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Sunday, April 7, 2013

डॉ आंबेडकर का दर्शन और जाति उन्मूलन

डॉ आंबेडकर का दर्शन और जाति उन्मूलन  भाग-एक

पहचान की राजनीति तो एकदम बकवास बात है

जाति प्रथा से दलित समुदाय के ही विशेष बुद्धिजीवी तबके को इतने लाभ मिले हैं कि यह तबका शासक वर्ग का हिस्सा बन चुका है

जातिवादी आन्दोलन समाधान नहीं है, क्योंकि जातिवादी दलित आन्दोलन की लड़ाई पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर की लड़ाई है

जाति उन्मूलन जमीन और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से भी नहीं होगा

जे. पी. नरेला 

http://hastakshep.com/?p=31258

जाति प्रथा भारतीय समाज की एक विशिष्टता है, जो सदियों से चली आ रही है। सामंती व्यवस्था में जाति और वर्ग एक ही बात थी। उस व्यवस्था में वंशानुगत पेशों को बदलने पर दंड का प्रावधान था।                                                                                                                             रामास्वामी पेरियार और भारत में जाति प्रथा के विरोध में गतिविधियाँ 19वीं शताब्दी में शुरू हो गयी थीं। महात्मा ज्योतिबा फुले से लेकर उनके बाद डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ! ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में दलित और पिछड़ों को शिक्षित करने की प्रतिज्ञा की। इसके लिये उन्होंने स्कूल खोले। उनकी पत्नी साबित्री बाई फुले ने निचली जाति की महिलाओं की शिक्षा के लिये स्कूल खोलकर स्वयं उन्हें पढ़ाया। ज्योतिबा फुले को यह समझ में आया कि शिक्षा ही एक ऐसा हथियार है जिससे ब्राह्मणवाद का मुकाबला किया जा सकता है। इसलिये उन्होंने लोगों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। इस तरह उन्होंने समाज सुधारक की भूमिकाअदा की।

रामास्वामी पेरियार मद्रास के निवासी थे और पिछड़ी जाति से सम्बन्धित थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ जबरदस्त सामाजिक औऱ राजनीतिक आन्दोलन चलाये। इसके लिये सवर्णों ने कई बार उनका अपमान भी किया। उन पर जूते, चप्पल फेंके गये। ब्राह्मणवादी व्यवस्था विरोधी संघर्षों के चलते उनको बार- बार जेल जाना पड़ा। लेकिन पेरियार ने इसकी परवाह किये बिना अपने संघर्षों को जारी रखा। सरकारी नौकरियों में आरक्षण व सत्ता में दलितों-पिछड़ों की भागीदारी के सवाल को वे बार-बार उठाते रहे। रामास्वामी पेरियार का मानना था, कि सरकारी नौकरियों और सत्ता में भागीदारी मिलने से दलितों और पिछड़ों का कल्याण हो सकता है। उन्होंने मद्रास में दलितों की सत्ता भी कायम की।लेकिन वे अपनी समझदारी के फलक को राष्ट्रीय पैमाने पर ला पाने में असफल रहे। वे मद्रास तक सिमट कर क्षेत्रियतावाद के शिकार हो गये। इसके बाद भी उन्होंने अपने संघर्षों के दम पर ब्राहम्णवादी व्यवस्था को काफी हद तक कमजोर किया। वे एक सामाजिक -राजनीतिक सुधारक थे।

डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने भारतीय जातिप्रथा (ब्राह्मणवादी व्यवस्था) का राष्ट्रीय फलक पर जोरदार तरीके से विरोध और संघर्ष किया। संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी में डॉक्टर आंबेडकर ने दलितों और कमजोर तबके के लिये बुनियादी तौर पर दो प्रस्ताव रखे। उनके दोनों ही प्रस्ताव काग्रेस और गांधी जी के विरोध की वजह से पारित न हो सके। डॉक्टर आंबेडकर के इन प्रस्तावों को रखा था।

1-                       उद्योगो और जमीन का राष्ट्रीयकरण।

2-                       दलितों को पृथक् निर्वाचन प्रणाली और सामान्य निर्वाचन प्रणाली का अधिकार मिले।

डॉक्टर आंबेडकर का मानना था कि प्रमुख उद्योग या जिन्हें राज्य की ओर से प्रमुख राज्य घोषित किया जाये, वे राज्य के स्वामित्व में रहेंगे या राज्य की ओर से चलाये जायेंगे।

वे उद्योग जो प्रमुख उद्योग नहीं हैं किन्तु बुनियादी उद्योग हैं, उन पर राज्य का स्वामित्व नहीं होगा लेकिन ये उद्योग राज्य की ओर से स्थापित नियमों से चलाये जायेंगे।  कृषि उद्योग निम्नलिखित आधार पर संगठित किये जायेंगे।

1- राज्य अर्जित भूमि को मानक आकार के फार्मों में विभाजित करेगा और उन्हें गाँव के निवासियों को पट्टेदारों के रूप में (कुटुंबों के समूह से निर्मित), निम्न शर्तों पर देगा।

क-    फार्म पर खेतीबाड़ी सामुदायिक फार्म के रूप में की जायेगी।

ख- फार्म पर खेतीबाड़ी सरकारी नियमों और निर्देशों के आधार पर होगी।

ग-पट्टेदार फार्म पर उचित रूप से उगाही करने योग्य प्रभार अदा करने के बाद फार्म की शेष उपज को आपस में विहित रिति से बाँटेंगे।

2- भूमि गाँव के लोगों को जाति या पन्थ के भेदभाव के बिना पट्टे पर दी जायेगी। यह जमीन ऐसी रीति पर पट्टे पर दी जायेगी कि कोई जमींदार न रहे, कोई पट्टेदार न रहे और कोई भूमिहीन मजदूर न रहे।

3 राज्य- पानी, जोतने-बोने के लिये पशु, उपकरण, खाद, बीज आदि देकर सामूहिक खेती के लिये प्रोत्साहित करेगा।

राज्य समर्थ होगा-

क- फार्म की उपज पर निम्नलिखित प्रभार लेने के लिये।

1-                       भू राजस्व का एक अंश।

2-                       ऋण पत्र धारकों को अदा करने के लिये एक अंश।

3-                       प्रदत्त पूँजीगत माल के उपयोग के लिये अदा करने के लिये एक अंश।

ख-                    राज्य उन सदस्यों के लिये जुर्माना लगाने करने के लिये हकदार होगा जो पट्टेदारी की शर्तों को तोड़े अथवा राज्य द्वारा प्रदत्त खेतीबाड़ी के साधनों का सर्वोत्तम उपयोग करने में जान-बूझकर उपेक्षा करे या सामूहिक खेती करने की योजना पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला काम करने पर।

संयुक्त राज्य भारत का संविधान  प्रस्तावित उद्देश्यिका। खण्ड-चार, पेज नंबर 180  संपूर्ण वांगमय खण्ड-दो 12 नवंबर 1930 गोलमेज सम्मेलन  संपूर्ण वांगमय खण्ड- पांच  विधानमण्डल में समुचित प्रतिनिधित्व।  परिशिष्ट-1  स्वाधीन भारत के भावि संविधान में दलित वर्गों की सुरक्षा के लिये कुछ राजनीतिक उपाय।     ( डॉक्टर आंबेडकर और राव बहादुर आर श्रीनिवास द्वारा प्रस्तुत)

16 जनवरी 1931, छठी बैठक, पूर्ण अधिवेशन।

दलित वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिये विधायिका और कार्यपालिका पर अपना प्रभाव डाल सकें, इसके लिये उन्हें पर्याप्त राजनीतिक अधिकार मिलने चाहिये। इसके लिये चुनाव कानून में निम्नांकित चीजें जोड़ी जायें।

क-                    प्रान्तीय  और केन्द्रीय विधान मण्डलों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व का अधिकार।    अपने ही लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार। वयस्क मताधिकार - शुरू के 10 साल के लिये पृथक् निर्वाचन मण्डलों द्वारा और उसके बाद सयुंक्त निर्वाचक मण्डलों और आरक्षित सीटों द्वारा। यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि संयुक्त निर्वाचक मण्डल की बात दलित वर्ग तभी मानेगा, जब चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा।

नोट :  दलितों के लिये पर्याप्त प्रतिनिधित्व क्या है, इस बारे में कोई संख्या बताना तब तक सम्भव नहीं है, जब तक कि यह न पता चल जाये कि अन्य समुदायों को कितना मिल रहा है। यदि दूसरे समुदायों को दलितों से बेहतर प्रतिनिधित्व मिल जायेगा, तो दलित इसे स्वीकार नहीं करेंगे। वैसे मद्रास और बंबई के दलितों को अन्य अल्पसंख्यकों की तुलना में ज्यादा प्रतिनिधित्व तो मिलना ही चाहिये।

(गोलमेज सम्मेलन)  पूर्ण सम्मेलन की समिति द्वारा 19 जनवरी, 1931 को अनुमोदित किया गया :   पृष्ठ 71

16 अग्स्त 1932 को जारी किये गये अवार्ड के विरोध में ज्ञापन साम्प्रदायिक पंचाट ( पृष्ठ 311 संपूर्णवांगमयखण्ड-पांच)

अवार्ड के बाद से दलित वर्गों के सम्बंध में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है, जिसका इतिहास संक्षेप में इस प्रकार है-

अवार्ड जारी किये जाने पर गांधी जी ने दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व से सम्बंधित इसमें लिये गये उपबन्धों के प्रति आपत्ति जताते हुये उसके विरोध में अनशन करने का फैसला किया, क्योंकि श्री गांधी के विचार में इससे हिन्दू समाज का कृत्रिम विभाजन हो जायेगा। प्रकाशित दस्तावेजों में प्रधानमन्त्री ने उन कारणों का उल्लेख किया है जिससे सरकार इस मत का समर्थन नहीं कर सकी। लेकिन श्री गांधी इससे संतुष्ट नहीं हुये। उन्होंने अनशन शुरू कर दिया। श्री गांधी के मार्गदर्शन में सवर्ण हिन्दुओं के प्रतिनिधियों और दलित वर्गों के प्रतिनिधियों जिनका नेतृत्व डॉक्टर आंबेडकर ने किया, के बीच बातचीत शुरू हुयी। परिणामस्वरूप एक समझौता हुआ। इसे 'पूना पैक्ट' के नाम से जाना जाता है। इसके बाद प्रत्येक राज्य में दलित वर्गों के स्थानों की संख्या उपर्युक्त रूप में बढ़ा दी गयी, जैसा कि साम्प्रदायिक पंचाट में सिफारिश की गयी थी और एक निर्वाचक प्रणाली प्रतिस्थापित की गयी। सवर्ण हिन्दुओं के लिये हिन्दू सीटों, (जिन्हें तकनीकी रूप से सामान्य सीट कहा गया) और दलित वर्गों की सीटें मिलाकर कुल संख्या 'पूना पैक्ट' के अधीन वही रही, जो मूल साम्प्रदायिक पंचाट के अनुसार थी। सरकार ने अपने साम्प्रदायिक पंचाट में उपर्युक्त पैरा चार में वर्णित उपबन्धों के अधीन एक परस्पर सहमतिजन्य व्यवहार्य विकल्प  के रूप में उपांतरण करते हुये इस समझौते के उपबन्धों को स्वीकार कर लिया और इसकी घोषणा किये जाने पर श्री गांधी ने अपना अनशन तोड़ दिया।

 

जय प्रकाश नरेला, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। जाति विरोधी संगठन के संयोजक हैं।

20 सितंबर 1932 को श्री गांधी ने अस्पृश्यों को पृथक् मतदान के विरोध में अपना 'आमरण अनशन' शुरू किया। अनशन से समस्या उत्पन्न हो गयी। समस्या यह थी कि श्री गांधी के प्राण कैसे बचाये जायें। उनके प्राण बचाने का केवल एक ही उपाय था। वह यह था कि साम्प्रदायिक पचांट को रद्द कर दिया जाये, जिसके बारे में श्री गांधी कहते थे कि इसने उनकी आत्मा को हिला दिया है। प्रधानमन्त्री ने एकदम स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश मंत्रिमण्डल उसे वापस नहीं लेगा और न ही उसमें अपने आप कोई परिवर्तन करेगा। लेकिन वे किसी ऐसे सिद्धान्त को जो सवर्ण हिन्दुओं और अपृश्यों को मान्य हो, उसके स्थान पर लाने के लिये तैयार थे। चँकि मुझे गोलमेज सम्मेलन में दलितों का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य मिला था, इसलिये यह मान लिया गया कि अस्पृश्यों की सहमति मेरे उसमें शामिल हुये बिना मान्य नहीं होगी। आश्चर्य की बात यह थी कि भारत के अस्पृश्यों के प्रतिनिधि और नेता के रूप में मेरी स्थिति पर कांग्रेसियों ने प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया। लेकिन उसे वास्तविक रूप में स्वीकार किया। स्वभावत: सबकी आंखें मेरी ओर लगी थीं, जैसे कि मैं इस नाटक का खलनायक हूँ।

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इन जटिल परिस्थितियों में मैं असमंजस में पड़ गया। मेरे सामने दो ही रास्ते थे। मेरे सामने कर्तव्य था, जिसे में मानवीय कर्तव्य मानता हूँ कि श्री गांधी के प्राणों को बचाया जाये। दूसरी ओर मेरे सामने समस्या थी कि अस्पृश्यों के उन अधिकारों की रक्षा की जाये, जो प्रधानमन्त्री ने दिये थे। मैंने मानवता की पुकार को सुना और श्री प्राणों की रक्षा की। मैं साम्प्रदायिक में ऐसे ढंग से परिवर्तन करने के लिये राजी हो गया जो श्री गांधी को संतोषजनक लगे। वह समझौता पूना पैक्ट के रूप में जाना जाता है।

पूना पैक्ट का मूल पाठ-

समझौते का मूल पाठ इस प्रकार था :__

1-                       प्रान्तीय विधानमण्डलों में सामान्य निर्वाचित सीटों में से दलित वर्गों के लिये सीटें सुरक्षित की जायेंगी, जो निम्न प्रकार होंगी।

मद्रास 30, मुंबई और सिंध को मिलाकर 15, पंजाब में आठ, बिहार और उड़ीसा 18, मध्य प्रान्त 20, असम सात, बंगाल 30, संयुक्त प्रान्त 20, कुलयोग-148। यह संख्या प्रान्तीय की कुल संख्या पर आधारित थी, जिन्हें प्रधानमन्त्री ने अपने फैसले में घोषित किया था।

2-                       इन सीटों का चुनाव संयुक्त निर्वाचन प्रणाली द्वारा निम्नलिखित प्रक्रिया से किया जायेगा। दलित वर्गों के सभी लोग जिनके नाम उस निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में दर्ज होंगे, एक निर्वाचन मण्डल में होंगे, जो प्रत्येक सुरक्षित सीट के लिये दलित वर्ग के चार अभ्यर्थियों का पैनल चुनेगा। वह चुनाव पद्धति एकल मत प्रणाली के आधार पर होगी। ऐसे प्राथमिक चुनाव में जिन चार सदस्यों को सबसे अधिक मत मिलेंगे, वे सामान्य निर्वाचन के लिये उम्मीदवार माने जायेंगे।

3-     केन्द्रीय विधानमण्डल में दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व उपरोक्त खण्ड दो में उपबन्धित रीति से संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के सिद्धान्त पर होगा और प्रान्तीय विधानमण्डलों में उनके प्रतिनिधित्व के लिये प्राथमिक निर्वाचन के तरीके द्वारा सीटों का आरक्षण होगा।

4-     केन्द्रीय विधानमण्डल में अंग्रेजी राज के तहत सीटों में से दलित वर्ग के लिये सुरक्षित सीटों की संख्या 18 प्रतिशत होगी।

5-     उम्मीदवारों के पैनल की प्राथमिक चुनाव व्यवस्था केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानमण्डलों के लिये जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है प्रथम दस वर्ष के बाद समाप्त हो जायेगी। दोनों पक्षों की आपसी सहमति पर निम्नलिखित पैरा 6 के अनुसार इसे पहले भी समाप्त किया जा सकता है।

6- प्रान्तीय तथा केन्द्रीय विधानमण्डलों में दलितों के लिये सीटों का प्रतिनिधित्व , जैसा की ऊपर खण्ड-1 और 4 में दिया गया है, तब तक जारी रहेगा, जब तक कि दोनों सम्बंधित पक्षों में से समाप्त करने पर सहमति नहीं हो जाती।                      7-   केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानमण्डलों के चुनाव के लिये दलितों को मतदान का अधिकार उसी प्रकार होगा जैसा लोथियन समिति की रिपोर्ट में कहा गया है।                                                                                                                                                                                       8-    दलित वर्गों के सदस्यों को स्थानीय निकाय चुनावों तथा सरकारी नौकरियों में अस्पृश्य होने के आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जायेगा। दलितों के प्रतिनिधित्व को पूरा करने के लिये सभी  तरह के प्रयत्न किये जायेंगे और सरकारी नौकरियों में उनकी नियुक्ति निर्धारित शैक्षिक योग्यता के अनुसार की जायेगी।                                                                                                                   9-  सभी प्रान्तों में शैक्षिक अनुदान से उन दलितों के बच्चों को सुविधायें प्रदान करने के लिये समुचित धनराशि नियत की जायेगी

तुच्छ चालें।

समझौते की शर्तें श्री गांधी ने मान लीं और उनको भारत सरकार के अधिनियम में शामिल कर लिया गया। पूना पैक्ट पर विभिन्न प्रतिक्रियायें हुयीं। अस्पृश्य दुखी थे। ऐसा होना स्वाभाविक था। बहुत से लोग उस समझौते के पक्ष में नहीं हैं। वे यह जानते हैं कि यह सही है कि प्रधानमन्त्री द्वारा कम्य़ुनल अवार्ड में दी गयी सीटों की अपेक्षा पूना पैक्ट में अस्पृश्यों को अधिक सीटें दी गयी हैं। पूना पैक्ट से अस्पृश्यों को 148 सीटें मिली हैं, जबकि कम्युनल अवार्ड में 78 सीटें मिलनी थीं। परन्तु इससे यह परिणाम निकालना कि कम्युनल अवार्ड की अपेक्षा पूना पैक्ट में बहुत कुछ अधिक दिया गया है, वास्तव में कम्युनल अवार्ड की उपेक्षा करना है क्योंकि कम्युनल अवार्ड़ ने भी अस्पृश्यों को बहुत कुछ दिया है।

कम्युनल अवार्ड से अस्पृश्यों को दो लाभ थे।

पृथक् मतदाता प्रणाली द्वारा अस्पृश्यों के लिये सीटों का निश्चित कोटा जिन पर अस्पृश्य उम्मीदवारों को ही चुना जा सकता था।

1-                       दोहरी मतदान सुविधा  – वे एक वोट का उपयोग पृथक् मतदान के तहत दे सकते थे औऱ दूसरा आम चुनाव के समय देते। अब यदि पूना पैक्ट ने सीटों का कोटा बढ़ा दिया गया है तो इसने दोहरे मत की सुविधा भी समाप्त कर दी है। सीटों की वृद्धि दोहरे मत की सुविधा की हानि की क्षतिपूर्ति कभी नहीं कर सकती। कम्युनल अवार्ड द्वारा दिया गया दोहरे मतदान का अधिकार अमूल्य और विषेष अधिकार था। यह एक राजनीतिक हथियार था, जिसकी बराबरी नहीं की जा सकती। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में मतदान करने योग्य अस्पृश्यों की संख्या पूर्ण मतदान संख्या का दसवां भाग है। इस मतदान शक्ति से आम हिन्दू उम्मीदवारों के चुनाव में अस्पृश्यों की स्थिति निर्णायक होती, चाहे साधिकार न भी हो। कोई भी सवर्ण हिन्दू अपने निर्वाचन क्षेत्र में अस्पृश्यों की उपेक्षा नहीं कर पाता और अस्पृश्यों को आँख दिखाने की भी स्थिति में नहीं रहता। अस्पृश्यों के मतों पर निर्भर करता। आज अस्पृश्यों की कम्युनल अवार्ड की अपेक्षा कही अधिक सीटें मिली हैं। बस उन्हें यही मिला है। प्रत्येक सदस्य यदि क्षुब्ध नहीं भी है तो भी उदासीन है। यदि कम्युनल अवार्ड द्वारा दिया गया दोहरे मतदान का अधिकार बरकरार रहता, तो अस्पृश्यों को कुछ सीटें भले ही कम मिलतीं परन्तु प्रत्येक सदस्य अस्पृश्यों के लिये भी प्रतिनिधि होता। अस्पृश्यों के लिये अब सीटों की संख्या में की गयी बढ़ोत्तरी कोई बढ़ोतरी नहीं है। इससे पृथक् मतदान प्रणाली और दोहरे मतदान की क्षतिपूर्ति नहीं होती। हिन्दुओं ने यद्दपि पूना पैक्ट पर खुशियाँ नहीं मनायीं, वे इसे पसन्द नहीं करते। वे इस अफरातफरी में श्री गांधी के प्राणों की रक्षा के लिये चिन्तित थे। इस दौरान भावना की लहर चल रही थी कि श्री गांधी के प्राण बचाना महान कार्य है। इसलिये जब उन्होंने समझौते की शर्तें देखीं, तो वे उन्हें पसन्द नहीं थीं। लेकिन उनमें उस समझौते को अस्वीकार करने का भी साहस नहीं था। जिस  समझौते को हिन्दुओं ने पसन्द नहीं किया और अस्पृस्य उसके विरोध में थे, पूना पैक्ट का दोनों पक्षों को स्वीकार करना पड़ा और उसे भारत सरकार ने अधिनियम में शामिल कर लिया।

क्रमशः जारी …

बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –

डॉ आंबेडकर का दर्शन और जाति उन्मूलन  भाग- दो डॉ. आंबेडकर का दर्शनशास्त्र उनको अध्यात्मवाद की श्रेणी में खड़ा कर देता है !

सर्व-हारा के मुक्तिदाता का जयगान सर्वस्व-हाराओं के देश में !

To the Self-proclaimed Teachers and Preachers : debate on 'Caste Question and Marxism'

क्या डॉ. आंबेडकर विफल हुये?

विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में बदल जाते हैं !

बहस अम्‍बेडकर और मार्क्‍स के बीच नहीं, वादियों के बीच है

दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।

बीच बहस में आरोप-प्रत्यारोप

'हस्‍तक्षेप' पर षड्यन्‍त्र का आरोप लगाना वैसा है कि 'उल्‍टा चोर कोतवाल को डांटे'

यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !

भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं

भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते

कुत्‍सा प्रचार और प्रति-कुत्‍सा प्रचार की बजाय एक अच्‍छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय

Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde

तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया

हाँडॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी

अम्‍बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

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