पलाश विश्वास
इसे दिमाग में जरूर रखे कि हम न किसी राजनीतिक दल में हैं और न उनके आईटी सेल के लिए कैंपेन या प्रोजेक्ट या पेड न्यूज वाले हैं।
इसपर लोग लगातार लिख रहे हैं।
बांग्लादेश में भी लोग लिख रहे हैं।
तस्लीमा से स्लैम आज़ाद तक।लेकिन इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने से बचना चाहिए।
राजनीतिक मुद्दा तक भी सही है,इससे साम्प्रदायिक मुद्दा नहीं बनना चाहिए।
हम फेसबुक पर नहीं,बांग्लादेश के ही प्रमुख अखबारों में न्यूज फ्रॉम बांग्लादेश, ढाका टाइम्स, इत्तेफाक,भोरेर आलो,जुगान्तर,जनकनथ आदि में लिखते रहै हैं। अंग्रेज़ी और बांग्ला में।
बांग्लादेश के शीर्ष लेखक हुमायूं कबीर ने बाकायदा बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न का ensyclopedia तैयार किया है।
दशकों से हम कहते लिखते रहे हैं कि जब तक बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के खिलाफ भारत सरकार सख्त रवैया नहीं अपनाती,शरणार्थी समस्या का हल नहीं है।
हर साम्प्रदायिक दंगे के साथ भारत में शरणार्थी सैलाब उमड़ता है। 1947 से 1952 तक लोग पूर्वी बंगाल से बहुत कम निकले। दंगे इसके बाद शुरू हुए,जो कभी थमे ही नहीं।
पश्चिम पाकिस्तान में इतना भयानक खून खराबा हुआ कि लोग 1947 के तुरन्त बाद चले आये। पूर्वी बंगाल से 1952 के बाद ज्यादातर लोग निकले।बड़ी संख्या में लोग 1971 के बाद निकले। अब भी वहां एक करोड़ से ज्यादा हिन्दू हैं।
दंगे तो भारत में भी होते हैं। तो क्या मुसलमान भारत छोड़कर चले गए? दंगे बांग्लादेश में भी होते हैं।इसे राज इटिक मुद्दा बनाने से इसका असर सीधे बांग्लादेश के हिंदुओं पर होगा।उनपर राजनीतिक हमले और टाइज़ होंगे।
बांग्लादेश में रह रहे हिन्दू भी मानते हैं कि या दंगे धार्मिक कम,राजनीतिक ज्यादा हैं।बिल्कुल भारत की तरह।
उनके मुताबिक ज्यादातर दंगे भारत की घटनाओं की राजनीतिक प्रतिक्रिया में होती रही है।
लज्जा बाबरी विध्वंस की पृष्ठभूमि की कथा है।
बांग्लादेश में सैकड़ों लेखक पत्रकार कवि हर साल इस धर्मोन्माद के खिलाफ लिखने के लिए मारे जाते हैं।शीर्षक कवि और लेखक भी।
धर्मनिरपेक्षता के लिए इतनी शहादतें दुनिया में कहीं नहीं दी गयी।तभारत में भी नहीं दी गई,पुरस्कार वापसी और कुछ गिने चुने लोगों के बलिदान के लिए।
भारत में जो लोग अल्पसंख्यक उत्पीड़न के जिम्मेदार हैं,उन्हीं के साझे की राजनीति करने वाले बांग्लादेश के जमात रज़ाकर ही इन दंगों के लिए जिम्मेदार हैं।
यह नीतिगत अंतरराष्ट्रीय मामला है लेकिन सरकार 7 दशकों से बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न के मुद्दे पर खामोश है। 1971 को छोड़कर ।
इस मुद्दे को सुलझाने के बजाय इसके साम्प्रदायिक राजनीतिक इस्तेमाल की परंपरा है।
शरणार्थी समस्या सुलझाने के बजाय राजनीति शरणार्थियों को बंधुआ वोटबैंक बनाती रही है।
सरकारें शरणार्थियों को ही निपटाने की जुगत में रहती है।जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प और उनके सारे दोस्त करते रहे हैं।आधी दुनिया इसी राजनीति की वजह से या विस्थापित हैं कश्मीरी पंडितों की तरह,आदिवासियों की तरह या फिर समुंदर के रास्ते डूब मरने को अभिशप्त।
कंटीली तार की दीवार पर तंगी रहती है फैलानी की लाशें और सरहदों पर दुश्मनों से ज्यादा मारे जाते हैं शरणार्थी। किसी देश में उन्हें नागरिक अधिकार मिलते हैं और न मानवाधिकार।
भारत नें भी नहीं।
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