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Fwd: भाषा,शिक्षा और रोज़गार



---------- Forwarded message ----------
From: भाषा,शिक्षा और रोज़गार <eduployment@gmail.com>
Date: 2011/5/28
Subject: भाषा,शिक्षा और रोज़गार
To: palashbiswaskl@gmail.com


भाषा,शिक्षा और रोज़गार


राजस्थान के पॉलिटेक्निकःआधी पढ़ाई में पूरी परीक्षा

Posted: 27 May 2011 11:29 AM PDT

प्रदेश के विद्यार्थी तकनीकी शिक्षा में किस तरह दक्ष हो रहे हैं, इसकी बानगी पॉलीटेक्निक कॉलेजों में नजर आ रही है। यहां अधूरी पढ़ाई में ही पूरी परीक्षा होने वाली है। प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों की परीक्षा 30 मई से शुरू हो जाएगी, जबकि इन कॉलेजों में प्रवेश कार्यक्रम ही 29 जनवरी तक चले हैं। चार माह की पढ़ाई में विद्यार्थियों को पूरे साल की पढ़ाई की परीक्षा देनी होगी। नियम कहते हैं कि कम से कम 180 अध्यापन दिवस होने के बाद ही परीक्षा ली जा सकती है, लेकिन तकनीकी शिक्षा निदेशालय इन नियमों से इत्तेफाक नहीं रखता।
प्रदेश में यह हुआ

तकनीकी शिक्षा निदेशालय ने विधानसभा के एक सवाल में दिए जवाब में 29 जनवरी तक प्रवेश होना स्वीकार किया है। ऎसे में यदि एक फरवरी से भी पढ़ाई शुरू होना मानें तो चार माह में 120 दिन ही होते हैं। इन 120 दिवसों में एक सप्ताह खेल प्रतियोगिताएं भी हुई व एक सप्ताह सांस्कृतिक आयोजन भी हुए। दो सप्ताह सामान्य परीक्षाएं भी हुई, जो हर कॉलेज को करवानी होती है। शेष 90 दिनों में से सार्वजनिक अवकाश निकाल दें तो 70 दिन भी पढ़ाई नहीं हुई और परीक्षा पूरे साल की ली जा रही है।
यह है नियम
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) के नियमों के अनुसार पॉलीटेक्निक कॉलेजों में प्रथम वर्ष में वार्षिक मूल्यांकन पद्धति लागू होती है, जिसके तहत कम से कम 180 अध्यापन दिवस होना जरूरी है। प्रथम वर्ष में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित, मैकेनिकल, इंजीनियरिंग ड्रॉइंग, कम्प्यूटर व वर्कशॉप की कक्षाएं लगती हैं।

इनकी टालमटोल
मैं एकेडमिक काम नहीं देखता। इस बारे में तकनीकी शिक्षा के ओएसडी साहब से बात करें। वे ही बता सकेंगे, परीक्षा कब से और क्यों ले रहे हैं।'
एस.के.श्रीमाली, उपशासन सचिव, तकनीकी शिक्षा
नियम तो 180 दिन का होता है, लेकिन इस बारे में कॉलेजों ने कुछ न कुछ कर लिया होगा। वैसे इस बारे में ज्यादा बेहतर तो डायरेक्टर साहब ही बता सकते हैं। वे ही परीक्षा और अन्य कार्यक्रम तय करते हैं।
आर.के. गुप्ता, विशेषाधिकारी, तकनीकी शिक्षा
पढ़ाई तो 180 दिन करवानी होती है। कॉलेजों को इस बारे में सूचना भी दे रखी है। प्रवेश 29 जनवरी तक भी हुए हैं, लेकिन एकेडमिक कलेण्डर पहले ही जारी कर दिया जाता है, इसलिए परीक्षा समय पर करवानी पड़ती है। वैसे कॉलेज वालों ने कुछ न कुछ करके कोर्स करवा लिया होगा।
एस.के. सिंह, निदेशक, तकनीकी शिक्षा

(प्रमोद मेवाड़ा,राजस्थान पत्रिका,कोटा,27.5.11)

अलीगढ़ की जामिया उर्दू संस्था ने बांट दी हजारों फर्जी अंकतालिका

Posted: 27 May 2011 11:20 AM PDT

अलीगढ़ की जामिया उर्दू संस्था ने फर्जी तरीके से एक साल में हजारों विद्यार्थियों को दसवीं और बारहवीं पास करा दी। राजस्थान बोर्ड की जांच में यह सनसनीखेज खुलासा हुआ है। लिहाजा इन हजारों विद्यार्थियों का राजस्थान के स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश अटक गया। लाखों रूपए की रकम डूबी सो अलग। बोर्ड ने जांच कराई तो पता लगा कि संस्था मानदंडों को पूरा नहीं कर रही। बोर्ड ने संस्था से संबंधित सभी अंकतालिकाओं को पात्रता देने से इनकार कर दिया है। साथ ही संस्था की मान्यता रद्द करने की सिफारिश भी की है।
बोर्ड प्रशासन को लम्बे अर्से से जामिया उर्दू के खिलाफ शिकायतें मिल रही थी। बोर्ड ने सहायक निदेशक अनिल शर्मा तथा रामस्वरूप मीणा से जांच कराई तो फर्जीवाड़ा खुल गया। अलीगढ़ में जामिया उर्दू नामक संस्था किसी भी तरह मानदंडों पर खरी नहीं उतरी। जांच रिपोर्ट के आधार पर अस्थायी रूप से अंकतालिकाओं की पात्रता रोक दी गई।
ऎसे हुआ खुलासा
पिछले एक साल दौरान बोर्ड में पात्रता के लिए जामिया उर्दू से जारी अंकतालिकाओं की बाढ़ आ गई। बोर्ड प्रशासन ने जांचा तो पता लगा कि एक साल में कई बार परिणाम निकल गया। कर्मचारियों ने उच्च अधिकारियों को जानकारी दी।
2004 में दी थी मान्यता

माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने वर्ष 2004 में जामिया उर्दू को अस्थायी मान्यता दी थी। जामिया उर्दू की अदीब को राजस्थान बोर्ड की माध्यमिक तथा अदीब माहिर को उच्च माध्यमिक कक्षा के बराबर माना गया। अब बोर्ड ने दोनों कक्षाओं को समान मानने से इनकार कर दिया है।

इनसे भी रहें सावधान
- बोर्ड प्रशासन के अनुसार वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा जारी प्रमाण-पत्रों को अमान्य समझा जाएगा। बोर्ड सन 1974 के पूर्व वाराणयेस संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा जारी प्रमाण-पत्रों को ही वैध मानता है। सन 1974 के बाद इस विश्वविद्यालय का नाम सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालयकर दिया गया।
- सेंट्रल बोर्ड ऑफ हायर एज्युकेशन तथा ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली स्थित सेंट्रल बोर्ड ऑफ हाई एज्युकेशन भी सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाएं नहीं हैं।
इनका कहना है 
जामिया उर्दू संस्था के खिलाफ लगातार शिकायतें मिल रही थी। उसकी मान्यता रद्द करने की सिफारिश की गई है।
-डॉ. सुभाष गर्ग, अध्यक्ष, बोर्ड
जामिया उर्दू के खिलाफ जांच कराई गई। संस्था मानदंड पूरा नहीं करती। बोर्ड अधिवेशन में मान्यता रद्द करने का प्रस्ताव रखा गया है। 
-मिरजू लाल शर्मा,सचिव, बोर्ड 
(भानुप्रताप गुर्जर,राजस्थान पत्रिका,अजमेर,27.5.11)

वाराणसीःअव्यवस्थाओं के बीच शुरू हुई मदरसा बोर्ड परीक्षा

Posted: 27 May 2011 11:10 AM PDT

अव्यवस्थाओं के बीच मदरसा बोर्ड की परीक्षाएं गुरुवार से शुरू हो गईं। पहले दिन की परीक्षा के दौरान बोर्ड की कई खामियां उजागर हो गई। कई परीक्षार्थी प्रवेश पत्र के चलते इम्तेहान नहीं दे पाए तो कई को प्रश्नपत्र ही गलत मिले। बोर्ड की इस लापरवाही का खामियाजा केंद्र व्यवस्थापकों को झेलना पड़ा। किसी तरह उन्होंने परीक्षाएं शुरू कराई। कुल नौ केंद्रों पर ३९१५ परीक्षार्थियों ने परीक्षा दी।
गुरुवार को उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड की परीक्षाएं दो पालियों में शुरू हुईं। जिले में कुल नौ परीक्षा केंद्र बनाए गए थे। सुबह से ही परीक्षा केंद्रों के पास परीक्षार्थियों को जमावड़ा लगना शुरू हो गया था। पहली पाली की परीक्षाएं सुबह आठ से ११ तथा दूसरी पाली की परीक्षाएं दोपहर २ः३० से शाम ५ः३० तक चलीं। परीक्षा में कुल ६८३ छात्र अनुपस्थित रहे। परीक्षा में बोर्ड की लापरवाही भी उजागर हुई। प्रवेश पत्र नहीं मिलने से कई परीक्षार्थी परीक्षा से वंचित रह गए। जबकि मदनपुरा के जामिया रहमानिया परीक्षा केंद्र पर कामिल और फाजिल के प्रथम वर्ष के परीक्षार्थियों को अंतिम वर्ष का प्रवेशपत्र मिला। इस बाबत जिला मदरसा शिक्षाधिकारी बिनोद जायसवाल ने बताया कि उन्हें बच्चों को प्रवेशपत्र नहीं मिलने की बाबत कोई जानकारी नहीं है। अगर ऐसा है तो इसकी जांच कराई जाएगी(अमर उजाला,वाराणसी,27.5.11)।

उत्तराखंडःसत्र शुरू हुए दो माह बीते, पुस्तकें नहीं मिलीं

Posted: 27 May 2011 11:00 AM PDT

राजकीय विद्यालयों में पठन-पाठन भगवान भरोसे है। नया शिक्षा सत्र प्रारंभ हुए दो माह बीत चुके हैं। इसके बावजूद कई स्कूलों में छात्र-छात्राओं को अब तक नि:शुल्क पाठ्य पुस्तकें नहीं मिल सकी हैं। शिक्षा मंत्री का कहना है कि प्रकाशन को लेकर विवाद के चलते देरी हो गई। उन्होंने कहा कि 24 जून तक हर हाल में स्कूलों में पुस्तकें पहुंच जाएंगी।

सरकारी स्कूलों में पढ़ाई चौपट हो गई है। दो माह से बच्चों को किताबें नहीं मिली हैं। लिहाजा वे स्कूल जाते हैं और घर लौट आते हैं। प्राथमिक शिक्षक संघ के जिलाध्यक्ष वीरेंद्र सिंह कृषाली का कहना है कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों का ध्यान केवल शिक्षकों के प्रशिक्षण और अन्य कार्यों पर है। लेकिन बच्चों को किताबें मुहैया कराने को लेकर कोई चिंता नहीं कर रहा। उन्होंने कहा कि पाठ्य पुस्तकों में देरी के लिए दोषी अधिकारियों का वेतन रोककर इनके खिलाफ प्रतिकूल प्रविष्ठि की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि स्कूलों में 25 जून तक किताबें न मिली तो संघ दो जुलाई से आंदोलन शुरू करेगा। 
इस संबंध में शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह बिष्ट ने कहा कि प्रकाशक के न्यायालय में चले जाने से पाठ्य पुस्तकें के वितरण में देरी हुई है। विभागीय अधिकारियों को 24 जून की डेडलाइन दी गई है। जिला शिक्षा अधिकारियों की जिम्मेदारी होगी कि हर हाल में 24 जून तक स्कूलों में किताबें पहुंच जाए(अमर उजाला,देहरादून,27.5.11)।

यूपीःएसईई के रिजल्ट सिर्फ एमटीयू को पता!

Posted: 27 May 2011 10:55 AM PDT

जब पूरे देश के मेधावी आईआईटी-जेईई के घोषित नतीजों के बाद सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग संस्थानों में प्रवेश के लिए जोड़-तोड़ बैठा रहे थे, तभी बुधवार शाम एकाएक महामाया प्राविधिक विश्वविद्यालय ने स्टेट एंटें्रस एग्जाम (एसईई) के नतीजे घोषित कर दिए। इससे पहले एमटीयू ने 30 मई के आस-पास रिजल्ट घोषित करने की संभावना व्यक्त की थी। बृहस्पतिवार सुबह जब एसईई की परीक्षा में शामिल अभ्यर्थियों ने रिजल्ट के लिए एमटीयू की वेबसाइट खोली तो रिजल्ट का पता ही नहीं चला। आम तो आम टॉपर छात्र-छात्राएं भी रिजल्ट न देख पाने के चलते अपनी कामयाबी पर बात करने से कतरा रहे थे।
एमटीयू ने अपनी वेबसाइट पर एसईई के रिजल्ट बुधवार आधी रात को अपलोड करने का दावा किया है। कुलपति, प्रवेश एवं परिणाम समन्वयक ने इसकी आधिकारिक घोषणा भी कर दी, लेकिन रिजल्ट क्या हैं यह अभी तक एमटीयू को ही पता है और जिनके लिए रिजल्ट घोषित किए गए हैं वह साइबर कैफे एवं इंटरनेट सेंटरों पर मारे-मारे घूम रहे हैं। एसईई के जरिए एमटीयू एवं जीबीटीयू से संबद्ध कॉलेजों के इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, फार्मेसी, ऑर्किटेक्चर, कंप्यूटर एप्लीकेशन आदि पाठ्यक्रमों में प्रवेश होने हैं। पिछले वर्षों तक प्रवेश प्रक्रिया जीबीटीयू कराता था और आज भी ४०० से अधिक कॉलेज इससे संबद्ध हैं। आश्चर्य की बात यह है कि गौतम बुद्ध प्राविधिक विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर एसईई रिजल्ट का कोई लिंक तक मौजूद नहीं है। एमटीयू की वेबसाइट सुबह खुल तो रही थी, लेकिन उस पर एसईई रिजल्ट का जो लिंक बना था वहां पर रिजल्ट की कोई जानकारी नहीं थी। अखबारों में खबर छपने के बाद वेबसाइट से जब रिजल्ट नहीं पता चला तो लोग इसकी जानकारी के लिए अखबारों के दफ्तरों में फोन घनघनाते रहे। शाम तक वेबसाइट भी खुलनी बंद हो गयी। स्थिति यह रही कि जो छात्र जीबीटीयू की टॉपर लिस्ट में शुमार है वह भी एमटीयू की वेबसाइट क्रैश कर जाने के चलते अपनी सफलता एवं रैंक को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं। एमबीए में ५वीं रैंक हासिल करने वाली शहर की अर्चना टंडन को जब उनके रैंक की जानकारी दी गयी तो उन्होंने बताया कि वह सुबह से ही वेबसाइट पर रिजल्ट देखने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन एमटीयू की वेबसाइट ही नहीं खुल रही है। जब तक वह खुद अपना रिजल्ट नहीं जांच लेती तब तक उन्हें इसका यकीन नहीं है। होटल मैनेजमेंट के टॉपर सौरभ मिश्र भी शाम तक एमबीए में अपनी रैंक जानने के लिए परेशान रहे। अभ्यर्थियों का आरोप है कि एमटीयू ने आईआईटी की देखा-देखी आनन-फानन में रिजल्ट तो घोषित कर दिया, लेकिन तैयारी पूरी नहीं की जिसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है(अमर उजाला,लखनऊ,27.5.11)।

उत्तराखंडःडीएवी में सीटों की संख्या 15 हजार करने का प्रस्ताव

Posted: 27 May 2011 10:40 AM PDT

डीएवी पीजी कालेज के शैक्षिक माहौल को सुधारने के लिए डीएवी प्रबंधन ने पहल की है। कालेज के छात्रों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रबंधन ने डीएवी कालेज की छात्र संख्या 15 हजार करने के लिए शासन से मांग की है। साथ ही संख्या ज्यादा होने पर सांध्यकालीन कक्षाओं के लिए भी अनुमति मांगी गई है। अगर सरकार से इसकी मंजूरी मिल जाती है तो न सिर्फ डीएवी की छवि सुधरेगी बल्कि पढ़ाई के प्रति गंभीर छात्र-छात्राएं ही रेगुलर कोर्स में एडमिशन ले पाएंगे।
राजधानी के पीजी कालेजों पर एडमिशन और अन्य शैक्षणिक गतिविधियों को लेकर शासन स्तर पर अब तक खास नियंत्रण नहीं रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से भी अघोषित तौर पर कालेजों को छूट मिलती रही है। इसके चलते न तो एडमिशन की संख्या तय रहती है, ना ही एडमिशन की अंतिम तिथि का ठीक से पालन होता है। इस अनियंत्रित स्थिति के गंभीर परिणाम इस वर्ष तब देखने को मिले, जब डीएवी कालेज ने विश्वविद्यालय की अनुमति के बिना खुद ही रोल नंबर देकर 32सौ छात्रों को परीक्षा में बिठा दिया। इस मामले को लेेकर उठे विवाद और विवि की तल्ख टिप्पणियों के बाद डीएवी प्रबंधन ने कालेज की छवि सुधारने का मन बना लिया है।

प्रबंधन ने शासन को पत्र लिखकर डीएवी पीजी कालेज की सीटों की संख्या साढ़े 12 हजार से बढ़ाकर 15 हजार करने की मांग की है। इससे अधिक छात्र संख्या होने की स्थिति में कालेज में सांध्यकालीन कक्षाएं शुरू करने की अनुमति भी मांगी गई है। 
डीएवी पीजी कालेज में फर्स्ट ईयर में छात्र संख्या
बीए प्रथम वर्ष- 1475
बीकॉम प्रथम वर्ष- 1200
बीएससी प्रथम वर्ष- 1200

उत्तर प्रदेश में 31 जुलाई तक होते हैं एडमिशन 
अगर उत्तर प्रदेश की तरह उत्तराखंड में भी पीजी कालेजों में एडमिशन की अंतिम तिथि निर्धारित हो जाए तो परीक्षा के दिन तक एडमिशन होते रहने पर लगाम लग जाएगा। डीएवी कालेज देहरादून और पीपीएन कालेज कानपुर के पूर्व प्राचार्य डॉ. अशोक कुमार का कहना है कि यूपी में 31 जुलाई एडमिशन की अंतिम तिथि निर्धारित है। उक्त तारीख तक छात्रसंख्या का ब्योरा उच्च शिक्षा एवं शासन को भेजना होता है। इसके बाद एडमिशन होने पर प्राचार्य और प्रबंधन दोषी माने जाते हैं। 

पहले भी हुआ था सांध्यकालीन कक्षाओं के लिए प्रयास 
करीब तीन वर्ष पूर्व डीएवी के तत्कालीन प्राचार्य डॉ. अशोक कुमार के समय में भी डीएवी प्रबंधन ने सांध्यकालीन कक्षाएं शुरू करने का प्रस्ताव शासन को भेजा था। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद से यह मामला ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था। 

1999 में विश्वविद्यालय स्तर गठित जांच समिति की आख्या के आधार पर कालेज में स्वीकृत छात्र संख्या करीब 12,480 है। इन 12 वर्षो में कालेज के इन्फ्रास्ट्रक्चर में काफी विकास हुआ है। इसलिए छात्र संख्या बढ़ाकर 15 हजार करने का आवेदन किया गया है। सांध्यकालीन कक्षाओं की भी अनुमति मांगी है। यदि शासन स्तर पर सीट निर्धारित हो जाए तो छात्रसंख्या को नियंत्रित किया जा सकता है। इससे कालेज की शैक्षिक व्यवस्था में भी सुधार होगा, साथ ही शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी की जा सकती है।
जागेंद्र स्वरूप सचिव डीएवी प्रबंध समिति
(अमर उजाला,देहरादून,27.5.11)

रांची विविःप्रशासन और छात्र आमने-सामने

Posted: 27 May 2011 10:30 AM PDT

स्नातक पार्ट टू में अब तक लगभग 300 परीक्षार्थियों की परीक्षा छूट गयी है. परीक्षा शुरू हुए एक सप्ताह हो गया. परीक्षा छूटने का सिलसिला जारी है. परीक्षा छूटने के लिए जिम्मेदार कौन है.
विश्वविद्यालय प्रशासन कह रहा है छात्रों की गलती के कारण परीक्षा छूट रही है. छात्र कह रहे हैं कि विश्वविद्यालय की गलती से उनकी परीक्षा छूट रही है. इधर परीक्षा छूटने का सिलसिला गुरुवार को भी जारी रहा. लगभग 40 छात्र विवि मुख्यालय पहुंचे. परीक्षा छूटने का आवेदन जमा किया.
- क्यों छूट रही परीक्षा -
परीक्षा छूटने का कारण समय में बदलाव है. विश्वविद्यालय ने पहले एक बजे से परीक्षा लेने की घोषणा की थी. गरमी व छात्रों की मांग को देखते हुए परीक्षा सुबह 8.30 बजे से कर दी गयी.
- तीन दिन पूर्व दी सूचना -
परीक्षा के समय में बदलाव की जानकारी परीक्षा शुरू होने से तीन दिन पूर्व दी गयी. विश्वविद्यालय ने इसके लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन दिया. सूचना के माध्यम से परीक्षा एक बजे के बदले सुबह 8.30 बजे से शु करने की बात कही गयी.
- अधर में लटकेगा भविष्य -

आनर्स पेपर की परीक्षा से वंचित छात्रों का एक वर्ष बरबाद हो सकता है. विवि प्रशासन ने परीक्षा लेने पर फिलहाल कोई निर्णय नहीं लिया है. मामले को परीक्षा बोर्ड में ले जाने की बात कही जा रही है. परीक्षा बोर्ड के निर्णय पर छात्रों का भविष्य तय होगा.

- परीक्षा लेने की प्रक्रिया -
पुनर्परीक्षा लेने के लिए विवि को लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा. प्रश्न पत्र सेटिंग, मॉडेरशन, प्रीटिंग, सेंटर का निर्धारण, परीक्षा व मूल्यांकन के बाद छात्रों का परीक्षाफल जारी होगा. पुनर्परीक्षा के लिए कम से कम एक से डेढ़ माह का समय लग जायेगा.
- एक माह पहले जारी हुआ था प्रोग्राम -
स्नातक पार्ट टू की परीक्षा 19 मई से शुरू हुई. परीक्षा का प्रोग्राम लगभग एक माह पूर्व जारी किया गया था. प्रोग्राम में परीक्षा एक बजे से लेने की बात कही गयी थी. परीक्षार्थी समाचार पत्रों से प्रोग्राम की कटिंग रख निश्चित हो गये कि परीक्षा एक बजे से होगी.
- अब तक छूट चुकी इन विषयों की परीक्षा -
परीक्षा शुरू होने से लेकर गुरुवार तक सभी दिन परीक्षा छूटी है. पहले तो एमआइएल की परीक्षा छूटी. विश्वविद्यालय ने एमआइएल की परीक्षा की तिथि घोषित कर दी. इसके बाद आनर्स पेपर की परीक्षा छूटने लगी. अब तक मानव शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, जनजातीय भाषा, इतिहास, हिंदी विषय की परीक्षा छूट चुकी है.
- प्रतिकुलपति प्रो वीपी शरण से सवाल-जवाब -
सवाल : परीक्षा छूटने के लिए जिम्मेदार कौन हैं.
जवाब : परीक्षा छूटने के लिए छात्र जिम्मेदार हैं. दस दिनों से परीक्षा हो रही है. 20 हजार में से 20 छात्रों की परीक्षा छूट रही है, तो इसके लिए विवि जिम्मेदार नहीं हो सकता. पहले एक पेपर की परीक्षा छूटी. अब वही छात्र दूसरे पेपर की परीक्षा भी छोड़ रहे हैं.
सवाल : समय बदलाव की जानकारी कब दी गयी.
जवाब : परीक्षा शुरू होने से पहले. समाचार पत्रों में विज्ञापन दिया गया. समाचार छपी.
सवाल : समय में बदलाव क्यों किया गया.
जवाब छात्रों की मांग व गरमी को देखते हुए.
सवाल : परीक्षा से वंचित परीक्षार्थियों का क्या होगा.
जवाब : एमआइएल व नन हिंदी की परीक्षा की तिथि घोषित कर दी गयी है. शेष विषयों पर परीक्षा का निर्णय बोर्ड की बैठक में लिया जायेगा.
- छात्र से बातचीत –
सवाल : परीक्षा क्यों छूट गयी.
जवाब : समय में बदलाव की जानकारी नहीं थी. परीक्षा केंद्र पर गये, तब पता चला कि परीक्षा के समय में बदलाव कर दिया गया है.
सवाल : समय में बदलाव की जानकारी क्यों नहीं मिली.
जवाब : प्रोग्राम में समय एक बजे से था. बाद में कोई जानकारी नहीं मिली. ग्रामीण क्षेत्र में सभी के घर में समाचार पत्र नहीं आता.
सवाल : कॉलेज की ओर से कोई सूचना दी गयी.
जवाब : नहीं, कॉलेज की ओर से कोई सूचना नहीं दी गयी. प्रवेश पत्र लेने गये, तब भी नहीं बताया गया(प्रभात खबर,रांची,27.5.11).

यूपीः३४५ विषय विशेषज्ञों की तैनाती में घपला

Posted: 27 May 2011 10:20 AM PDT

माध्यमिक शिक्षा विभाग से जुड़े प्रदेश के २१५ सहायता प्राप्त विद्यालयों में विषय विशेषज्ञों की तैनाती में भारी घोटाला सामने आया है। इन विद्यालयों में पहले से तैनात ३४५ विषय विशेषज्ञों को सत्र के बीच में हटाकर उनके स्थान पर चहेतों की भर्ती कर ली गई। सत्र के बीच में विषय विशेषज्ञों की भर्ती पर रोक के शासन के आदेश को दरकिनार कर प्रधानाचार्यों ने नियुक्ति की और बिल संस्तुत करने को भेज दिया। पहले से पढ़ा रहे शिक्षकों ने डीआईओएस, जेडी और माध्यमिक शिक्षा निदेशक से शिकायत की। जांच में भारी गड़बड़ी सामने आई। माध्यमिक शिक्षा निदेशक संजय मोहन ने इस मामले को गंभीरता से लिया और जिला विद्यालय निरीक्षकों से विषय विशेषज्ञों की तैनाती का अधिकार छीन लिया। नए आदेश के तहत संयुक्त शिक्षा निदेशक (जेडी) विषय विशेषज्ञों की तैनाती करेंगे। इसके अलावा सत्र के बीच में जिन विषय विशेषज्ञों को रखा गया, उनकी और पुराने शिक्षकों की फाइल तलब की है।
विषय विशेषज्ञों की तैनाती में घपलेबाजी मानदेय बढ़ने के बाद ही शुरू हो गई थी। मानदेय तीन गुना होने के साथ उनके नियमितीकरण की प्रक्रिया भी चल रही है। नियुक्ति को लेकर सबसे पहले विवाद सामने आया रायबरेली में। वहां जांच शुरू हुई तो इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, बलिया, आजमगढ़, कानपुर, झांसी, लखनऊ, आगरा, एटा, मथुरा, मेरठ, बाराबंकी, फैजाबाद, गोंडा, देवरिया समेत कई जिलों में गड़बड़ियों की शिकायत हुई। जांच में सामने आया कि २१५ विद्यालयों के प्रधानाचार्यों ने सितंबर से दिसंबर के बीच विषय विशेषज्ञों की तैनाती की, जबकि पहले से पढ़ाने वालों को बिना किसी समुचित कारण के हटा दिया। सत्र के बीच में बिना किसी गंभीर कारण के शिक्षकों को हटाने का नियम नहीं है। वह भी प्रधानाचार्य अपने स्तर से तो कतई नहीं हटा सकते। आरोप है कि इस मामले में अधिकारियों ने मोटी रकम वसूली। माध्यमिक शिक्षा निदेशक ने जेडी को विषय विशेषज्ञों की तैनाती का अधिकार देने के बाद कहा कि गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है(अमर उजाला,इलाहाबाद,27.5.11)।

झारखंडःसीबीएसइ 12वीं का रिजल्ट जारी, यहां देखें

Posted: 27 May 2011 10:10 AM PDT

बिहार-झारखंड जोन के सीबीएसइ स्कूलों की 12वीं कक्षा का रिजल्ट जारी कर दिया गया है.

सीबीएसइ की वेबसाइट पर छात्र अपना रोल कोड व रौल नंबर डाल कर रिजल्ट देख सकते हैं. यहां इस खबर के साथ ही रिजल्ट देखने के लिए सीबीएसइ का लिंक दिया गया है. इसके माध्यम से परीक्षार्थी अपना रिजल्ट जान सकते हैं. बिहार व झारखंड से इस बार 64,555 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी है. इनमें 44,208 छात्र व 20,347 छात्राएं हैं.बिहार-झारखंड के छात्रों का रिजल्ट पहली बार पटना से जारी हुआ है.
अपना रिजल्ट जानने के लिए यहां क्लिक करें(प्रभात खबर,रांची,27.5.11)

राजस्थानःइंटर साइंस में लड़कियों ने मारी बाजी

Posted: 27 May 2011 10:03 AM PDT

राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने शुक्रवार को 12 वीं के विज्ञान संकाय के नतीजे घोषित किए। बोर्ड के अध्यक्ष सुभाष गर्ग ने परीक्षा परिणाम घोषित किया। इस बार सफल छात्रों का प्रतिशत 85.42 रहा है। लड़कियों ने नतीजों में एक बार फिर बाजी मारी है। लड़कियों का सफलता प्रतिशत 91.68 रहा है जबकि लड़कों का सफलता प्रतिशत 83.51 रहा है।

मेरिट लिस्ट में प्रथम स्थान पर दो छात्र रहे हैं। गंगापुर सिटी की निधि अग्रवाल व सीकर के रवि चंचल मेरिट लिस्ट में पहले स्थान पर रहे हैं। दूसरे स्थान पर कोटा की शालिनी जबकि तीसरे स्थान पर जयपुर का अभिनव शेखर रहे हैं। प्रथम दस की वरीयता सूची में कुल 25 छात्र शामिल हैं। पिछले साल के मुकाबले परीक्षा परिणाम में 2 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है। इस साल परीक्षा में करीब एक लाख 19 हजार 983 छात्र बैठे थे(राजस्थान पत्रिका डॉटकॉम,अजमेर,27.5.11)।

क्रीमी लेयर के अभ्यर्थी का आईएएस में चयन नहीं

Posted: 27 May 2011 10:18 AM PDT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा क्रीमी लेयर के अभ्यर्थी को आरक्षण का लाभ न देने के फैसले को सही करार दिया है। कोर्ट ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण के उस आदेश को भी रद कर दिया जिसमें अभ्यर्थी को रैंक के अनुसार नियुक्ति देने को कहा गया था। कोर्ट ने कहा कि अभ्यर्थी राजेश कुमार के पिता शिव चरन राम यादव उत्तर प्रदेश में बिजली विभाग में अधिशासी अभियंता के पद पर तैनात हैं। उनकी वार्षिक आय एक लाख रुपये से अधिक है। इसलिए वे क्रीमी लेयर में आते हैं। यह आदेश न्यायमूर्ति सुनील अंबवानी और न्यायमूर्ति केएन पांडेय की खंडपीठ ने भारत संघ की ओर से दाखिल याचिका पर दिया है। याचिका के अनुसार राजेश कुमार पिछड़ा वर्ग आरक्षण कोटे के तहत सिविल सेवा परीक्षा में चयनित किया गया। रैंक के अनुसार उसे भारतीय पुलिस सेवा का काडर दिया गया। राजेश कुमार को एडीएम आजमगढ़ के प्रति हस्ताक्षर से तहसीलदार सगरी ने पिछड़ा वर्ग का प्रमाणपत्र जारी किया था। चयन के बाद निदेशक वैयक्तिक लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के वैयक्तिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने राजेश के क्रीमी लेयर में न होने के प्रमाणपत्र को अस्वीकार कर दिया था। न्यायालय ने इस निर्णय को सही करार दिया है(अमर उजाला,इलाहाबाद,27.5.11)।

कोचिंग की उपयोगिता

Posted: 27 May 2011 09:30 AM PDT

उच्च वर्ग हो या निम्नवर्गीय परिवार, सभी अपने बच्चों को कोचिंग दिलाने की कोशिश करते हैं। पहले दसवीं-बारहवीं में अच्छे अंकों से पास होने के लिए और फिर इंजीनियरिंग, मेडिकल, यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाबी के लिए। यही वजह है कि बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक में ट्यूशन और कोचिंग केंद्रों की भरमार हो गई है। आंकड़ों की बात करें तो आज सिर्फ आइआइटी कोचिंग का कारोबार ही दस हजार करोड़ रुपये से अधिक का हो गया है। बताते हैं कि सिर्फ बिहार की राजधानी पटना में ही यह एक हजार करोड़ रुपये का कारोबार हो चुका है। कुछ दशक पहले तक जब कोचिंग का इतना विस्तार नहीं था, उस समय पढ़ाई के दौरान कोई कठिनाई होने पर छात्र अपने वरिष्ठ साथियों या अध्यापकों से मशविरा कर उसे सुलझा लेते थे। इससे उन्हें न केवल अपनी पढ़ाई को सुचारु रूप से जारी रखने में मदद मिलती थी, बल्कि वे बेहतर प्रदर्शन करने में भी कामयाब होते थे, लेकिन अब ऐसी परंपरा लगभग खत्म होती जा रही है। हालांकि कुछ बड़े स्कूलों ने कमजोर छात्रों को अलग से पढ़ाने का प्रावधान कर रखा है, ताकि वे अन्य छात्रों के समकक्ष आ सकें। अधिकांश स्कूल ऐसा अपने परिणाम को बेहतर करने की कोशिश के चलते भी करते हैं, लेकिन ज्यादातर स्कूलों में अध्यापकों की कोशिश यही होती है कि स्टूडेंट्स उनसे व्यक्तिगत रूप से ट्यूशन लें। आजादी के बाद जब भारत में प्रथम श्रेणी की सरकारी नौकरियों के लिए प्रतियोगिता परीक्षाएं आरंभ हुई तो इसमें प्रतिभाशाली छात्र शामिल होते थे। अस्सी के दशक में इन परीक्षाओं के स्वरूप में बदलाव आया और उसी तर्ज पर राज्य लोक सेवा आयोगों द्वारा भी परीक्षाएं ली जाने लगीं। इसी दौरान परीक्षाओं की समुचित तैयारी कराने के लिए कोचिंग संस्थान सामने आए। नब्बे के दशक की शुरुआत से कोचिंग संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और कुछ ही सालों में हर छोटे-बड़े शहर में कोचिंग संस्थानों की बाढ़-सी आ गई। कोटा, दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, पटना जैसे शहरों ने तो इस मामले में खास पहचान बना ली। राजस्थान का कोटा शहर तो आज इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए पूरे देश में कहीं अधिक जाना जाता है, जहां कोचिंग ने एक उद्योग का रूप धारण कर लिया है। वैसे तो ट्यूशन और कोचिंग प्राथमिक कक्षाओं से ही आरंभ हो जाती है, लेकिन अगर संगठित कोचिंग की बात करें तो हमारे देश खासकर उत्तर भारत में दो तरह की कोचिंग कहीं ज्यादा लोकप्रिय है- एक दसवीं-बारहवीं तक की इंजीनियरिंग-मेडिकल व इसके समकक्ष प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी पर आधारित कोचिंग और दूसरी बारहवीं-स्नातक के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी पर आधारित। आमतौर पर आइएएस-पीसीएस जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग देने वाले लोग इस क्षेत्र के हताश-निराश लोग ही होते हैं, जो उम्र-सीमा खत्म हो जाने के बाद इसे पेशा बना लेते हैं। ऐसे लोग प्राय: किसी विषय के चुने हुए टॉपिक्स को कई साल तक रटते हैं और यही ज्ञान बांटते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं का पाठ्यक्रम निश्चित होता है, इसलिए ऐसी कोचिंग का लाभ भी विद्यार्थियों को मिल जाता है। स्कूलों में शिक्षकों द्वारा ट्यूशन या कोचिंग के लिए छात्रों पर दबाव बनाने के पीछे मुख्यत: उनकी पैसे की भूख ही मानी जा सकती है। स्कूल में छात्रों को सही तरीके से पढ़ाने का अपना कर्तव्य पूरा करने की बजाय अलग से पैसा देकर ट्यूशन या कोचिंग के लिए बाध्य करना नैतिक दृष्टि से कतई उचित नहीं माना जा सकता। जिन स्कूलों के शिक्षकों को संतोषजनक वेतन नहीं मिलता, उनके द्वारा ट्यूशन पढ़ाने की मजबूरी को तो समझा जा सकता है, लेकिन पर्याप्त वेतन पाने वाले सरकारी और पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों द्वारा ऐसा कृत्य किसी भी तरीके से उचित नहीं ठहराया जा सकता। कई बार तो ऐसा भी देखने में आता है कि कर्तव्य और नैतिकता को ताक पर रखकर अध्यापक खुद से ट्यूशन न पढ़ने वाले छात्रों को प्रताडि़त ही नहीं करते, बल्कि पूरी कक्षा के सामने उनकी किसी न किसी रूप में खिल्ली भी उड़ाते हैं। ऐसे अध्यापकों के कारण ही कोचिंग अब व्यवसाय बन गया है। उनके कर्तव्य पर महत्वाकांक्षा हावी हो गई है। हालांकि देश की विशाल आबादी को देखते हुए औरों के मुकाबले आगे निकलने के लिए ही अभिभावक अपने बच्चों को ट्यूशन या कोचिंग दिलाते हैं। भारत की तुलना में अमेरिका जैसे विकसित देशों में छात्र-अध्यापक का अनुपात काफी बेहतर है। साथ ही पढ़ाई की गुणवत्ता बेहतर होने के कारण वहां इस तरह हर किसी को कोचिंग की जरूरत नहीं होती। वहां वही सफल हो पाता है, जो ज्यादा से ज्यादा सही उत्तर देता है। आज करियर के तमाम विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद खासकर उत्तर भारत में आज भी इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे सेक्टर में कैरियर बनाने का जबर्दस्त क्रेज है। ऐसे में कुछ हजार सीटों की तुलना में हर साल लाखों छात्र-छात्राओं के शामिल होने से संबंधित प्रवेश परीक्षाओं में प्रतिस्पर्धा बेहद कठिन हो जाती है। चूंकि इन परीक्षाओं में बेहद कठिन प्रश्न भी होते हैं, इसलिए सफलता के लिए उन्हें अतिरिक्त ज्ञान की जरूरत होती है। स्तरीय कोचिंग संस्थान छात्रों को यही अतिरिक्त ज्ञान देने में मददगार साबित होते हैं, लेकिन लाभप्रद होने के कारण आज इसे एक अच्छा कारोबार माना जाने लगा है। यही कारण है कि सिर्फ बड़े ही नहीं, छोटे शहरों में भी कोचिंग संस्थानों की बाढ़ आ गई है। यह सही है कि कोचिंग से छात्रों को मदद मिलती है। आज भी कई ऐसे कोचिंग संस्थान हैं, जो व्यावसायिकता के बावजूद अपनी छवि के अनुरूप ईमानदारी से मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन ऐसे संस्थानों की भी कमी नहीं है, जो शुरुआत में सुस्ती बरतते हैं और बाद में कई-कई घंटे पढ़ाकर कोर्स पूरा करने की खानापूरी करते हैं। अक्सर ऐसी स्थिति में छात्रों को प्रश्न पूछने और अपनी जिज्ञासा शांत करने का मौका नहीं मिल पाता। ऐसा प्राय: उन कोचिंग संस्थानों के अध्यापक करते हैं, जो छात्रों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाते और प्रश्न के जवाब में यह कहकर टाल देते हैं कि यह कोर्स से बाहर का है और परीक्षा में नहीं पूछा जाएगा। गुरु का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह छात्र को न केवल सही मार्ग दिखाए, बल्कि उसके रास्ते में आने वाले रोड़े भी हटाए। यह विडंबना ही है कि अधिकांश कोचिंग में रटा-रटाया पैटर्न बना लिया जाता है और उसी पर छात्रों को भी चलाया जाता है। इससे छात्रों की प्रतिभा का विकास नहीं हो पाता। गुरु उन्हें मानसिक रूप से मजबूत नहीं बना पाते। स्कूल के अध्यापक हों या कोचिंग के, उन्हें अपने कर्तव्य के प्रति पूरी ईमानदारी निभानी चाहिए। समाज से मिल रहे आदर और सम्मान को देखते हुए उन्हें इसके लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए। वैसे स्वाध्याय पढ़ाई का सबसे अच्छा तरीका है। अगर बच्चों को पढ़ाई के लिए हर तरह की सुविधाएं दे दी जाएं तो फिर उन्हें किसी कोचिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।(अनुगता वाजपेयी,दैनिक जागरण,27.5.11)

प्राथमिक शिक्षा और बाल विकास

Posted: 27 May 2011 08:30 AM PDT

बाल मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि शिक्षा भावनात्मक, अन्वेषण और अनुभूति पर आधारित एक प्रक्रिया है जिसके लिए एक विशेष वातावरण आवश्यक है। इस वातावरण में बच्चों को स्वच्छंदता और आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए ताकि वे जो चाहें कर सकें और सीख सकें, अध्यापक व अभिभावक केवल दर्शक मात्र रहें और बच्चों को आवश्यकतानुसार सहायता व सहयोग करें।

विलफ्रेड पैलिटीयर ने लिखा है, "मैं एक ऐसे वातावरण में बढ़ा जहां बच्चों को स्वयं चीजों को देखकर, छूकर तथा उनसे खेलकर खोज करनी पड़ी और सीखना पड़ा। इस प्रक्रिया में आनंद, विस्मय और कुछ करने की अनूठी अनूभूति हुई - साथ-साथ अभिभावकों और अध्यापकों को भी हर्ष हुआ परंतु जब उन पर जानकारी व ज्ञान थोपा जाने लगा तो वहां से प्रतिबंधन का आभास प्रारंभ हुआ और सीखने के प्रति उदासीनता। प्रतिबंधन प्रतिभा को कुंठित करता है, ऐसा मनोवैज्ञानिक मानते हैं। पश्चिम बंगाल के बोलपुर में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने एक अनूठे संस्थान विश्वभारती की नींव डाली जहां विद्यार्थी प्राकृतिक वातावरण में स्वच्छंदता से रहते हुए प्रकृति से समरूपता का अनुभव करते हुए अपना ज्ञानवर्द्धन करते हैं। विश्वभारती विश्वविद्यालय आज जगत प्रसिद्ध है और यहां संसारभर से स्नातक आते हैं।

पुरातन काल में गुरुकुल परंपरा का आधार भी यही रहा होगा क्योंकि संपूर्ण व सर्वांगीण विकास के लिए एक ऐसा वातावरण व दिनचर्या का होना आवश्यक है जहां सामाजिक, राजनीतिक व अन्य उथल-पुथल से विद्यार्थी का मन प्रभावित न हो। आज के आवासीय पब्लिक स्कूल इसी परिपाटी के हिस्सा हैं।

आजादी के बाद भारत सरकार ने अनुच्छेद ४५ को पारित करते समय देश के ६-१४ वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य करने का प्रावधान किया था और संविधान में इसे प्राथमिकता प्रदान की गई थी। इसके बाद संसद ने ८६ वें संविधान संशोधन एक्ट २००२ में इसे बच्चों के मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकृति दी। मानव संसाधन विकास मंत्री ने पुनः इसे शिक्षा के अधिकार के रूप में दोहराया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पढ़े-लिखे लोगों का अनुपात जहां १९५१ में १८.३३ था, २००१ में बढ़कर ६४.८४ प्रतिशत हो गया। अनेक शिक्षा सुधार नीतियां बनीं, कार्यक्रम चलाए गए, जैसे १९८६ की नई शिक्षा नीति, १९९० में डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी), जिसके अंतर्गत १९९४-२००५ तक एक लाख आठ हजार स्कूल खोले जाने थे, १९९५ में बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करने के लिए मिड-डे मील यानी दोपहर के भोजन का प्रावधान किया पर विचारणीय है कि जिस देश में पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को सरकार ठीक न कर पा रही हो, वहां दूर-दराज के स्कूलों में बच्चों को कैसा खाना दिया जा रहा होगा। दुख का विषय यह है कि इन स्कूलों के भोजन में भी जात-पांत का भूत घुस गया है। २००१ में सर्वशिक्षा अभियान के साथ ७००० गैर सरकारी संस्थाएं भी इसमें जुड़ीं, कुछ का योगदान क्षणिक रूप से सराहनीय रहा। विश्व बैंक ने छह हजार लाख अमेरिकन डॉलर की मदद दी, प्रगति हुई पर क्या कारण है कि आज भी एक-तिहाई बच्चे स्कूल तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तथा जिन बच्चों के स्कूल में नाम लिखा भी दिए जाते हैं, उनमें से लगभग ४५ प्रतिशत स्कूल छोड़ जाते हैं। जाहिर है कि कोई कमी अवश्य है जिसके कारण बच्चों को स्कूल रास नहीं आता।

गांव की बात छोड़ दें, राजधानी दिल्ली व इसके समकक्ष अनेक बड़े शहरों पर भी यदि नजर डालें तो सरकारी प्राथमिक पाठशाला की दयनीय स्थिति किसी भी बच्चे को शिक्षा के प्रति उदासीन बना देगी। ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर स्कूलों की कल्पना एक पेड़ के नीचे जमीन पर पंक्ति में बैठी विभिन्न कक्षाएं धूल, धूप से लड़ती नजर आ जाएंगी। फिर कुछ स्कूल एक बड़े कमरे तथा आगे बरामदे वाले होंगे, जहां अपनी टाट-पट्टी ले जानी होगी, वहां विद्यार्थी बस्ते को आसन के रूप में प्रयोग करते नजर आएंगे। इन स्कूलों में दरवाजे व खिड़की नाम मात्र के ही देखने मे ंआते हैं। गांव के स्कूलों में बिजली, पानी, जन सुविधाएं, लाइब्रेरी टीवी, टेप रिकॉर्डर, रेडियो, खेल का सामान, खेल का मैदान, तैराकी का स्थान आदि की परिकल्पना तक नहीं की जा सकती है। यहां तक कि सही रेत की चौकोर खेलने की जगह, प्लास्टीसीन की जगह कुम्हार की मिट्टी, चित्रकला का कक्ष व सामग्री कुछ भी तो नहीं।

क्या किसी शिक्षा संस्थान व सरकार के अधिकारियों ने किसी ग्रामीण अंचल के बच्चों की प्रतिभा निहारने, निखारने, उबारने की सोची है? सरकारी शिक्षा संस्थाएं गर्मियों में पहाड़ों पर अध्यापकों के शिविर लगाती हैं। क्या कभी किसी गैर सरकारी व सरकारी संस्था को गर्मियों में ग्रामीण क्षेत्र में कोई शिविर लगाते देखा, सुना? क्या ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल टपकती छत व टूटे-फूटे ढांचे में ही चलते रहेंगे? क्या यही उनका भाग्य, भविष्य व अधिकार हैं? यदि नहीं तो इन बच्चों की यह उपेक्षा क्यों और कब तक? एक सत्य घटना याद आती है, बात १९६३ की है। पं. नेहरू छुट्टी मनाने कश्मीर गए थे। पहलगांव से लौटते समय नेहरू जी को एक स्कूल में बच्चों का कार्यक्रम देखना था। प्राकृतिक सौंदर्य के बीच पतली सड़क पर एक पहाड़ी मैदान से कारों का काफिला गुजर रहा था, अचानक सभी गाड़ियां रुक गईं, सुरक्षाकर्मी उतरकर खड़े हो गए। सभी अचंभे में थे, कुछ समझ न आ रहा था कि क्या हुआ। तब तक दिखाई दिया कि नेहरू जी एक ओर पैदल घास पर चले जा रहे हैं। सामने देखा तो एक पेड़ के नीचे कुछ बच्चे बैठे थे और एक व्यक्ति पत्थर पर। बात समझ में आ गई, बच्चों को देख चाचा नेहरू ने गाड़ियां रुकवाई हैं। वह बच्चों के पास पहुंच गए। बच्चे खड़े हो गए और विस्मित निगाहों से सभी आगंतुकों को देखने लगे। मास्टर जी घबरा रहे थे। उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि भारत के प्रधानमंत्री उनसे मिलने आएंगे या उनसे साक्षात्कार होगा।



इसके बाद सब लोग चश्मेशाही गेस्ट हाउस में वापस आ गए। ने हरू जी विचारमग्न थे और खिन्न। आते ही शिक्षा मंत्री को आदेश हुआ कि पेड़ के नीचे चल रहे स्कूल की बिल्डिंग,बच्चों व अध्यापकों के कपड़े,किताबें,कॉपियां और अन्य सामग्री दो दिन के अंदर मुहैया कराई जाएं। पंडित जी तो वहां फिर नहीं जा पाए,पर उनके प्राईवेट सेक्रेटरी के साथ मुझे जाने का अवसर मिला। टीन का स्कूल बन गया था,दो कमरे,बच्चों के बैठने के डेस्क,श्यामपट्ट,पोशाकें तथा बस्ते व मास्टरजी की मेज-कुर्सी। यह कहना कठिन है कि यह व्यवस्था अन्य स्कूलों में भी करवाई गई या नहीं। क्या आज किसी नेता के पास इतना समय है कि अपनी विदेश यात्राओं और उद्घाटन भाषणों में से कुछ समय निकाल कर कभी इन बच्चों के लिए कुछ करें और एक ऐसे स्कूल व वातावरण का निर्माण कर पाएं जो इनकी भावशून्य आंखों में ऐसी खुशी ला पाए जो वह अपने बच्चों के चेहरे पर रोज़ देखना चाहता है। काश ऐसा हो पाता!(राजीव गांधी के स्कूली शिक्षक श्री गोपाल गुप्त का यह आलेख आज नई दुनिया में प्रकाशित हुआ है)।

मधुमेह रोगी ट्रेन ड्राइवर नहीं होंगे अनफिट

Posted: 27 May 2011 08:15 AM PDT

ट्रेन ड्राइवरों को मधुमेह की श्रेणी बी का रोग होने पर अनफिट नहीं किया जाएगा। इस संबंध में रेलवे बोर्ड के अधिशासी निदेशक स्वास्थ्य डॉ. डीपी पांडे ने बुधवार को आदेश जारी कर दिया है। आदेश के मुताबिक टाइप दो के मधुमेह रोगी लोको पायलट जिनका ए-1 कैटेगरी का वार्षिक मेडिकल होता है, और उनका रोग दवा से नियंत्रित होता है। उनको अनफिट नहीं किया जाएगा बशर्ते वह प्रतिदिन दो ग्राम से अधिक दवा का सेवन न करते हो। हालांकि मधुमेह रोगी इन ड्राइवरों को वार्षिक मेडिकल के साथ नियमित तौर पर अपना उपचार लगातार कराते रहना होगा। आदेश के मुताबिक जो ड्राइवर पहले मधुमेह रोग के कारण अनफिट हो चुके हैं, उनका दोबारा मेडिकल नहीं होगा। इस आदेश से करीब एक लाख ड्राइवरों को राहत मिली है(दैनिक जागरण,लखनऊ,27.5.11)।

यूपीःशिक्षकों को नियमित करने में दोषी कौन?

Posted: 27 May 2011 08:00 AM PDT

दस्तावेजों में हेरफेर कर अंशकालिक से नियमित शिक्षक बनने के मामले में



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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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