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Thursday, April 4, 2013

सीरिया की प्रयोगशाला

सीरिया की प्रयोगशाला

Wednesday, 03 April 2013 11:50

अख़लाक, अहमद उस्मानी 
जनसत्ता 3 अप्रैल, 2013: 'अल्लाह, सूरीया, बशारू बस।' सीरिया की पश्चिमी सरहद पर अलकतीना झील के किनारे बसे शहर हम्स में झूमते युवा अलकोर्निश मार्ग पर यही गा रहे थे। एक लय में उठते इस नारे को मैं अपने सीमित अरबी भाषा के ज्ञान के आधार पर समझ सकता था। वे कह रहे थे कि 'हमारे लिए अल्लाह, सीरिया देश और हमारा नेता बशर अल असद काफी है'। इसी सड़क पर बने राष्ट्रीय अस्पताल में भर्ती कई घायलों में एक अबोध बच्ची की टांगों पर गोलियों के कई छर्रे लगे थे और उसकी मां लगातार रोती जा रही थी। लेबनान के आनदकेत शहर की सीमा से महज दस मील की दूरी पर इस खूबसूरत शहर के हसीन बच्चों की हरी-नीली आंखों में वह खौफ  था जिसकी तर्जुमानी थी कि कोई हमारे मां-बाप घर-बार छीन लेगा। चौदह साल का एक लड़का, थोड़ी अरबी जानने की वजह से, मुझे चूमने लगा और बार-बार कह रहा था 'हिंदी सूरीया शकीक ' (भारतीय और सीरिया के लोग भाई-भाई हैं)। इस वाकये को डेढ़ साल हो चुका है। आज हम्स तबाह हो चुका है और वहां से आने वाली हर खबर डराती है। 
सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद की राजनीतिक सलाहकार बुतय्यना शाबान कुछ दिन पहले भारत आर्इं तो इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में पत्रकारों से मिलीं। आमतौर पर दमिश्क  के प्रति हमदर्दी रखने की हमारी प्रवृत्ति से उन्हें उम्मीद थी कि शायद भारत संयुक्तराष्ट्र में और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सीरिया की मदद करेगा। लेकिन शाबान को बस विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद को अपने राष्ट्रपति की ओर से समर्थन की अपील का पत्र सौंप कर लौट जाना पड़ा। भारत को सऊदी अरब की लॉबिंग में चलने वाली अरब राजनीति के पक्ष में लगातार झुकते देखा जा सकता है। भारत की मजबूरी पेट्रोलियम को लेकर हो सकती है, लेकिन हमारी नीति से अमेरिकी-इजराइली हित भी तो सुरक्षित हो रहे हैं।
सीरिया की सरकार मानती है कि वहां आजादी या लोकतंत्र की लड़ाई नहीं चल रही, उसे बरबाद करने के लिए आतंकवादी भेजे जा रहे हैं। संयुक्तराष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक, संघर्ष में अब तक सत्तर हजार से ज्यादा लोग मारे गए हैं। लेकिन दमिश्क  के बाजारों में कार-बम धमाके, तुर्की की सीमा पर बरामद हो रहे अत्याधुनिक हथियार और मारे गए चरमपंथियों की जेबों से पाकिस्तान, जॉर्डन और सऊदी अरब के शिनाख्ती कार्ड वह सच्चाई सामने नहीं आने दे रहे जिसे जानना जरूरी है।
सीरिया में चौहत्तर प्रतिशत सुन्नी आमतौर पर सूफी तबीयत के माने जाते हैं। हाफिज अल असद का परिवार अलावी शिया है। देश की आबादी में शिया तेरह प्रतिशत हैं। शियाओं के तीन प्रमुख समुदायों में अलावी सबसे दबदबे वाला समुदाय है। इराक  पर हमले के बाद जातिगत हिंसा में फंस चुके पूरे अरब जगत की यह बीमारी अब सीरिया के लिए भी नासूर बन गई है। सऊदी अरब की वहाबी विचारधारा और उसके प्रचार के लिए खर्च की जाने वाली बेशुमार दौलत के लिए सीरिया एक प्रयोगशाला बन सकता था। यह अमेरिका और लगभग सभी दुश्मनों, पड़ोसी देश इजराइल, तुर्की और अमेरिकी कब्जे वाले इराक के अनुकूल भी था। 
साल 2005 में लेबनान के प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या के बाद वह भी सीरिया का प्रबल विरोधी बन गया। माना जाता है कि अमेरिकी हितों को तरजीह देने के कारण हरीरी को सीरिया ने मरवा दिया था। सुदूर रूस, चीन और कुछ करीब ईरान के अलावा बशर के पास कोई दोस्त नहीं। भारत समेत तीसरे पक्ष या तो तटस्थ हैं या फिर मुन्तजिर। जिस तरह इराक और लीबिया के तबाह होने के बाद रणनीति को पुनर्गठित किया गया, सीरिया के साथ भी ऐसा ही इंतजार तो नहीं किया जा रहा है?
सऊदी अरब और कतर की सीरिया में बहुत दिलचस्पी है। इराक  में जीत भले अमेरिका की हुई हो, लेकिन वहां भी शियाओं को सत्ता में भागीदारी मिल गई। ईरान की सरहद इराक  से बहुत मिलती है और इराक  की सीरिया से। यह शिया त्रिकोण अरब की राजनीति में सऊदी अरब को मंजूर नहीं। आपसी हिंसा में फंसा और अमेरिकी रिमोट से चलने वाला इराक  फिलहाल सऊदी अरब की कट््टर वहाबी राजशाही के लिए खतरा नहीं है। लेकिन इराक भौगोलिक रूप से ईरान को सीरिया के शिया राष्ट्रपति के करीब लाता है। ईरान पर दबाव बनाने के लिए सऊदी अरब को यह जरूरी लगता है कि सीरिया में बशर अल असद की सरकार जाए। सऊदी अरब को सीरिया में धर्मनिरपेक्ष (अलबत्ता एकदलीय) व्यवस्था पसंद नहीं। उसके लिए अमेरिकी हितों की रक्षा और कथित सुन्नी मुसलिम सत्ता की स्थापना ही एक सपना है। गाजा पर इजराइल के हालिया हमले में सैकड़ों लोग मारे गए जिनमें ज्यादातर बच्चे थे, लेकिन सऊदी अरब की सरकार ने इसकी निंदा तक नहीं की। 
इससे पहले कि सऊदी अरब-अमेरिकी योजना आम हो जाए, सऊदी अरब चाहता है कि धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और संसदीय या एकदलीय व्यवस्था पर चलने वाला कोई भी अरब और मग़रिबी अरब देश (अफ्रीकी अरब राष्ट्र) कट्टर वहाबी सुन्नी विचारधारा के तहत आ जाए। 
'अरब बसंत' (अरब स्प्रिंग) सिर्फ अमेरिका विरोधी माने जाने वाले देशों या सऊदी अरब की वहाबी विचारधारा के अनुरूप न

चलने वाले देशों में आकर ही क्यों रुक गया? यह कौन-सा बसंत है जो राजशाही वाले देशों में नहीं आता या वहाबी विचारधारा वाले सुन्नी राष्ट्रों में फूल नहीं खिलने देता? राजशाही लेकिन वहाबी विचारधारा वाले राष्ट्र अब तक मजे से चल रहे हैं, चाहे वह खुद सऊदी अरब हो या फिर संयुक्तअरब अमीरात, कतर, बहरीन या कुवैत। लेकिन आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और गैर-सुन्नी, गैर-वहाबी राष्ट्र तबाह हो गए। 
इराक  और लीबिया बहुत सटीक उदाहरण हैं। सीरिया संघर्ष कर रहा है, मोरक्को के राजा ने वहाबी जमातों से समझौता कर लिया है। माली में अलकायदा हावी है और फ्रांस उनसे संघर्ष कर रहा है। ट्यूनीशिया में वहाबी सुन्नी सत्ता में आ चुके हैं। मोरिटानिया में सऊदी अरब का ही एजेंडा चलता है और मिस्र में मुहम्मद मुरसी वैचारिक रूप से सऊदी अरब स्कूल के करीब हैं। ईरान चूंकि मानव संसाधन और सामरिक रूप से सबल राष्ट्र है, इसलिए उसे अलग-थलग करने के लिए उस पर प्रतिबंध सऊदी अरब और अमेरिका को आवश्यक जान पड़ता है। सीरिया भी उनके इसी रुख की कीमत चुका रहा है। यह अलग बात है कि जिसे सऊदी अरब अपना राजनीतिक लाभ का सिद्धांत मानता है, उसका लाभ इजराइल और अमेरिका को स्वत:मिल जाता है।
कतर कतई नहीं चाहता कि बशर अल असद की सरकार एक दिन भी चले। कतर की हमदर्दी मुसलिम ब्रदरहुड के प्रति है। मिस्र में यह संगठन अचानक उभरा। सीरिया में सरकार-विरोधी कई चरमपंथी संगठन स्वतंत्रता के नाम पर चल रहे हैं। तत्कालीन अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन की सीरिया के विरोधी गुटों को जमा करने की योजना पर कतर ने तत्परता दिखाते हुए पिछले साल नवंबर में बैठक बुलाई और उनके नेता का चुनाव करवाया। कैसी विडंबना है कि बादशाहत में चलने वाला कतर सीरिया में चुनी हुई सरकार के लिए बेकरार है! कतर की जमीनी सीमा सिर्फ सऊदी अरब से लगती है, तीन तरफ  अरब सागर है और करीब ही बहरीन में अमेरिकी नौसैनिक बेड़ा है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि इराक पर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के कब्जे के फौरन बाद उसके संग्रहालय लूट लिए गए। दजला और फरात नदियों की सभ्यता से लेकर इस्लामी खिलाफत और उस्मानिया सल्तनत से लेकर धर्मनिरपेक्ष आधुनिक इराक  के सभी निशान या तो चुरा लिए गए या लूट लिए गए। सीरिया असद परिवार की संपत्ति भर नहीं है। 
सीरिया की दस हजार ईसा पूर्व की नियोलिथिक सभ्यता, मिस्र के पिरामिड काल में ही उत्तरी सीरिया में फिरौन शासनकाल के सुमेर और अक्काद शहर की सभ्यता, कनानी, फिनिशिया, आर्मेनियाई से लेकर सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियाई, मेसिडोनियाई, यूनानी, रोमन, बाइजेन्ताइन, खालिद बिन वलीद की जीत के बाद खिलाफत, उम्मैया खिलाफत, उस्मानिया सल्तनत, फ्रेंच गुलामी और नवीन स्वतंत्र सीरिया के सारे निशान बहुत सहेज कर संग्रहालयों में रखे गए हैं। पश्चिमी सीमा के दमिश्क  शहर में ही नहीं, सभ्यता के हर गहवारे में उसी तरह सहेज कर रखने की खूबसूरत कोशिश की गई है। पलमायरा शहर, लताकिया नगर के पास उगारित, इदलिब और अलेप्पो के अब्बासी काल की निशानियां मौजूद रही हैं। 
सीरिया में गड़बड़ी के बाद खबरें हैं कि वहां इदलिब शहर में संग्रहालय लूट लिए गए। सीरिया में चरमपंथी जहां-जहां भी कब्जा करते जा रहे हैं, सभ्यता के निशान उसी तरह मिटाते जा रहे हैं जैसे अलकायदा के आतंकवादियों ने माली के टिम्बकटू पर कब्जा करने के बाद वहां पांच सौ साल से ज्यादा पुरानी इस्लामी खिलाफत में लिखी गई तीन हजार अरबी पांडुलिपियों को जला दिया या फिर लूट कर ले गए। 
होमर की पुस्तक 'द आॅडिसी' में उद्धृत जिन दृश्य-चित्रों को इदलिब में सहेज कर रखा गया था उनमें से अठारह गायब हैं। यूनेस्को ने इन्हें बचाने की अपील की है, लेकिन नक्कारखाने में तूती सुनने वाले न तो दस साल पहले दजला, फरात, बगदाद, कर्बला, बसरा और नजफ  में पैदा हुए और न आज इदलिब, उगारित, लताकिया, पलमायरा और दमिश्क  से उन्हें कुछ मतलब है। सवाल यह है कि फिर इंकलाब का मतलब क्या सभ्यताओं को लूट लेना होता है या मिटा देना या फिर यूरोप और अमेरिका के बाजारों में बेच देना? मानव सभ्यता की निशानियों को सार्वजनिक प्रदर्शन से चुरा कर किसी बिगड़ैल उन्मत्त रईस के ड्राइंगरूम में सजाने के पागलपन के पीछे किस बात की क्रांति और किस बात का तर्क?
अरब पंचायत में नेता बनने की चाह रखने वाला कोई भी देश आज न अमेरिकी हितों की अनदेखी का साहस दिखा सकता है और न ही अपने देश में पूर्ण संसदीय लोकतंत्र की वकालत कर सकता है। ईरान एक अपवाद है, मिसाल है और नस्लीय नफरत का शिकार भी। 
पूरे अरब जगत के लिए यह आत्ममंथन का दौर है। तानाशाही के साथ वे धर्मनिरपेक्ष आधुनिक देश नहीं चला पाएंगे और नकारवादी वहाबी विचारधारा के साथ अल्पसंख्यकों और विदेशी मूल के लोगों के साथ  न्याय नहीं कर पाएंगे। 'अरब बसंत' का असली मकसद तो तब सधेगा जब आम लोग सत्ता में अपनी भागीदारी महसूस कर सकें। व्यक्तिगत स्वतंत्रता से बड़ी स्वतंत्रता राजनीतिक है। और इस माहौल में जो मानव संसाधन पैदा होगा वह राष्ट्र ही नहीं, सभ्यताओं के विकास को भी आगे बढ़ाएगा। सभ्यताओं का घर सीरिया क्या नए सोच के लिए तैयार है?

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