भारत के फासीकरण के खिलाफ पहले राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध की जबरदस्त कामयाबी। देश भर में लगभग सौ केंद्रों पर ' मुजफ्फरनगर बाकी है' के प्रदर्शनों में नौजवानों , नागरिकों और लेखकों - कलाकारों की भीड़ उमड़ी। यह एक स्वतःस्फूर्त मगर सुसंयोजित प्रतिरोध था।
प्रकासि ( प्रतिरोध का सिनेमा) की पहल पर देश भर के अनगिनत समूहों ने दिल्ली विवि के एक कालेज में इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर हुए हमले के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते हुए प्रतिरोध प्रदर्शन किए और बहस मुबाहिसे किए।
फ़िल्म देख कर समझ में आता है कि फासिस्ट समूह दो घण्टे की इस दस्तावेज़ी फ़िल्म से क्यों घबराए हुए हैं। आज हर सच्चे देशभक्त को एक बार यह फ़िल्म जरूर देखनी चाहिए। यह फ़िल्म साफ़ दिखाती है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे किस तरह मोदीविजय की पटकथा लिखी गई और उसमें कथित सेकुलर / समाजवादी पार्टियों ने किस तरह भरपूर सहयोग किया।
फ़िल्म में एक सभा में अमित शाह कहते दिखाए गए हैं - जो गुजरात को भूल गए , वे मुज़फ्फरनगर नहीं भूल पाएंगे । इस एक जुमले से समझ आता है कि चुनावों के आसपास देश भर में क्यों नए नए मुजफ्फरनगर सुगबुगाने लगते हैं।
अगर इस प्रक्रिया को तत्काल रोका नहीं गया तो हम जल्दी ही अपने प्यारे भारत को हमेशा के लिए खो देंगे , और हमारे पास पड़ोसी की तरह का आतंकग्रस्त हिन्दूस्थान बचा रहा जाएगा।
फ़िल्म के निर्देशक Nakul Singh Sawhney और प्रकासि के संयोजक Sanjay Joshiऔर उनके साथियों को क्रांतिकारी सलाम। फासीकरण के खिलाफ FTII के जुझारू दोस्तों ने जो मुहिम शुरू की है , उसे एक नए मुकाम पर ले जाने के लिए। फ़िल्म के लिए इन में किसी से भी से सम्पर्क किया जा सकता है। देश भर में इस फ़िल्म के हज़ारो लाखों प्रदर्शन होने चाहिए।
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