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Wednesday, October 16, 2013

वनांचल एक्सप्रेस क्यों?

वनांचल एक्सप्रेस क्यों?

शिवदास

वनांचल एक्सप्रेस वनांचल! बहुराष्ट्रीय कंपनियों, पूंजीपतियों, माफियाओं, नौकरशाहों और सफेदपोशों की 'लूट का केंद्र'! इन दिनों सभी की निगाहें रत्नगर्भा रूपी इस इलाके पर टिकी हैं। इसकी अकूत खनिज संपदा को लूटकर कोई विलासिता की जिंदगी बसर करना चाहता है तो कोई इसकी दलाली कर अपने बैंक खातों की जमा पूंजी में इजाफा। कुलाचे भरती आवारा पूंजी की चकाचैंध में हर कोई अपने सपने को साकार करने में लगा है जबकि देश की अधिकांश आबादी को इसकी खोखली बुनियाद से मुंह की खानी पड़ी है। इससे वनांचल का इलाका सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का करीब इक्कीस फीसद है। छह लाख बानबे हजार सत्ताइस वर्ग किलोमीटर में फैले वनांचल क्षेत्र का मूल बाशिंदा देश की आजादी के छांछठ वर्षों बाद भी बारिश और धूप से बचने के लिए पेड़ों की आड़ खोज रहा है। कभी जंगलों पर राज करने वाला आदिवासी आज अपनी पहचान के लिए जूझ रहा है। जंगलों के अवशेषों से पेट भरने की उसकी कोशिश कभी अपराध बन जाती है तो कभी नक्सली कारगुजारी। ऐसे आरोपों की जकड़न से वह कभी सलाखों के पीछे दम तोड़ देता है तो कभी जंगलों और पहाडि़यों में। कभी वह विस्थापन का दंश झेलता है तो कभी नक्सलवाद की राजनीति के नाम पर खेले जाने वाले खूनी संघर्ष का। कभी भुखमरी और कुपोषण उसकी जान लेती है तो कभी टीबी और दमा जैसी घातक बीमारियां। कैंसर, सिल्कोसिस, एनीमिया, मलेरिया, जापानी इंसेफलाइटिस सरीखी रहस्यमय बीमारियां तो इनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं। कभी प्रकृति कहर बरपाती है तो कभी मानव। कभी सरेआम मानवाधिकारों का हनन तो कभी थाना परिसरों के अंदर। इसके बावजूद वनांचल क्षेत्र के बाशिंदों के मुद्दे विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सदनों में चर्चा और बहस के विषय नहीं बनते। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों स्तंभों कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका ने वनांचल के मूल बाशिंदों को निराश किया है। वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों के बल पर अठखेलियां खेलती विदेशी पूंजी ने लोकतंत्र के कथित चैथे स्तंभ को भी अपनी आगोश में ले लिया है। कभी जनता की रहनुमाई करने वाला राष्ट्रीय मीडिया ( प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक) आज चंद पूंजी घरानों की जागीर बन चुका है और इनमें काम करने वाले पत्रकार उनके हाथों की कठपुतली। जो उनकी हाथों की कठपुतली नहीं बनता, वे उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। ऐसे में पत्रकारिता के सैद्धांतिक पहलुओं पर खबरों का प्रकाशन और प्रसारण करना पत्रकारों के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो रहा है। राष्ट्रीय स्तर के समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और टीवी न्यूज चैनलों में समाज के निचले पायदान पर जीवन व्यतीत करने वाले लोगों से जुड़े मुद्दे और खबरें गायब हैं। देश के सुदूर इलाकों में शोषण और दमन का नंगा नाच चल रहा है। जनवादी आवाजें दम तोड़ रही हैं। वनांचल क्षेत्र में लोगों की जिंदगी दांव पर लगी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां सत्ता में काबिज भ्रष्ट नौकरशाहों और सफेदपोशों के बल पर दलितों, आदिवासियों एवं वनवासियों की जिंदगी से खेल रही हैं। कभी उन्हें उनके गुर्गों का शिकार बनना पड़ता है तो कभी सत्ता की खाकी वर्दी का। इसके बावजूद दमन की ये खबरें कॉर्पोरेट मीडिया के प्राइम टाइम का हिस्सा नहीं बन पातीं। अगर खबर बनती भी हैं तो इसमें जनता ही ज्यादा गुनहगार होती है। इन घटनाओं की सच्चाई सामाजिक न्याय के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटल पर आ ही नहीं पाती है। इसके इतर भारत सरकार पूर्वोत्तर राज्यों अरुणांचल प्रदेश, असम, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा समेत जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण सीमा को उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र बताती है। मणिपुर और नागालैंड जातीय हिंसा का केंद्र बनते जा रहे हैं। आंध्र प्रदेश के 16, बिहार के 15, छत्तीसगढ़ के नौ, झारखंड के 18, ओडिशा के 15, उत्तर प्रदेश के तीन, पश्चिम बंगाल के तीन, महाराष्ट्र के तीन और मध्य प्रदेश के एक जिले केंद्र सरकार के दस्तावेजों में वाम पंथी उग्रवाद की चपेट में हैं। भले ही उत्तर प्रदेश के चंदौली, मिर्जापुर और सोनभद्र में पिछले आठ सालों में कोई बड़ी नक्सली वारदात न घटी हो। गौर करने वाली बात यह है कि वाम पंथी उग्रवाद से प्रभावित अधिकतर जिले वनांचल क्षेत्र के हिस्से हैं। इनके विभिन्न हिस्सों में छिपे खनिजों का दोहन करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां सत्ता के साथ गठजोड़ कर वाम पंथी उग्रवाद के नाम पर अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज का पुरजोर दमन करती हैं। इन हालात में एक ऐसे विकल्प की जरूरत है जो वनांचल और सुदूर ग्रामीण इलाकों की असली तस्वीर को लोगों के सामने पेश कर सके। वह वहां के लोगों की आवाज बन सके। उनके संवैधानिक अधिकारों की बात कर सके। उन्हें अपने हक के प्रति जागरूक कर सके। 'वनांचल एक्सप्रेस' जनवादी एवं प्रगतिशील पत्रकारों तथा बुद्धिजीवियों की ऐसी ही एक पहल है। यह मजलूमों और उपेक्षितों की सामूहिक आवाज है। यह अखबार ही नहीं, एक आंदोलन भी है।

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