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Sunday, October 3, 2010

इंसाफ को दफनाने के लिए मस्जिद सबसे सही जगह थी

इंसाफ को दफनाने के लिए मस्जिद सबसे सही जगह थी

समर

बाबरी मस्जिद मामले पे इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला सुनने के बाद जो पहला खयाल आया, वो ये था कि कुछ दफनाने के लिए सबसे मुनासिब जगह कौन सी होगी? क्या कुछ भी कहीं भी दफना सकते हैं? शायद नहीं, क्यूंकि हर समाज आखिरत की रस्मों के लिए ऐसी जगहें ढूंढता है जो पाक हों, पवित्र हों। आखिर को जाने वाले हमारे अपने होते हैं, हमारे अजीज होते हैं।

पर शमशानों और कब्रिस्तानों की पाकीजगी के बाद भी, अगर मरने वाला इंसाफ जैसा कुछ हो तो? क्या ये पाकीजगी इंसाफ को, जम्हूरियत को, यहां तक कि इंसानियत को दफनाने के लिए काफी पड़ेगी? शायद नहीं। और इसीलिए, हाईकोर्ट का फैसला कम से कम एक मामले में बिलकुल ठीक है कि इंसाफ को दफनाने के लिए बाबरी मस्जिद की शहादतगाह से बेहतर जगह और क्या होती?

आखिर को, 18 बरस पहले बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने के बावजूद भगवा आतंकवादी अपने मंसूबों में कामयाब कहां हो पाये थे? इक बस इमारत थी जो वो ढा सके थे, गंगाजमनी तहजीब से लेकर इंसाफ तक सब बचा रह गया था। ये नहीं कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी। कोशिश तो खूब की थी, बहुत मेटाडोरों को रथ बना के घुमाया था, बहुत ईंटों को रामशिला कहा था, और बहुत लोगों को इंसान से हिंदू बनाने के कोशिश की थी। यहां तक कि दिल्ली की कुर्सी पर भी काबिज हो ही गये थे एक बार। पर फिर भी इंसाफ और अमन का कत्ल कहां कर पाये थे।

फिर उन्हें गुजरात करना पड़ा था। क्रिया-प्रतिक्रिया के नाम पर दो हजार मुसलमानों का खून करना पड़ा था। वो बहुत मुतमइन थे कि अब तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता। कि अब तो वो दिल्ली की गद्दी पे अकेले दम काबिज हो के रहेंगे। उन्हें उनका हिंदू राष्ट्र का सपना साफ साफ नजर आने लगा था। जैसे कि किसी जादुई शीशे में उनके आने वाले कल की बहुत खूबसूरत सी तस्वीर हो।

और फिर चुनाव हुए थे। गुजरात छोड़ हिंदुस्तान के अवाम ने उनको और उनके सपनों को जादुई शीशे से निकाल सच का सामना करा दिया था। हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए दौड़ते उनके अश्वमेधी घोड़ों की लगाम इस अवाम ने यूं थामी थी कि घोड़ों के साथ उनके सवार भी औंधे मुह गिरे थे। और तब लगा था, कि अभी अमन जिंदा है और इंसाफ भी। और ये कि इंसानों के इस देश में हिंदू और मुसलमानों के नाम पे बंटवारे बर्दाश्त नहीं किये जाएंगे।

तब फिर ये उम्मीद भी जागी थी कि इस देश के न्यायालय बाबरी मस्जिद पे जब फैसला देंगे, तो इंसाफ के हक में देंगे। वो भगवा आतंकवादी इस उम्मीद से डरते भी बहुत थे। इसीलिए हर तीसरे दिन उनका कोई नेता ये बयान जारी करता था कि ये आस्था का सवाल है और इसपर किसी कोर्ट की कोई राय वो नहीं मानेंगे।

पर वो कहां जानते थे कि कोर्ट उनका आधा छूट गया काम पूरा करने वाली है। जानते भी कैसे? माननीय न्यायाधीशों के कोट के नीचे वाला हिंदू हृदय उनको कैसे दिखता। उनको कैसे पता चलता कि जिस रामलला का जन्मस्थान इतिहास भी नहीं जानता वो उसे एक फीट के दायरे तक लाके साबित कर देंगे।

और साबित करने का आधार क्या होगा? ये कि करोड़ों हिंदुओं की आस्था है, विश्वास है कि रामलला वहीं पैदा हुए थे। पर ये करोड़ों हिंदू हैं कौन? कहां रहते हैं? और कोर्ट को उनके यकीन का पता ऐसे साफ-साफ कैसे चल गया? कोर्ट ने कम से कम हमें तो नहीं बताया कि इन करोड़ों हिंदुओं ने उनको पोस्टकार्ड भेज के बताया था कि उनका ये यकीन है। अलबत्ता, चुनाव दर चुनाव भाजपा को धता बता के ये तो बताया था कि अयोध्या का मसला हिंदुओं का नहीं भाजपा का मसला है, चुनाव का मसला है। वोटों की तिजारत का मसला है।

या कोर्ट ने कोई और हिंदू इजाद कर लिये थे? 'इस सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है/ इसलिए ये लाजमी बनता है/ कि सरकार इस जनता को भंग कर दे/ और अपने लिए कोई और जनता चुन ले/ वाले अंदाज में।

और फिर अगर कोर्ट 'हिंदुओं' के यकीन पे ही चलने वाली है तो और भी बहुत सारे यकीन हैं। जैसे ये खाप पंचातिया यकीन कि गैर जाती में शादी करने वाले हिंदुओं को कत्ल कर देना चाहिए। हरयाणा में बहुत सारी पंचायतों ने ये किया भी। और हिंदुओं की आस्था के चलते किया। अब कोर्ट को उन हत्यारों के खिलाफ सारे मुकदमे वापस ले लेने चाहिए। या ये कि शायद उन्हें 'हिंदू धर्म गौरव' जैसा कोई पुरस्कार दे देना चाहिए।

बहुत सारे हिंदुओं (खास तौर पे संघी) का ये भी यकीन है कि कुछ जातियां नीची होती हैं। शायद वक्त आ गया है कि कोर्ट जातिगत भेदभाव को कानूनी बना दे, आखिर करोड़ों हिंदुओं के 'यकीन' का मामला है। कोर्ट को भारतीय संविधान के जाति-विरोधी प्राविधानों को तत्काल प्रभाव से रद्द कर देना चाहिए और निर्देश जारी कर देना चाहिए कि जो जातिगत उत्पीड़न नहीं करेगा, वो सजा का भागी होगा।

और हां, कोर्ट को संघियों को ये निर्देश भी दे देना चाहिए कि वो इस मुल्क में बाकी बची सारी मस्जिदें, चर्च, गुरद्वारे, गिरजाघर गिराना शुरू कर दें (यूं संघियों को किसी निर्देश की जरूरत है नहीं, गुजरात और उड़ीसा में पहले ही बहुत गिरा चुके हैं) जिससे कोर्ट हर गैर-हिंदू धर्मस्थल का कम से कम तीसरा हिस्सा हिंदुओं को दे सके। यकीन का मामला जो ठहरा। शुरुआत शायद काशी और मथुरा से कर सकते हैं, वो नारा तो याद ही होगा कि काशी मथुरा बाकी है।

और हां, कोर्ट को भारत को संघी आस्थाओं के मुताबिक हिंदू राष्ट्र घोषित कर देना चाहिए। आखिर को दुनिया के अकेले हिंदू राष्ट्र नेपाल के धर्मनिरपेक्ष बनने के बाद एक हिंदू राष्ट्र की जरूरत भी है।

बहरहाल, इस बीच हम सारे लोगों, जो हिंदू और मुसलमान नहीं हैं, या हैं भी तो हिंदुस्तानी होने के बाद हैं, इंसाफ के कफन-दफन की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। इंसाफ मरहूम इस मुल्क की सबसे अजीम रवायत थे। इस मुल्क की जिंदगी का सबसे अहम हिस्सा। उनके दफन के लिए बाबरी मस्जिद की कब्र से बेहतर जगह होती भी तो क्या।

(सौजन्‍य : अरविंद शेष)


[3 Oct 2010 | 4 Comments | ]
यह तो नयी-नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो!
इंसाफ को दफनाने के लिए मस्जिद सही जगह थी
[3 Oct 2010 | Read Comments | ]

समर ♦ कोर्ट को संघियों को ये निर्देश भी दे देना चाहिए कि वो इस मुल्क में बाकी बची सारी मस्जिदें, चर्च, गुरद्वारे, गिरजाघर गिराना शुरू कर दें जिससे कोर्ट हर गैर-हिंदू धर्मस्थल का कम से कम तीसरा हिस्सा हिंदुओं को दे सके।

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डॉ शशिकांत ♦ दो सौ सालों तक ब्रिटेन के गुलाम रहे हिंदुस्तान की सरजमीन पर कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन आजादी के आंदोलन में शहीद हुए हजारों स्वाधीनता सेनानियों का अपमान है।
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uncategorized »

[3 Oct 2010 | Comments Off | ]

नज़रिया, मीडिया मंडी »

[2 Oct 2010 | 22 Comments | ]
रामभक्ति में डूबे सवर्ण हिंदू मीडिया का घिनौना चेहरा

जनतंत्र डेस्क ♦ बाबरी विध्वंस पर अदालत ने एक बेहद बेतुका फैसला सुना दिया है। ऐसा लग ही नहीं रहा कि इस फैसले से इंसाफ हुआ है, बल्कि यह लग रहा है कि अदालत यह तय करने में नाकाम साबित हुई है कि उस विवादित जमीन पर हक़ किसका है। यही वजह है कि आज यह आरोप लग रहे हैं कि फैसला न्यायिक नहीं राजनीतिक है। अगर उन आरोपों में जरा भी दम है तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं है। उधर मीडिया ने एक बार फिर इस मामले में दोगलई की है। मीडिया का सवर्ण हिंदुवादी चेहरा सामने आ गया है। साथ ही यह भी कि आज मीडिया कांग्रेस के आगे लोट गया है। कांग्रेस सरकार के विरुद्ध एक भी शब्द बोलने में ज्यादातर मीडिया संस्थानों के उच्च पदों पर बैठे लोगों की हालत ख़राब होने लगती है।

uncategorized, शब्‍द संगत, सिनेमा »

[2 Oct 2010 | 20 Comments | ]
मैंने राम को नहीं देखा

अविनाश ♦ यह कविता मुंबई में रहने वाले एक युवक की है। इस पर अनुराग कश्‍यप की नजर पड़ी और उन्‍होंने फेसबुक पर नारा लगाया, भोमियावाद जिंदाबाद। मैंने कविता पढ़ी और मुझे ठीक लगी। मैंने अनुराग को मैसेज किया मुझे इन सज्‍जन के बारे में बताएं। उन्‍होंने बताया कि होनहार लड़का है – सिनेमा हॉल में रहता है – और सपने देखता है। मैं इसी परिचय के साथ मोहल्‍ला पर उनकी कविता जारी कर रहा हूं। आज दो कविता हमारे हिस्‍से में आयी है और दोनों का स्रोत फेसबुक है। पहली स्‍वानंद की कविता और अब दूसरी अनुराग भोमिया की कविता। हिंदी की त‍थाकथित मुख्‍यधारा में शामिल होने को लेकर निरुत्‍साहित इस किस्‍म की कविताई हमारे समय में अपने मन की सबसे ईमानदार अभिव्‍यक्तियां हैं।

विश्‍वविद्यालय, शब्‍द संगत »

[2 Oct 2010 | 4 Comments | ]
वर्धा में साहित्यिक महाकुंभ, विमल-कमल सब पहुंचे

अभिषेक श्रीवास्‍तव ♦ विभूति नारायण राय के विवादास्‍पद साक्षात्‍कार का जख्‍म अब भी हरा है उन लेखकों-पत्रकारों की चेतना में, जिन्‍होंने दिल्‍ली से लेकर वर्धा तक राय और उनका साक्षात्‍कार छापने वाले नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया के खिलाफ पिछले दिनों अपनी आवाज उठायी थी। हिंदी जगत में जैसा कि हमेशा होता आया है, कि छोटे-छोटे सम्‍मान और व्‍याख्‍यान के बहाने विरोध के स्‍वरों को कोऑप्‍ट कर लिया जाता रहा है और जिसकी आशंका विवाद के दौरान भी जतायी ही जा रही थी, आज इसी की शुरुआत महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के परिसर में हो रही है। गौरतलब है कि यह वर्ष अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर व फैज अहमद फैज की जन्‍मशती का है। इस मौके पर एक साथ चारों रचनाकारों का मूल्‍यांकन करने के उद्देश्‍य से विश्‍वविद्यालय ने दो दिन का एक विमर्श आयोजित किया है, जिसमें हिंदी के कई स्‍वनामधन्‍य लेखक शिरकत कर रहे हैं।

पुस्‍तक मेला, मीडिया मंडी »

[2 Oct 2010 | 3 Comments | ]
मीडिया के अंडरवर्ल्‍ड पर दिलीप मंडल की नयी किताब

डेस्‍क ♦ पेड न्यूज वर्तमान मीडिया विमर्श का सबसे चर्चित विषय है। समाचार को लेकर जिस पवित्रता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की शास्त्रीय कल्पना है, उसका विखंडन हम सब अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। मीडिया छवि बनाता और बिगाड़ता है। इस ताकत के बावजूद भारतीय मीडिया अपनी ही छवि का नाश होना नहीं रोक सका। देखते-देखते पत्रकार आदरणीय नहीं रहे। लोकतंत्र का चौथा खंभा आज धूल धूसरित गिरा पड़ा है। खबरें पहले भी बिकती थीं। सरकार और नेता से लेकर कंपनियां और फिल्में बनाने वाले खबरें खरीदते रहे हैं। बदलाव सिर्फ इतना है कि पहले खेल पर्दे के पीछे था। अब मीडिया अपना माल दुकान खोलकर और रेट कार्ड लगाकर बेच रहा है।

शब्‍द संगत, सिनेमा »

[2 Oct 2010 | 6 Comments | ]
मरा कबीर और मरा रे बुल्‍ला, यहां पे नंगा नाचे दल्‍ला

डेस्‍क ♦ स्‍वानंद किरकिरे हिंदी सिनेमा की फिलहाल सबसे लयबद्ध उपस्थिति हैं। कुमार गंधर्व की जमीन से आये स्‍वानंद को हम सब बावरा मन देखने चला एक सपना और रतिया ये अंधियारी रतिया की वजह से प्‍यार करते हैं। उनके हर सृजन को गौर से देखते हैं। यह गीत, जो हम मोहल्‍ला में पेश कर रहे हैं – उन्‍होंने किसी फिल्‍म के लिए नहीं लिखा। 30 सितंबर को जब अयोध्‍या का फैसला आना था, सुबह-सुबह उन्‍होंने इसे लिखा और फेसबुक पर जारी किया…
मैं निखट्टू, देश निठल्‍ला… दिन भर बेमतलब हो हल्‍ला
भिखमंगों के राम और अल्‍ला
व्‍योपारी का धरम है गल्‍ला

नज़रिया »

[1 Oct 2010 | 5 Comments | ]
अदालत ने सबकी झोली में डाल दिया रामलला का प्रसाद

अनुराग द्वारी ♦ काश एक याचिका डाल देता … अदालत के फैसले से हर याचिकाकर्ता को हिस्सा मिल गया है। इसलिए मैं भी सोच रहा हूं कि काश एक याचिका मैंने भी डाली होती, तो शायद…! राम मंदिर – बाबरी मस्जिद विवाद में अदालती आदेश के बाद दिल में यही बात बार बार उठ रही है। खैर मेरे विचार में पहली बार ऐसा फैसला सुना है जहां ऐतिहासिक साक्ष्य पर धार्मिक सबूत भारी पड़े हैं। तीन जजों की खंडपीठ में बहुमत ने जो फैसला दिया है, उससे भले ही हिंदू-मुस्लिम, नेता-अभिनेता-पत्रकार खुश हैं, लेकिन अगर गौर से देखें तो ये फैसला विवादित स्थल पर हक की लड़ाई पर मौन ही है। अदालत ने साफ कहा है कि दोनों ही पक्ष अपने मालिकाना हक के दावे को साबित नहीं कर पाये हैं इसलिए…

नज़रिया »

[1 Oct 2010 | No Comment | ]
अमन के लिए फैसला इंसाफ नहीं है!

अभय तिवारी ♦ जो फैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूं। ऐसा नहीं लगता है कि यह किसी न्यायालय का फैसला है। लगता है कि जैसे किसी सदय पिता ने अपने झगड़ते बच्चों के बीच खिलौने का बंटवारा कर दिया है – लो तीनों मिलकर खेलो! मैं कोई न्यायविद नहीं हूं और न ही मैंने संपूर्ण फैसले का अध्ययन किया है। लेकिन निर्णय का संक्षेप पढ़ने से जो बात समझ आती है वह ये है कि चीजों का फैसला ताथ्यिक आधार पर नहीं बल्कि मान्यताओं के आधार पर किया गया है। अब जैसे विवादित स्थल पर मंदिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है। दूसरी ओर कई सालों से खड़ी मस्जिद पर से वक्‍फ बोर्ड के अधिकार को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि उन्‍होंने मुकद्दमा करने में देरी कर दी।

नज़रिया »

[1 Oct 2010 | 8 Comments | ]
हे राम! किसके हृदय में बसे रहना चाहते हो…

सत्यानंद निरूपम ♦ तुम वही राम हो न, जिसने उत्तराधिकार में मिले राज्य को ठुकरा कर चौदह साल का बनवास चुना था? (क्या वह तुम्हारा भावुक फैसला था?) तुम वही राम हो न, जिसने बालि को मार कर उसका राज्य उसके छोटे भाई सुग्रीव को दे दिया था? (क्या सुग्रीव के साथ तुम्हारी यह लाचारी में की गयी संधि थी?) तुम वही राम हो न, जिसने सोने की लंका को जीत कर भी उसमें पांव तक नहीं रखा था? (क्या विभीषण के साथ तुम्हारा कोई गुप्त समझौता था?) तुम्हारे अश्वमेध यज्ञ को तुम्हारे बेटों ने विफल किया था। सिद्धि न मिल सकी तुम्हें। कभी-कभी सोचता हूं कि तुम्हें जीवन से 'यश' के सिवा मिला भी क्या? एक शांत स्वाभाविक मृत्यु भी नहीं! जल-समाधि ली तुमने!! यानी जल में डुबो ही तो दिया खुद को?

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