Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Monday, September 28, 2015

मेरे अंदर काफी गुस्सा है, मैं क्रोधित हूं : वीरेन डंगवाल


मेरे अंदर काफी गुस्सा है, मैं क्रोधित हूं : वीरेन डंगवाल

Friday, 21 August 2009 13:08 अशोक कुमार


वीरेन डंगवाल

हिंदी कविता और पत्रकारिता के बेहद सम्मानित नाम हैं वीरेन डंगवाल। अपनों के बीच 'वीरेनदा' नाम से विख्यात वीरेन डंगवाल ने पिछले दिनों अमर उजाला की संपादकी से इस्तीफा दे दिया। वे इन दिनों अपने छोटे बेटे की शादी की तैयारियों में व्यस्त हैं। बरेली में उनके घर में पुताई चल रही है। सामान अस्त-व्यस्त है। तभी इसमें से उन्हें एक चिठ्ठी मिली। असल में वह सेना के एक अधिकारी का संस्मरण था, इलाहाबाद का वह अधिकारी काफी पहले उनसे मिलने बरेली पहुंचा था। यह उसी मुलाकात का संस्मरण था। जो उसने वीरेन दा के एक मित्र को लिखा था और मित्र ने वीरेन डंगवाल को भेज दिया था। वीरेन डंगवाल ने वह पत्र मुझे दिखाया। उसमें एक जगह लिखा है- 'वीरेन दा फक्कड़ और खुशमिजाज आदमी हैं। उनके जैसा आदमी कोई और काम क्यों करता है? क्या वह हमेशा सिर्फ बोलते नहीं रह सकते।' (यानी उनको सुनते रहना बहुत अच्छा लगता है)

वीरेन डंगवाल का इंटरव्यू करने मैं (भड़ास4मीडिया की तरफ से अशोक कुमार) दिल्ली से बरेली पहुंचा। वीरेन डंगवाल को खुद के पहुंचने की सूचना दी तो उन्होंने अपने घर ठहरने का निमंत्रण दे दिया। उनके अधिकारपूर्ण निमंत्रण को पाकर मैं होटल की सीढ़ियों पर ठिठक गया। पीछे मुड़ा और बरेली के सिविल लाइन स्थित उनके आवास की ओर बढ़ने लगा। एक स्वार्थ भी था कि अधिक देर तक साथ रहूंगा तो अधिक बातें हो पाएंगी। संस्मरण का जिक्र इसलिए किया क्योंकि वीरेन डंगवाल से एक मुलाकात के बाद ही हर किसी के लिए वो 'वीरेन दा' हो जाते हैं। मेरे पहुंचते ही उन्होंने हिदायत दे दी कि वह अधिक कुछ नहीं बोलने वाले। रात को खाने के बाद उन्होंने एक कमरा दिखाते हुए कहा- 'यह मेरे पिताजी का कमरा है, अब वो नहीं हैं, सो जाओ सुबह बात करेंगे।' दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद, फिर कॉलेज जाते समय रास्ते में और दोपहर खाने के बाद मेरे वापस दिल्ली लौटने तक कई चरणों में बातचीत होती रही। पेश हैं इंटरव्यू के अंश-  


वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल से बातचीत करते भड़ास4मीडिया के अशोक कुमार

-पत्रकारिता में ढाई दशक तक सक्रिय रहने के बाद फिलहाल आपने खुद को इससे अलग कर लिया है। कैसा रहा यह सफर?

--खूब दिलचस्प। बहुत अच्छा। ज्ञानवर्धक और तृप्त करने वाला रहा। इस दौरान खूब सीखा। जो सीखा, उसे नए लोगों को सिखाया। टेक्नॉलाजी, मानवीय व्यवहार और लोगों की जानकारी के प्रति पिपासा को नजदीक से देखा। उसका माध्यम बना। कुल मिलाकर बहुत संतोषजनक रहा।  

वीरेन डंगवाल-इतने वर्षों की पत्रकारिता में सबसे मुश्किल दौर कौन सा रहा?

--बाबरी मस्जिद का विध्वंस कांड। वह आत्मा को पीड़ित करने वाला था। पत्रकारिता में झूठ और निर्लज्जता का दौर था वह। हक्का-बक्का करने वाला था। हिंदी अखबारों ने पूरे समाज के सांप्रदायिकता के उत्प्रेरक के तौर पर काम किया। जब मस्जिद टूटी तो काफी शर्म महसूस हुई। दूरदर्शन पर रामलला के जन्म का गीत चल रहा था। लगा कि अकेला हो गया हूं। शून्य बढ़ाकर मृतकों की संख्या बढ़ाई जा रही थी। जिन लोगों ने इसे किया, उन्होंने बाद में आधुनिकता का चोला पहन लिया। आज वही राजनीति और पत्रकारिता को सुशोभित कर रहे हैं। मगर मैंने अमर उजाला में रहते हुए उसका विरोध किया। अखबार के मालिक अशोक अग्रवाल ने कहा कि हिंदू अमर उजाला के विरोध में हो रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि बाद में इसका लाभ मिलेगा और अमर उजाला को इसका फायदा मिला भी। उस समय देश मे वैश्वीकरण का प्रवेश हो रहा था। इसी वजह से धुएं और धुंध जैसी स्थिति की तैयारी की गई, ताकि लोगों का ध्यान इस ओर न जाए।

आज भी वैसा ही दौर है। आम लोगों के लिए अखबार में जगह कम हो गई है। अखबार आम लोगों के संघर्ष की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। आज एक छिछलापन हो गया है। आपको हर पन्ने पर स्त्री की एक तस्वीर दिखेगी। हां, अंग्रेजी के अखबार सुशिक्षित हैं। हिंदी के अच्छे लोग हाशिये पर जा रहे हैं। आज चाह कर पर भी हिंदी के अच्छे लोगों का नाम जल्दी याद नहीं आता। वैश्वीकरण जरूरी है, मगर इसके लिए डेमोक्रेसी को नजरंदाज नहीं कर सकते। अखबार में समाज के हर व्यक्ति के लिए जगह होनी चाहिए। अखबारों को समाज के बारे में पता नहीं है। वह अपने पाठक के बारे में नहीं जानते। हिंदी के अखबारों के बारे में मेरा ऐसा खास तौर पर मानना है।  

वीरेन डंगवाल

बरेली स्थित अपने घर में पत्नी रीता डंगवाल के साथ वीरेन दा

-वह क्या बात थी, जिसने आपको अचानक अमर उजाला से अलग होने के लिए बाध्य कर दिया?

--फौरी तौर पर वरुण गांधी का प्रकरण था। उस दिन मैं दफ्तर नहीं गया था। उस प्रकरण में अखबार ने 3-4 पन्ने छापे। संजय गांधी बड़े नेता थे। वरुण कोई इतने बड़े नेता नहीं हैं। वह किसी का हाथ-पैर काटने की बात करें और अखबार उसका सेलिब्रेशन करे, मुझे यह मंजूर नहीं था। अखबार मेरे नाम से निकल रहा था। जो बातें अखबार में आ रही थीं, उससे मैं सहमत नहीं था। मुझे लग रहा था कि डेमोक्रेटिक स्पेस घट रहा है। मेरे विचार नहीं मिल पा रहे थे। मैंने झगड़ा नहीं किया, खुद को अलग कर लिया। अखबार को मेरी शुभेच्छा है। वहां मेरे प्रिय हैं। मैं कभी भी अमर उजाला का नौकर नहीं रहा। मुझे आग्रहपूर्वक बुलाया गया था तो मैं गया था। मुझे दिक्कत हुई, मैंने छोड़ दिया। राजुल माहेश्वरी हों या अतुल महेश्वरी, इन लोगों से एक ममत्व है। मैंने अखबार छोड़कर अपने निजी संबंधों को बचाया।

-आप उससे पहले भी एक बार अमर उजाला से अलग हो चुके थे?

--हां, बाबरी मस्जिद वाले मसले पर मतभेद के बाद छोड़ा था। तब लगभग पांच साल तक अलग रहा था। फिर वो मना कर ले गए थे।

-क्या इस बार भी मनाने की कोशिश की गई?

--पहले लोगों को लगा कि भाई साहब गुस्सा हैं। मेरे ऑफिस जाना बंद करने के बाद भी कई दिनों तक मेरा नाम छपता रहा। फिर मैंने मोबाइल से लगातार मैसेज भेजना शुरू किया। तब जाकर बीस दिनों के बाद मेरा नाम हटाया गया। मेरी राजुल और अतुल से हमेशा बात होती है, लेकिन इस मुद्दे पर नहीं। मेरे अंदर काफी गुस्सा है, मैं क्रोधित हूं। इस बारे में कोई और बात नहीं करना चाहता।

वीरेन डंगवाल-आप शिक्षक थे, अचानक पत्रकारिता के प्रति कैसे आकर्षित हो गए?

--सन् 77 में यूजीसी के प्रोग्राम में फेलो बनकर चार साल के लिए इलाहाबाद गया। वहां से 'अमृत प्रभात' निकला करता था। मंगलेश जी साहित्य संपादक हुआ करते थे। मैं अखबार के दफ्तर में जाने लगा। तब वहां प्रयोग होने वाले गोंद की खूश्बू और स्याही की महक का चस्का लगने लगा। पांच मिनट में अखबार छोड़ना है, जल्दी खबर दो। वहां फैली रहने वाली इस तरह की अफरा-तफरी काफी रोमांचक लगती। बचपन से लिखने का शौक भी था। भीतर एक प्रक्षन्न कीट घुसा था। अमृत प्रभात में 23 अप्रैल 1978 को पहली बार 'घूमता आईना' नाम से स्तंभ लिखा। उसे मैं 'सिंदबाद' नाम से लिखता था। वह काफी लोकप्रिय हुआ। मैं वहां सेलिब्रिटी बन गया। उस स्तंभ को सन् 80 तक लिखता रहा था।  

-और किन-किन पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे?

--फरवरी, 80-81 के आसपास 'अमृत प्रभात', लखनऊ में बुला लिया गया। वहां स्पेशल कॉरेस्पांडेंट के तौर पर गया। रोज एक फीचर और स्तंभ लिखता था। वक्त याद नहीं पर आपातकाल के बाद जब इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनीं, तब तक वहां था। उससे पहले आपातकाल के दौरान जार्ज फर्नांडिस दिल्ली से साप्ताहिक पत्र 'प्रतिपक्ष' निकाल रहे थे। उसके संपादक गिरधर राठी जी थे। वहां भी स्वतंत्र लेखन किया। तेरह साल तक पीटीआई के लिए खबरें दीं। पायनियर के लिए भी बरेली और रुहेलखंड की खबरें दीं। दो-चार बार टाइम्स ऑफ इंडिया, लखनऊ के लिए भी लिखा। अमर उजाला ने आग्रह पूर्वक बुलाया तो 1 जनवरी 1982 को अमर उजाला, बरेली से जुड़ा। यहां साहित्य संपादक रहते हुए मैंने नागार्जुन और हरिशंकर परसाई जैसी हस्तियों से लिखवाया। तब हमारा साहित्यिक पन्ना जनसत्ता को टक्कर देता था। सलाहकार संपादक सहित कई रूपों में अमर उजाला से जुड़ा रहा। वहां रहते हुए अखबार में जहां जरूरत महसूस हुई, हस्तक्षेप किया। मैंने कभी वहां नौकरी नहीं की। आखिर तक मैंने अमर उजाला से दस हजार रुपये से ज्यादा किसी महीने पारिश्रमिक नहीं लिया।  

-आप स्पेशल करेस्पांडेंट रहे हैं, ऐसी कोई खास रिपोर्ट, जिसकी आप चर्चा करना चाहें?

--तब मैं 'अमृत प्रभात', लखनऊ में था। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी लखनऊ आई थीं। तब वह किसी पत्रकार से बात नहीं कर रही थीं। लखनऊ के सभी पत्रकारों को लगा कि वह बात नहीं करेंगी, सो कोई भी एयरपोर्ट नहीं गया। मुझे भी पता था कि वह आ रही हैं। मैं एयरपोर्ट पहुंच गया। मैंने उनसे बातचीत करने की कोशिश की और सफल रहा। वह एक अच्छा अनुभव था। वह खबर पहले पन्ने पर छपी। मुझे 'बाइलाइन' मिली थी। तब 'बाइलाइन' मिलने पर काफी खुशी होती थी। (मुस्कराते हुए) हां, जब पता चला तो एक वरिष्ठ पत्रकार मुझे कॉफी पिलाने ले गए और जानने-पूछने की कोशिश की थी। भारतीय किसान यूनियन के सुप्रीमो महेंद्र सिंह टिकैत का पहला इंटरव्यूह मैंने ही किया था।  

-सर, आपके बचपन की बात करते हैं। आपके जन्म, शिक्षा आदि पर।

--कीर्तिनगर मुहल्ला, टिहरी (गढ़वाल)। वहीं 5 अगस्त 1947 में मेरा जन्म हुआ था। पिताजी एमए एलएलबी थे। मजिस्ट्रेट थे। जब टिहरी रियासत का विरोध हुआ तो पिताजी भी उसमें शामिल थे। जब मैं लगभग दो वर्ष का रहा होऊंगा, तब पिताजी सन् 49 में मुजफ्फरनगर आ गए। कई स्थानों पर उनकी बदली होती रहती थी और हम उनके साथ घूमते रहते थे। पिताजी काफी गुस्सैल और ईमानदार थे। हमेशा आर्थिक संकट में रहे। कई बार चपरासी तक से उधार लेते थे। मेरी पढ़ाई की शुरुआत मुजफ्फरनगर में हुई। सहारनपुर में 6वीं तक पढ़ा। सातवीं से नौवीं तक की शिक्षा जीएनके इंटर कॉलेज, कानपुर में हुई। दसवीं से बारहवीं तक बरेली में। फिर बीए नैनीताल से किया। एमए और डी.फील इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। सन् 71 में पिताजी ने बरेली बुला लिया। 15 अगस्त 1971 में बरेली कॉलेज के हिंदी विभाग में लेक्चरार बना।  

-हर किसी की जिंदगी में युवावस्था के दिन अलग-अलग तरह से संस्मरणीय होते हैं। आपने अपनी युवावस्था में काफी समय इलाहाबाद में गुजारा। उस दौरान की कुछ यादें?

--(रोमांचित होते हुए) इलाहाबाद से मेरा संबंध दो भागों में रहा। पहली बार सन् 66 में मैं साहित्य शोध छात्र के रूप में वहां गया। उस समय साहित्य ही प्रियोरिटी पर था। 66 से 71 के बीच का समय प्रेम, उल्लास और फ़ाकामस्ती का था। साहित्य के प्रति एक उल्लास था। तब मैंने कई मित्र बनाए। फक्कड़पन के दिन थे। किसी बात की चिंता नहीं थी। दूसरे ट्रिप में पत्रकारिता की शिक्षा ली। उस समय साहित्य के साथ पत्रकारिता से भी रिश्ता बना। इमरजेंसी के बाद वह विस्फोटक दौर था। उसी समय पाठकों में पढ़ने की भूख बढ़ रही थी। नए प्रयोग हो रहे थे। अखबारों के सर्कुलेशन खूब बढ़ रहे थे। मैंने तभी जान लिया था कि अखबार व्यक्तिगत कृत्य नहीं बल्कि सामूहिक कृत्य है। पत्रकारिता की प्रवृति ही सामूहिकता की है। तब कई रातें संगम के किनारें दोस्तों के साथ गुजारी। रसूलाबाद में इंजीनियरिंग कालेज इलाके में खूब घूमे। किसी से स्कूटर मांग कर तीन-तीन लोग उस पर लद लेते और संगम किनारे मस्ती करते। गजब के दिन थे वो। तभी सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की। उसी समय कुंभ का मेला लगा था। मैंने एक रिपोर्ट लिखी 'मीलों फैला मेला, मीलों फैली वीरानी'। वहां एक बड़े टेंट वाले थे लल्लू जी एंड संस। वो मेले में बांस-बल्लियां, शामियाना आदि लगवाने का काम करते थे। मेरी उस रिपोर्ट पर उन्होंने नोटिस भी दिया था।   

वीरेन डंगवाल-आपके रोल मॉडल कौन रहे हैं?

--(सोचते हुए) रोल मॉडल जैसा कोई नहीं रहा। लेकिन यह कह सकता हूं कि कई लोगों ने प्रभावित किया। सबसे पहले बड़े भाई शिवनंदन प्रसाद डंगवाल ने प्रभावित किया। वह मध्य प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे हैं। एक समय तक गांधी का असर रहा। मार्क्स का भी गहरा प्रभाव रहा। भारत की मुक्ति के लिए नया रास्ता चाहिए, इस पर सोचता रहता हूं।  

-आप खुश कब होते हैं?

--आमतौर पर मेरी खुश रहने की प्रवृत्ति है। मैं भरसक खुश रहने की कोशिश करता हूं। दोस्तों के साथ गप्पे करना, युवाओं के साथ चर्चा करना काफी सुख देता है।

-दुःख कब होता है आपको?

--जब कोई दगा दे जाता है तो काफी दुख होता है। 'दगा देने' को आप कई रूपों में देख सकते हैं। मसलन, अगर आपका कोई अपना असमय दुनिया छोड़ जाए। यह भी दगा देने जैसा ही होता है। वह समय काफी दुख देने वाला होता है। बहुत पीड़ादायी होता है।  

-आपके समकालीन पत्रकार मित्र कौन हैं?

--(असमंजस में पड़ते हुए) यह बड़ा मुश्किल सवाल है। किसका नाम लें, किसका छोड़ें। बहुत मित्र हैं। आनंद स्वरूप वर्मा (वामपंथी पत्रकार) घनिष्ट मित्र हैं। मंगलेश डबराल (संपादक, पब्लिक एजेंडा पत्रिका), अजय सिंह (स्वतंत्र पत्रकार, लखनऊ), मनोहर नायक (आज समाज), राजीव लोचन शाह (नैनीताल समाचार), त्रिनेत्र जोशी (स्वतंत्र पत्रकार), हरिवंश जी (समूह संपादक, प्रभात खबर)। हरिवंश जी की बहुत कद्र करता हूं। उन्होंने मुझे रांची में काव्यपाठ करने के लिए बुलाया था। तब मैंने प्रभात खबर ऑफिस के छत पर कविता पाठ किया था। वह मूल्यबद्ध पत्रकारिता से कभी अलग नहीं हुए। वह घटिया पत्रकारिता को मुंह चिढ़ा रहे हैं।

वीरेन डंगवाल-आपको फिल्में पसंद हैं?

--पसंद हैं। मजेवाली फिल्में बहुत पसंद है। पिछले दिनों 'जब वी मेट' फिल्म आई थी। गजब की फिल्म थी। इसका गाना 'नगाड़ा बजा' में तो कमाल का संगीत है। यह फिल्म अखबारों को भी सबक देती है। उसमें कुछ भी नंगापन नहीं। साफ-सुथरी फिल्म है। उसने साबित किया कि सुरूचिपूर्ण होने पर भी लोकप्रियता मिलती है। अखबारों में भी सर्कुलेशन के लिए फूहड़ता जरूरी नहीं है।

-क्या जीवन में कभी संघर्ष का सामना करना पड़ा, कैसे थे वो दिन?

--हां, मगर वो दिन भी हंसते-गाते गुजार दिये। याद आता है कि मैं एक अन्य मित्र के साथ इलाहाबाद से दिल्ली गया। जेब में खाली साठ-सत्तर रुपये थे। दिल्ली में शमशेर बहादुर सिंह लाजपत नगर में रहते थे। हम वहीं ठहरे। सभी बेरोजगार थे। एक पराठे में दो-दो आदमी खाते थे। पैसे नहीं थे तो 10-10 किलोमीटर तक पैदल चलते थे। मगर कभी आत्मदया नहीं आई। अगर कभी कुछ पारिश्रमिक मिलता तो सभी मिलकर खाते और खर्च करते थे। उस दौरान हमारी मित्र मंडली में आनंद स्वरूप, मंगलेश डबराल, रमेंद्र त्रिपाठी, अजय सिंह, नीलाभ आदि थे। सबका पॉजीटिव एटीट्यूड रहता था।  

-आप अपनी पीढ़ी के स्थापित कवि के रूप में विख्यात हैं, आपके दूसरे कविता संग्रह को भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल चुका है। कविता लिखना कब शुरू किया आपने? प्रेरणा कब मिली?

--मेरा एक दोस्त था। पवित्रो कुमार मुखर्जी। बंगाली था। वह काफी बढ़िया ड्राइंग बनाता था। एक बार उसने गांधी जी का चित्र बनाया। मेरी उम्र तब सात साल थी। उसकी अतिरिक्त योग्यता ने मुझे प्रभावित किया। तब मैंने गांधी पर कविता लिख डाली। उनकी जो छवि मन में थी, उसे लिख दिया। बड़े भाई ने उसे देखा तो बड़े खुश हुए। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। विधिवत रूप से कविता लेखन की शुरुआत नैनीताल पहुंचने पर हुई। तब मैं बीए करने गया था। इलाहाबाद जाने का मकसद भी वही था। हिंदी में एमए करने की महत्वाकांक्षा थी। पहला कविता संग्रह 'इसी दुनिया में' सन् 90 में आया। इसकी भी रोचक कहानी है। मैंने तमाम कविताएं लिख रखी थीं, मगर इन्हें छपवाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। तब मित्र नीलाभ बरेली आया हुआ था। उन्होंने उन कविताओं की पांडुलिपियां निकालीं और छपवा दिया। इसे दो-दो पुरस्कार मिले। मैं हक्का-बक्का रह गया। ये सब मेरी कल्पना में भी नहीं था। इसके बाद मैं और गंभीर हो गया। दूसरा कविता संग्रह 'दुष्चक्र में सृष्टा' सन् 2002 में आया। इसमें जो छायाएं हैं, वह नब्बे के दशक की हैं। यह पूरे भारतीय इतिहास को बदल देने वाला समय था। उस दौरान सिर्फ बाबरी मस्जिद का विध्वंस नहीं हुआ, बल्कि कई चीजें विध्वंस हुईं। भारतीय संस्कृति कलंकित हुई। इसमें हताशा और क्रोध भी है। इस संग्रह को पंजाबी भाषा में तरसेम ने 'कुचक्कर विच कर्ता' और उड़िया में सुचित्रा पाणिग्रही ने 'दुष्चक्रारे सृष्टा' नाम से अनुवाद भी किया है। तीसरा संग्रह 'स्याही ताल' है। यह हफ्ते-दो हफ्ते में आ जानी चाहिए।  

वीरेन डंगवाल-और कौन-कौन-सी किताबें लिखी हैं आपने? कौन-कौन से पुरस्कार मिल चुके हैं?

--पुस्तकें ज्यादा नहीं लिखी हैं। 'हिंदी कविता के मिथक और प्रतीक' नामक एक शोध ग्रंथ लिखा है। एक 'आधुनिक कविताओं का संचयन' किया है। तुर्की के एक कवि नाज़िम हिकमत हैं। उनकी कविताओं को अंग्रेजी से अनूदित किया है। जहां तक इनाम की बात है तो पहले ही कविता संग्रह 'इसी दुनिया में' को सन् 92 का रघुवीर सहाय सम्मान और 94 का श्रीकांत वर्मा पुरस्कार मिला। दूसरे संग्रह 'दुष्चक्र में सृष्टा' को 2004 का साहित्य अकादमी पुरस्कार और शमशेर सम्मान मिला। पत्रकारिता के लिए 'रज़ा पुरस्कार' मिल चुका है।

अपने पहले कविता संग्रह को इनाम मिलने के बाद मैं जोश में आ गया था। लेकिन कविता की कुलीन दुनिया में कभी शामिल नहीं हुआ।  

-हर कवि अपनी कविताओं में कई चीजों को जीता है, आपने क्या जीया?

--मैंने हमेशा खुद से बाहर की दुनिया के बारे में लिखा है। यह सचेत कार्य है। सचेत रहकर ही अभिव्यक्ति के मायने हैं। मेरे लिए सामाजिक परिप्रेक्ष्य काफी मायने रखते हैं। मैंने दूसरी अनदेखी कर दी जाने वाली कई चीजें को देखने की कोशिश की है। जो नगण्य है, उसको भी समझना-जानना चाहिए। क्योंकि शून्य से ही अन्य संख्याओं की ताकत बनती है।  

-कवि-लेखक जीवन में कोई दिलचस्प घटना घटी है?

--जब मैं बीसेक साल का था, तभी हिंदी दैनिक हिंदुस्तान, दिल्ली को छपने के लिए एक कहानी भेजी। तब मनोहर श्याम जोशी उसके मुख्य संपादक हुआ करते थे। कहानी का शीर्षक था 'अगली कहानी से पहले'। इसे जोशी जी ने लौटा दिया। साथ में एक पत्र भी लिखा कि इसमें निर्मल वर्मा की कहानी के तत्व हैं। तब हम लोग अल्मोड़ा में थे और लिफाफे पर वहीं का पता था। कुछ दिन बाद मनोहर श्याम जोशी अल्मोड़ा पहुंचे। वह पता पूछते हुए मेरे घर पहुंच गए। मैं घर पर नहीं था। वह मां से शाम को मुझे एक स्थान पर भेज देने की बात कह कर चले गए। मैं घर पहुंचा तो मां ने मुझे इसके बारे में बताया। मैं एक दोस्त को लेकर बताई जगह पर पहुंच गया। तब मारे डर के मेरे घुटने बज रहे थे। उन्होंने मुझे बैठाया, चाय पिलाई और आगे लिखते रहने के लिए कहा। लेकिन मैंने लिखा नहीं। मेरी एक फितरत है कि मैं बड़प्पन और कुलीनता का द्रोही हूं। लेकिन जोशी जी से अपनी चिठ्ठी का जवाब पाकर मैं काफी खुश हुआ था। उसी घटना से प्रभावित होकर अमर उजाला में साहित्य संपादक बनने के बाद मैंने कहानी-कविता भेजने वालों को खुद पत्र लिखा।  

वीरेन डंगवाल की एक कविता की कुछ लाइनें-बरेली में आपने लगभग चार दशक का वक्त गुजारा है। एक वरिष्ठ पत्रकार के रूप में, एक शिक्षक के रूप में। अगर आपके योगदान की बात पूछी जाए तो क्या कहना चाहेंगे?

--अपने बारे में क्या कहना, यह तो दूसरे लोग ही बता सकते हैं। बरेली में रहते हुए मैंने रविवारीय परिशिष्ठ निकाले। जुझारू पत्रकार पैदा किए। ('पैदा किये' शब्द पर खुद ही एतराज करते हुए कहते हैं कि वो लोग खुद भी प्रतिभावान थे) उनके साथ खड़ा रहा। (मेरी ओर इशारा करते हुए) जैसे आपके यशवंत सिंह (भड़ास4मीडिया)। उसने एक नई चीज पैदा कर दी है। पंकज श्रीवास्तव (आईबीएन7), विपिन धूलिया (समय), सुनील शाह (समय), दिनेश जुयाल (हिंदुस्तान, मेरठ), विजय त्रिपाठी (दैनिक जागरण, मेरठ), दिनेश श्रीनेत (बंगलोर), विश्वेश्वर कुमार, राजीव कुमार सिंह (रायपुर), देशपाल सिंह पंवार (हरिभूमि), प्रभात सिंह (स्थानीय संपादक, दैनिक भास्कर, चंडीगढ़)। प्रभात सिंह सिर्फ फोटोग्राफर था, मैंने उसे लिखने को उकसाया। बतौर शिक्षक मैंने रूहेलखंड विवि में पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू कराई। काफी लड़कों को हिंदी में पीएचडी कराया। श्यौराज सिंह बैचेन उनमें से एक हैं। मैं उनके संघर्ष का साक्षी रहा हूं। बरेली विवि के 150 साल होने पर एक स्मारिका निकाली। उसके सभी चित्र प्रभात ने खींचे थे।

-आप बरेली जैसे शहर में रहे। क्या कभी ऐसा नहीं लगा कि दिल्ली में रहते तो अधिक सफल होते। कभी यह बात खली?

--हां, दिल्ली रहता तो दोस्तों के बीच जाता रहता। कभी-कभी लगा कि जो काम करना चाहते थे, उस पर बरेली में संवाद करने वाले नहीं थे। तो मित्रों की वजह से जाना चाहता था। यह है कि वहां रहते तो मजा आता। एक्सपोजर बढ़ जाता। उसका अभाव खला। उत्प्रेरक की कमी महसूस हुई। मगर इन सबके बावजूद ज्यादा मिला। कोई शिकायत नहीं है। नागार्जुन की कविता है-

'जो नहीं हो सके पूर्ण काम,

मैं उनको करता हूं प्रणाम।'

-आमतौर पर पत्रकारिता दिल्ली बनाम आउटसाइडर, दो पार्टों में बंटी है। आप इसको कैसे देखते हैं?

--कस्बों ने भी श्रेष्ठ पत्रकार दिये हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं। हां, दिल्ली की पत्रकारिता में साधन मिलता है। एक्सपोजर मिलता है। इसका फर्क तो पड़ता ही है। दिल्ली का पत्रकार मंत्रियों के साथ बैठता है तो उसका जलवा अलग हो जाता है। कस्बाई पत्रकार को तो डीएम के साथ ही खुश रहना होता है।  

--आप अमर उजाला, कानपुर के भी संपादक रहे। सुना है कि वहां का सरकुलेशन आपके कार्यकाल में ही बढ़ सका?

-कानपुर की जिम्मेदारी जब मैंने ली, उस समय साढ़े सात सौ प्रतियां अमर उजाला की बिकती थीं। शहर का कोई रिक्शावाला भी अमर उजाला दफ्तर को नहीं जानता था। जब मैंने कानपुर छोड़ा तो 82 हजार कापियां बिकती थीं और इतवार के दिन 96 हजार। ये सिर्फ साथियों की वजह से हुआ। यह टीम वर्क था। एक-एक आदमी काम में लगा था। कानपुर की ढेर सारी यादें हैं। बहुत दिलचस्प और सनसनीखेज वक्त था। हम लोगों ने समवेत का आनंद लिया। पत्रकारिता के लिहाज से भी जबरदस्त काम किया।

-राजेंद्र यादव ने पिछले दिनों कहा था कि कविता का भविष्य नहीं है, आप सहमत हैं?

--बहुत चूतियापे की बात है। (अपने आने वाले कविता संग्रह 'स्याही ताल' की पांडुलिपि मुझे देते हुए, इसमें लिखे एक कविता की ओर इशारा करते हैं, जिसमें उन्होंने राजेंद्र यादव के सवाल का जवाब दिया है) शीर्षक है 'कविता है यह'।

जरा संभल कर,

धीरज से बढ़,

बार-बार पढ़,

ठहर-ठहर कर,

आंख मूंद कर आंख खोल कर,

गल्प नहीं है,

कविता है यह।

वीरेन डंगवाल-पिछले दिनों उदय प्रकाश ने योगी आदित्यनाथ से सम्मान लिया। साहित्यिक जगत में इसकी काफी आलोचना हो रही है। आपकी क्या राय है?

--मेरे से फोन पर किसी ने कहा था कि ऐसा हुआ है। मुझे भी एतराज है। हम विरोध करते हैं। इतने बड़े लेखक को टुच्चे आदमी से पुरस्कार नहीं लेना चाहिए था। हम जातिवाद और सांप्रदायिक लोगों का विरोध करते हैं। इस मुद्दे पर मैंने पहले भी प्रतिक्रिया दी थी तो उदय जी के कई समर्थकों ने मुझसे नाखुशी जताई।  

-आज पत्रकारिता की जो स्थिति है, आप उस पर क्या सोचते हैं। दलित पत्रकारिता और विकास पत्रकारिता जैसी चीजें कम नहीं हो गई है?

--एक जमाने में कांशीराम कहा करते थे कि मैं अखबार निकालूंगा। हालांकि ऐसा हो नहीं पाया। आज दलितों की समस्या को एक सजा के तौर पर उठाया जा रहा है। जैसे किसानों की समस्या। सब यशोगान में लिप्त हैं। इतनी निर्ममता, इतनी संवेदनशून्यता पिछले 150 सालों की पत्रकारिता में कभी नहीं देखी-सुनी। आज अखबार बुनियादी समस्याओं से दूर जा रहे हैं। अखबार चलाने वाले प्रबंधन के लोग अपनी इच्छा को पाठकों की इच्छा समझते हैं। ये लोग काफी फर्जी सर्वे करवाते हैं। अब तो जातिवाद अखबारों के दफ्तरों में घुस गया है और यह शर्मनाक है। ऐसे में दलित पत्रकारिता की उम्मीद किससे की जाए। पत्रकारिता का काम लोगों को समकालीन बनाना है, मगर हमारी पत्रकारिता लोगों को परकालीन बना दे रही है। हालांकि अंग्रेजी के अखबारों ने इन चीजों के लिए अब भी जगह बचा रखी है।   

-टीवी पत्रकारिता के बारे में आपकी राय क्या है?

--यह विधा पत्रकारिता का उन्नत रूप है। कोई भी खबर तुरंत मिल जाना काफी अच्छी बात है, लेकिन हम शब्द के प्रेमी हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में राजदीप सरदेसाई, देवांग (एनडीटीवी), पंकज श्रीवास्तव (आईबीएन7), प्रियदर्शन (एनडीटीवी) और पूण्य प्रसून वाजपेयी (जी न्यूज) अच्छा कर रहे हैं।  

-अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाने पर काफी विरोध हो रहा है। कुछ लोगों ने इस्तीफा दे दिया है। इस मुद्दे पर आप क्या सोचते हैं?

--इन पचड़ों में मुझे मत घसीटो। यह चाय के प्याले में हलचल है। यह गंभीर साहित्य और लोकप्रिय साहित्य का विभाजन है। यह सही है कि अशोक चक्रधर का गंभीर साहित्य में कोई योगदान नहीं है। मगर अशोक चक्रधर के आने के पहले इस पद पर कौन था, बहुत कम लोग जानते हैं। ऐसे में अगर कोई सुपरिचित नाम आ गया तो क्या दिक्कत है। जहां तक कुछ लोगों के छोड़ने की बात है तो अकादमी सचिव ज्योतिष जोशी अच्छा काम कर रहे थे। अगर उन्होंने इस्तीफा दिया है तो जरूर कोई बात होगी। इससे नुकसान हुआ है।

-क्या हिंदी अकादमी जैसी संस्थाओं को राजनीति का अखाड़ा बनना चाहिए?

--अगर संस्थाएं स्वायत्त हों तो यह ज्यादा अच्छा है। मगर मौजूदा समय में यह संभव नहीं है। अशोक चक्रधर को मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से नजदीकी के कारण यह पद मिलने की बात कही जा रही है। हर कोई अपने लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने की कोशिश करता है।

-आप शिक्षक, पत्रकार और कवि तीनों हैं, तीनों को साथ लेकर चलने में कभी दिक्कत नहीं हुई?

--नहीं। बल्कि एक-दूसरे ने मुझे हर वक्त सहारा ही दिया, मदद ही की। अखबारों में काम करने में कविता ने मदद की। तो कविता लिखने में अखबारों ने मदद की। अखबारों में रहने के चलते तमाम जगहों से हर तरह की सूचनाएं आती थीं, उन्होंने मुझे कविता में खास दिशा दी। शिक्षक होने के कारण युवाओं से संवाद बना रहा। इससे अखबारों में भी युवाओं से काम लेने में दिक्कत नहीं हुई। बल्कि मेरे मित्रवत व्यवहार के कारण सबने क्षमता से अधिक काम किया।  

-भविष्य की क्या योजना है?

वीरेन डंगवाल

--अभी किया ही क्या है! पत्रकारिता और अध्यापन पर एक उपन्यास लिखना है। पत्रकारिता और अध्यापन का काम है सूचना और ज्ञान का वितरण करना। आज दोनों ही अपने काम में नाकाम हैं। उसी विषय पर लिखना चाहता हूं। पत्रकारिता में स्तंभ लेखन करना चाहता हूं। खूब घूमना चाहता हूं। घूमना अच्छा लगता है। इसी 05 अगस्त को नौकरी के 62 साल पूरे हो गए हैं। 31 अगस्त को कार्यमुक्त हो जाऊंगा। हालांकि साहित्य अकादमी अवार्ड मिलने के कारण मुझे तीन साल का एक्सटेंशन मिल सकता है। मंगलेश ने कहा भी कि बढ़वा लीजिए। मैंने कहा-

आगे किसू के क्या करें, दस्ते तमां दराज़

वो हाथ सो गया है, सिरहाने धरे-धरे।  


इस इंटरव्यू पर अगर आप कुछ कहना चाहते हैं तो अपनी राय सीधे वीरेन डंगवाल तक उनकी मेल आईडी virendangwal@gmail.com के जरिए पहुंचा सकते हैं.
--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment