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Monday, October 13, 2014

हिंदुत्व का कारोबार: आनंद तेलतुंबड़े

हिंदुत्व का कारोबार: आनंद तेलतुंबड़े


Posted by Reyaz-ul-haque on 10/12/2014 08:09:00 PM

 
हाशिए की आवाज स्तंभ के तहत समयांतर के अक्तूबर, 2014 अंक में प्रकाशित. अनुवाद:रेयाज उल हक

आनंद तेलतुंबड़े
 

नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले की प्राचीर से लोगों से जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयतावाद को दस साल तक स्थगित रखने के लिए बड़ी जोशीली अपील की, लेकिन इसके बावजूद उनके कुनबे की सांप्रदायिक हरकतें कम नहीं हो रही हैं. अपील के उलट, हाल में नौ राज्यों में उपचुनावों के प्रचार अभियान दौरान ये हरकतें इस घटिया स्तर तक पहुंच गईं, कि लोगों को लगने लगा कि भाजपा ने दोमुंहेपन और बेईमानी का अपना पुराना खेल फिर से शुरू कर दिया है. इसने विवादास्पद सांसद योगी आदित्यनाथ को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी और केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र के साथ उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीट के उपचुनाव की कमान सौंप दी. गोरखपुर से पांचवीं बार सांसद बने, भगवा कपड़े में लिपटे इस नौजवान योगी ने बड़े कम वक्त में इतनी बदनामी हासिल कर ली है कि वह भाजपा का हिंदुत्व का चेहरा बन गया है. मोदी के भाषण के महज दो दिन पहले, उसने संसद के भीतर सांप्रदायिक जहर उगलते हुए इस बात पर जोर दिया कि हिंदुओं को अल्पसंख्यकों के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह इस पर सहमति में सिर हिला रहे थे. भाजपा के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी के मुताबिक योगी को सोच-समझ कर उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के चेहरे के रूप में चुना गया था. यह बहुत साफ था कि भाजपा सांप्रदायिक रूप से लोगों को बांटना चाहती थी, मानो लोकसभा चुनावों के दौरान अमित शाह ने बड़ी महारत से जो किया था, वह कुछ कुछ उसे दोहराना चाहती थी.

मैंने पिछले स्तंभ में यह चेतावनी दी थी कि अगर हिंदुत्व ब्रिगेड की घटिया बदमाशियों को समय रहते काबू में नहीं किया गया तो वे भाजपा के लिए आत्मघाती साबित होंगी. उपचुनावों के नतीजों ने इसे सचमुच दिखा भी दिया. जिन नौ राज्यों की 32 सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से 26 सीटें भाजपा के पास थीं जिसे महज चार महीने पहले राष्ट्रीय चुनावों में शानदार जीत भी हासिल हुई थी. लेकिन उपचुनावों में वह महज 12 सीटें बचा पाई. सबसे तगड़ा झटका यूपी में लगा जहां अपने चुने हुए प्रचारक आदित्यनाथ के नेतृत्व में इसने 11 में 7 सीटें खो दीं. इसके बाद राजस्थान और गुजरात की बारी थी, जहां इसे लोकसभा चुनावों में पूरी तरह एकतरफा जीत हासिल हुई थी, वहीं उपचुनावों में दोनों राज्यों में 3-3 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा. इस हार ने संघी शिविर की बेबुनियाद उन्माद की हवा तो निकाली ही, इसने यह संकेत भी दिए कि भाजपा की भारी जीत के बावजूद इसका मुख्य जनाधार पहले के चुनावों की तरह अब भी करीब 22 फीसदी के आसपास ठहरा हुआ है. आम चुनावों में निर्णायक अंतर पहली बार वोट डाल रहे 4 करोड़ मतदाताओं की वजह से आया था, जो भाजपा की विकास संबंधी लफ्फाजी और रणनीतिक रूप से छिपा कर रखे हुए हिंदुत्व की वजह से उसकी तरफ आकर्षित हुए थे. उपचुनावों ने साफ तौर से यह जाहिर किया कि उन्होंने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को नकारा है. अगर भाजपा इसे नजरअंदाज करेगी तो वह खुद अपनी कब्र खोदेगी, लेकिन जिस मुद्दे पर इसे जरूर ही आत्मविश्लेषण करना चाहिए, वह यह है कि इसका सांप्रदायिक मुद्दा भविष्य के लिए कितना व्यावहारिक है.

हिंदुत्ववादी हेराफेरी

दूसरे अनगिनत मुद्दों पर भाजपा के लफ्फाजी से भरे हुए दिखावे के बावजूद, अपने मातृ संगठन आरएसएस से विरासत में हासिल किया हुआ हिंदुत्व इसकी बुनियादी विचारधारा है. संघ परिवार इसके बारे में चाहे जितनी गोल-मोल बातें, हिंदुत्व और कुछ नहीं बल्कि ऊंची जाति के कुलीनों द्वारा अपने नस्ली प्रभुत्व को फिर से हासिल करने की योजना है. भारत अंतर्विरोधों की जमीन है, जहां सबसे जमीनी स्तर पर भाषा अपने अर्थ खो देती है, जहां आजादी का मतलब गुलामी हो सकता है, जहां साम्राज्यवाद का मतलब साम्राज्यवाद-विरोध हो सकता है, जहां स्वराज का मतलब बंधुआगिरी हो सकती है और राष्ट्रीय का मतलब राष्ट्र-विरोधी हो सकता है. इसमें और भी चीजें जुड़ सकती हैं, जो इस पर निर्भर करता है कि आप किस जातीय समूह से जुड़े हुए हैं. 1818 में पेशवाई के पतन ने पुणे के चितपावनों को भारी सदमा पहुंचाया, जिसने उनमें से अनेक को ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने को प्रेरित किया. पारंपरिक रूप से इसे एक साम्राज्यवाद-विरोधी और क्रांतिकारी कदम माना जाता था, लेकिन असल में यह एक साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी कदम था, जिसे उन्होंने बुनियादी तौर पर अपना खोया हुआ राज हासिल करने के लिए उठाया था. क्योंकि अगर वे साम्राज्यवाद-विरोधी होते तो यकीनन उन्होंने अपनी दो तिहाई जनता के  हर कदम पर होने वाले जातीय उत्पीड़न पर गौर किया होता. 'हिंदुत्व' के जनक विनायक दामोदर सावरकर इन 'वीर क्रांतिकारियों' में आखिरी थे, जिन्होंने अपने लोगों को संगठित होने और उनके सपनों के लिए काम करने का विचारधारात्मक आधार मुहैया कराया. इसमें उनका 'अन्य' मुसलमानों और ईसाइयों को बनना था, जो मुख्यत: निचली जातियों से आते हैं. 1920 के दशक में महाराष्ट्र में दलितों के जो शुरुआती आंदोलन उभरे, उनसे पैदा हुए संभावित खतरे ने भी उनको संगठन के एक फासीवादी स्वरूप में संगठित होने की तरफ धकेला. इस तरह आरएसएस पैदा हुआ.

यूरोप का फासीवाद और नाजीवाद उनकी प्रेरणा रहे हैं. गोलवलकर के विचार-रत्नों की एक झलक देखने भर से पता चलता है कि वे कितने खतरनाक और छल-कपट से भरे हैं. यह महसूस करते हुए कि वे व्यापक जनता का 'ब्राह्मणवादीकरण' किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते, इसलिए उन्होंने अनेक ऐसे संगठनों का एक फंदा बनाया, जो ज्यादातर सामाजिक समूहों की जरूरतों को लगातार पूरा करता रह सकता था. इस तरह समय बीतने के साथ, वे आदिवासियों, दलितों और पिछड़ी जातियों के बड़े तबकों का ब्राह्मणवादीकरण करने में कामयाब रहे. एक तरफ जबकि दूसरी छोटी दलित जातियां आसानी से ही इस फंदे में आ गईं, अब तक ब्राह्मणवाद के कटु आलोचक रहे आंबेडकर के अनुयायियों को सामाजिक समरसता मंच के जरिए इस जाल में फांसा गया. आज भाजपा की झोली में सबसे ज्यादा अनुसूचित जातियों/जनजातियों के सांसद और विधायक हैं. एक तरफ जबकि संघ परिवार को अपनी ऐसी चालबाजियों में कामयाबी इत्तेफाक से इसके लिए अनुकूल, नवउदारवादी दौर में हासिल हुई है, वहीं इसके भीतरी अंतर्विरोध भी इस तरह विकसित हुए हैं, कि वे उसके उभार और अस्तित्व को सीमित कर रहे हैं. इसे यह महसूस नहीं होता है कि ये अंतर्विरोध बुनियादी रूप से उसकी विचारधारात्मक उद्देश्य की अस्पष्टता से पैदा हुए हैं. हिंदू, हिंदूवाद, हिंदुत्व, हिंदुस्तान: इसकी यह पसंदीदा शब्दावली असली लग सकती है, लेकिन बुनियादी रूप में ये अवास्तविक और धुंधली है. उनका न तो इतिहास में कोई वजूद था और न ही कहीं और.

हिंदू, हिंदुत्व, हिंदुस्तान

संघ के मुखिया मोहन भागवत का तरीका दो अलग अलग चीजों को बेहद सरलीकृत तरीके से आपस में जोड़-तोड़ कर उनसे एक मनमाना नतीजा निकालने का है. इसके तहत वे कहते हैं कि भारत हिंदुस्तान था, हिंदुस्तान के लोग हिंदू हैं और इस तरह भारत हिंदू राष्ट्र है. उन्हें शायद ही यह बात समझ में आई हो कि उन्होंने न केवल एक बेवकूफी की बात कह दी है, बल्कि वे जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं. क्योंकि इसका सीधा मतलब यह है कि अगर भारत पहले से ही एक हिंदू राष्ट्र है, तो उनका अभियान तो पूरा हो चुका है और इसलिए अब उन्हें अपनी दुकान बंद कर देने की जरूरत है. कोई भी देख सकता है कि संघ परिवार के पूरे अभियान की जड़ें या तो अज्ञानता में धंसी हुई हैं या फिर झूठ-फरेब में. जिस पहचान पर वे इतराते फिरते हैं, वो अपने सबसे बेहतरीन रूप में विदेशियों द्वारा दिया हुआ नाम है और बदतरीन रूप में एक अपमानजनक संबोधन है. इनमें से पहली स्थिति के मुताबिक, हिंदू शब्द फारसी लोगों द्वारा स का गलत उच्चारण करते हुए उसे ह कहने से पैदा हुआ, जो सिंधु नदी के पार रहने वाले लोगों के बारे में बताना चाहते थे. हालांकि यह एक लोकप्रिय धारणा है, लेकिन इसमें आलोचनात्मक नजरिया नहीं है और इसकी पुष्टि मुमकिन नहीं, क्योंकि फारसी भाषा में अनगिनत ऐसे शब्द हैं जो स से शुरू होते हैं (मसलन शिया, सुन्नी, शरीअत, साहिर, सरदार) और उनको सही-सही बोला जाता है. फारसी और तुर्क लोगों ने जिन अर्थों में हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया है, वे अर्थ उनके शब्दकोशों में मिलते हैं और वे भागवत और उनके संघ परिवार के लिए भारी शर्मिंदगी का कारण बन सकते हैं. उन शब्दकोशों में हिंदू का मतलब चोर, डकैत, रहजनी करने वाला, गुलाम, हुक्म मानने वाला नौकर और काली चमड़ी वाला भी होता है, जैसा कि हिंदू-ए-फलक का मतलब 'आसमान और शनि का कालापन' से जाहिर होता है. हिंदू शब्द के अपमानजनक होने का एक और पता 'हिंदू कुश' से चलता है, जो मध्य एशिया की सरहद पर स्थित पर्वतीय श्रृंखला है और जिसका मतलब हिंदुओं का हत्यारा है. इनमें से चाहे जो भी मामला हो, यह शब्द संस्कृत में या भारत की किसी भी स्थानीय बोली और भाषा में नहीं मिलता. 


हिंदू का कभी भी कोई धार्मिक मतलब नहीं था. प्राचीन फारसी कीलाक्षर शिलालेख और जेंद आवेस्ता, हिंदू शब्द का हवाला किसी धार्मिक नाम के बजाए एक भौगोलिक नाम के रूप में देते हैं. जब फारस के राजा डेरियस प्रथम ने 517 ईसा पूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप की सरहद तक अपनी सल्तनत का विस्तार किया, तो प्राचीन फारसी लोगों ने भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का जिक्र 'हिंदू' कह कर किया था. प्राचीन यूनानी और आर्मेनियाई लोगों ने भी यही उच्चारण अपनाया और इस तरह यह नाम चल पड़ा. जब बात हिंदूवाद की आई तो तिलक और राधाकृष्णन जैसे नायकों ने जो परिभाषा पेश की वह कोई परिभाषा ही नहीं थी. उसमें उन्होंने असल में हर चीज शामिल कर दी थी. आखिर में यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास आया, जिसे फैसला करना था कि हिंदूवाद क्या है. उसने 1966 में और फिर 1955 में इस पर फैसला दिया भी. स्वामीनारायण (1780-1830) के अनुयायियों द्वारा दायर किए गए मामले में उन्होंने दावा किया था कि वे लोग हिंदू नहीं हैं. ऐसा उन्होंने 1948 बॉम्बे हरिजन (टेंपल एंट्री) एक्ट को चुनौती देने के लिए किया था, जो दलितों को सभी मंदिरों में दाखिल होने का अधिकार देता है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राधाकृष्ण और कुछ यूरोपीय लोगों द्वारा दी गई परिभाषाओं का हवाला देते हुए, हिंदूवाद को इसकी सहिष्णुता और सबको मिला कर चलने के आधार पर परिभाषित किया. यह दिलचस्प बात है कि इसके पीछे असल में कुछ हिंदुओं द्वारा दूसरे हिंदुओं (दलितों) को अपने मंदिरों से बाहर रखने की इच्छा थी. संघ परिवार के दावों के उलट भारत में हरेक के हिंदू होने (या उसे हिंदू होना चाहिए) की बात कभी भी सच नहीं थी. वह सदियों पहले सिंधु घाटी और वेदों के दौर में सच नहीं थी, वह उत्तर भारत में शुरुआती आबादियों के बसने के बाद भी भारत के ज्यादातर हिस्सों के लिए सही नहीं थी, और यह बौद्ध धर्म के उदय के बाद तो यकीनन ही कभी सही नहीं रही.

भारत का विचार

यही मौका है जब संघ परिवार अपनी खामखयाली से बाहर आए और इतिहास के कुछ कठोर तथ्यों को समझे. वे जिस देश पर गर्व करने का नाटक करते हैं, उसे इंडिया या भारत कहा जाता है, हिंदुस्तान नहीं. यह उपनिवेशवादियों की देन है, यह अपनी इस शक्ल और आकार में इससे पहले कभी भी वजूद में नहीं था. जिन मुसलमानों से नफरत करना उन्हें पसंद है, वे तब से इस जमीन का हिस्सा हैं, जब आठवीं सदी में 17 बरस के मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर कब्जा किया और इस्लाम के विस्तार की राह खोल दी. ऐसा तलवार के दम पर नहीं हुआ, जैसा कि वे (संघ परिवार) यकीन करते हैं, बल्कि इसकी वजह यह थी कि उनके (संघ परिवार के) सनातन धर्म से सताई हुई निचली जातियों पर इस्लाम के बराबरी के पैगाम का असर हुआ था. बेहद समृद्ध इस विशाल उपमहाद्वीप में गुलामी का एक इतिहास रहा है, जिसके पीछे उनमें (संघ परिवार में) पाई जानेवाली श्रेष्ठतावादी सनक है और जिसका नतीजा आखिरकार भयानक तबाही वाले बंटवारे के रूप में सामने आया. इसके बाद भी, भारत में मुसलमानों की आबादी भारत को दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशों में से एक बनाती है. संघ परिवार जिस भारतीय संस्कृति पर बेकार ही गर्व करता है, उसमें मुसलमानों का योगदान उनकी आबादी के लिहाज से कहीं ज्यादा व्यापक है. असल में भारत की ज्यादातर पुरातात्विक धरोहर मुसलमानों की ही बदौलत है. जिस 'मेहराब' के बारे में प्राचीन या यहां तक कि मध्यकालीन भारत तक में कुछ पता नहीं था, वह उन्हीं की देन है, जिसने इन धरोहरों को इस लायक बनाया कि भारत अब भी उन पर गर्व करता है. कला और संगीत में उनका योगदान भी कहीं ज्यादा है. फिर भारत को आधुनिकता और बुनियादी ढांचा उपनिवेशवादियों ने मुहैया कराया, हालांकि ऐसा करने के पीछे उनके अपने हित काम कर रहे थे. लेकिन उनकी जगह लेने वाले देशी हुक्मरान इसकी आखिरी बूंद तक निचोड़ लेने को बेताब हैं.


अच्छा होगा, अगर संघ परिवार यह समझ ले कि उनका 'हिंदू' का धंधा कभी कारगर साबित नहीं होने वाला है. वे जितना इस प्रभुत्ववादी मंसूबे को आगे बढ़ाएंगे, उतना ही वे लोगों को अपने से दूर करते जाएंगे. यह बेहतर होगा कि वे बाबसाहेब आंबेडकर की इस सलाह को सुनें, जिनको वे 'प्रात:स्मरणीय' मानते हैं:

'हिंदुओं में उस चेतना की निहायत ही कमी है, जिसे समाजशास्त्री 'कॉन्शसनेस ऑफ काइंड' (समग्र वर्ग की चेतना) कहते हैं. हिंदू वर्ग चेतना जैसी कोई चीज नहीं होती. हरेक हिंदू में जो चेतना पाई जाती है, वह उसकी अपनी जाति की चेतना होती है. यही वजह है कि हिंदूओं से एक समाज या राष्ट्र बनने को नहीं कहा जा सकता.'

भारत का विचार इसकी जनता की बहुलता और विविधता का विचार है. सिर्फ इन्हीं शर्तों पर यह बहु-राष्ट्रीय देश वजूद में बना रह सकता है.

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