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Monday, September 13, 2010

सुनो मृणाल वल्लरी, तुम कोयलनगर मत जाना!

सुनो मृणाल वल्लरी, तुम कोयलनगर मत जाना!

13 September 2010 33 Comments

http://mohallalive.com/2010/09/13/awesh-tiwari-react-on-mrinal-vallari-writeup-on-maoism/


♦ आवेश तिवारी


ग्रामीण महिलाओं के हाथ में मोहल्‍ला लाइव की कटिंग, जिसमें मृणाल वल्‍लरी का लेख है।

मृणाल वल्लरी, अब तुम कोयलनगर कभी मत जाना! क्‍योंकि सोमवारी अब मां नहीं बन सकती। मृणाल तुम बेलछ भी मत जाना, क्‍योंकि राधा अभी तक अपने शरीर और आत्मा पर लगे घावों की टीस से रो पड़ती है। तुम मुन्ना विश्वकर्मा, कमलेश और सैकड़ों उन जैसों की पत्नियों और प्रेमिकाओं से भी मत मिलना, जिन्हें पुलिस की गोली ने मौत की नींद सुला दिया। मृणाल, तुम दिल्ली में ही रहना और वहां से औरों की तरह, रोटी, पानी और जंगल के लिए लड़ रहे लोगों पर अपनी कलम की धार पैनी करके यूं ही लिखते रहना। हम और सभी कभी तुम्‍हें अखबार के पन्नों में तो कभी मोहल्ले में घूमते-टहलते देख कर दाद देते रहेंगे।

मृणाल, तुम्हारे लिए बबिता का संदेश मैं लाया हूं। तुम उसे नहीं जानती होगी, वो तुम्‍हें अब जानती है। बबिता ने अपने बच्चे को पैदा होने के बाद मिर्जापुर जेल में एक घड़े में बंद करके मार डाला था। उसका कहना था कि ये बच्चा उन पुलिस वालों का है, जो उससे उन माओवादियों के ठिकाने पूछती थी, जिन्होंने उसकी जमीन बचाने के लिए गांव के बाबू साहब लोगों से खुला मोर्चा ले लिया था। पूछताछ के दौरान जब गुड़‍िया से कुछ नहीं मिला, तो उन्होंने उसे जेल और पेट में बच्चा दे दिया। और ये सच हमेशा के लिए छुपा रहे, इसलिए उसका ब्याह भी करा दिया। बबिता पूछना चाहती है, तुमने उस रात जेल की सीलन भरी कोठरी में उसे दर्द से कराहते और फिर अपने ही ही बच्चे को मौत की नींद सुलाते क्‍यों नहीं देखा?

मृणाल क्या तुम सविता से मिली हो? 18 वर्ष की सविता अपने आठ माह के बच्चे को गोद में लिये जिंदगी की दुश्‍वारियां झेल रही है। माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर में पांच साल पहले शामिल सविता का प्यार एक नक्सली से हुआ। मन मिले, फिर शरीर भी। गर्भवती हुई तो एरिया कमांडर ने दोनों की शादी का फरमान जारी कर दिया। ब्याह के कुछ ही दिन बीते थे कि अलग-अलग मुठभेड़ में दोनों पुलिस की गिरफ्त में आ गये। सविता को मिर्जापुर और अजय को बिहार के भभुआ जेल में बंद कर दिया गया। पिछले साल जेल से छूट कर आयी सविता दुधमुंहे बच्चे को लेकर ससुराल पहुंची, तो ससुराल वालों ने उसे नक्सली बताकर अपनाने से इंकार कर दिया। पति अब तक जेल में है। सविता कहां जाए, उसे कुछ भी समझ में नहीं आता। अब पहाड़ जैसी अकेली जिंदगी और पुलिस की रोज की धमकी। सविता बताती है, पुलिस जब-तब हमसे नक्सलियों का सुराग मांगती है। मैं भला कहां से बताऊं कहां हैं वो सब? अगर कुछ मालूम होता तो भी शायद नहीं बताती।

मृणाल तुम राजी चेरो को भी नहीं जानती होगी? भवनाथपुर की ये लड़की कुछ ही दिन पहले ससुराल पहुंची थी, जब जंगल विभाग ने उसके पति को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए पहले मारा-पीटा और फिर जब उससे भी जी नहीं भरा, तो राजी चेरो की दिनदहाड़े इज्जत लूट ली। जब उसका पति बंदूक लेकर जंगलों में कूद गया, तो एक रात उसका घर जला दिया। उसको ये यकीन नहीं होता कि मृणाल किसी औरत का नाम है। तुम्हारी कहानी सुनाने के बाद और भी नहीं होता। मृणाल तुम रोहतास की संध्या, सुनगुन और चंपा से भी बातें करना। उनका प्यार बिना दाना-पानी के पुलिस की गोलियों की जद में ही परवान चढ़ता है।

मृणाल तुम कांकेर चली जाओ, क्‍योंकि अभी तक हम वहां नहीं गये। तुम वहां पर उर्मिला वट्टी व बृजवती कोर्राम से मिलना। पिछले तीन दिनों से वो घर से बाहर नहीं निकली हैं। हो सकता है, तुम जब तक वहां पहुंचो, उनमें से कोई आत्महत्या कर ले। या फिर उनका ही अपना कोई उन्हें मान सम्मान के नाम पर मार डाले। उनका क्या कसूर था जो बीएसएफ के जवानों ने सारे गांव के सामने उन्हें नंगा कर दिया? तुम उन पर सहानुभूति प्रकट कर सकती हो, या फिर चिदंबरम की बहादुरी पर एडिट पेज के लिए कोई जबरदस्त स्टोरी लिखी सकती हो या फिर औरों की तरह ओह माई गॉड कह सकती हो।

Awesh Tiwari(आवेश‍ तिवारी। लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख। पिछले सात वर्षों से विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की पर्यावरणीय परिस्थितियों का अध्ययन और उन पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। आवेश से awesh29@gmail.com पर

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समाज के वैचारिक अकाल पर पटना में होगी बात

13 September 2010 2 Comments

माज बदल रहा है। संवेदना लोगों से दूर होती जा रही है। पैसों की चमक बढ़ रही है। रिश्ते-नाते बेमानी होते जा रहे हैं। ऐसे माहौल में इंसान और उसके दुख को समझने की कोशिश में पटना के एक युवक ने एक फिल्‍म बनायी है। यह फिल्‍म नागार्जुन की कविताओं पर आधारित है। नाम है, मेघ बजे। यह बाबा की ही एक कविता है…

धिन-धिन-धा धमक-धमक
मेघ बजे
दामिनि यह गयी दमक
मेघ बजे
दादुर का कंठ खुला
मेघ बजे
धरती का हृदय धुला
मेघ बजे
पंक बना हरिचंदन
मेघ बजे
हल्का है अभिनंदन
मेघ बजे
धिन-धिन-धा…

फिल्म में बाबा की पांच कविताओं को शामिल किया गया है – अकाल और उसके बाद, मेघ बजे, बादल को घिरते देखा है और गुलाबी चूड़‍ियां। विवेक कहते हैं कि इस फिल्म का उद्देश्य है युवापीढ़ी को बाबा के विचारों और कविताओं से अवगत कराना ताकि इस वैचारिक संकट के युग में भी उनके अंदर मेघ बजता रहे, जिंदगी सजती रहे।

स फिल्म की लांचिंग 15 सितंबर को बिहार विधान परिषद के सभागर में होनी है। इस मौके पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन भी किया गया है। इस गोष्ठी का विषय है, कैसे दूर हो समाज का वैचारिक अकाल। इसके साथ ही एक ऐसा अस्पताल बनाने की पहल भी होनी है, जिस अस्पताल में पैसे के अभाव में कोई दम न ताड़े। इस गोष्‍ठी में जानी-मानी पत्रकार वर्तिका नंदा, आउटलुक की फीचर एडिटर गीताश्री, साहित्यकार अरुण कमल, फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम, मोहल्‍ला लाइव के मॉडरेटर अविनाश, मौर्य टीवी के राजनीतिक संपादक नवेंदु, विधान परिषद के सभापति ताराकांत झा और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ जगन्‍नाथ मिश्रा हिस्सा लेंगे।

विवेक ने हाल ही में एक निजी न्‍यूज चैनल के चैनल हेड पद से इस्तीफा दे दिया था। इस कार्यक्रम का आयोजन युवा पत्रकारों का एक संगठन "वाह जिंदगी" कर रहा है। वाह जिंदगी से जुड़े प्रशांत का कहना है कि हम पत्रकारिता को समाज से जोड़ना चाहते हैं ताकि समाज का मूल स्वभाव और उसकी सुंदरता को इसके माध्‍यम से समझा जा सके। वरना तो आज पत्रकारिता बाजार की कठपुतली हुई पड़ी है।

फिल्‍म का कुछ हिस्‍सा आप इस वीडिया में देख सकते हैं…


लंदन के लेखकों, कलाकारों ने साहिर को याद किया

13 September 2010 One Comment


बायें से कैलाश बुधवार, तेजेंद्र शर्मा, मोनिका मोहता, दीप्ति शर्मा, मकबूल फिदा हुसैन, मुजफ्फर अली, रजा अली आबिदी, जितेंद्र कुमार, एसके धामी एवं आनंद कुमार

"साहिर लुधियानवी मूलतः एक रोमांटिक कवि थे। प्रेम में बार बार मिली असफलता ने उनके व्यक्तित्व पर कुछ ऐसे निशान छोड़े, जिसके नीचे उनके जीवन के अन्य दुःख दब कर रह गये। अपनी प्रेमिका की झुकी आंखों के सामने बैठ साहिर उससे मासूम सवाल कर बैठते हैं, प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तूं बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं।" यह कहना था कथाकार एवं कथा यूके के अध्यक्ष तेजेंद्र शर्मा का। अवसर था लंदन के नेहरू सेंटर में एशियन कम्‍युनिटी आर्ट्स एवं कथा यूके द्वारा आयोजित कार्यक्रम – साहिर लुधियानवी एक रोमांटिक क्रांतिकारी।

इससे पहले बीबीसी उर्दू सेवा के रजा अली आबिदी ने साहिर लुधियानवी (मूल नाम अब्दुल हैय) के बचपन, जवानी, साहित्यिक शायरी और फिल्मी नगमों की चर्चा की। साहिर के मुंबई में बसने पर आबिदी ने कहा कि किसी शहर के रंग में रंग जाना बहुत सहज होता है मगर साहिर ने बंबई को अपने रंग में रंग दिया। उन्होंने साहिर के गीत हम आप की जुल्फों में इस दिल को बसा दें तो? (फिल्म – प्यासा) में तो शब्द की अलग से व्याख्या करते हुए कहा कि उर्दू शायरी में इस शब्द का ऐसा प्रयोग इससे पहले या बाद में कभी नहीं किया गया।


ऑडिएंस के बीच मकबूल फिदा हुसैन

तेजेंद्र शर्मा ने चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन, फिल्मकार मुजफ्फर अली एवं संसद सदस्य विरेंद्र शर्मा की उपस्थिति में अपने पॉवर-पाइंट प्रेजेंटेशन की शुरुआत फिल्म हम दोनों के भजन अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम से करते हुए कहा कि आज ईद और गणेश चतुर्थी के त्यौहार हैं, तो चलिए हम अपना कार्यक्रम एक नास्तिक द्वारा लिखे गये एक भजन से करते हैं।

एशियन कम्‍युनिटी आर्ट्स की अध्यक्षा काउंसलर जकीया जुबैरी ने ईद के कारण कार्यक्रम में शामिल न होने पर खेद प्रकट करते हुए श्रोताओं के लिए संदेश भेजा कि जो श्रोता आज ईद मना रहे हैं, उनको गणेश चतुर्थी की बधाई और जो गणेश चतुर्थी मना रहे हैं, उन्हें ईद की मुबारकबाद। इस तरह जकीया जी ने कार्यक्रम की शुरुआत में ही एक सेक्युलर भावना से दर्शकों के दिलों को सराबोर कर दिया।

अपनी प्रेजेंटेशन में तेजेंद्र शर्मा ने साहिर की एक संपूर्ण रोमांटिक कवि की छवि स्थापित करने के लिए उनके जो फिल्मी गीत और गजलें पर्दे पर दिखाये, उनमें शामिल थे फिर न कीजे मेरी गुस्ताख निगाही का गिला (फिर सुबह होगी – 1958), तुम अगर मुझ को न चाहो (दिल ही तो है – 1963), जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा (ताजमहल – 1961), चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों (गुमराह – 1963), और तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको… (दीदी – 1959) । साहिर ने अपने एक ही गीत में गुस्ताख निगाही और यूं ही सी नजर जैसे विशेषणों का इस्तेमाल कर फिल्मी गीतों को साहित्यिक स्तर प्रदान किया है।

यहां से शुरू हुआ साहिर का क्रांतिकारी रूप और इस रूप के लिए जिन गीतों का इस्तेमाल किया गया, उनमें शामिल थे चीनो अरब हमारा (फिर सुबह होगी – 1958), ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है और जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं (प्यासा – 1957)। साहिर की विशेषता है कि वे सत्ता से सवाल भी करते हैं, हालात पर टिप्पणी भी करते हैं और दुनिया को जला कर बदलने की बात भी करते हैं।

तेजेंद्र शर्मा ने आगे बताया कि साहिर ने फिल्मों में जो भी लिखा, वो अन्य फिल्मी गीतकारों के लिए एक चुनौती बन कर खड़ा हो गया। उनका लिखा हर गीत जैसे मानक बन गये। उन्होंने फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ कव्वाली न तो कारवां की तलाश है (बरसात की रात), सर्वश्रेष्ठ हास्य गीत सर जो तेरा चकराये (प्यासा), सर्वश्रेष्ठ देशप्रेम गीत ये देश है वीर जवानों का (नया दौर), सूफी गीत लागा चुनरी में दाग छिपाऊं कैसे (दिल ही तो है)। यहां तक कि शम्मी कपूर को नयी छवि देने में भी साहिर का ही हाथ था, जब उन्होंने तुमसा नहीं देखा के लिए गीत लिखा यूं तो हमने लाख हसीं देखे हैं… लिखा। कार्यक्रम में यह गीत भी दिखाया गया।

यादों के झरोखों में झांकते हुए तेजेंद्र शर्मा ने साहिर के प्रेम प्रसंगों का जिक्र किया। जाहिर तौर पर उसमें सुधा मल्होत्रा और अमृता प्रीतम के नाम शामिल थे। अमृता प्रीतम की एक स्मृति को तेजेंद्र ने बहुत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया। अमृता और साहिर दोनों मॉस्को गये थे, जहां साहिर को सोवियतलैंड पुरस्कार मिलना था। वहां एक अफसर की गलतफहमी से दोनों के नाम के बिल्ले बदल गये। साहिर ने अमृता से बिल्ले वापिस बदलने के लिए कहा। मगर अमृता ने कहा कि वह बिल्ला वापिस नहीं करेगी, इस तरह साहिर अमृता के दिल के करीब रहेगा। भारत वापिस आने पर साहिर की चंद ही दिनों में मृत्यु हो गयी। अमृता ये सोच कर रोती रही कि दरअसल मौत उसकी अपनी आयी थी, मगर उसके नाम का बिल्ला साहिर के सीने पर था। इसलिए मौत गलती से साहिर को ले गयी।

साहिर की भाषा पर टिप्पणी करते हुए तेजेंद्र का कहना था कि किसी भी बड़े कवि या शायर की लिखी वही शायरी जिंदा रही है, जो आम आदमी तक प्रेषित हो पायी है। गालिब की भी वही शायरी प्रसिद्ध हुई, जो सरल भाषा में लिखी गयी। संप्रेषण किसी भी साहित्य की मुख्य विशिष्टता है। साहिर ने भी अपनी साहित्यिक रचनाओं की भाषा को फिल्मों के लिए सरल और संप्रेषणीय बनाया। इसीलिए उनकी वो रचनाएं अमर हो पायीं। इसका सबसे खूबसूरत उदाहरण है जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं (प्यासा), जो कि साहित्यक रूप में क्लिष्‍ट उर्दू भाषा में लिखी गयी है। जबकि फिल्म के लिए उसे सरल भाषा में दोबारा लिखा गया। कबीर, तुलसी, मीरा, सूरदास, गालिब, मीर और फैज की तरह साहिर की शायरी भी आम आदमी को नये नये मुहावरे दे जाती है।

तेजेंद्र शर्मा का कहना है कि साहिर, शैलेंद्र और शकील अपने समय के फिल्मी गीतों की ऐसी त्रिमूर्ति थे, जिन्होंने फिल्मी मुहावरे में उत्कृष्‍ट साहित्य की रचना की। अपने प्रेजेंटेशन में उन्होंने साहिर की शराब की रोजाना होने वाली पार्टियों का जिक्र किया और संगीतकार से एक रुपया अधिक पारिश्रमिक लेने की उनकी जिद के बारे में बताया। साहिर ने ही ऑल इंडिया रेडियो में गीतकार का नाम शामिल करने की परंपरा शुरू करवायी।

जुहू इलाके के जिस कब्रिस्तान में साहिर को दफन किया गया था, वहीं मुहम्मद रफी, मधुबाला, नौशाद, तलत महमूद, नसीम बानो, ख्वाजा अहमद अब्बास, जां निसार अख्तर और सरदार जाफरी जैसी हस्तियां भी दफनायी गयी थीं। मगर हाल ही में कब्रिस्तान को चलाने वाले बोर्ड ने बिना किसी को बताये इन कब्रों पर लगे कुतबे और छोटे छोटे मकबरे तोड़ दिये और जमीन को समतल कर दिया। वहां मिट्टी डाल कर नयी कब्रों के लिए जगह बनायी गयी है। उनका कहना है कि इस्लाम में मकबरे बनाने की इजाजत नहीं है। यह उस देश में हुआ, जिस देश की पहचान एक मकबरा है। पूरी दुनिया से लोग उस ताजमहल को देखने आते हैं। शायद इसीलिए साहिर ने अपने जीवन में ताजमहल के बारे में कहा था, इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर / हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक / मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझ को।

कार्यक्रम की शुरुआत में नेहरू केंद्र की निदेशक मोनिका मोहता ने अतिथियों का स्वागत किया। तेजेंद्र शर्मा ने कथाकार महेंद्र दवेसर, गजलकार प्राण शर्मा एवं जमशेदपुर की विजय शर्मा को धन्यवाद दिया, जिन्होंने इस कार्यक्रम की तैयारी में कुछ सामग्री भेजी। कार्यक्रम में अन्य लोगों के अतिरिक्त नसरीन मुन्नी कबीर, प्रो अमीन मुगल, गजल गायक सुरेंद्र कुमार, शिक्षाविद अरुणा अजितसरी, दिव्या माथुर एवं उच्चायोग के जितेंद्र कुमार भी शामिल थे।


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