हाशिमपुरा कर्ज की तरह मेरे सिर पर लदा था, उसे अब मैं उतार रहा हूं : वीएन राय
http://www.bhadas4media.com/interview/6956-2010-10-14-14-06-56.htmlबाकी रही टेक्स्ट की बात तो देश भर के पत्रकारिता के विद्यार्थियों के उपर यह काम छोड़ता हूं कि वे इस इंटरव्यू के सवाल जवाब को टेक्स्ट फार्म में रूपांतरित करें और उसे नीचे कमेंट बाक्स में अपने नाम से या बेनामी नाम से डाल दें या मुझे मेल कर दें. उनकी मेहनत को व्यर्थ नहीं जाने दिया जाएगा और जो सबसे बेहतर इंटरव्यू लिख पाएगा, उसे पुरस्कृत करने के साथ इंटरव्यू को प्रकाशित भी कर दिया जाएगा ताकि जो आफिस में नेट यूज करने वाले, वो भी बिना स्पीकर के, भड़ास4मीडिया के पाठक हैं, उन्हें पूरा इंटरव्यू पढ़ने को तो मिल ही जाए.
वेब मीडिया पर वीडियो इंटरव्यू के कई संकट है. अगर आपका नेट कनेक्शन कमजोर है, धीमा है, स्लो है तो आपको किसी भी वीडियो को पूरा देखने-सुनने में अच्छा खासा वक्त लगाना पड़ेगा, बीच-बीच में लोडिंग-बफरिंग जैसे रुकावटों के चलते इंटरव्यू का मजा किरकिरा होता जाएगा. सो, एक सलाह है. अगर आपके नेट की स्पीड स्लो है तो इन इंटरव्यू को एक बार प्ले करके और साउंड आफ करके छोड़ दें. जब ये एक बार पूरा चल जाएं तो फिर उसे प्ले करें, साउंड पूरा आन करके. आवाज ठीकठाक सुनने के लिए आपके पास स्पीकर होना चाहिए. सिर्फ लैपटाप के साउंड पर डिपेंड रहने से काम नहीं चलेगा. अपने सिस्टम का साउंड पूरा आन करने के साथ ही वीडियो के प्ले आप्शन के बगल में दिए गए साउंड आप्शन को भी पूरा आन करें. तो ये रहे थोड़े टिप्स. अब बात करते हैं इंटरव्यू की.
वीएन राय के इंटरव्यू को नोकिया एक्स6 मोबाइल से रिकार्ड किया गया है. पिक्चर क्वालिटी अन्य मोबाइलों की तुलना में थोड़ी बेहतर दिख रही है, लेकिन नतीजा उतना बढ़िया नहीं जितना अपेक्षित था. हां, इसे वेब फार्मेट के लिहाज से संतोषजनक जरूर कहा जा सकता है. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय का इंटरव्यू उनके वीसी निवास में, इस निवास के लॉन में और निवास के बाहर की सड़क पर लिया गया है. इंटरव्यू करने में सहयोग किया है वरिष्ठ ब्लागर प्रियंकर पालीवाल ने. इंटरव्यू में वीएन राय ने कई ऐसी बातें कहीं हैं, कई ऐसी स्वीकारोक्तियां की हैं, जिससे पता चलता है कि उपर से सख्त दिखने वाले वीएन राय के अंदर कितना संवेदनशील दिल और कितना तार्किक व लोकतांत्रिक दिमाग है.
इंटरव्यू में कहे गए एकाध शब्द को वीएन राय ने संपादित-संशोधित करने का अनुरोध किया था. खासकर उस शब्द को जिसमें उन्होंने शायद 'हिंसक जानवर' या शायद 'क्रूर जानवर' शब्द का इस्तेमाल किया है. पर, बिना किसी तैयारी, बिना री-टेक, बिना री-शूट, बिना एडिटिंग के अपलोड इस इंटरव्यू के उस हिस्से (या कहिए उस शब्द) को भी हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं जिसे हटाने का अनुरोध वीएन राय ने किया था. वीएन राय ने इंटरव्यू देने जैसी कोई तैयारी नहीं की थी. वे लगातार बोलते गए. अगर उनके बोले गए 'हिंसक जानवर' शब्द से किसी को कोई दिक्कत होती है तो उसके लिए जिम्मेदार भड़ास4मीडिया और खुद मैं हूं. हालांकि निजी तौर पर मैं इस शब्द को गलत नहीं मान रहा, शायद एक वजह और भी यह है कि इसे संपादित नहीं कर रहा. पर आजकल छाछ फूंक फूंक कर पी रहे वीएन राय नहीं चाहते कि दूध में फिर उबाल आए और जलाने को मुंह तक पहुंचे, सो, उन्होंने दुर्घटना से पहले सावधानी की तर्ज पर इसे हटाने का अनुरोध किया. क्या सही है, क्या गलत है, इसका असली फैसला तो जनता जनार्दन को करना है, सो, जनता तो सब कुछ अनएडिटेड और अनसेंसर्ड पहुंचा रहा हूं.
-यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया
written by shashi, October 15, 2010
written by दिनेश, October 15, 2010
written by shravan shukla, October 15, 2010
written by Girish Mishra, October 15, 2010
Rai seems to have been trying his best to lift up the university he heads. In fact, it became derailed soon after it came into being. At present even, certain vested interests do not want him to succeed
I am unable to understand why only so-called creative things like poetry, stories, novels, etc. are taken note of when there is a talk of developing Hindi. Are social sciences and natural sciences not worthy of attention? Please recall that in the beginning, Sahitya Academy gave awards to Acharya Narendra Dev and Mahapandit Rahul on their books which do not fall in the category of so-called creative works. Even Dinkar was honoured not for his poetry writing but for a history book. This tradition was ignored by narrow-minded writers who came to dominate the Academy. Scholars like S.C. Dubey, R. S. Sharma and P. C. Joshi were not taken note of.
The same is the case of Delhi Hindi Academy where no serious work of so-called non-literary genre is ever honored. Look at the functions organised by it, they are more in the nature of entertainment.
One hopes, Rai will do something in this direction if he is really interested in furthering the cause of Hindi.
It is a matter of great shame that there is no comprehensive and up-to-date English-Hindi dictionary, What we have from Bulke, Bahari, Awasthi, etc. can hardly satisfy even school boys.
As far as Rai's work on communalism is concerned. it does not, by any measure, comes near Emile Zola's novel Truth. Please go through the writings by Yashpal, Bhismaji, Kamaleshwar, etc. what you find is the mechanism of the operation of communalism, but not much real discussion of the factors giving rise to it. No detailed socio-economic analysis is attempted.
Hindi fiction is, by and large, out of touch with the Indian realities. In India, as a result of land reforms and the rapid pace of capitalist development "peasant" of Premchand has disappeared and has been fully replaced by farmer. The process of this replacement began with the Deccan Riots of 1860s but now it is complete and can be clearly witnessed in Vidarbha region where Rai is at present situated. Moreover, Hindi writers have completely ignored slums and their problems, corporate sector and its growing and visible hold over politics and society, increasing importance of stock market, the nexus of politics, business, bureaucracy and underworld (an inkling can be had in N.N. Vohra's brief report, submitted to GOI years ago),corruption and scandals, globalization's ideological basis and so on. The problem is that Hindi writers believe more in meditation (sadhana) than researching and interacting with people from disciplines. In this situation, whatever efforts Rai makes with all sincerity, they are not going to succeed.
written by अविनाश वाचस्पति, October 14, 2010
नेता-माफिया-लोकतंत्र सबका ड्रेस कोड एकउत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के दो चरण पूरे हो चुके हैं। तीसरा और अन्तिम चरण 20 अक्टूबर को पूरा होगा। जब उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी हुई तो मेरठ के एक पॉश इलाके में बसपा कार्यालय पर बसपा के समर्थन से चुनाव लड़ने वाले इच्छुक लोगों की भीड़ लगी थी। महंगी लग्जरी गाड़ियों का रेला था। गाड़ियों में सवार हष्टपुष्ट आदमी थे। अब नेताओं का लिबास भी जुदा हो गया है। कुर्ता-पायजामा गुजरे जमाने की बात हो गयी है। झक सफेद पैंट-शर्ट के साथ सफेद जूते आजकल के नेताओं का 'ड्रेस कोड' है। हालांकि यही 'ड्रेस कोड' माफियाओं का भी हो चला है। स्टेनगन धारी गनर, होलेस्टर में लटके रिवाल्वर भी आजकल के नेताओं के लिए 'स्टेट्स सिम्बल' हैं। आजकल यह तय करना मुश्किल है कि कौन नेता है और कौन माफिया। वैसे भी अब माफिया और नेताओं के बीच बहुत बारीक अन्तर रह गया है।
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नेता-माफिया-लोकतंत्र सबका ड्रेस कोड एक
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- कार्टूनिस्ट व ग्राफिक डिजायनर अजय गए पत्रिका में
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