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Wednesday, April 3, 2013

इतिहास के खिलाफ भूगोल का महासंग्राम!अब संविधान लागू करने का आंदोलन!

इतिहास के खिलाफ भूगोल का महासंग्राम!अब संविधान लागू करने का आंदोलन!


पलाश विश्वास

अब लड़ाई आर पार की है।इतिहास के खिलाफ भूगोल का महासंग्राम है।जो लोग अगले १३ अप्रैल को देश विदेश में जय भीम जय मूलनिवासी की रणहुंकार के साथ संविधान निर्माता बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन मनाने की तैयारी कर रहे हैं, खासकर उनसे निवेदन है​ ​ कि वर्चस्ववादी सत्ता के नियंत्रण में कैद शक्ति स्रोतों पर दखल के बिना, भूमि, ज्ञान विज्ञान, संपत्ति और संसाधनों के न्यायोचित बंटवारे के​ ​ बिना सिर्फ  राजनैतिक आरक्षण और सिर्फ सत्ता में भागेदारी कसे व्यवस्था नहीं बदलने वाली और न बहुजनों की मुक्ति इस तरह की ​​सौदेबाजी और दुकानदारी से संभव है।इस लड़ाई के लिए बाबासाहेब निर्मित भारत का संविधान और इस देश की बहुलतावादी संस्कृति, लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाये रखना हमारा पहला और अनिवार्य कार्यभार है।बहुजनों को मुक्ति चाहिए तो, समता , समान अवसर और ​​सामाजिक न्याय आधारित स्वतंत्र लोकतांत्रिक भ्रातृत्वमूलक शोषण उत्पीड़न दमन भय मुक्त समाज की स्थापना करनी है तो नस्ली भेदभाव, विशुद्धता और वंशवाद आधारित पुरुषतांत्रिक जाति व्यवस्था का अंत आवश्यक है।राष्ट्र का चरित्र अर्ध सामंती और अर्ध औपनिवेशिक है और राष्ट्रशक्ति एक पारमाणविक सैन्य व्यवस्था है, जिसपर आधिपात्यवादी जायनवादी धर्मराष्ट्रवादी कारपोरेट साम्राज्यावद के दलाल और मुक्त बाजार के मुनाफाखोर, बिल्डर, प्रोमोटर, माफिया, दलाल और बाहुबलि काबिज है। राजकाज कालाधन का कारोबार है।ऐसे में समझना होगा कि बहुजन आंदोलन दरअसल बौद्धमय भारत के समय से मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा सभ्यताओं के पतन के बाद आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलन के समन्वय की निरंतरता है। बीरसा मुंडा ने खुद को भगवान साबित किया या हरिचांद ठाकुर ने ब्राह्णणवादी वैदिकी कर्मकांड को खारिज करके मतुआ धर्म आंदोलन चलाया तो इससे वास्तव बदल नहीं जाता। जाति विमर्श सिर्फ  दलितों या सिर्फ पिछड़ों का मामला नहीं है । इस जातिव्यवस्था से ​​ऊपर हैं ब्राह्मण। बल्कि हकीकत यह है कि शूद्र जो मूलतः देशभर के किसान और कृषि आधारित आजीविकाओं से जुड़े लोग हैं, जिन्हें शूद्र​ ​ कहा गया और जो अस्पृश्य हैं, उन्हींको विभाजित करने की व्यवस्था है। बहुजन समाज का निर्माण ही इस व्यवस्था का अंत कर सकता है।बहुजन समाज का निर्माण तब तक नहीं हो सकता जबतक कि उत्पादक और सामाजिक शक्तियों का  एकीकरण नहीं हो जाता।


यह भ्रम है कि उत्पादनसंबंधों के आधार पर जाति व्यवस्था का निर्माण हुआ। जो समुदाय तीन वर्णों में है, उनका उत्पादन से कोई लेना ​​देना नहीं है। उत्पादक या तो शूद्र हैं या अस्पृश्य, जिन्हें जातियों में विभाजित किया गया है। इसलिए उत्पादन संबंध नहीं, बल्कि नस्ली ​​भेदभाव, वंशवाद, पुरुषतंत्र और भौगोलिक भेदभाव व अलगाव जाति व्यवस्ता का मूलाधार है। बाबासाहेब के सिद्धांतो के आधार पर जाति का उन्मूलन करना है तो पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी समुदाय या भूगोल के किसी हिस्से से भेदभाव नहीं हो और न उनका अलगाव हो। ​

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​यह समझने के लिए कश्मीर से नगांलैंड और मणिपुर तक के दमन, उत्पीड़न और शोषण के शिकार भूगोल, दंडकारण्य और गोंडवाना समेत समूचा मध्यभारत, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के प्रति सत्तावर्ग के नस्ली भेदभाव के सामाजिक यथार्थ को समझना होगा। आदिवासी पूरी तरह अलगाव और सेग्रीगेशन के शिकार हैं तो पूर्वोत्तर में भारतीय संविधान और लोकतंत्र का अहसास ही नहीं है। मध्य भारत में तो संविधान के नाम पर रंग बिरंगा सलवाजुड़ुम है। बाबासाहेब की परिकल्पना को साकार करना होगा तो यह नस्ली भेदभाव खत्म करना हमारा कार्यभार होना चाहिए।देश के समूचे भूगोल को संवाधैनिक कानून के राज के अंतर्गत लाने की अनिवार्यता है। आदिवासियों को जंगल के मुक्तिसंघर्ष के तिलिस्म से बाहर पूरे  देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल करने की जरुरत है। इसके बिना न बहुजन समाज का निर्माण संभव है और न बहुजन मुक्ति आंदोलन। समता, भ्रातृत्व और सामाजिक न्याय कुछ फीसद लोगों को आरक्षण के जरिये सत्ता में हिस्सेदारी और अच्छी नौकरियां मिल जाने से संभव नहीं है।


भारतीय संविधान के मुताबिक संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों को लागू किे बिना पूना समझौते के आधार पर अनुसूचित क्षेत्रों में लसंसद, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों का निर्वाचन अवैध हैं। सत्ता वर्ग द्वारा मनोनीत जनप्रतिनिधि बहुजन समाज के प्रतिनिधि हैं ही नहीं।​​ पुनः, ऐसे विधायकों और सांसदों के मतदान से संविधान संशोधन या कानूनों में संशोधन, नीति निर्धारण भी पूर्णतः अवैध है। वित्तीय कानून बदलकर जो जनविरोधी नीतियों के तहत आर्थिक सुधार लागू किये जा रहे हैं, वे संविधान की धारा ३९ बी और सी, जिसके तहत संपत्ति और​​ संसाधनों पर जनता के हक हकूक तय हैं, संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों, नागरिक और मानवाधिकारों का खुल्लमखुल्ला​​ उल्लंघन है। बहुजन समाज के झंडेबरदारों को इस अन्याय के खिलाफ अब मुखर होना ही चाहिए। पांचवीं और छठी अनुसूचियों के तहत आनेवाले इलाकों में आदिवासी ही नहीं, गैर आदिवासियं को भी संवादानिक रक्षाकवच मिला हुआ है। वहां भूमि और संसाधनों, जिसमें जल, जंगल,​​ पर्यावरण, खनिज इत्यादि प्राकृतिक संपदाओं के स्वामित्व का हस्तांतरणसंभव नहीं है। राष्ट्रहित के विपरीत अबाध पूंजी प्रवाह के बहाने कालेधन की व्यवस्था, देशी और विदेशी पूंजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले भूमि, संसाधन और प्राकृतिक संपदा का हस्तांतरण न सिर्फ ​​असंवैधानिक है, यह सरासर राष्ट्रद्रोह है। इसी नजर से देखें तो कोयला ब्लाकों का ब्ंटवारा सिर्फ घोयाला नहीं है, यह राष्ट्रद्रोह का मामला है। इसी तरह विकास परियोजनाओं के बहाने, परमामु संयंत्रों और बड़े बांधों, सेज, इंडस्ट्रीयल कारीडोर, इंफ्रास्ट्रक्चर के बहाने अनसूचितों का विस्थापन देशद्रोह का मामला है।संविधान के मौलिक अधिकारों को स्थगित करके नस्ली भेदभाव के तहत आदिवासी इलाकों, हिमालय और पूर्वोत्तर में ​​दमनात्मक उत्पीड़नमूलक सैन्य कानून और व्यवस्था लागू करना जितना असंवैधानिक है, उतना ही असंवेधानिक है नागरिकता कानून में संशोधन के जरिये शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों को देशनिकाला, नागरिक संप्रभुता और गोपनीयता का उल्लंघन करते हुए बायोमेट्रिक आधार कार्ड योजना, जिसके बहाने नागरिकों को आवश्यक सेवाओं, वेतन और मजदूरी के भुगतान पर भी रोक लगायी जा रही है।पर्यावरण संरक्षण प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के स्वामित्व और उनके जनप्रबंधन को स्थापित करता है। पर पर्यावरण कानून की धज्जियां ुड़ाकर विकास परियोजनाओं के जरिे विदेशी निवेशकों की आस्था अर्जित करके कालाधन की ्र्थव्यवस्था को मजबूत करने की परंपरा बन गयी है। इसीतरह समुद्रतट सुरक्षा कानून अतरराष्ट्रीय कानून है, जिसके तहत बायोसाइकिल में परिवर्तन या समुद्रतटवर्ती इलाकों के लैंडस्कैप से छेड़छाड़​ ​ गैरकानूनी है। इसीतरह वनाधिकार कानून लागू ही नहीं हो रहा है। खनन अधिनियमम और भूमि अधिग्रहण कानून में कारपोरेट हित मे संशोधन देशद्रोह ही तो है। सार्वजनिक बुनियादी सेवाओं का कारपोरेटीकरण, निजीकरण, विनिवेश और ग्वलोबीकरण न सिर्प धारा ३९ बी और सी काउल्लंगन है, बल्कि यह राष्ट्रहित के साथ विश्वास घात है। विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार ससंस्थान के मुक्त बाजारी दिशानिर्देशों के ​​मुताबिक अनिर्कवाचित असंवैधानिक तत्वों द्वारा उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन भी नस्ली वंश वर्चस्व के हितों के ​​मुताबिक देशद्रोह है, इस पूरे कारोबार में जितने घोटाले हुए, वे सरासार राष्ट्रद्रोह के मामले हैं।


देश की बहुलतावादी संस्कृति और संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन करते हुए अल्पसंख्यकों के साथ भी नस्ली भेदभाव बरता जा रहा है। सच्चर कमिटी की रपट से इसका खुलासा होनेके बावजूद हालात बदले नहीं हैं।उत्तरप्रदेस के अल्पसंख्यकों का उदाहरण सामने है। मथुरा में गुजरात दोहराया गया। इसपर भी जस्टिस सच्चर की रपट आ चुकी है। संविधान के मुताबिक कानून का राज न होने से ऐसी विचित्र स्थिति है। अंबेडकर वादी हो या गैरअंबेडकरवादी, समस्त उत्पादक सामाजिक शक्तियों, धर्मनिरपेक्ष , लोकतांत्रिक और देशभक्त ताकतों को अपने संयुक्त मोर्चे के तहत हिंदू साम्राज्यवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद के ग्लोबल जायनवादी गठबंधन की इस जनसंहार संस्कृति का प्रतिरोध करना सबसे बड़ी तात्कालिक चुनौती है। पहले इससे निपटें, फिर परिवर्तन और क्रांति की बड़ी बड़ी बातें करें तो बेहतर!

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​चंद्रपुर के आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता भास्कर वाकड़े ने बामसेफ एकीकरण सम्मेलन के मौके पर मुंबई में सवाल किया था कि जिस संविधान के निर्माण के लिए हम सैकड़ों साल से लड़ते रहे हैं, सात दशकों में भी वह लागू नहीं हुआ, क्या हमें इसके लिए लड़ना नहीं चाहिए। हमने इस​​ पर लिखा है और उनके भाषण का वीडियो भी जारी किया है। अबंडकर जयंती से पहले हमारा जवाब है कि यह लड़ाई होगी। अब संविधान​​ के विरुद्ध नहीं, संविधान लागू करने की लड़ाई है। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि अगर हम यह लड़ाई संवैधानिक, लोकतांत्रिक और ​​धर्मनिरपेक्ष तरीके से लड़ते हैं, तो इस देश पर नस्लवाद और वंशवाद का शिकंजा ही नहीं टूटेगा, बल्कि आदिवासियों और अस्पृश्य बहुजनों​​ और अस्पृस्य भूगोल के अलगाव का अभिशाप भी टूटेगाऔर तभी सही मायने में सार्वभौम भारत राष्ट्र का निर्माण होगा। आपकों बता दें, कि पूर्वोत्तर में इरोम शर्मिला के बारह साल के आमरण अनशन से भी बहुजनसमाज की नींद न खुली तो बदलाव का कोई स्वप्न अप्रासंगिक हैं और जैसा कि आलोचक साबित करने पर तुले हैं, सचमुच अंबेडकर भी अप्रासंगिक हो जायेंगे।


हम संविधान और कानून का राज लागू करके ही अंबेडकर को सच्ची स्ऱद्धांजलि दे सकते हैं और उनकी प्रासंगिकता साबित कर सकते हैं। ​​अन्यथा घृणा अभियान, महापुरुषों और संतों के नाम का जाप, विरोधियों और खासकर ब्राह्मण जाति, जो जाति नहीं, वर्ण और वर्ग है, को ​​गालीगलौज से कुछ लोगों को बेहिसाब अकूत संपत्ति बनाने का मौका और सत्ता वर्ग में कोअप्ट होकर मलाईदार बन जाने का जरिया बनकर सीमाबद्द होकर रह जायेगा अंबेडकरवादी आंदोलन और अबेडकरवादी विचारधारा, जिसे कोई भी कहीं बी मौके बेमौके खारिज करता रहेगा और हमारे तमाम चिंतक, बुद्धिजीवी, राजनेता और अफसरान घिग्घी बांधते नजर आयेंगे या फिर मुंह चुराते रहें। इस वास्तव को समझने की कोशिश करते हुए अंबेडकर जयंती की तैयारी करें तो बेहतर।​

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​पूर्वोत्तर के बारे में हमने अनेक बार लिखा है। इसलिए वहां का जिक्र नहीं करेंगे। न हिमालय, जो मेरा गृहक्षेत्र है। इधर आंध्र के तेलंगना क्षेत्र ​​के आदिवासी नेताओं से हमारी कई दफा बात हुई है।भूमि सुधार तो देशभर में कहीं लागू हुआ नहीं। बगाल के वामपंथी मिथक को ध्यान मेंऱखते हुए यह जमीनी हकीकत है​। देशभर में ज्यादातर आदिवासी गांव बतौर राजस्व गांव पंजीकृत नहीं है। लेकिन तेलंगाना के आदिवासी इलाकों में अभी भारतीय संविधान लागू नहीं हुए। अलग तेलंगना राज्य के घनघोर विप्लवी कार्यक्रम के बावजूद वहां तेलगंना जनविद्रोह से पहले की स्थिति  जस की तस है और आदिवासी इलाकों में निजाम के कानून लागू हैं।​

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​इस देश में स्वतंत्र न्यायपालिका और सत्ता बदलते रहने को अभ्यस्त सर्वशक्तिमान मीडिया है। सुप्रीम कोर्ट संविधान की व्याख्या के लिए​​ संवैधानिक तौर पर अधिकृत है। उस पर अति सक्रियता का राजनैतिक आरोप भी लगाया जाता है। जबकि संविधान का असली संरक्षक वही है।फिरभी भारतीय संविधान नस्ली और भौगोलिक भेदभाव के चलते सर्वत्र लागू नहीं हो रहा है, इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है!


अभी अभी दुमका में मध्य भारत के आदिवासियों का सरना धर्म सम्मेलन हो गया। वहां सर्वानुमति से संविधान बचाओ आंदोलन छेड़ने का फैसला हुआ है। वहां से लौटे आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ विजय कुजुर ने काल आधी रात के लगभग हमसे लंबी बातचीत की। जिसकी वजह से आज हमें यह आलेख लिखना पड़ेगा। क्या इस देश का बहुजन समाज अपने आदिवासी भाइयों के हक हकूक की लड़ाई में उनका साथ नहीं देगा, हम आपसे यह पूछना चाहते हैं!​

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​हम आपको आश्वस्त करते हैं कि संविधान लागू करने का लोकतांत्रिक, संवैधानिक, धर्मनिरपेक्ष और देशभक्त आंदोलन पूरीतरह अहिंसक होगा। इसके लिए कार्यक्रम तय है। पर घोषणा नहीं की जायेगी। अब कोई नेता कोई कार्क्राम गोषित नहीं करेगा। स्थानीय जनता स्थानीय जनसंगठछनों के जरिये कार्यक्रम तय करेगी और उसे शांतिपूर्ण अनुशासित ठंग से अंजाम देगी। यह को मामूली धरना और प्रदर्शन या रैली का क्राक्रम कतई नहीं है। यह भूमि, संपत्ति और संसाधनों पर जनता के हकहकूक को बहाल करने की लड़ाई है। आंदोलन शुरु होते ही, देश भर तक इसकी गूंज पहुंच जायेगी।


​​बहुत खून बह चुका है, पिछले सात दशकों में। अब और खून नहीं बहना चाहिए। यह सुनिश्चत करने के लिए इस देस की समूची देशभक्त​ ​ जनता को संविधान लागू करने की इस लड़ाई में शामिल होना पड़ेगा।


जाति विमर्श से रास्ता नहीं निकलेगा, रास्ता निकलेगा तो जनता के हक हकूक की लड़ाई से।


जो लोग जाति विमर्श कर रहे हैं, मह उनकी विद्वता का सम्मान करते हैं और मूक जनता के बीच के होने की वजह से उनके वैज्ञानिक तर्कों का सिलसिलवार जवाब देने की हमारी न दक्षता है और न इसकी जरुरत है। हम बल्कि उनकी विद्वता के बजाय उनकी प्रतिबद्धता और सर्वहारा जनता के बीच उनकी सक्रियता का बेहद सम्मान करते हैं।


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