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Sunday, June 17, 2012

सिर्फ सीमा आजाद का सवाल नही!

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सिर्फ सीमा आजाद का सवाल नही!

सिर्फ सीमा आजाद का सवाल नही!

By  | June 16, 2012 at 1:14 pm | One comment | आजकल

संजय शर्मा

आरोप उनके! अदालत उनकी! फैसले उनके! जज उनके! सिर्फ हमको तो आदेश का इंतजार है।  कुछ इसी तरह की शैली पर मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद को उनके पति विश्वास आजाद के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। यह सजा उन्हें सही दी गयी। उन्होंने गुनाह भी इतना बड़ा किया था कि उसके लिए कोई भी सजा कम पड़ जाती। वह अपने झोले में माक्र्स और लेनिन की पुस्तकें लेकर आ रही थीं। यह पुस्तकें उन लोगों के लिए बहुत बड़ा आघात हैं जो गरीबों के सपनों को बेचकर अपने महल बनाते हैं।
सीमा आजाद और उनके पति दिल्ली के पुस्तक मेले से किताबें लेकर लौट रहे थे। यूपी की जांबाज पुलिस ने उन्हें इन पुस्तकों के साथ गिरफ्तार कर लिया। बरामद पुस्तकों की पड़ताल करने की जरूरत भी नहीं समझी गई। दुनिया भर में पढ़ी जाने वाली माक्र्स और लेनिन की पुस्तकों को नक्सली साहित्य घोषित कर दिया गया। दोनों लोगों को खूखांर नक्सली बताकर जेल के सीखचों के भीतर डाल दिया गया और अंततरू उन्हें आजीवन कारावास की सजा दे दी गई।
यह सिलसिला नया नहीं है। इससे पहले विनायक सेन को भी इसी तरह खूंखार नक्सली बताया गया था। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अतंतरू दुनिया भर के सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सक्रिय दखल के बाद उनकी रिहाई हो पायी। वरना यह तंत्र तो उनकी बलि लेने में कोई कसर नहीं रखने वाला था। यह तो सिर्फ कुछ नाम हैं। इस देश का तंत्र इस तरह न जाने कितने सीमा आजाद और विनायक सेन को उनके अंतिम अंजाम तक पहुंचाने पर तुला है। दूर दराज के दुर्गम इलाके में जहां आदमी के पास तन ढंकने को कपड़ा नही और खाने के लिए रोटी न हो तब ऐसे बेसहारा लोगों के साथ जानवरों की तरह व्यवहार करने और उन्हें नक्सली घोषित करके मार देने या फिर जिंदगी भर जेलों में सड़ा देने के लिए यह तंत्र खासा सक्रिय रहता है। यह तंत्र जानता है कि अगर देश की सीमा आजाद और विनायक सेन जैसे लोगों में सक्रियता बढ़ गई तो उनको जिंदगी जीने के लिए लाले पड़ जायेंगे। लिहाजा कोई आवाज उठ पाये उससे पहले ही उस आवाज को खत्म कर दो। इसी नीति पर यह सिस्टम लम्बे समय से चला आ रहा है।
जिस देश का गृह सचिव खुलेआम कहता हो किसी भी नक्सली समूह से कोई बातचीत नहीं की जायेगी तो स्वाभाविक रूप से यह बात खुद ब खुद साबित हो जाती है कि देश चलाने वाले लोग किस तरह नक्सली समस्या से निपट सकते है। दरअसल राजनेताओं और अफसरों के घिनौने गंठजोड़ को नक्सली विचारधारा के समूह खासा नुकसान पहुंचाते हैं। वह उस गरीब को समझाने में सफल हो रहे हैं कि यह जंगल और खेत खलिहान तुम्हारे है। इन पर कब्जा करने की जो साजिशें रच रहे हैं वह इस देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं। तंत्र चला रहे लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिस गरीब के पास दो वक्त की रोटी खाने के पैसे नहीं है उसे भी यह बात समझ आने लगी है। वह समझ गया है कि यह जंगल और बहता हुआ पानी उसका है। इस पर कब्जा करने की जो कोशिश करेगा वह उसका दुश्मन है। राजनेता और अफसर कभी नहीं चाहते थे कि यह दर्शन इस तरह गरीबों को कभी भी समझ में आये। अगर यह दर्शन उनकी समझ में आ गया और उन्होंने देश के संसाधनों में अपना वाजिब हक मांगना शुरू कर दिया तब फिर क्या होगा। देश का संविधान तो यही कहता है कि सबको समान रूप से प्रगति करने का और जितने भी संसाधन हैं उसके इस्तेमाल का अधिकार मिला हुआ है। तब फिर क्यों इन संसाधनों पर कुछ लोग हमेशा हर वक्त कुंडली जमाये बैठे रहते हैं।
डॉ. विनायक सेन जैसे लोग इसी तरह के दूर दराज के जंगलों में गरीबों आदिवासियों के बच्चों को पढ़ाते, उनका इलाज करते हुए यही शिक्षा दे रहे थे कि लूट रहे शासकों की हर बात सिर माथे पर बैठाना भी एक प्रकार का गुनाह ही है। स्वाभाविक है ऐसी बातें गरीबों में चेतना पैदा करती है। उसकी बुद्घि में यह बात समाती है कि उसके संसाधनों का जो लोग अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं वह उसकी अपनी सम्पत्ति को ही लूट रहे हैं और उसे इसका विरोध करना ही चाहिए। यह जागृति गरीबों आदिवासियों में फैलाना इस देश को चलाने वालों के लिए राजद्रोह से कम नही है। अगर यह जागृति फैल गयी तो इस देश में उनका लूट राज खत्म हो  जायेगा। जिस देश में सुखराम जैसे मंत्रियों के टायलेट से करोड़ो रुपये निकलते हों। जहां अरबों का चारा नेता खा जाते हैं। देश के सबसे बड़े सूबे की कमान संभालने वाले आय से अधिक सम्पत्ति के मामले झेल रहे हैं। यह कार्रवाइयां सालों से चल रही हंै और लगता है कि ऐसे ही सालों तक चलती रहेंगी मगर नेताओं का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
जिस देश की संसद में डेढ़ सौ हत्यारे, लुटेरे, बलात्कारी बैठे हों और उनका कुछ न बिगड़ पा रहा हो। जहां आदिवासियों के इलाके में कोयले की खदानें पूंजीपतियों को कौडिय़ों के दाम दे दी जाती हों। जहां दर्जनों हत्याओं के आरोपी सालों से यूं ही घूमते रहते हो वहां लेनिन और माक्र्स की किताबें पढऩा और उनके विचारों को लोगों तक पहुंचाना अगर इतना बड़ा अपराध हो जाये कि उसकी सजा आजीवन कारावास ही हो तो इस व्यवस्था पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है।
न्यायालय से सबूत देखता है। हमारी यूपी पुलिस झूठे सबूत जुटाने में कितनी माहिर है यह किसी से छिपा नही है। सीमा आजाद के मामले में भी पुलिस ने जो कहानी बनायी वह सबको पता है। सवाल सिर्फ सीमा आजाद का नही है सवाल इस बात का है कि यह सिस्टम जो अपने विरुद्घ आवाज उठाने वाले का सीमा आजाद जैसा हाल कर देता है। आखिर कब तक इस तरह के अत्याचार करता रहेगा। यह हमारी और आपकी जिम्मेदारी भी है कि आखिर हम समझें कि हमारे ही अधिकारों को चंद लोग किस तरह अपने फायदे के लिए इस्तेमाल  कर रहे हैं। अगर हम खामोश रहे तो यह व्यवस्था हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए भी खतरनाक होगी। इस देश के विचारकों समाजसेवियों को जागरूक होकर सच लाने की कोशिश करनी होगी। वरना धीरे धीरे इस तंत्र के बेईमान लोगों की संख्या बढ़ती ही जायेगी और देश के सिर्फ पांच फीसदी लोग देश के सभी संसाधनों पर कब्जा जमाये बैठे होंगे।

संजय शर्मा, लेखक वीक एंड टाइम्स के सम्पादक हैं

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