आलोक धन्वा की कविताएँ http://www.hindisamay.com/kavita/Alok%20Dhanva.htm गोली दागो पोस्टर यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर टिका हुआ धब्बा है जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता ! जहाँ मैं लिख रहा हूँ यह बहुत पुरानी जगह है जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का इस्तेमाल होता है आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं आदमी कहीं नहीं है केवल एक नीला खोखल है जो केवल अनाज माँगता रहता है- एक मूसलधार बारिश से दूसरी मूसलाधार बारिश तक यह औरत मेरी माँ है या पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़ जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं- मरी हुई चिड़ियों की तरह अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है जबकि संविधान अपनी शर्तों पर मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को तोड़ता जा रहा है क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद मुझे बारूद के बारे में सोचना बंद कर देना चाहिए? क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को मैं अपने बच्चे के साथ एक पिता की तरह रह सकता हूँ? स्याही से भरी दवात की तरह- एक गेंद की तरह क्या मैं अपने बच्चों के साथ एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ? वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे कभी ले भी जाते हैं तो मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ ! सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया बहन के पैरों के आस-पास पीले रेंड़ के पौधों की तरह उगा था जो मेरा बचपन- उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है तो मुझे क्यों नहीं ? जिस ज़मीन पर मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं गोदामों तक ढोता हूँ उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं यह कविता नहीं है यह गोली दागने की समझ है जो तमाम क़लम चलानेवालों को तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है। पतंग एक उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे और हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या फल की तरह बहुत पास लटक रही हो- हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ पर रस छोड़ता रहता है तेज़ आँधी आती है और चली जाती है तेज़ बारिश आती है और खो जाती है तेज़ लू आती है और मिट जाती है लेकिन वे लगातार इन्तज़ार करते रहते हैं कि कब सूरज कोमल हो और खुले कि कब दिन सरल हों कि कब दिन इतने सरल हों कि शुरू हो सके पतंग और धागों की इतनी नाजुक दुनिया बच्चों और चिड़ियों की आँखों की इतनी नाजुक दुनिया दो सबसे काली रातें भादों की गयीं सबसे काले मेघ भादों के गये सबसे तेज़ बौछारें भादों की मस्तूलों को झुकाती, नगाड़ों को गुँजाती डंका पीटती-तेज़ बौछारें कुओं और तालाबों को झुलातीं लालटेनों और मोमबत्तियों बुझातीं ऐसे अँधेरे में सिर्फ़ दादी ही सुनाती है तब अपनी सबसे लम्बी कहानियाँ कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चों को उन डरी हुई चिड़ियों को जो बह रही झाड़ियों से उड़कर अभी-अभी आयी हैं भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से टटोलते-टटोलते उन्होंने किस तरह ढूँढ लिया दीवार में एक बड़ा-सा सूखा छेद ! चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं- अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें भूख से महामारी से बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें बच्चों को मारने वाले आप लोग ! एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे बच्चों को मारने वाले शासको ! सावधान ! एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी तीन सबसे तेज़ बौछारें गयी भादांे गया सवेरा हुआ ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा शरद आया पुलों को पार करते हुए अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से चमकीले इशारों से बुलाते हुए पतंग उड़ानेवाले बच्चों के झुंड को चमकीले इशारों से बुलाते हुए और आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए कि पतंग ऊपर उठ सके- दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड़ सके दुनिया का सबसे पतला काग़ज़ उड़ सके- बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके- कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास जब वे दौड़ते हैं बेसुध छतों को भी नरम बनाते हुए दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर छतों के ख़तरनाक किनारों तक- उस समय गिरने से बचाता है उन्हें सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं अपने रंध्रों के सहारे अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से और बच जाते हैं तब तो और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास। ब्रूनों की बेटियाँ वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं उनकी माताएँ थीं और वे ख़ुद माताएँ थीं। उनके नाम थे जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया हत्या के दिन तक उनकी आवाज़ में भी जिन्होंने उनकी हत्या की ! उनके चेहरे थे शरीर थे, केश थे और उनकी परछाइयाँ थी धूप में। गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी ! जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को गैलीलियो की दूरबीन से ! वे राख और झूठ नहीं थीं माताएँ थीं और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी? कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया? उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ ग़लती नहीं थी उनका गर्भ आदत नहीं थी उनका गर्भ कोई नशा- कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ कौन कहता है? कौन अर्थशास्त्री? उनके सनम थे उनमें झंकार थी वे माताएँ थीं उनके भी नौ महीने थे किसी व्हेल के भीतर नहीं-पूरी दुनिया में पूरी दुनिया के नौ महीने ! दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह अटूट है कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का? तुम कभी नहीं चाहते कि पूरी दुनिया उस गाँव में आये जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी? किस देश की नागरिक होती हैं वे जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं? कल शाम तक और कल आधी रात तक वे पृथ्वी की आबादी में थीं जैसे ख़ुद पृथ्वी जैसे ख़ुद हत्यारे लेकिन आज की सुबह? जबकि कल रात उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया ! क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है जीवित आदमियों की दुनिया? आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं उनकी सहेलियाँ हैं उनके कवि हैं उनकी असफलताएँ जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है ! कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी और अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी। वे ख़ानाबदोश नहीं थीं कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़ शीशम के उस सफेद तने पर बाँध की ढलान पर उतरने के लिए टिकाये गये उनके पत्थर उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर वे अचानक कहीं से नहीं बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर पहुँची थी यहाँ तक। उनके दरवाज़े थे जिनसे दिखते थे पालने केश बाँधने के रंगीन फ़ीते पपीते के पेड़ ताज़ा कटी घास और तम्बाकू के पत्ते- जो धीरे धीरे सूख रहे थे और साँप मारने वाली बर्छी भी। वे धब्बा और शोर नहीं थीं उनके चिराग़ थे जानवर थे घर थे उनके घर थे जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी आटा गूँधा जाता था वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था जो रिसता था बारिश के दिनों में उनके घर थे जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में। वहाँ रात ढलती थी चाँद गोल बनता था दीवारें थीं उनके आँगन थे जहाँ तिनके उड़ कर आते थे जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही। वहाँ कल्पना थी वहाँ स्मृति थी। वहाँ दीवारें थीं जिन पर मेघ और सींग के निशान थे दीवारें थीं जो रोकती थीं झाड़ियों को आँगन में जाने से। घर की दीवारें बसने की ठोस इच्छाएँ उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने साही के काँटों से नहीं भालू के नाखुन से नहीं कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है और कैमरों से रंगीन पर्दों पर वे मिट्टी की दीवारों थीं प्राचीन चट्टानें नहीं उन पर हर साल नयी मिट्टी चढ़ाई जाती थी ! वे उनके घर थे-इन्तज़ार नहीं। पेड़ केे कोटर नहीं उड़ रही चील के पंजों में दबोचे हुए चूहे नहीं। सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर पूरी दुनिया के नक्शे में थे एक जगह पूरे के पूरे वे इतनी सुबह आती थीं वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं? वे क्यों आती थीं इतनी सुबह किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह? क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए आती थीं इतनी सुबह क्या मेरे लिए नहीं? क्या तुम्हारे लिए नहीं? क्या उनका इतनी सुबह आना सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था? कैसे देखते हो तुम इस श्रम को? भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा जा रहा है क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है? क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है? कैसे देखते हो तुम श्रम को ! शहरों को उन्होंने धोखा और जाल नहीं कहा शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे नहीं थे उनके लिए उन्होंने शहरों को देखा था किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं ! शहर उनकी ज़िन्दगी में आते-जाते थे सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ जो इस समय भी वहाँ चिमनियों के चारों ओर दिखाई दे रहे हैं ! उनकी हत्या की गयी उन्होंने आत्महत्या नहीं की इस बात का महत्त्व और उत्सव कभी धूमिल नहीं होगा कविता में ! वह क्या था उनके होने में जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया? बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षो। में एक ऐसे देश के सामने जहाँ संसद लगती है? वह क्या था उनके होने में जिसे ख़रीदा नहीं जा सका जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा वह भी आधी रात में कायरों की तरह बंदूकों के घेरे में? बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ ! मेरा सब कुछ निर्भर करता है इस साधारण-सी बात पर ! वह क्या था उनके होने में जिसे जला कर भी नष्ट नहीं किया जा सकता ! पागल तलवारें नहीं थरं उनकी राहें उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह ! पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक जीते जी फ़ॉसिल बन गये लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले चल रहे हैं रानियाँ मिट गयीं जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं रह गयी उनकी याद की रानियाँ मिट गयीं लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही औरतें फ़सल काट रहीं हैं। ........................................................................................................................... ज्योर्दानों फ़िलिप्पों ब्रूनों सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक-दार्शनिक थे। उन्होंने चर्च के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिकस की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रम्हांड के केन्द्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं। सन 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया। बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक चेतना का विकास किया। | भागी हुई लड़कियाँ एक घर की ज़ंजीरें कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं जब घर से कोई लड़की भागती है क्या उस रात की याद आ रही है जो पुरानी फ़िल्मों में बार-बार आती थी जब भी कोई लड़की घर से भागती थी? बािश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने-भर उनकी रोशनी? और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के आज अपने ही घर में सच निकले ! क्या तुम यह सोचते थे कि वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए रचे गये थे? और वह ख़तरनाक अभिनय लैला के ध्वंस का जो मंच से अटूट उठता हुआ दर्शकों की निजी ज़िन्दगियों में फैल जाता था? दो तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं कभी वह ख़त जिसे भागने से पहले वह अपनी मेज़ पर रख गयी तुम तो छिपाओगे पूरे ज़माने से उसका संवाद चुराओगे उसका शीशा, उसका पारा, उसका आबनूस उसकी सात पालों वाली नाव लेकिन कैसे चुराओगे एक भागी हुई लड़की की उम्र जो अभी काफ़ी बची हो सकती है उसके दुपट्टे के झुटपुटे में? उसकी बची-खुची चीज़ों को जला डालोगे? उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे? जो गूँज रही है उसकी उपस्थिति से बहुत अधिक सन्तूर की तरह केश में तीन उसे मिटाओगे एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे उसके ही घर ही हवा से उसे वहाँ से भी मिटाओगे उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर वहाँ से भी मैं जानता हूँ कुलीनता की हिंसा ! लेकिन उसके भागने की बात याद से नहीं जायेगी पुरानी पवन चक्कियों की तरह वह कोई पहली लड़की नहीं है जो भागी है और न वह अन्तिम लड़की होगी अभी और भी लड़के होंगे और भी लड़कियाँ होंगी जो भागेंगे मार्च के महीने में लड़की भागती है जैसे फूलों में गुम होती हुई तारों में गुम होती हुई तैराकी की पोशाक़ में दौड़ती हुई खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में चार अगर एक लड़की भागती है तो यह हमेशा ज़रूरी नहीं है कि कोई लड़का भी भागा होगा कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं जिनके साथ वह जा सकती है कुछ भी कर सकती है सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मज़बूत घर से बाहर लड़कियाँ काफ़ी बदल चुकी हैं मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा कि तुम अब उनकी सम्भावना की भी तस्करी करो वह कहीं भी हो सकती है गिर सकती है बिखर सकती है लेकिन वह खुद शमिल होगी सब में ग़लतियाँ भी ख़ुद ही करेगी सब कुछ देखेगी शुरू से अन्त तक अपना अन्त भी देखती हुई जायेगी किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी पाँच लड़की भागती है जैसे सफेद घोड़े पर सवार लालच और जुए के आर-पार जर्जर दूल्हों से कितनी धूल उठती है! तुम जो पत्नियों को अलग रखते हो वेश्याओं से और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो पत्नियों से कितना आतंकित होते हो जब स्त्री बेख़ौफ भटकती है ढूँढती हुई अपना व्यक्तित्व एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों और प्रेमिकाओं में ! अब तो वह कहीं भी हो सकती है उन आगामी देशों में भी जहाँ प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा ! छह कितनी-कितनी लड़कियाँ भागती हैं मन ही मन अपने रतजगे, अपनी डायरी में सचमुच की भागी लड़कियों से उनकी आबादी बहुत बड़ी है क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी? क्या तुम्हारी रातों में एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं? क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गया? क्या तुम उसे उठा लाये अपनी हैसियत, अपनी ताक़त से? तुम उठा लाये एक ही बार में एक स्त्री की तमाम रातें उसके निधन के बाद की भी रातें ! तुम नहीं रोये पृथ्वी पर एक बार भी किसी स्त्री के सीने से लगकर सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ तुम से नहीं कहा किसी स्त्री ने सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ कितनी-कितनी बार कहा कितनी स्त्रियों ने दुनिया भर में समुद्र के तमाम दरवाज़ों तक दौड़ती हुई आयीं वे सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ और दुनिया जब तक रहेगी सिर्फ़ आज की रात भी रहेगी। ज़िलाधीश तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो। तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो ! एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था ! तुम क्या सोचते हो संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया जैसी वह राजाओं के ज़माने में थीं? यह जो आदमी मेज़ की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें कितने क़रीब से और ध्यान से यह राजा नहीं है ज़िलाधीश है ! यह ज़िलाधीश है जो राजाओं से आम तौर पर बहुत ज़्यादा शिक्षित है राजाओं से ज़्यादा तत्पर और संलग्न ! यह दूर किसी क़िले में-ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लडका है। यह हमारी असफलताओं और ग़लतियों के बीच पला है यह जानता है हमारे साहस और लालच को राजाओं से बहुत ज़्यादा धैर्य और चिन्ता है इसके पास ! यह ज़्यादा भ्रम पैदा कर सकता है यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आज़ादी से दूर रख सकता है। कड़ी कड़ी निगरानी चाहिए सरकार के इस बेहतरीन दिमाग़ पर ! कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है ! नदियाँ इछामती और मेघना महानन्दा रावी और झेलम गंगा गोदावरी नर्मदा और घाघरा नाम लेते हुए भी तकलीफ़ होती है उनसे उतनी ही मुलाक़ात होती है जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं और उस समय भी दिमाग़ कितना कम पास जा पाता है दिमाग़ तो भरा रहता है लुटेरों के बाज़ार के शोर से। सफ़ेद रात पुराने शहर की इस छत पर पूरे चाँद की रात याद आ रही है वर्षों पहले की जंगल की एक रात जब चाँद के नीचे जंगल पुकार रहे थे जंगल को और बारहसिंगे पीछे छूट गये बारहसिंगे को निर्जन मोड़ पर ऊँची झाड़ियों में ओझल होते हुए क्या वे सब अभी तक बचे हुए है। पीली मिट्टी के रास्ते और खरहे महोगनी के घने पेड़ तेज़ महक वाली कड़ी घास देर तक गोधूलि ओस रखवारे की झोपड़ी और उसके ऊपर सात तारे पूरे चाँद की इस शहरी रात में किसलिए आ रही है याद जंगल की रात ? छत से झाँकता हूँ नीचे आधी रात बिखर रही है दूर-दूर तक चाँद की रोशनी सबसे अधिक खींचते हैं फुटपाथ ख़ाली खुले आधी रात के बाद के फुटपाथ जैसे आँगन छाये रहे मुझमें बचपन से ही और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही कहीं भी रहूँ क्या है चाँद के उजाले में इस बिखरती हुई आधी रात में एक असहायता जो मुझे कुचलती है और एक उम्मीद जो तकलीफ़ जैसी है शहर में इस तरह बसे कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे न पुरखे साथ आये न गाँव न जंगल न जानवर शहर में बसने का क्या मतलब है शहर में ही ख़त्म हो जाना? एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य हर कहीं उनके भविष्यहीन तम्बू हम कैसे सफ़र में शामिल हैं कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी सिर्फ़ कहने के लिए कोई अना शहर है कोई अपना घर है इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़ अब इन्हीं शहरों में कई तरह की हिंसा कई तरह के बाज़ार कई तरह के सौदाई इनके भीतर इनके आसपास इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर और श्रीनगर तक हिंसा और हिंसा की तैयारी और हिंसा की ताक़त बहस नहीं चल पाती हत्याएँ होती हैं फिर जो बहस चलती है उसका भी अन्त हत्याओं में होता है भारत में जन्म लेने का मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था अब भारत भी नहीं रहा जिसमें जन्म लिया क्या है इस पूरे चाँद के उजाले में इस बिखरती हुई आधी रात में जो मेरी साँस लाहौर और कराची और सिन्ध तक उलझती है? क्या लाहौर बच रहा है? वह अब किस मुल्क में है? न भारत में न पाकिस्तान में न उर्दू में न पंजाबी में पूछो राष्ट्र निर्माताओं से क्या लाहौर फिर बस पाया? जैसे यह अछूती आज की शाम की सफेद रात एक सच्चाई है लाहौर भी मेरी सच्चाई है कहाँ है वह हरे आसमान वाला शहर बग़दाद ढूँढों उसे अब वह अरब में कहाँ है? पूछो युद्ध सरदारों से इस सफेद हो रही रात में क्या बग़दाद को फिर से बना सकते हैं? वे जो खजूर का एक पेड़ भी नहीं उगा सकते वे तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते जितना एक बच्चा ऊँट का चलता है ढूह और गुबार से अन्तरिक्ष की तरह खेलता हुआ क्या वे एक ऊँट बना सकते हैं? एक गुम्बद एक तरबूज़ एक ऊँची सुराही एक सोता जो धीरे धीरे चश्मा बना एक गली जो ऊँची दीवारों के साये में शहर घूमती थी और गली में सिर पर फ़ीरोज़ी रूमाल बाँधे एक लड़की जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी अब उसे याद करोगे तो वह याद आयेगी अब तुम्हारी याद ही उसकी गली है उसकी उम्र है उसका फ़ीरोज़ी रूमाल है जब भगत सिंह फाँसी के तख़्ते की ओर बढ़े तो अहिंसा ही थी उनका सबसे मुश्किल सरोकार अगर उन्हें क़बूल होता युद्ध सरदारों का न्याय तो वे भी जीवित रह लेते बर्दाश्त कर लेते धीरे-धीरे उजड़ते रोज़ मरते हुए लाहौर की तरह बनारस अमृतसर लखनऊ इलाहाबाद कानपुर और श्रीनगर की तरह। रेल हर भले आदमी की एक रेल होती है जो माँ के घर की ओर जाती है सीटी बजाती हुई धुआँ उड़ाती हुई। किसने बचाया मेरी आत्मा को किसने बचाया मेरी आत्मा को दो कौड़ी की मोमबत्तियों की रोशनी ने दो-चार उबले हुए आलू ने बचाया सूखे पत्तों की आग और मिट्टी के बर्तनों ने बचाया पुआल के बिस्तर ने और पुआल के रंग के चाँद ने नुक्कड़ नाटक के आवारा जैसे छोकरे चिथड़े पहने सच के गौरव जैसा कंठ-स्वर कड़ा मुक़ाबला करते मोड़-मोड़ पर दंगाइयों को खदेड़ते वीर बाँकें हिन्दुस्तानियों से सीखा रंगमंच भीगे वस्त्र-सा विकल अभिनय दादी के लिए रोटी पकाने का चिमटा लेकर ईदगाह के मेले से लौट रहे नन्हे हामिद ने और छह दिसम्बर के बाद फ़रवरी आते-आते जंगली बेर ने इन सबने बचाया मेरी आत्मा को। चौक उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया ! मेरे मोहल्ले की थीं वे हर सुबह काम पर जाती थीं मेरा स्कूल उनके रास्ते में पड़ता था माँ मुझे उनके हवाले कर देती थी छुट्टी होने पर मैं उनका इन्तज़ार करना सिखाया। क़स्बे के स्कूल में मैंने पहली बार ही दाखिला लिया था कुछ दिनों बाद मैं खुद ही जाने लगा और उसके भी कुछ दिनों बाद कई लड़के मेरे दोस्त बन गये तब हम साथ-साथ कई दूसरे रास्तों से भी स्कूल आने-जाने लगे लेकिन अब भी उन थोड़े से दिनों के कई दशकों बाद भी जब कभी मैं किसी बड़े शहर के बेतरतीब चौक से गुज़रता हूँ उन स्त्रियों की याद आती है और मैं अपना दायाँ हाथ उनकी ओर बढ़ा देता हूँ और बायें हाथ से उस स्लेट को सँभालता हूँ जिसे मैं छोड़ आया था बीस वर्षो के अख़बारों के पीछे ! |
No comments:
Post a Comment