताकतें यही चाहती हैं। 
हैरानी की बात यह है कि जब एक आदमी दूसरे आदमी को पांव की जूती समझता है तो अधिकतर व्यक्तियों का खून खौलने लगता है, पर जब एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को पांव की जूती समझता है तो थोड़ी फुसफुसाहट के सिवा कुछ नहीं होता। इस दुनिया में वे तमाम लोग जो अपने-अपने देश से प्यार करते हैं और अपना भविष्य अपने हाथों से बनाने में विश्वास करते हैं, उन्हें मुअम्मर कज्जाफी की वसीयत के इन अंशों को ध्यान से पढ़ना चाहिए। यह वसीयत 'मंथली रिव्यू' के ताजा अंक में छपी है। इसमें लिखा है: ''दुनिया की आजाद जनता को हम यह बताना चाहेंगे कि अगर हम चाहते तो अपनी निजी हिफाजत और सुकून भरी जिंदगी के बदले अपने पवित्र उद्देश्य के साथ समझौता करके उसे बेच सकते थे। 
हमें इसके लिए कई प्रस्ताव मिले, लेकिन हमने अपने कर्तव्य और सम्मानपूर्ण पद के अनुरूप इस लड़ाई के हरावल दस्ते में रहना पसंद किया। अगर हम तुरंत जीत हासिल न भी कर पाएं तो भी, आने वाली पीढ़ियों को यह सीख दे जाएंगे कि अपनी कौम की हिफाजत करने के बजाय उसे नीलाम कर देना सबसे बड़ी गद्दारी है, जिसे इतिहास हमेशा याद रखेगा, भले ही दूसरे लोग इसकी कोई दूसरी ही कहानी गढ़ते और सुनाते रहें।''
मीडिया द्वारा झूठ के पहाड़ खड़े करने से सच को कुछ देर तक छुपाया जा सकता है, पर दुनिया का अवाम और खुद अमेरिका में मेहनतकश लोग साम्राज्यवादियों को चैन से नहीं बैठने देंगे।

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