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Sunday, June 17, 2012

मुसलिम आरक्षण पर अपने ही फरेब में फंस गयी कांग्रेस

http://mohallalive.com/2012/06/15/muslim-reservation-supreme-court-and-congress/

 नज़रिया

मुसलिम आरक्षण पर अपने ही फरेब में फंस गयी कांग्रेस

15 JUNE 2012 NO COMMENT

अल्पसंख्यक आरक्षण : कांग्रेसी फरेब और संवैधानिक धोखाधड़ी

♦ इर्शादुल हक

केंद्रीय सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में पसमांदा अल्पसंख्‍यकों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट द्वारा रोक लगाये जाने के फैसले को सही ठहरा दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि अब पिछड़े अल्पसंख्यकों के लिए अन्य पिछड़े वर्ग को मिलने वाले कोटे में से अलग कोटा का लाभ नहीं मिलेगा। कांग्रेस के रवैये से ऐसा पहले से ही लग रहा था कि आरक्षण का यह लाभ पिछड़े अल्पसंखयकों को नहीं मिलने वाला। क्योंकि जब कांग्रेस ने इस आरक्षण की घोषणा की थी, तो इसे उसने पार्लियामेंट से पास नहीं कराया था। यह महज कैबिनेट का फैसला था। कांग्रेस जानती थी कि ऐसे नीतिगत फैसले संसद के जरिये ही लिये जाते हैं, पर उसने ऐसा जान कर नहीं किया था। उसे तो उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यकों और खास कर मुसलमानों का वोट लेना था। और वोट के चक्कर में वह किसी स्तर का फरेब कर सकती है, यह कांग्रेस की आदत रही है।

जब केंद्र सरकार ने इस आरक्षण की घोषणा की थी, तो हमारे संगठन ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज ने उस वक्त भी आरक्षण के इस तरीके का विरोध किया था और कहा था कि इस तरह के फैसले को कोई दूसरी सरकार या अदालत कभी भी पलट सकते हैं, और ऐसा ही हुआ। अब कांग्रेस की सरकार अगर इस मामले में थोड़ा भी ईमानदार है, तो उसे जल्द ही संसद में इस मामले को लाना चाहिए और सच्‍चर कमेटी की सिफारिशों के आलोक में संसद के जरिये फैसला लेना चाहिए। इस मामले में दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि केंद्र की सरकार बिहार में लागू आरक्षण के कर्पूरी फार्मूले का अनुसरण करे। कर्पूरी फार्मूले के तहत अन्य पिछड़े वर्गों को अत्यंत पिछड़ा और पिछड़ा वर्ग में विभाजित किया गया है। चूंकि आम तौर पर अल्पसंख्यक अत्यंत पिछड़ा वर्ग में आते हैं, इसलिए उन्हें इस फार्मूला का लाभ मिल जाएगा और ऐसा करने से कोर्ट के इस तर्क का भी जवाब मिल जाएगा, जिसमें अदालत का कहना है कि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ा अल्पसंख्यक आरक्षण को निरस्त करने के पीछे अनेक तर्क दिये हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि धर्म के आधार पर किसी समुदाय को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। चूंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष कल्याणकारी राज्य है, इसलिए इस तरह के तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि हमारा संविधान इसकी कतई इजाजत नहीं देता। अगर संविधान के ऐसे प्रावधानों की अनदेखी की गयी, तो कल को कोई अन्य समुदाय भी ऐसी मांग कर सकता है। फिर इससे हमारे संवैधानिक व्यवस्था ही टूटफूट का शिकार हो जाएगी। और ऐसी स्थिति में अदालत अगर ऐसे तर्क का सहारा लेती है तो यह बिल्कुल सही भी है।

कांग्रेस का वजूद और धर्मनिरपेक्षता खतरे में

र यहां लाख टके का सवाल यह है कि क्या सचमुच अब तक चली आ रही आरक्षण व्यवस्था संविधान की रूह के अनुरूप है? क्या अब तक दिये जाने वाले आरक्षण में हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता के उसूलों का पालन करता आ रहा है? हैरत और आक्रोश की बात है कि आरक्षण संबंधी हमारे संविधान के अनुच्छेदों में संशोधन करके उसकी आत्मा को ही कांग्रेसी सरकारों ने खोखला कर दिया है और ऐसे संशोधनों से धर्मनिरपेक्षता पर भयानक प्रहार किया गया है। आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधानों पर एक नजर डालने से यह साफ हो जाता है। अनुसूचित जाति के आरक्षण संबंधी व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 341 में की गयी है। इसके अनुसार दलित जातियों को सरकारी सेवाओं, शिक्षा और संसद व विधानसभाओं में आरक्षण दिया जाता है। इसके तहत पहले मुसलमानों समेत तमाम दीगर धार्मिक समुदाय भी आरक्षण का लाभ उठाती थीं। पर 1950 के एक राष्ट्रपति अध्यादेश के तहत इससे मुसलमानों, सिखो, बौद्धों और ईसाइयों को अलग कर दिया गया। और दलित आरक्षण सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं के लिए सुरक्षित कर दिया गया। उस समय चूंकि देश विभाजन की पीड़ा से मुसलमान उबर नहीं पाये थे और अबुलकलाम आजाद जैसे मुसलमान नेता बचे भी थे, तो उन्हें पिछड़े मुसलमान सुहाते कहां थे। ऐसे में पिछड़े मुसलमानों की तरफ से इसका विरोध नहीं हो सका। फिर 1952 में सिखों ने काफी हो हल्ला मचाया। बाद में अनुच्छेद 341 मे संशोधन करते हुए सिखों को फिर से इसमें शामिल कर लिया गया। फिर 1990 में बौद्धों द्वार जबर्दस्त विरोध किये जाने पर इसमें दुबारा संशोधन किया गया। परिणामस्वरूप उन्हें फिर से यह लाभ मिलने लगा। लेकिन आज तक अनुसूचित जातियों के दायरे से मुसलमानों और ईसाइयों को बाहर ही रखा गया है। ध्यान देने की बात है कि मुसलमान और ईसाई दलितों को इस सुविधा से वंचित रखने का आधार सिर्फ और सिर्फ धर्म ही है। ऐसे में एक तरफ अदालत यह कहती है कि किसी धर्म विशेष को आरक्षण नहीं दिया जा सकता तो उसका तर्क संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वभाव पर आधारित होता है। पर दूसरी तरफ अनुसूचित जाति को लाभ दिये जाने का आधार भी केवल और केवल धर्म ही रखा गया है। सवाल यह है कि दलितों को मिलने वाले आरक्षण का आधार अगर धर्म है, तो किसी धर्मविशेष को इस सुविधा से वंचित करना किसी भी तरह से धर्मनिरपेक्षता नहीं है। ऐसे में संविधान की उस बंदिश को खत्म ही किया जाना चाहिए, जिसके तहत मुसलमानों और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति के अधिकार से वंचित किया गया है।

यहां यह ध्यान देने की बात है कि 1950 में जब राष्‍ट्रपति ने जिस अध्यादेश के तहत अल्पसंख्यक दलितों को आरक्षण लाभ से वंचित किया था, उस समय कांग्रेस का ही वर्चस्व था। 1952 में जब फिर इसमें संशोधन किया गया, तो भी कांग्रेस ही सत्ता में थी। साफ है कि कांग्रेस ने शुरू से ही अल्पसंख्यकों के साथ फरेब किया है और नतीजा यह होता रहा है कि भारत के अल्पसंख्यक कांग्रेसी फरेब और संवैधानिक धोखधड़ी के शिकार होते रहे हैं।

अब चूंकि कांग्रेस ने पिछड़े अल्पसंख्यक का मामला उठा कर बर्र के छत्ते में हाथ डाल ही दिया है, तो उसे अब इसकी सच्चाइयों से रूबरू होना ही चाहिए। चूंकि अदालतों ने पसमांदा अल्पसंख्यक आरक्षण के तमाम आधार को निरस्त कर दिया है, ऐसे में अब गेंद कांग्रेस के पाले में है। अब वह अनुच्छेद 341 में संशोधन करे और मुस्लिम व ईसाई दलितों को उनके मौलिक अधिकार से छह दशक से वंचित बनाये रखने के अपने पाप से प्रायश्चित करे। केवल यही रास्ता है, जिससे कांग्रेस का वजूद और देश की धर्मनिरपेक्षता को बचाया जा सकता है। वरना कांग्रेस ने अपने फरेब का अंजाम यूपी चुनाव में तो देख ही लिया है।

(इर्शादुल हक। बिहार के वरिष्‍ठ पत्रकार। बीबीसी लंदन में रहे। प्रभात खबर के साथ जुड़ कर पत्रकारिता की। तहलका के बिहार संवाददाता रहे। विधानसभा का चुनाव भी लड़े। पसमांदा मुसलमानों को समाज की मुख्‍यधारा से जोड़ने के लिए होने वाले तमाम तरह के संघर्षों में शामिल।
उनसे i_haque47@rediffmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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