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Tuesday, July 27, 2010

Fwd: 'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब'



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/7/27
Subject: 'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब'
To: abhinav.upadhyaya@gmail.com


'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब'

सदानंद शाही के संपादन में निकलने वाली पत्रिका साखी के 20वें अंक में छपे अपने (मूलतः अंगरेजी में लिखे) पत्र में आर्थिक इतिहासकार गिरीश मिश्र ने रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के कार्यों पर गंभीर टिप्पणियां की थीं. इस पर रविभूषण जी ने एक जवाब लिखा, जिसे प्रभात खबर ने छापा और इसे हमने हाशिया पर भी पोस्ट किया. इस आलेख की प्रतिक्रिया में गिरीश मिश्र ने प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश जी को एक पत्र लिखा था, जिसे प्रभात खबर ने प्रकाशित किया था और यह सूचना दी थी कि  अखबार में अब इस संदर्भ में कोई भी टिप्पणी प्रकाशित नहीं होगी. यह पत्र भी हाशिया पर पोस्ट किया गया था. 
हाशिया पर पोस्ट किए गए  रविभूषण के आलेख पर गिरीश मिश्र ने एक कमेंट भी किया था और अब उस कमेंट तथा गिरीश मिश्र द्वारा हरिवंश को लिखे पत्र के जवाब के रूप में रविभूषण ने हाशिया के लिए यह टिप्पणी लिखी है. यह टिप्पणी हमें 23 तारीख को हासिल हो गई थी, लेकिन बाहर रहने के कारण मैं इसे  पोस्ट नहीं कर सका था. इस संदर्भ में बहस हाशिया पर आगे भी जारी रहेगी.

पोस्ट पढ़ेंः 
'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब'

'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब'

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/27/2010 05:06:00 PM
सदानंद शाही के संपादन में निकलने वाली पत्रिका साखी के 20वें अंक में छपे अपने (मूलतः अंगरेजी में लिखे) पत्र में आर्थिक इतिहासकार गिरीश मिश्र ने रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के कार्यों पर गंभीर टिप्पणियां की थीं. इस पर रविभूषण जी ने एक जवाब लिखा, जिसे प्रभात खबर ने छापा और इसे हमने हाशिया पर भी पोस्ट किया. इस आलेख की प्रतिक्रिया में गिरीश मिश्र ने प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश जी को एक पत्र लिखा था, जिसे प्रभात खबर ने प्रकाशित किया था और यह सूचना दी थी कि  अखबार में अब इस संदर्भ में कोई भी टिप्पणी प्रकाशित नहीं होगी. यह पत्र भी हाशिया पर पोस्ट किया गया था. 
हाशिया पर पोस्ट किए गए  रविभूषण के आलेख पर गिरीश मिश्र ने एक कमेंट भी किया था और अब उस कमेंट तथा गिरीश मिश्र द्वारा हरिवंश को लिखे पत्र के जवाब के रूप में रविभूषण ने हाशिया के लिए यह टिप्पणी लिखी है. यह टिप्पणी हमें 23 तारीख को हासिल हो गई थी, लेकिन बाहर रहने के कारण मैं इसे  पोस्ट नहीं कर सका था. इस संदर्भ में बहस हाशिया पर आगे भी जारी रहेगी.

 रविभूषण

चार वर्ष पहले राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित 'प्रेमचन्द का पुनर्पाठ' विषयक एकदिवसीय अन्तर्विषयी राष्ट्रीय संगोष्ठी (31 जुलाई 2006) में मैंने डॉ पीएन सिंह को सादर आमंत्रित किया था. वे मेरे आवास पर टिके थे और यहीं उन्होंने अपना लेख 'टकराव आलोचना के शिखर पर - नामवर का मैनेजरी पाठ' लिखकर 'दैनिक जागरण' के अपने पूर्व परिचित युवा पत्रकार संजय कृष्ण को दिया था, जो 2006 के अगस्त के पहले सप्ताह में 'कसौटी' नामक परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ। पीएन सिंह ने लिखने के कारण बताये. बाद में मैंने मैनेजर पांडेय से भी इसकी सही जानकारी प्राप्त की. हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचकों में मैं रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय को अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। इन्हें 'बृहत्त्रयी' भी कह सकते हैं, जिनकी चिंताएँ मात्र साहित्य तक सीमित नहीं हैं. तीनों के बीच कई मुद्दों पर वैचारिक विरोध है।
हिन्दी में अभी हवाबाजी और पतंगबाजी कुछ अधिक है. बड़े मुद्दों पर कम ध्यान और सब कुछ को मुद्दा बना देने का कमाल बहुतों को हासिल है. हमारे देश की वर्तमान राजनीति के साथ-साथ किया जाने वाला यह कदमताल है. गंभीर पत्र -पत्रिकाओं का एक दायित्व है। अनियतकालीन हिन्दी पत्रिका 'साखी' के ताजा अंक (अप्रैल, 2010) के सम्पादकीय 'संवाद के लिए' में यह कहा गया है - ''पत्रिकाएँ अपने इर्द-गिर्द एक पाठक वर्ग तैयार करती हैं और उसकी चेतना को आगे बढ़ाती हैं.'' 'साखी' पत्रिका की गंभीरता के कारण ही प्रो हरीश त्रिवेदी और प्रो सतीश देशपांडे ने '' 'साखी की आजीवन सदस्यता लेने का प्रस्ताव किया.' गिरीश मिश्र का पत्र क्या 'पाठक की चेतना' को आगे बढ़ाता है?

गिरीश मिश्र ने पीएन सिंह का वह लेख पढ़कर अंग्रेजी में उन्हें एक पत्र लिखा। इस पत्र का अनुवाद युवा आलोचक और बीएचयू में हिन्दी के रीडर कृष्णमोहन ने किया। 'साखी' में प्रकाशित इस पत्र में कोई तिथि नहीं है। इस तिथिविहीन पत्र में सम्पादक के अनुसार गिरीश मिश्र ने '' हिन्दी आलोचना के परिदृश्य पर चिन्ता प्रकट करते हुए कुछ महत्वपूर्ण और विवादास्पद सवाल उठाये हैं.'' स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास-इतिहास की चिन्ता हिन्दी लेखकों को भले न हो, पर आर्थिक इतिहासकार को अगर हिन्दी आलोचना की चिन्ता है, तो यह अच्छी बात है. हिन्दी आलोचकों को यह ध्यान देना चाहिए कि दूसरे अनुशासन के लोग उन पर 'ध्यान' दे रहे हैं. गिरीश मिश्र ने न तो अपने पत्र में 'हिन्दी आलोचना के परिदृश्य पर' कोई 'चिन्ता प्रकट' की है और न उन्होंने कोई 'सवाल' ही उठाया है - 'महत्वपूर्ण और विवादास्पद सवाल' तो दूर रहा! यह पत्र सम्पादक ने 'बहस' के लिए प्रकाशित किया. पत्र के तीन प्रमुख हिस्से हैं. पहले हिस्से में नामवर सिंह की चर्चा है, दूसरे में मैनेजर पांडेय और रामविलास शर्मा की और तीसरा हिस्सा 'वर्तमान समय के हिन्दी साहित्य के बारे में' पत्र - लेखक की राय से संबंधित है. मैंने केवल दूसरे हिस्से पर विचार किया है.
गिरीश मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में अर्थशास्त्र के अध्यापक थे. तपनराय चौधुरी के अधीन उन्होंने अपना शोध - कार्य आरंभ किया था. उनके विदेश चले जाने के बाद पीसी जोशी 'गाइड' हुए, जिनके निर्देशन में उन्होंने अपना-शोध कार्य पूरा किया. 'साहित्य में समाज' (2008) पुस्तक उन्होंने 'वरिष्ठ अर्थशास्त्री - समाजशास्त्री एवं मित्र प्रो पूरनचंद जोशी को सादर समर्पित' की है. वे बिहार के हैं और अब दिल्लीवासी हैं. पैंतीस वर्ष से अधिक से वे निरन्तर लेखनरत हैं. अर्थ-व्यवस्था और आर्थिक इतिहास उनका अपना क्षेत्र है. वे अपने को 'आर्थिक इतिहासकार' ही कहते हैं. अर्थव्यवस्था और आर्थिक इतिहास से संबंधित उनकी अनेक पुस्तकें अंग्रेजी और हिन्दी में प्रकाशित हैं. बाल्जॉक और राममनोहर लोहिया पर उनकी पुस्तक है. उन्होंने कई पुस्तकों के अनुवाद किये हैं. फ्रांस, जर्मनी, बुल्गारिया, रूस आदि देशों में आयोजित सेमिनारों में उन्होंने भाग लिया है. 'टाइम्स ऑफ इंडिया', 'हिन्दू', 'इंडियन एक्सप्रेस', 'जनसत्ता', 'दैनिक जागरण', जैसे समाचार पत्रों में उनके लेख प्रकाशित होते रहे हैं। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हो रहे हैं. हिन्दी में प्रो अरूण कुमार (जनेवि) के लेख कम प्रकाशित होते हैं. अभी हिन्दी में गिरीश मिश्र का ही अर्थशास्त्र-संबंधी लेखन अधिक दिखाई पड़ता है, वे हिन्दी में 'लोकप्रिय' हो रहे हैं. संभव है, उन पर दिल्ली विश्वविद्यालय या अन्य किसी भारतीय विश्वविद्यालय में शोध-कार्य भी हुआ हो, जिसकी मुझे जानकारी नहीं है.
पीएन सिंह को लिखा गिरीश मिश्र का निजी पत्र प्रकाशित होने के बाद निजी नहीं रहा. सार्वजनिक हो जाने के बाद उस पर ध्यान देना आवश्यक था. मैंने 'प्रभात खबर' के अपने स्तम्भ 'चतुर्दिक' में आलेख लिखने के पूर्व 'साखी' के प्रधान सम्पादक केदारनाथ सिंह, सम्पादक मण्डल के दो सदस्य पीएन सिंह और अवधेश प्रधान एवं सम्पादक सदानन्द शाही से फोन पर बातें की और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की. पीएन सिंह और सदानन्द शाही ने मुझसे लिखित प्रतिक्रिया देने को कहा पीएन सिंह ने वचन लिया. मैंने 'प्रभात खबर' में प्रकाशित आलेख का शीर्षक रखा था. 'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणी' अखबार में दूसरे शीर्षक से यह आलेख प्रकाशित हुआ. अखबार से यह आलेख ब्लॉग पर आया। 'हाशिया' ब्लॉग पर 20 जून को गिरीश मिश्र की प्रतिक्रिया आई. उन्होंने मुझे 'अज्ञानी' कहा, मेरे सम्पादक ('प्रभात खबर' के नहीं)  हरिवंश को लिखा अपना पत्र मुझे पढ़ने को कहा, जिसमें उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि मैं किसी दूसरे से प्रेरित हूँ, मुझे उनके बारे में यह जानना चाहिए कि वे चरण-स्पर्श करने और हाथ जोड़ने में विश्वास नहीं करते हैं, डॉ शर्मा की किताबें भद्दी भूलों से भरी पड़ी हैं और मार्क्स के 'कैपिटल' के दूसरे खंड का उनका अनुवाद कूड़ा है। वे यह प्रमाणित करने को तैयार हैं कि रामविलास शर्मा का आर्य के भारतवासी होने का दावा उनका पूर्ण अज्ञान है। डॉ शर्मा के जीवन-काल में उन्होंने 'आलोचना' में 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' की समीक्षा की थी और डॉ शर्मा ने उन्हें एक मैत्रीपूर्ण पत्र लिखा था. अंत में डॉ गिरीश मिश्र ने मुझे अपनी टिप्पणी के साथ 'प्रभात खबर' के सम्पादक को लिखे पत्र का मूल प्रस्तुत करने को कहा.
'प्रभात खबर' के सम्पादक हरिवंश को 14 जून, 2010 को अंग्रेजी में लिखा गिरीश मिश्र का पत्र मैंने पढ़ा है. यह पत्र उन्हें स्वयं ब्लॉग पर डालना चाहिए था। मेरे द्वारा इस का मूल प्रस्तुत करना नैतिक नहीं था। अब इस पत्र का हिन्दी अनुवाद 29 जून, 2010 के 'प्रभात खबर' में 'हिन्दी का वर्त्तमान साहित्यिक संसार अज्ञानियों से भरा है' शीर्षक से प्रकाशित होने के बाद मुझे टिप्पणी करना आवश्यक लग रहा है। गिरीश मिश्र ने टिप्पणी करने को कहा भी है।
गिरीश मिश्र ने पीएन सिंह और 'प्रभात खबर' के प्रधान सम्पादक हरिवंश को अंग्रेजी में पत्र लिखा है. इन दोनों पत्रों के हिंदी अनुवाद प्रकाशित किये गये. हिन्दी में पत्र लिखने से अनुवादकों का श्रम और समय बच सकता था। हमारे देश में श्रम और समय की वैसे भी कद्र नहीं है। पत्र-लेखक ने रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के साथ विश्वनाथ त्रिपाठी, पी सी जोशी, रामशरण शर्मा 'मुंशी', और 'प्रभात खबर' के सम्पादक की चर्चा की है और अपने तथा मेरे बारे में भी कुछ बातें कही हैं. इसके अलावा उन्होंने 'हिन्दी के वर्तमान साहित्यिक संसार' का उल्लेख किया है, जो 'अज्ञानियों से भरा' है.
पहले 'अज्ञानियों से भरे हिन्दी के वर्तमान साहित्यिक संसार' के बारे में! यह सच है कि ''प्रोफेसर नामवर सिंह और प्रोफेसर चन्द्रबली सिह जैसे लोग बहुत दुर्लभ हैं''। हिन्दी के वर्तमान साहित्यिक संसार में क्या केवल हिन्दी के दो आलोचक हैं?  कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार, नाटककार, पत्रकार, अध्यापक, सम्पादक आदि साहित्यिक संसार में हैं या नहीं? दिल्ली सहित हिन्दी के दस प्रदेश हैं। हिन्दी का 'वर्तमान साहित्यिक संसार' विशाल है. यह संसार हजारों का है। अभी तक ऐसी पहचान किसी ने नहीं की थी. अशोक वाजपेयी 'मीडियाकर' कहते रहे हैं। नामवर सिंह ने हिन्दी अध्यापकों को 'कुपढ़' कहा था। माहौल सचमुच 'भयावह' है. क्या हिन्दी के अच्छे प्रकाशक भी अज्ञानियों की पुस्तकें प्रकाशित करते हैं? हिन्दी की जिन पत्र-पत्रिकाओं में गिरीश मिश्र के लेख प्रकाशित होते हैं, उनमें क्या उनके साथ अज्ञानियों के लेखों का भी प्रकाशन होता है? क्या नामवर सिंह सेमिनारों में अज्ञानियों के साथ उपस्थित होते हैं? क्या वे अज्ञानियों की पुस्तकों का विमोचन और उनकी समीक्षाएँ करते हैं? दिल्ली में ही सौ से अधिक हिन्दी के लेखक हैं। उनमें ज्ञानियों और अज्ञानियों की संख्या का अनुपात कितना है? 'ज्ञान के साहित्य' का ज्ञानेतर साहित्य से क्या संबंध है? साहित्य का संवेदना, अनुभव और विचार से अधिक संबंध है या ज्ञान से? क्या सभी नेट प्रेमी ज्ञानी हैं? हिन्दी के साहित्य-संसार को अज्ञानियों से भर देने में प्रकाशकों और सम्पादकों की कितनी भूमिका है? कुछ व्यक्तियों के अज्ञानी होने की पहचान की जा सकती हैं, पर पूरे 'साहित्यिक संसार' की पहचान गिरीश मिश्र ने ही की है। उन्होंने उदाहरण नहीं दिया है। लिखा है ''मैं ऐसे कई उदाहरण दे सकता हूँ.'' दिल्ली साहित्य-संस्कृति का भी केन्द्र है. केन्द्र में अज्ञानी नहीं रहने चाहिए.
गिरीश मिश्र की एक बड़ी विशेषता यह है कि उनके लिए जो 'पूरी तरह से अजनबी' है, वह 'अपना मित्र' भी है. नव उदारवादी अर्थ-व्यवस्था के दौर का यह 'उदारवाद' प्रशंसनीय है। पीएन सिंह को पत्र में उन्होंने लिखा था ''आपके लिए पूरी तरह अजनबी होने के बावजूद मैं आपको पत्र लिखने की हिमाकत कर रहा हूँ''। पीएन सिंह हिन्दी के आलोचक हैं, एक पत्रिका 'समकालीन सोच' के सम्पादक हैं। पत्रिका के सम्पादक और दैनिक पत्र के प्रधान सम्पादक में अंतर है। हरिवंश को लिखे पत्र में गिरीश मिश्र ने पीएन सिंह को 'अपने मित्र' कहा है।
गिरीश मिश्र ने पीएन सिंह को अपने पत्र के अन्त में लिखा था ''आम तौर पर हिन्दी लेखक मेरे विचारों से नाराज हो जाते हैं और पत्र-पत्रिकाओं को इन्हें प्रकाशित न करने का सुझाव देते हैं''। हिन्दी लेखकों को इतना संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए और सम्पादकों को ऐसे सुझाव नहीं मानने चाहिए. यह संबंधवाद अच्छा नहीं है। गिरीश मिश्र को ऐसे हिन्दी लेखकों और पत्र-पत्रिकाओं के नाम भी बताने चाहिए क्योंकि यह हमारे समय के एक आर्थिक इतिहासकार के विचारों को फैलने देने से रोकना है। एक लोकतांत्रिक देश में यह अलोकतांत्रिक कर्म है। 'प्रभात खबर' के सम्पादक ने उनके पत्र से 'कुछ अशालीन शब्द और वाक्य हटा दिये हैं। जरूरी नहीं है कि उनके लेख में भी ऐसे शब्द और वाक्य हों!
गिरीश मिश्र विचार के साथ 'संबंध' की भी बात करते हैं. डॉ शर्मा और उनके छोटे भाई रामशरण शर्मा 'मुंशी' से उन्होंने अपने 'मधुर संबंध' की बात लिखी है। उन्हें यह लगा है कि मैंने 'प्रभात खबर' के सम्पादक के साथ 'संबंधो का दुरूपयोग कर' 'लंबा आलेख' लिखा है। 'लंबा आलेख' हो या 'लघु आलेख', क्या उसके लिखने में संबंधों की भूमिका होती है? पीएन सिंह को लिखा उनका मूल पत्र, अखबार के 'पाठकों की पहुँच में नहीं' है, इसलिए 'मूल पत्र' में व्यक्त विचारों पर क्या चर्चा नहीं होनी चाहिए? उनके अनुसार 'प्रभात खबर' के संपादक को ''एक ईमानदार संपादक के रूप में इसकी अनुमति (मेरे आलेख के प्रकाशन की) नहीं देनी चाहिए थी'। क्या यह विचारों को रोकना नहीं है? क्या मेरे आलेख के प्रकाशित होने के बाद 'प्रभात खबर' के सम्पादक 'ईमानदार' नहीं रहे? किसके 'विचारों' से कौन नाराज हो रहा है और आलेख को प्रकाशित न करने का सुझाव कौन दे रहा है? क्या मैंने सम्पादक के साथ अपने 'संबंधो का दुरूपयोग' कर यह आलेख (लम्बा) लिखा है? मेरे आलेख में आपत्तिजनक क्या है? ब्लॉग पर भी वह उपलब्ध है। यह आलेख मैंने तुरत लिखा, न कि 'जल्दबाजी' में। क्या गिरीश मिश्र उदाहरण देकर बतायेंगे कि मैने उनके 'तथ्यों को तोड-मरोड़ कर प्रस्तुत किया है'? मैनेजर पांडेय और रामविलास शर्मा पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने क्या कोई 'तथ्य' सचमुच दिया भी है? उन्हें 'यही लगता है' कि मुझे ''ऐसा लिखने के लिए किसी ने उकसाया है या गलत तरीके से प्रेरित किया है''। उन्हें पीएन सिंह का लेख पढ़कर पत्र लिखने का 'उकसावा' मिला। जहाँ तक मेरी बात है, मैंने एक आर्थिक इतिहासकार की टिप्पणी पढ़कर अपने विचार व्यक्त किये. मुझे 'उकसाने' और 'प्रेरित' करने का काम उन्होंने ही किया। संबंधों को अधिक और बेवजह महत्व देने का यह भी दुष्परिणाम है कि हम सर्वत्र उसे ढूँढने का प्रयत्न करते हैं। आलोचना को व्यक्तिगत प्रशंसा और निन्दा, पक्ष और विपक्ष में देखने का यही फल है। गिरीश मिश्र के लिए अनुमान महत्वपूर्ण है। उन्हें ऐसा 'लगता है' कि मुझे या तो किसी ने 'उकसाया' है या फिर 'प्रेरित' किया है। रामविलास शर्मा दस वर्ष पहले दिवंगत हो चुके हैं। मैनेजर पाण्डेय के साथ न तो मैं बनारस में रहा, न जोधपुर में, न दिल्ली में। 'आलोचना की सामाजिकता' एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक के चार खण्डों के छब्बीस निबंधों में से गिरीश मिश्र किसी एक निबंध की चर्चा तक नहीं करते। फ्लैप पढ़कर अपने 'विचार' देते हैं। मैनेजर पांडेय का इस पुस्तक में एक लेख है 'आलोचनाः सार्थक और निरर्थक'। उन्होंने दस वर्ष पहले लिखा था - ''हिन्दी में आलोचना के नाम पर जो लफंगई बढ़ी है, उसकी भी चिन्ता जरूरी है। इसी प्रवृत्ति का एक रूप उस आलोचना में दिखाई देता है, जो व्यक्तिगत संबंध के बनने-बिगड़ने के अनुसार रचनाओं और रचनाकारों की कभी अतिरंजित प्रशंसा और कभी रक्तरंजित निन्दा करती है''। हिन्दी में वैचारिक संबंध घट रहा है और 'व्यक्तिगत संबंध' बढ़ रहा है। आलोचना में 'व्यक्तिगत संबंध' को बढ़ाने से तात्कालिक लाभ प्राप्त होता है, जो आलोचक को अवसरवादी, अविश्वसनीय बनाता है. प्रायः सभी क्षेत्रों में अवसरवादियों की जमात बढ़ी है।
गिरीश मिश्र 'आलोचना की सामाजिकता' पुस्तक में व्याकरण संबंधी अशुद्धियों की 'खोज' करते है। हम जो खोजना चाहेंगे, खोज ही लेंगे। 'तुम्हें ढूंढ़ ही लेंगे कहीं न कहीं'। एक आर्थिक इतिहासकार का भाषा की शुद्धता के प्रति यह लगाव हमें समझना चाहिए। यह बड़ी बात इसलिए है कि उन्होंने 'औपचारिक तौर पर हिन्दी भाषा और साहित्य का ज्ञान नही प्राप्त किया' है। उन्होंने अभी तक पुस्तक से पचास-सौ उदाहरण पेश नहीं किये हैं। उनकी पुस्तक 'साहित्य में समाज' (2008) के 'दो शब्द' का एक वाक्य है, ''यद्यपि लेख अलग-अलग विषायें और देशकाल से सम्बद्ध है, फिर भी एक, सामान्य धागा या दृष्टिकोण उनको बाँधा है। वह हैः साहित्य सामाजिक-आर्थिक विषयों के अध्ययन का एक विश्वासनीय आधार''। 'दो शब्द' के दूसरे पृष्ठ में यह भी लिखा गया है ''इसी तरह के कई सवाल संग्रहित लेखों में उठाए गए हैं। अगर उन पर चर्चा हो सकते तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूँगा''। इस पुस्तक में भी छब्बीस लेख हैं. खोजने पर किसी-न-किसी लेख में भी 'व्याकरण-संबंधी अशुद्धियाँ' किसी को मिल सकती हैं, पर मेरे लिए उनके लेखों में विचार अधिक महत्वपूर्ण हैं।
अगर ''सालों पहले मैनेजर पांडेय ने दावा किया था कि महावीर प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक 'सम्पत्ति शास्त्र' आज भी अर्थशास्त्र के छात्रों के लिए उपयोगी है'', तो इसमें गलती कहाँ थी? अर्थशास्त्र के छात्र सभी जगह एक समान नहीं हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन समाज को समझने और बदलने के लिए भी किया जाता है। अर्थशास्त्र के सभी छात्र और अध्यापक अगर समाज को समझने और बदलने को तैयार होते, तो आज देश में इस प्रकार का कोहराम न मचता। राम विलास शर्मा ने 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण' (1977) की 'भूमिका' में 'सम्पत्ति शास्त्र' के संबंध में यह लिखा था ''यह ग्रन्थ अर्थशास्त्र की नयी-पुरानी पाठय-पुस्तकों से भिन्न है. इसका उद्देश्य है समकालीन भारत के अर्थतंत्र का अध्ययन करना''। क्या इस पुस्तक (1908) के अध्ययन से समकालीन भारतीय अर्थतंत्र का अध्ययन नहीं किया जा सकता?
जो दूसरे नहीं कहते हैं, उसे भी गिरीश मिश्र उनका कहा समझते हैं. मैनेजर पांडेय का फकीर मोहन सेनापति पर कोई स्वतंत्र लेख नहीं है। उनकी पुस्तक 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका' (1989) के चौथे खंड 'साहित्य रूपों का समाजशास्त्र और उपन्यास' के सातवें अनुभाग में 'भारतीय उपन्यास की भारतीयता' पर विचार किया गया है। 'आलोचना की सामाजिकता' (2005) पुस्तक के चौथे और अंतिम खंड 'उपन्यास का लोकतंत्र' में यह लेख पूर्व रूप में ही प्रकाशित है। इस लेख में कहीं भी 'स्थायी बन्दोबस्ती के विभिन्न पहलुओं' का उल्लेख नहीं है। गिरीश मिश्र ने लिखा हैं कि वे 'तथ्यों और तर्कों के साथ अपनी बात कहने में विश्वास' रखते हैं, पर उन्होंने कहीं भी यह नहीं लिखा है कि मैनेजर पांडेय ने कहाँ फकीर मोहन सेनापति को 'पहला साहित्यकार' कहा, जिसने 'स्थायी बंदोबस्ती के विभिन्न पहलुओं' के बारे में लिखा था। अंग्रेजी में गिरीश मिश्र की एक पुस्तक 1978 में प्रकाशित हुई थी-'एग्रेरिअन प्राबलेम्स ऑफ परमानेंट सेट्‌लमेंटः ए केस स्टडी ऑफ चम्पारण'। संभव है, कृषक-जीवन से जुड़े उपन्यासों में वे 'स्थायी बन्दोबस्त' देखें। उनके पास सूचनाओं का अम्बार है। इतनी विपुल सूचनाएँ सब को नहीं हैं। जो इंटरनेट में प्रवीण नहीं हैं, उनके पास सूचनाएँ कम होंगी। गिरीश मिश्र के अनुसार ''मैनेजर पांडेय इस बात से पूरी तरह 'अनभिज्ञ' हैं कि रेवरेंड लाल विहारी डे का चर्चित उपन्यास बंगाल पीजेंट लाइफ वर्ष 1870 के पूर्वार्द्ध में छपा था''। संभव है, मैनेजर पांडेय से उनका संवाद भी हो और वे जानते हों कि मैनेजर पांडेय रेवरेंड लाल बिहारी डे और उनके उपन्यास से 'अनभिज्ञ' हैं।
कौन है रेवरेंड लाल बिहारी डे? रेवरेंड लाल बिहारी डे का जन्म एक निर्धन महाजन जाति के परिवार में 18 दिसम्बर 1824 को बर्द्धमान के समीप सोनापलासी में हुआ था। निधन कलकत्ता में 28 अक्टूबर 1892 को हुआ। गाँव के स्कूल में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे अपने पिता के साथ कलकत्ता आए और रेवरेंड अलेक्जेंडर डफ की जेनरल असेम्बली संस्था (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में प्रवेश किया। यहाँ उन्होंने दस वर्ष (1834-1844) तक अध्ययन किया। वे प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। रेवरेंड डफ के संरक्षण में 2 जुलाई 1843 को उन्होंने औपचारिक रूप से ईसाई धर्म अंगीकार किया। लाल बिहारी डे ने ईसाई धर्म स्वीकार करने के एक वर्ष पूर्व 1842 में 'हिन्दू धर्म की असत्यता' पर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जिसे एक स्थानीय ईसाई समाज ने सर्वौत्तम लेख के रूप में पुरस्कृत किया. 1855 से 1867 तक डे स्कॉटलैंड के फ्री चर्च के धर्म प्रचारक और मिनिस्टर थे। 1867 से 1889 तक वे सरकार द्वारा संचालित बरहमपुर और हुगली के कॉलेजों में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। आरंभ में वे बरहमपुर कॉलेजिएट स्कूल में 1867 में प्राचार्य रहे। बाद में वे हुगली मोहसिन कॉलेज में अंग्रेजी और मेंटल ऐंड मोरल फिलॉसफी के प्रोफेसर रहे। अंग्रेजी में उनकी दो पुस्तकें हैं-'गोविन्द सामंत' (1874) और 'फोक टेल्स ऑफ बंगाल (1883)।'
यह गलत सूचना है कि ''रेवरेंड लाल बिहारी डे का चर्चित उपन्यास बंगाल पीजेंट लाइफ, वर्ष 1870 के पूर्वार्द्ध में छपा था''। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के पाठक-वर्ग की संख्या हजारों में होती है और दैनिक समाचार-पत्रों के पाठक वर्ग की संख्या लाखों में। लाखों तक गलत सूचनाएँ जाना कहीं अधिक गलत है। 1874 में लंदन से अंग्रेजी में लाल बिहारी डे का जो उपन्यास प्रकाशित हुआ था, उसका शीर्षक था 'गोविन्द सामंत' या 'द हिस्ट्री ऑफ ए बंगाल रैयत'। एमके नाईक ने 'ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन इंग्लिश लिटरेचर' (साहित्य अकादेमी 1982, पृ 107) में लिखा है कि इस उपन्यास का संशोधित-परिवर्द्धित रूपान्तर 1908 में लंदन से 'बंगाल पीजेंट लाइफ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। नाईक ने उन्नीसवीं सदी के साठ के दशक से अंत तक बंगाल और मद्रास प्रेजिडेंसी के लेखकों द्वारा लिखित अधिकांश सामाजिक-ऐतिहासिक उपन्यास का प्रतिमान स्पष्टतः अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी का ब्रिटेन कथा-साहित्य माना है- विशेषतः डीफो, फील्डिंग और स्कॉट को।
फकीर मोहन सेनापति और रेवरेंड लाल बिहारी डे में कोई अंतर था या नहीं? क्या फकीर मोहन सेनापति का उपन्यास 'छ माण आठ गुंठ' और लाल बिहारी डे का उपन्यास-'गोविन्द सामंत' एक समान है? क्या इन दोनों उपन्यासों में कृषक-जीवन एक समान वर्णित-चित्रित है? गिरीश मिश्र इससे अवश्य अवगत होंगे कि नामवर सिंह ने 'अंग्रेजी ढ़ंग का नावेल' और 'भारतीय उपन्यास' में अंतर किया है। फकीर मोहन सेनापति (1843-1918) और रेवरेंड लाल बिहारी डे (1824-1892) का उपन्यास 'छ माण आठ गुंठ' (1897) और 'गोविन्द सामंत' (1874) एक प्रकार का उपन्यास नहीं हैं। मैनेजर पांडेय ने 'भारतीय उपन्यास की भारतीयता' लेख में आरंभिक भारतीय उपन्यास में मीनाक्षी मुखर्जी द्वारा उल्लिखित तीन रचनात्मक प्रवृत्तियों (समाज-सुधार और उपदेश, इतिहास और फैंटेसी के माध्यम नैतिक चेतना के विकास का प्रयास और समकालीन भारतीय समाज की वास्तविकताओं का यथार्थपरक चित्रण) का उल्लेख किया है। उन्होंने उड़िया के फकीर मोहन सेनापति को 'भारतीय उपन्यास के इतिहास में तीसरी प्रवृत्ति का पहला महत्वपूर्ण उपन्यासकार' कहा है। क्या लाल बिहारी डे का अंग्रेजी उपन्यास 'गोविन्द सामंत' भी इस तीसरी प्रवृत्ति का 'महत्वपूर्ण' उपन्यास है? मैनेजर पाण्डेय ने उड़िया के समालोचक मायाधर मानसिंह को उद्धृत किया है- ''फकीर मोहन से पहले किस भारतीय लेखक ने गाँव के फटेहाल और मूर्ख लोगों को अपनी रचनाओं का नायक बनाया है? उनकी रचनाओं के सबसे जीवंत पात्र नाई, जुलाहे, खेतिहर मजदूर और अछूत हैं। उन्होंने साहित्य की दुनिया में आम आदमी और औरत को महत्व प्रदान कियाहै। (फकीर मोहन सेनापति, पृ 69) मैनेजर पांडेय ने इस उपन्यास के साथ 'उड़िया में उपन्यास का उदय' माना है और लिखा है ''भारतीय उपन्यास में किसान-जीवन के यथार्थवादी उपन्यास की परम्परा का सूत्रपात भी हुआ''।
कुछ किताबों के नामोल्लेख मात्र से चीजें स्पष्ट नहीं होतीं। 'ज्ञान' सूचना मात्र नहीं है। महत्वपूर्ण कृतियों से 'अनभिज्ञ' नहीं रहा जा सकता, पर सभी कृतियों की मात्र सूचना प्राप्त करना बुद्धिमान बनना नहीं है। मैनेजर पांडेय ने 'भारतीय उपन्यास की भारतीयता' लेख में फकीर मोहन सेनापति पर विचार किया है. संभव है, उनसे किसी का संबंध 'मधुर' न हो, पर क्या नामवर सिंह से भी 'मधुर संबंध' न रखने वाले उनके लेख 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' और 'भारतीय उपन्यास' में व्यक्त विचारों से असहमत होंगे? यहाँ यह उल्लेख जरूरी है कि 'भारतीय उपन्यास' की चर्चा पहले से होती रही है। 'भारतीय उपन्यास' के अंतर्गत अगर हम भारतीय अंग्रेजी उपन्यास को भी शामिल कर लें, तो क्या सभी उपन्यासों को एक समान कहेंगे? नामवर सिंह ने 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' और 'भारतीय उपन्यास' में अंतर किया है। वे 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' लिखने की 'विफलता में ही भारतीय उपन्यास की सार्थकता निहित' मानते हैं। वे भारतीय उपन्यास का मूलाधार 'उन्नीसवीं शताब्दी के रोमांस' को मानते हैं, न कि तथाकथित अंग्रेजी ढंग के उपन्यास को। क्या 'भारतीय उपन्यास की भारतीयता' पर विचार करते हुए मैनेजर पांडेय को लाल बिहारी डे के उपन्यास का उल्लेख करना चाहिए था? गिरीश मिश्र उन्हें 'अनभिज्ञ' कहते हुए एक वाक्य में लाल बिहारी डे के उपन्यास की गलत जानकारी देते हैं। इतना ही नहीं, वे डार्विन को भी उद्धृत करते है- ''इसकी प्रशंसा किसी और ने नहीं बल्कि चार्ल्स डार्विन जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने की थी''। वे यह नहीं बताते कि यह प्रशंसा कहाँ-कैसे की गयी थी? 18 अप्रैल, 1881 को चार्ल्स डार्विन ने 'गोविन्द सामंत' उपन्यास के प्रकाशक को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने 'बंगाल मैगजीन' के सम्पादक रेवरेंड लाल बिहारी डे (डे ने बांग्ला पत्रिका के अलावा तीन अंग्रेजी पत्रिकाओं- इंडियन रिफॉर्मर' (1861), फ्राइडे रिव्यू' (1866) और बंगाल मैगजीन (1872) का सम्पादन किया था) को बधाई देने का आग्रह किया था, क्योंकि कुछ वर्ष पहले उनके उपन्यास 'गोविन्द सामंत' को पढ़कर उन्हें सूचना और आनन्द प्राप्त हुआ था। बंगाल के प्रबुद्ध जमींदारों में से एक उत्तरपाड़ा के बाबू जयकिशन मुखर्जी ने डे के उपन्यास 'गोविन्द सामंत' को पाँच सौ रुपये का पुरस्कार 1874 में प्रदान किया। बांग्ला और अंग्रेजी उपन्यासों में लिखे गये इस उपन्यास को 'सर्वोत्तम' कहा गया था क्योंकि इसमें बंगाल की ग्रामीण आबादी और उसके श्रमिक वर्ग के सामाजिक-पारिवारिक जीवन का निदर्शन था। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि यह उपन्यास पुरस्कृत हुआ था या चार्ल्स डार्विन ने उसकी प्रशंसा की थी। गिरीश मिश्र अपने समर्थन में डार्विन का नाम लेते हैं। वे उपन्यास का विवेचन नहीं करते।
नामवर सिंह ने बंकिम चन्द्र के तीनों उपन्यास-'दुर्गेश नन्दिनी' (1865), 'कपालकुण्डला' (1866) और 'मृणालिनी' (1869) (डे के उपन्यास से पहले) में से एक को भी 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' नहीं कहा है। गिरीश मिश्र ने नामवर सिंह का यह लेख अवश्य पढ़ा होगा, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी ढंग के नावेल के तिरस्कार को 'वस्तुतः उपनिवेशवाद का तिरस्कार' कहा है। उन्होंने फकीर मोहन सेनापति के उपन्यास में एक साथ 'यथार्थ और फैटेंसी' देखी है। उन्होंने अपने लेख में केवल तीन भारतीय उपन्यासकारों- बंकिम चन्द्र, फकीर मोहन सेनापति और हजारी प्रसाद द्विवेदी की चर्चा की है. नामवर सिंह के अनुसार 'छह माण आठ गुंठ' पूरा भारत है।
गिरीश मिश्र के निशाने पर एक लम्बे अरसे से रामविलास शर्मा क्यों हैं? क्या यह डॉ शर्मा के साम्राज्यवाद विरोध से पाठकों का ध्यान हटाने या उसे धुँधला करने के लिए है? आज भारत के बौद्धिकों और 'ज्ञानियों' में अमरीकी साम्राज्यवाद का वास्तविक और ईमानदार विरोध कितना है? रामविलास शर्मा ने सदैव ब्रिटिश और अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध किया है। वे आजीवन मार्क्सवादी रहे. सरकारी और शासकीय 'मार्क्सवादी' नहीं. उन्होंने कभी अपना ''बॉयोडाटा' नहीं बनाया. जिस कॉलेज में अध्यापक रहे, उसका प्रिंसिपल होना कभी नहीं चाहा। वे रीडर, प्रोफेसर, कुलपति होना नहीं चाहते थे। किसी प्रतिष्ठित संस्थान में 'फेलो' होने की भी उनकी इच्छा नहीं रही। विदेशों में आयोजित सेमिनारों में उन्होंने कभी भाग नहीं लिया। देश के भीतर भी उन्होंने बाहर आना-जाना बाद में बंद कर दिया। वे साधक थे और 'साधना' में उनका विश्वास था। हमारे समय में कई ऐसे 'ज्ञानी' और 'बौद्धिक' हैं, जो पहले सर्वोदयी थे, फिर कम्युनिस्ट बने और अंत में कांग्रेसी। इस रास्ते पर चलने में लाभ है। सुविधा प्राप्त होती है और प्रचार-प्रसार भी होता है। रामविलास शर्मा धीरोदात्त थे। हमारे समय में धीरोद्धतों की कमी नहीं है। उन्होंने कभी दूसरे को 'अज्ञानी' और अपने को 'महाज्ञानी' नहीं कहा। उनमें दंभ और अहंकार नहीं था। अभी उदय प्रकाश ने 'वह एक मशाल-सा कोई'  (वाणी प्रकाशन समाचार, जून 2010) शीर्षक से उनका स्मरण किया है- '' राजनीति और पूँजी, दोनो सत्ताओं को उस अनासक्त शब्दयोगी ने अपने सामने विनम्र बनाया।''
क्या सचमुच रामविलास शर्मा का 'साहित्येतर लेखन आधारहीन' है। गिरीश मिश्र का यह उच्च कथन 'हमेशा से ही' है। वे डॉ शर्मा के 'साहित्यिक लेखन के बारे में' नहीं जानते। पीएन सिंह को लिखे पत्र में यह स्वीकारते हुए वे बताते हैं, ''न तो मैंने उसे पढ़ा है, न अब मेरे पास इसका समय है. ''हरिवंश को उन्होंने लिखा है- '' मैं इस बात पर दृढ़ हूँ कि वे (डॉ शर्मा) एक महान साहित्यकार होंगे.'' साहित्यिक लेखन से परिचित हुए बिना और डॉ शर्मा की साहित्यिक पुस्तकों को पढ़े बिना गिरीश मिश्र कैसे 'इस बात पर दृढ़' हुए कि ''वे एक महान साहित्यकार होंगे।'' क्या वे तथ्यों और तर्को के साथ अपनी बात कहने में विश्वास रखते हैं? डॉ शर्मा के सामने भी 'कई बार' गिरीश मित्र ने उनके 'साहित्येतर लेखन' को 'आधारहीन' कहा था। डॉ शर्मा की प्रतिक्रिया की मुझे कोई जानकारी नहीं है। उनकी अनेक साहित्येतर पुस्तकें हैं, जिसके विशद अध्ययन से गिरीश मिश्र अपने निष्कर्ष तक पहुँचे होंगे। पीएन सिंह को अपने पत्र में उन्होंने लिखा ''मैने 'डॉ शर्मा की कुछ साहित्येतर किताबें पढ़ी हैं. वे निहायत लद्धड़ हैं ! गिरीश मिश्र के दो पत्रों (पीएन सिंह और 'प्रभात खबर' के प्रधान सम्पादक हरिवंश को लिखे) में समय का अंतर है। पीएन सिंह को लिखा पत्र यद्यपि तिथिहीन है, फिर भी यह अनुमान किया जा सकता है कि वह 2006 में लिखा गया होगा । दूसरा पत्र 14 जून, 2010 का है। पहले पत्र में 'डॉ शर्मा की कुछ साहित्येतर किताबें' पढ़ने का उल्लेख है। दूसरे पत्र से 'कुछ' गायब है। दोनो पत्रों में उन्होंने भारत में 'अंग्रेजी राज', 'गाँधी अम्बेडकर और लोहिया', 'मार्क्स की रचना 'पूंजी के दूसरे खंड का अनुवाद', के बारे में अपना बहुमूल्य मत प्रकट किया है। इसके अतिरिक्त डॉ शर्मा के आर्य संबंधी विचार, उनके द्वारा महिषादल को 'नेटिव स्टेट' मानने, 'सामान्य तौर पर क्लैसिकल अर्थशास्त्र का और विशेष तौर पर मार्क्स के रवैये का अज्ञान', 'मार्क्स की शब्दावली की अर्थच्छायाओं के प्रति अस्पष्टता' 'शोध की आधुनिक पद्धति के क्कप्रति सहज नहीं होने' और 'उद्धरणों के सही-सही स्रोत का पता नहीं', चलने की बात कही है। 'तथ्यों और तर्को के साथ अपनी बात कहने में विश्वास रखने वाले' गिरीश मिश्र ने ये बातें तथ्यों-तर्को के साथ नहीं कही हैं। वे अक्सर 'भारत में अंग्रेजी राज' की आलोचना लिखने की चर्चा करते हैं। उन्होंने इसकी 'समीक्षा' की थी।
दो खण्डों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित (1982) 1140 पृष्ठों की (प्रकाशक के अनुसार 1150) पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' की समीक्षा गिरीश मिश्र ने 'आलोचना' पत्रिका (सम्पादक नामवर सिंह) के वर्ष 33, अंक 70 (जुलाई-सितम्बर 1984) में की थी। उस अंक में यह समीक्षा पृष्ठ 118 से पृष्ठ 123 तक प्रकाशित है। साढ़े पाँच पृष्ठों में प्रकाशित इस 'समीक्षा' में कई स्थानों पर (तार्किक ढंग से नहीं) डॉ शर्मा का खंडन है और प्रशंसा भी. समीक्षक ने लिखा है ''डॉ शर्मा का हमारे देश के मार्क्सवादी विचारकों में अग्रणी स्थान है'', ''हिन्दी भाषा में इस प्रकार की कोई मौलिक पुस्तक नहीं थीं'', 'पुस्तक का कैनवास बड़ा ही विस्तृत है...  जिसमें अनेक प्रश्नों, समस्याओं मतभेदों एवं सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक मुद्दों पर विचार किया गया है' (पृ0 118) और ''पुस्तक तमाम कमजोरियों के बाद, भी पठनीय है। उन्होंने जो मुद्दे उठाये हैं, उन पर सार्थक बहस होनी चाहिए, जिससे डॉ शर्मा का परिश्रम भी सफल हो और देश के जनतान्त्रिक आन्दोलन का भला भी हो'' (पृ0 123). अब 2006 में गिरीश मिश्र पीएन सिंह को लिखते हैं ''भारत में अंगेजी राज का दो खण्डों में किया गया अध्ययन उनकी अयोग्यता का प्रतीक है।'' (साखी, अप्रैल 2010, पृ0 153) 1984 और 2006 में व्यक्त विचारों में यह अंतर क्यों है? बाईस वर्ष में बहुत कुछ बदल चुका है. पहले जो लोग 'देश के जनतान्त्रिक आन्दोलन का भला' चाहते थे, क्या सभी आज भी वैसा ही चाहते हैं? यह पिछड़ापन होगा। आज बहुत सारे भारतीय अमरीकोन्मुख हैं। हमारी संतानें अमरीका जाकर नौकरी करें या वहाँ बस जायें, उसमें हमारा कोई वश नहीं है, पर हम वर्ष में कई बार अमरीका की यात्रा क्यों करें ? हम बार-बार वहाँ क्यों जायें?  विश्व भर का मस्तिष्क अमरीका में मौजूद जो है। हम अमरीका जाकर लाभान्वित हो सकते हैं। देश भी अमरीका के रास्ते पर चलकर क्या कम विकसित हो रहा है? जनसंखया की दृष्टि से भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतान्त्रिक देश है, पर हमारे देश में अमरीका से जनतन्त्र का पाठ पढ़नेवाले और दूसरों को पढ़ाने वाले कम नहीं हैं। अमरीका पूरे विश्व में जनतन्त्र का सबसे बड़ा हिमायती देश है। इराक और अफगानिस्तान में वह जनतन्त्र ला रहा है। रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के विरोधी विचारों से क्या होगा? गिरीश मिश्र 'वाम का भविष्य (समायांतर, जुलाई 2010) को लेकर सचमुच चिंतित हैं।
'भारत में अंगेजी राज और मार्क्सवाद,' की समीक्षा में गिरीश मिश्र की कई चिंताएँ विषय से संबंधित नहीं हैं। उनकी कई शिकायतें हैं - डॉ शर्मा कहीं 'कैपिटल' लिखते हैं, कहीं 'पूँजी', वे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, नेहरू आदि लेखकों की रचनाओं के हिन्दी अनुवादों का उल्लेख नहीं करते, कहीं पुस्तकों के शीर्षकों का अनुवाद देते हैं, कहीं लापरवाही के कारण समरूपता का ध्यान नहीं रखते, एक ही पुस्तक में कुछ पुस्तकों के नामों का 'केवल लिप्यन्तरण' है और कुछ का लिप्यन्तरण न कर हिन्दी अनुवाद है और कहीं-कहीं दोनों है, लेखों और दस्तावेजों का कई स्थलों पर पूर्ण विवरण नहीं है और जहाँ उल्लेख है, वहाँ एकरूपता नहीं है, पुस्तक में विषय-नाम-अनुक्रमणिका नहीं है और न ही 'संदर्भ-सामग्री की सूची' है, जल्दबाजी में किसी खास मुद्दे पर डॉ शर्मा के विचार और विश्लेषण जानना पाठक के लिए -'बिल्कुल असंभव' है। स्वाभाविक है -'शोधार्थियों' के लिए पुस्तक का महत्त्व घटे।
डॉ शर्मा की यह पुस्तक, उन शोधार्थियों के लिए कम महत्वपूर्ण हो सकती है, जो विश्वविद्यालय से डिग्रियाँ लेकर केवल नौकरी करना चाहते हैं। 'जल्दबाजी' में पुस्तक पढ़ने से वे गलत नतीजे निकालेंगे। डॉ शर्मा की 'साहित्येतर पुस्तकों' को ध्यान पूर्वक पढ़ने की जरूरत है। उनकी चिंताएँ इतिहास और अर्थशास्त्र के अध्यापकों की चिंताओं से भिन्न थीं। लेखन का प्रयोजन भी भिन्न था। 'भारत में अंगेजी राज और मार्क्सवाद' के दूसरे खंड की भूमिका के अंत में उन्होंने लिखा है, ''हमारी सांस्कृतिक स्थिति के एक छोर पर करोड़ों आदमियों की निरक्षरता है, दूसरे छोर पर हजारों बुद्धिजीवियों पर अमरीकी संस्कृति का प्रभाव है. क्या संगीत और फिल्में, क्या अर्थशास्त्र और भाषा-विज्ञान मनुष्य को नैतिक पतन और प्रगति विरोधी मार्ग की ओर ले जाने वाले प्रवृत्तियाँ सब तरफ दिखायी देती हैं'' रामविलास शर्मा ने शोधार्थियों के लिए नहीं, परिवर्तनकामियों के लिए लिखा है। शोध-प्रविधि और शोध के आधुनिक -अत्याधुनिक मापदण्डों पर उनका 'साहित्येतर लेखन' खरा नहीं उतरे, पर क्या वह विचार, विवेचन और विश्लेषण की दृष्टि से खरा नहीं है? अपनी एक 'साहित्येतर पुस्तक ''मार्क्स और पिछड़े हुए समाज' (1986) की भूमिका के अंत में उन्होंने लिखा है ''जिन पुस्तकों के कुछ अंश उद्धृत किये गये हैं, उनके नाम कहीं अंग्रेजी में हैं, कहीं हिन्दी रूपान्तर में हैं, कहीं अंग्रेजी नाम रोमन में है, कहीं देवनागरी में। इससे आपके सौंदर्य-बोध को ठेस लगेगी, पर विचारधारा को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी।''
समीक्षक को इस पुस्तक में व्यक्त डॉ शर्मा के कुछ विचारों से भी एतराज है। रामविलास शर्मा द्वारा व्यक्त एक महत्वपूर्ण धारणा पर 'आर्थिक इतिहासकार' गिरीश मिश्र का यह कथन ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए। ''लेखक (डॉ शर्मा) ने पहले से धारणा बना रखी है कि एशियाई उत्पादन-पद्धति भारत में नहीं थी और न ही उसे एक अलग 'पद्धति' का दरजा दिया जा सकता है। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने उन्हीं पुस्तकों और उनके उन्हीं स्थलों का हवाला दिया है, जिनसे उनकी धारणा को समर्थन मिलता है। उन्होंने सोवियत संघ, फ्रांस, चीन, अमरीका आदि में इस विषय में जो बहसें चली हैं और अब भी चल रही हैं अपने विचार विमर्श में उन्होंने उनको बिल्कुल ही नहीं लिया है. सोवियत संघ में, एशियाई उत्पादन-पद्धति के बारे में, 1930 के दशक में, जो बहस चली थी, जिसे बाद में स्टालिन ने दबा दिया, वह सब अब अंग्रेजी में उपलब्ध है. इन सब सामग्रियों को दरकिनार करने का एक कारण यही हो सकता है कि इससे डॉ शर्मा की स्टालिनवादी धारणा बरकरार रहे. स्थानाभाव के कारण समीक्षक के लिए विस्तार में जाना संभव नहीं है ।'' (आलोचना, वही, पृष्ठ 120)
डॉ शर्मा ने मार्क्स के विचारों को यथावत ग्रहण नहीं किया था । उन्होंने मार्क्स को 'आलोचनात्मक नजरिये' से देखा था । उनके पहले डीडी कोसांबी ने भारत-संबंधी मार्क्स के विचारों को हू-ब-हू नहीं मान लिया था। कोसांबी और रामविलास शर्मा 'सरकारी' और 'किताबी' मार्क्सवादी नहीं थे। 'आलोचनात्मक नजरिये' का यह सिलसिला रूक-रूक कर चलता रहा है। 'समयांतर' के नये अंक (जुलाई 2010) में गिरीश मिश्र के लेख 'वाम का भविष्य' के साथ सुजित के. दास का विशेष लेख' 'भारत के बारे में मार्क्सः एक संशोधनवादी एजेंडा' प्रकाशित है। पहले यह लेख 'फ्रंटियर' के वार्षिकांक (सितम्बर 2009) में प्रकाशित हुआ. इस लेख के कुछ अंशों पर विचार करने से पूर्व मार्क्स की एशियाई अवधारणा को देखें। मार्क्स ने 'ए कण्ट्रीब्यूशन टू द क्रिटीक ऑफ पोलिटिकल इकॉनमी' में उत्पादन की चार पद्धतियों-एशियाई, प्राचीन, सामंती और पूँजीवादी की चर्चा की थी।
गण समाज में सभी एक साथ मिल कर काम करते थे। श्रमफल, सम्पत्ति और उत्पादन के साधन पर गण समाज के सदस्यों का सामूहिक स्वामित्व था। एशियाई उत्पादन पद्धति से मार्क्स का आशय गण समाजों की सामूहिक उत्पादन-पद्धति से था।  'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' के दूसरे खंड के दूसरे अध्याय के आरंभ में डॉ शर्मा ने 'गणव्यवस्था और सामंतवाद' के अंतर्गत 'उत्पादन की एशियाई पद्धति और समूहिक सम्पत्ति' पर विचार किया है। उन्होंने साफ शब्दों में यह बताया है कि ''मार्क्स ने उत्पादन की एशियाई पद्धति के बारे में जो लिखा, उसे पुस्तक के भीतर एशियाई पद्धति और सामूहिक सम्पत्ति के संदर्भ से अलग हटा कर न देखना चाहिए।'' (भारत में अंगेजी राज, खण्ड 2, पृ0 77) डॉ शर्मा ने इसके बाद यह भी बताया ''एशियाई पद्धति का अर्थ हुआ उस समाज की पद्धति, जिसमें सामूहिक सम्पत्ति का चलन था''। (वही पृ0 77-78) समीक्षक ने इस पुस्तक की 'समीक्षा' में जिन 'दो चीजों के जिक्र' से डॉ शर्मा की इतिहास-लेखन-पद्धति को -'गैर मार्क्सवादी' और 'अवैज्ञानिक' कहा है, उसमें एक एशियाई उत्पादन पद्धति से संबंधित है। 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में मार्क्स और एंगेल्स की यह धारणा थी कि एशियाई समाज हजारों साल से स्थिर है। मार्क्स की 'एशियाई पद्धति' का 'भारतीय ग्राम समाज' से रिश्ता नहीं था। भारत से आयरर्लैंड तक फैले हुए ग्राम-समाज को एंगेल्स ने 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के अंग्रेजी संस्करण (1888) की एक टिप्पणी में 'आदिम साम्यवादी समाज' कहा था। इसके बाद भी उत्पादन की एशियाई पद्धति की बात की जाती रही। 'मार्क्स और पिछड़े हुए समाज' में डॉ शर्मा ने लिखा है-''एशियाई पद्धति की यह धारणा त्रोत्स्कीवादियों का खास अस्त्र है। उसका उपयोग वे भारत पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व को जायज ठहराने के लिए करते हैं।'' (पृ0 467)
एशियाई उत्पादन-पद्धति की धारणा के साथ भारत के आर्थिक-विकास की सोच-दृष्टि भी जुड़ती है। 'भारत में अंग्रेजी राज' पुस्तक की समीक्षा के पहले गिरीश मिश्र की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। हिन्दी में 'सोवियत संविधान का आर्थिक पक्ष' (1980) और आर्थिक प्रणालियाँ' (1981). अंग्रेजी में चम्पारण की केस स्टडी (1978) के पहले 'पब्लिक सेक्टर इन इंडियन इकोनोमी' (1975) 'सम इकोनोमिक आस्पेक्ट्‌स ऑफ न्यू सोवियत कंस्टीट्‌यूशन' (1980) और 'रेलेवेंस ऑफ इंडो-सोवियत इकोनोमिक रिलेशंस' (1983)। अंग्रेजी में कई पेपर्स भी प्रकाशित हो चुके थे। आर्थिक इतिहासकार की हैसियत से वे अर्थशास्त्र और अर्थ-व्यवस्था पर गंभीर कार्य कर रहे थे । रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक के दूसरे खंड की भूमिका में लिखा था-''राज्यसत्ता के उद्भव वाली पुस्तक में एंगेल्स ने एशियाई पद्धति की शब्दावली छोड़ दी थी। किन्तु पिछले दस-पन्द्रह साल में एशियाई पद्धति की चर्चा काफी जोर-शोर से उठायी गयी है... मार्क्स और एंगेल्स ने इस मत के विरोध में जो बातें कही हैं, या तो ये लोग उनकी उपेक्षा करते हैं या फिर कहते हैं कि वे गलत हैं ।'' (पृ0 11) आगे डॉ शर्मा ने ऐसे 'पंडितों' और 'ज्ञानियों' के संबंध में लिखा -''ये लोग आम तौर से सामन्तवाद की मार्क्सीय व्याख्या का हवाला नहीं देते.'' डॉ शर्मा के अनुसार 'पूंजी खण्ड 1 ' और 'एण्टी डयूहरिंग' के अध्ययन से '' सामन्तवाद के सामान्य लक्षणों और भिन्न देशों में उसकी पृथक विशेषताओं का ज्ञान होगा । इस ज्ञान से एशियाई पद्धति वाले प्रचार का खण्डन होगा, भारत के आर्थिक विकास को समझने में सहायता मिलेगी.'' (वही, पृ0 12) भारत का आर्थिक विकास समझने-समझाने वाले कुछ आर्थिक इतिहासकार और अर्थशास्त्रियों पर क्या सचमुच गंभीर शोध-कार्य किये जाने की आवश्यकता नहीं है?
रामविलास शर्मा ने 'एशियाई उत्पादन पद्धति' (एएमपी) पर अपनी पुस्तक में जो विचार 1982 में व्यक्त किये थे, वे कहाँ से गलत थे? सुजित के दास का लेख 'भारत में अंग्रेजी राज' के प्रकाशन के सत्ताईस वर्ष बाद का है। सुजित ने बी. हिंडेस एंड पी. हिर्स्ट की पुस्तक 'प्री कैपिटलिस्ट मोड्‌स ऑफ प्रोडक्शन' (1975) के हवाले यह बताया है कि मार्क्स द्वारा प्रयुक्त 'ओरिएंटल डेस्पोटिज्म' (पूर्वी तानाशाही) और 'एशियाई उत्पादन प्रणाली' (एएमपी) एक अर्थ में 'एक-दूसरे का पर्याय' है । उन्होंने भारतीय विद्वान एस नकवी को उद्धृत किया है। नकवी  के अनुसार एशियाई और गैर एशियाई समाजों में ''जमीन के सामूहिक स्वामित्व की मार्क्स द्वारा गढ़ी हुई कहानी ब्रिटिश संसद की एक चयनित कमेटी की रिपोर्ट से ली गई थी, जिसे पाँचवीं कमेटी के नाम से जाना जाता है'' (समयांतर', पृ 31-32) नकवी के अनुसार पाँचवीं रिपोर्ट में मार्क्स के विवरणों के विपरीत कई अन्य संदर्भ भी हैं। प्रश्न जमीन पर निजी स्वामित्व और भारतीय अर्थ व्यवस्था का है। आज भी भारत में ऐसे 'आर्थिक इतिहासकार' होंगे, जो एशियाई उत्पादन प्ररणाली से ग्रस्त 'भारत की अरूद्ध और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था' की धारणा के समर्थक होंगे। ऐसे अर्थशास्त्रियों के अनुसार प्राक्‌-ब्रिटिश भारत की अर्थ व्यवस्था अनुत्पादक थी। अंग्रेजो ने इसका नाश कर भारत का आर्थिक विकास किया। आज भारत का आर्थिक विकास अमरीका के अधीन या उसके साथ रहकर ही संभव है। यह दृष्टि ब्रिटिश और अमरीकी साम्राज्यवाद के पक्ष में है. सुजित के. दास ने इरफान हबीब और वी.आइ.पावलोव का उल्लेख करते हुए यह लिखा है- ''बाद में भारतीय और रूसी दोनो ही मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस तथ्य की पुष्टि कर दी कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जमीन का निजी स्वामित्व, सरकारी स्वामित्व, मौद्रिक अर्थ-व्यवस्था, जमींदारी प्रथा और साथ ही मुक्त वर्ग-संघर्ष सभी मौजूद थे। जमीन का सामूहिक स्वामित्व उतना लाक्षणिक नहीं था।'' (वही, पृष्ठ 32-33) यहाँ यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुजित ने इरफान हबीब के जिस लेख - 'पोटेंशियलिज्म एण्ड कैपिटलिस्ट डैवलेपमेंट इन द इकॉनॉमी ऑफ मुगल इंडिया' का हवाला दिया है, वह विंटर 1971 के 'इन्क्वायरी' में प्रकाशित हुआ था। गिरीश मिश्र ने रामविलास शर्मा की पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' की 'आलोचना' में समीक्षा करते हुए यह नहीं देखा कि इस पुस्तक के दूसरे खण्ड के चौथे अध्याय 'भारत का आर्थिक विकास' के अन्तर्गत बर्नियर और मोरलैण्ड के बाद इरफान हबीब पर 304 पृष्ठ से 339 पृष्ठों तक (कुल 35 पृ0) विचार किया गया है और इस लेख को उद्धृत किया गया है (पृ0 335). सुजित ने लिखा है '' मार्क्स की एएमपी या 'ओरिएंटल डेस्पोटिज्म' की अवधारणा ही पर्याप्त गैर मार्क्सवादी थी, जब वह दावा करते हैं कि यह उत्पादन की प्राचीन प्रणाली है, जो अब भी एशिया, अफ्रीका और योरोप के कई देशो में जारी है। '' (पृ0 33) डॉ शर्मा ने मार्क्स की एशियाई उत्पादन-पद्धति की धारणा का 1982 में ही खंडन किया था, जबकि गिरीश मिश्र ने डॉ शर्मा का विरोध किया था। यह दूसरी बात है कि 'स्थानाभाव के कारण' विस्तार से उन्होंने अपने बहुमूल्य विचार 'तथ्य-तर्क' सहित प्रस्तुत नहीं किए।
गिरीश मिश्र ने 'दो चीजों के जिक्र' से डॉ शर्मा की इतिहास-लेखन-पद्धति को 'गैर मार्क्सवादी और 'अवैज्ञानिक' कहा हैं' । दूसरी 'चीज' ''1920 के दशक से लेकर भारत में क्रान्तिकारी परिस्थितियों के जोर पकड़ने की है''। वे इस धारणा से सहमत नहीं हैं। इस संबंध में विस्तार से अभी विचार नहीं किया जा सकता। इस दौर का इतिहास सबके समक्ष है। समीक्षक की शिकायत यह है कि ''डॉ शर्मा ने अपना विश्लेषण करते समय भारतीय सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक इतिहास पर हुए शोध कार्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया है।''  बिना स्रोत-सामग्री के ही डॉ शर्मा ने दो खण्डों में भारी-भरकम पुस्तक लिख दी. समीक्षक को लगता है कि बनारसीदास चतुर्वेदी के ''चरित्र से विषय-वस्तु का, दूर का भी कोई संबंध नहीं है'' और भगत सिंह के साथी शिव वर्मा और उनके साथी अजय घोष के संबंध में डॉ शर्मा का लिखित अंश 'विषय-वस्तु' से अलग है। सभी अंश विषय-वस्तु से संबंधित हैं। पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' है। भगत सिंह, शिव वर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी और अजय घोष पर विचार कहाँ से अनुचित है?
भगत सिंह के बलिदान-दिवस की अर्धशती पर क्रान्तिकारियों की स्मृति में जो 'स्मारिका' प्रकाशित हुई थी, उसमें मशहूर लेख 'बम का दर्शन' प्रकाशित था और बनारसी दास चतुर्वेदी का संदेश भी। डॉ शर्मा ने लिखा-''चतुर्वेदी जी ने क्रान्तिकारियों की कीर्ति-रक्षा के लिए सराहनीय कार्य किया है किन्तु स्मारिका में प्रकाशित संदेश में दो-एक बातें सही नहीं हैं। यहाँ उनकी चर्चा कर देना उचित है।'' सही बातों की चर्चा करना समीक्षक का अनुचित लगा. वे सही बातें क्या हैं? चतुर्वेदी जी ने 'प्रवासी भारतवासी' पुस्तक कुमारी बेलि अम्मा (अफ्रीका की शहीद) के 'स्मरणार्थ' लिखी थी, पर समर्पित की ''सुप्रसिद्ध भारत हितैषी स्वर्गीय सर हैनरी काटन केसीऐसआई की पवित्र आत्मा की सेवा में'' इतना ही नहीं, लार्ड हार्डिग पर बम फेंकने वाले को चतुर्वेदी ने 'राजद्रोही दुष्ट पापी' लिखा था। डॉ शर्मा ने लिखा-''अंग्रेज वाइसराय भारत हितैषी था, उस पर बम फेकने वाला युवक दुष्ट और पापी था।'' उन्होंने इसी पृष्ठ (भारत में अंग्रेजी राज, खंड 1, पृष्ठ 106) पर गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका 'प्रभा' के अक्टूबर 1924 के आवरण-पृष्ठ की चर्चा की है, जिस पर ''लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने वाले की तस्वीर छपी है और उसके नीचे लिखा है- वीर श्रेष्ठ श्रीयुत रास बिहारी बोस''। गणेश शंकर विद्यार्थी और बनारसीदास चतुर्वेदी एक ही तरह के पत्रकार नहीं थे। डॉ शर्मा ने यह सही लिखा ''1947 से पहले, विशेष रूप से 'प्रवासी भारतवासी' पुस्तक के लेखनकाल में, चतुर्वेदी जी लिबरल नेताओं के साथ थे, शहीदों की श्राद्ध का काम उन्होंने भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद किया''।
शिव वर्मा क्रान्तिकारी दल से जुड़े थे। वे भगत सिंह के साथी थे. डॉ शर्मा ने उनके संबंध में अधिक नहीं लिखा है। समीक्षक को लगता है 'शिव वर्मा अभिनन्दन ग्रन्थ' लिखा जा रहा है। क्या यह बताना जरूरी है कि 'अभिनन्दन-ग्रंथ' पन्द्रह-बीस पंक्तियों का नहीं होता। यह लिखना कहाँ से गलत है कि अजय घोष शिव वर्मा के सहयोगी थे और वे उनसे 'तीन साल छोटे' थे। गंभीर विषयों के अध्ययन में पाठकों की अभिरुचि सभी 'साहित्येतर लेखक' पैदा नहीं कर सकते। कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के संयुक्त मोर्चा बनाने वालों में अजय घोष प्रमुख थे। डॉ शर्मा के अनुसार इसका कारण कांग्रेसियों द्वारा संचालित कानपुर के एक विद्यालय में अजय घोष का अध्यापन-कार्य था. डॉ शर्मा 'जीवन की परिस्थितियों' को महत्वपूर्ण मानते हैं. ''कम्युनिस्ट नेताओं के संकीर्णतावादी रुझान के बावजूद जीवन की परिस्थितियाँ उन्हें कांग्रेस जनों के साथ मिलकर काम करने को विवश कर रही थीं. इसका एक उदाहरण अजय घोष के जीवन से मिलता है''. समीक्षक ने 'जीवन की परिस्थितियों' को नहीं, 'लेनिन और ज्यार्जी दिमत्रोव की शिक्षाओं' को महत्व दिया. वे डॉ शर्मा के 'तर्कों का अनुसरण' करने पर संयुक्त मोर्चा के सबसे बडे़ समर्थक ''पीसी जोशी और पंडित गोविन्द वल्लभ पंत के पारिवारिक रिश्तों पर शोध करने'' की सलाह देते हैं। बात को भटकाने में माहिर समीक्षक की नजर में 'जीवन की परिस्थितियाँ' और 'पारिवारिक रिश्ते' दोनों एक हैं।
डॉ शर्मा द्वारा किया गया मार्क्स के पूंजी (भाग-2) का अनुवाद गिरीश मिश्र को 'भयावह' लगता है। उन्हें अनुवादक रामविलास शर्मा पर किताब न सही, एक बड़ा लेख लिखना चाहिए। उन्होंने भी कई पुस्तकों के अनुवाद किये हैं। अनुवाद के संबंध में उनके अपने कुछ मत अवश्य होंगे। फिलहाल डॉ शर्मा के अनुवाद-संबंधी विचार देखें। रामविलास शर्मा पर केन्द्रित 'वसुधा' के 51वें अंक का सम्पादन प्रमुख हिन्दी आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कथाकार अरुण प्रकाश के साथ किया था। विश्वनाथ त्रिपाठी को गिरीश मिश्र ने डॉ शर्मा का 'दूसरा महान प्रशंसक' कहा है। पहले, तीसरे, चौथे और पाँचवें प्रशंसकों (महान न सही!) का कहीं नामोल्लेख नहीं हैं। 'वसुधा' पत्रिका के 'संवाद' खण्ड में 'अनुवाद कर्म की जटिलताएँ' शीर्षक से डॉ शर्मा के पूर्व प्रकाशित साक्षात्कार ('अनुवाद' पत्रिका में) को राजकुमार सैनी ने प्रस्तुत किया है। यह साक्षात्कार अनुवाद-केन्द्रित था। ज्ञान-विज्ञान वाले साहित्य के अनुवाद को 'अपेक्षाकृत सरल' मानते हुए भी डॉ शर्मा 'इसमें दूसरे तरह की कठिनाई' देखते थे। ''कहीं पारिभाषिक शब्दों की कमी महसूस होती है, कहीं किसी एक विचार को उसी नपे-तुले ढंग से व्यक्त करने में कठिनाई होती है। जिन लोगों ने जर्मन भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद किया है वे अक्सर अनुरूप शब्द न पाकर जर्मन शब्द लिख देते थे और व्याख्या करते थे। कई बार अपने लखों में मूल जर्मन से मार्क्स और एंगेल्स के उद्धरण देते थे और बहुत जगह रूसी पर्याय के साथ-साथ मूल जर्मन शब्द देना आवश्यक समझते थे''। पूंजी' का दूसरा खंड-पूंजी के परिचालन की प्रक्रिया' है। प्रगति प्रकाशन मास्को से इसका अनुवाद 1979 में प्रकाशित हुआ। सम्पादक नरेश वेदी थे और अनुवादक डॉ रामविलास शर्मा। समयाभाव के कारण डॉ शर्मा ने न तो इसकी कापी बनाई, न नकल की। मूल कापी उन्होंने दिल्ली भेज दी थी। उन्हें यह पता नहीं था कि रूस में मूल कापी भेजी गयी या उसकी टाइप प्रति। उनसे 'पूंजी' के दूसरे खंड के अनुवाद के बारे में प्रश्न किये गये थे। यह संभवतः 1985-86 का समय था। रामविलास शर्मा द्वारा दिया गया उत्तर है- ''जिस रूप में अनुवाद छपा, वह मेरा अनुवाद नहीं रह गया। यह बात लिखित रूप में आनी चाहिए। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से मेरे बहुत से अनुवाद छपे हैं और शुरू में मैंने इन्हीं के लिए अनुवाद करना शुरू किया था। बाद में पता चला कि अनुवाद मास्को से छपेगा तो मैंने मना नहीं किया। लेकिन मुझे किसी ने यह नहीं बताया कि वे लोग मेरी भाषा को बदल देंगे। उन्होंने भाषा का सुधार करके इसमें पारिभाषिक शब्दावली रख दी। उस अनुवाद को मैं खुद ही नहीं समझता तो दूसरा क्या समझेगा। उस अनुवाद को मेरा अनुवाद न मानें और यह बात अच्छी तरह नोट कर लें।'' गिरीश मिश्र ने 'यह बात अच्छी तरह नोट' नहीं की और लिखते रहे 'भयावह'! 'भयावह'! अब 'इस आशय को लेकर' विश्वनाथ त्रिपाठी से 'बहस' करने का क्या लाभ। विश्वनाथ त्रिपाठी ने तो ठीक ही कहा था ''पूंजी का वह अनुवाद डॉ शर्मा का है ही नहीं।'' 'छटपटाते हुए' कहा था या नहीं, पूछने पर वे जो कहते हैं, उसे क्या लिखा जाना चाहिए? गिरीश मिश्र को पता है ''जहाँ तक क्लासिकल इकोनोमिक्स, इसके पहलुओं, मान्यताओं और इसकी शब्दावली की बात है, तो वे (डॉ शर्मा) इस बारे में कुछ नहीं जानते।'' जो कुछ नहीं जानता है, वह अज्ञानी होता है। रामविलास शर्मा के भक्त और प्रशंसक उनका जयगान करते रहें, भारत के एक 'आर्थिक इतिहासकार' ने उनके संबंध में जो कहा है, वही सच है। अर्थशास्त्र के अध्यापक का 'ज्ञान' बड़ा होता है। क्या रामविलास शर्मा ऐडम स्मिथ (1723-90), रिकार्डो (1792-1823) और थॉमस रोबर्ट माल्थस (1766-1834) से अपरिचित थे? क्या अठारहवी सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के आरंभ में जिन प्रमुख सिद्धान्तकारों-ऐडम स्मिथ, रिकार्डो और माल्थस के कारण 'क्लासिकल अर्थशास्त्र' उत्पन्न-विकसित हुआ, उसके सभी 'पहलुओं' 'मान्यताओ'और शब्दावली' पर विचार करना डॉ शर्मा के लिए आवश्यक था? क्या उनके लिए ऐडम स्मिथ की पुस्तक 'द थ्योरी ऑफ मॉरल सेंटीमेन्ट्‌स' (1759) पर भी विचार आवश्यक था, जो ग्लासगो यूनिवर्सिटी में मॉरल फिलॉसफी' के प्रोफेसर रहते हुए उनके लेक्चर का फल था। स्मिथ 1752 से 1764 तक ग्लासगो यूनिवर्सिंटी में थे। वे 'क्लासिकल अर्थशास्त्र' के प्रवर्तक थे। 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' के पहले खंड के पहले अध्याय 'विश्वबाजार और भारत' का छठा उपभाग 'इजारेदार व्यापारी, अंग्रेजी राज और ऐडम स्मिथ' है। डॉ शर्मा 'क्लासिकल अर्थशास्त्र' पर स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिख रहे थे। वे उसके 'पहलुओं, मान्यताओं और शब्दावली' पर क्यों विचार करते? बात को भटकाने और विपरीत दिशा में मोड़ने की कला सबको नहीं आती। ऐडम स्मिथ ने ब्रिटेन की पूरी व्यापारिक व्यवस्था देखी-समझी थी. डॉ शर्मा ने भारत में अंग्रेजी राज को समझने-समझाने के लिए 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' (1776) के कुछ हिस्सों का हवाला दिया। उनके लिए माल्थस की पुस्तक 'एस्से ऑन द प्रिंसिपुल ऑफ पॉपुलेशन' (1798) और रिकार्डो की पुस्तक 'प्रिंसिपुल्स ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी' (1817) से भी उद्धरण देना क्या जरूरी था? गिरीश मिश्र की अभी तक कोई पुस्तक 'क्लासिकल अर्थशास्त्र' और 'नव क्लासिकल अर्थशास्त्र' पर शायद प्रकाशित नहीं है। सालाना बजट में हमारे देश के वित्त मंत्री कभी-कभार ही सही कौटिल्य का उल्लेख करते हैं। कौटिल्य को अब सभी 'अर्थशास्त्री' याद नहीं करते. क्यों नहीं करते? रामविलास शर्मा ने 'मार्क्स और पिछड़े समाज' में कौटिल्य पर विस्तार से क्यों लिखा?

जब रामविलास शर्मा 'क्लासिकल अर्थशास्त्र' के बारे में कुछ नहीं जानते थे', तो दूसरे लोग ज्ञान के अन्य क्षेत्रों के बारे में क्या जानेंगे? गिरीश मिश्र ने लिखा है- हरिवंश 'शायद नयन चंदा के नाम से परिचित हों'। वे नयन चंदा का अधूरा परिचय देते हैं। लिखते हैं ''दो वर्ष पहले चंदा की पुस्तक बाउंड टुगेदर छप कर आयी है।'' यह सूचना 'प्रभात खबर' के सम्पादक को वे जून, 2010 में दे रहे हैं। 'दो' नहीं, तीन वर्ष पहले चंदा की पुस्तक 2007 में छप कर आयी। कुछ पुस्तकें संभव है, बिना छप कर भी आ जाती हों। हरिवंश नयन चंदा के नाम से ही नहीं, काम से भी परिचित हैं। संभव है, गिरीश मिश्र ने नयन चंदा और उनकी पुस्तक पर भी कुछ लिखा हो। 'प्रभात खबर' में हरिवंश नयी-नयी पुस्तकों पर एक नियमित स्तंभ 'शब्द-संसार' लिखते थे। नयन चंदा की पुस्तक 'बाउंड टुगेदर' के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उन्होंने अपने स्तम्भ में इस पुस्तक पर विचार किया। नयन चंदा की पुस्तक के प्रकाशन के सात वर्ष पहले रामविलास शर्मा दिवंगत हो गये। जीवित रहते और दिल्ली में उन्हें किसी ने बताया होता, तो जानते ''इस पुस्तक में वैज्ञानिक तथ्यों के साथ बताया गया है कि मानव का जन्म अफ्रीका में हुआ और यहीं से वह दुनिया भर में फैले।'' डॉ शर्मा के दावे को, कि 'आर्य हमारी मातृभूमि के ही हैं' गलत सिद्ध करने के लिए मिश्र जी को बहुत दूर नयन चंदा के पास जाना पड़ा. हरिवंश को उन्होंने जानकारी दी है कि नयन चंदा ने ''वर्षों तक फार इस्टर्न इकोनोमिक रिव्यू' का सम्पादन किया। वर्तमान में वे येल यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं.'' पत्र में अधिक बताया भी नहीं जा सकता था. पत्र-प्रकाशन के बाद पाठक नहीं जान पाता कि नयन चंदा 'वर्तमान में' किस रूप में येल यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं?
नयन चंदा (1946) ने कलकत्ता के प्रेजिडेंसी कॉलेज से इतिहास में बी.ए. और जादवपुर विश्वविद्यालय से इसी विषय में एम.ए. किया. 1971 से 1974 के बीच अन्तरराष्ट्रीय संबंधों पर उन्होंने सोरबौन में अध्ययन किया। 1980 तक उन्होंने हांगकांग आधारित 'फॉर इस्टर्न इकॉनॉमिक रिव्यू' के इंडो-चीन संवाददाता के रूप में रिपोर्टिंग की। 1980 में वे राजनयिक संवाददाता के रूप में नियुक्त हुए। 1984 से 1989 तक वे इस पत्रिका के वाशिंगटन संवाददाता थे। 1990 के दशक में वे पहले साप्ताहिक जर्नल 'एशियन वाल स्ट्रीट' के सम्पादक बने। बाद में 'फॉर इस्टर्न इकॉनॉमिक रिव्यू' के सम्पादक हुए। 'वर्तमान में' वे 'येल सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ ग्लोबलाइजेशन' के प्रकाशन-निदेशक और 'येल ग्लोबल ऑन लाइन' के सम्पादक हैं।
'बाउंड टुगेदर' का प्रकाशन येल यूनिवर्सिटी प्रेस से 2007 में हुआ। यह पुस्तक भूमंडलीकरण पर है। 'बिजनेस वर्ल्ड' और 'सिंगापुर स्ट्रेट्‌स टाइम्स' में नयन चंदा पाक्षिक स्तम्भ 'बाउंड टुगेदर' लिखते हैं. वे 'ग्लोबल एशिया' और 'न्यू ग्लोबल स्टडीज जर्नल के सम्पादक-मंडल में हैं। 'बाउंड टुगेदर' पुस्तक-शीर्षक के बाद लिखा है-'हाउ ट्रेडर्स, प्रीचर्स, एडवेंचरर्स एंड वारियर्स शेप्ड ग्लोबलाइजेशन'। भूमंडलीकरण के इतिहास पर यह एक अनोखी पुस्तक है। नयन चंदा भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को पचास हजार वर्ष पूर्व तक ले जाते हैं। यह पुस्तक भूंडलीकरण की उनकी निजी खोज का परिणाम है. छह वर्षों में तैयार की गयी यह पुस्तक दस अध्यायों में विभाजित है. तैंतीस पृष्ठों के पहले अध्याय 'द अफ्रीका बिगनिंग' में यह बताया गया है कि भूमंडलीकरण का आरंभ अफ्रीका से हुआ। पुस्तक में कहीं भी 'आर्य' का उल्लेख नहीं है। गिरीश मिश्र को नयी जानकारियाँ अधिक रहती हैं। 'हिन्दी का साहित्यिक संसार अज्ञानियों से भरा' पड़ा है। आर्य भारतवासी नहीं थे, इसे प्रमाणित करने के लिए वे उस पुस्तक का उल्लेख करते हैं, जिसमें 'आर्य' का कहीं उल्लेख नहीं है। नयन चंदा स्वीकारते हैं कि मात्र दो दशक पहले पुरातत्वज्ञों, भाषाविदों, जलवायु वैज्ञानिकों, आनुवंशिक वैज्ञानिकों आदि ने मानव-इतिहास को पुनर्निर्मित किया। आर्यों पर विचार मुख्यतः भाषा और पुरातत्व की दृष्टि से किया जाता रहा है। डी.एन.ए. की संरचना की खोज 1953 में भले हुई हो, पर एम.टी.डी.एन.ए. और वाई क्रोमोसोम की खोज बाद की है. अभी इतिहासकारों और भाषाविदों ने इस दृष्टि से आर्यों की उत्पत्ति पर अधिक विचार नहीं किया है. नयन चंदा ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि पुरातात्त्विक साक्ष्य के अभाव में निश्चयपूर्वक हम यह उत्तर नहीं दे सकते कि हमारे पूर्वजों ने अफ्रीका क्यों छोड़ा?
जहाँ तक 'अनभिज्ञता' का प्रश्न है, रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय दोनों कई मामलों में 'अनभिज्ञ' हैं। रामविलास शर्मा की 'अनभिज्ञता' यह है कि वे नहीं जानते कि 'मानव का जन्म अफ्रीका' में हुआ. ''यह अनभिज्ञता या असावधानी निराला पर लिखी गयी एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना में साफ दिखाई देती है, जिसमें उन्होंने महिषादल को 'नेटिव स्टेट' बताया है, जबकि वह एक 'जमीदारी एस्टेट' था।''
रामविलास शर्मा के 'साहित्यिक लेखन के बारे में नहीं जानने वाले' गिरीश मिश्र ने यह कैसे जाना कि निराला पर डॉ शर्मा ने 'एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना' लिखी है? 'निराला की साहित्य साधना भाग-1' का प्रकाशन 1969 ई. में हुआ था। निराला पर अपनी पहली पुस्तक 'निराला' के आरंभ में डॉ शर्मा ने 'महिषादल' को 'बंगाल की एक रियासत' लिखा था। 'रियासत' का एक अर्थ राज, शासन, हुकूमत के साथ रईस की हुकूमत में रहनेवाला इलाका भी है। 'निराला की साहित्य-साधना भाग-1 में उन्होंने लिखा ''बंगाल के मिदनापुर जिले में महिषादल नाम का देशी राज्य था'' मिश्र जी ने केवल इसी पर नजरें टिकाईं- जिन कारणों से यह पुस्तक 'एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना' बनी, उन कारणों से उन्हें मतलब नहीं है। गौण को प्रमुख और प्रमुख को गौण बनाने की कला में सब प्रवीण नहीं होते। यह सूचना सही है कि महिषादल 'जमींदारी एस्टेट' था। डॉ शर्मा निराला पर लिख रहे थे, न कि महिषादल पर। ऐसी स्थिति में कुछ सूचनाओं का गलत होना स्वाभाविक है। बड़े से बड़े लेखकों की ऐसी गलतियाँ उनके महत्व को कम नहीं करती हैं। गिरीश मिश्र गलतियाँ ढूंढ़ने में अधिक श्रम करते हैं।
महिषादल की कथा-यात्रा बाबर के समय से आरंभ होती है। बाबर की सेना में एक बहादुर सिपाही जनार्दन उपाध्याय थे। उन्हें महिषादल का प्रमुख बनाया गया। महिषादल के वे पहले राजा बने और उन्होंने अपना राज्य आरंभ किया। बाद में महिषादल मुगल साम्राज्य से ब्रिटिश साम्राज्य के सुपुर्द हुआ। कल्याण राय चौधुरी वीर नारायण चौधुरी के वंशज थे। वीर नारायण चौधुरी ताम्रलिप्त राज परिवार के पहले व्यक्ति थे, जिन्होने बन्दोबस्ती फैलाई थी। कल्याण राय चौधुरी 'राजा' कहलाने वाले पहले व्यक्ति थे। राजस्व की अदायगी के बाकीदार होने के कारण उनकी जमींदारी जनार्दन उपाध्याय को ट्रांसफर कर दी गयी। उन्हें 'राजा' की उपाधि दी गयी। उनके बेटे राजा दुर्योधनउपाध्याय थे और पौत्र राजा रामशरण उपाध्याय, जो अच्छे प्रशासक थे। इन्होंने तीन गाँव रामपुर, पूरब श्री रामपुर और रामबाग बसाये। इनके बेटे राजा राजाराम उपाध्याय ने पूर्व जमींदार कल्याण राय चौधुरी के पोते उदयचन्द्र राय से महिषादल की जमींदारी प्राप्त की और कई गाँव बसाये। राजा राजाराम उपाध्याय के बेटे राजा शुकलाल उपाध्याय के समय बंगाल का शासक मुर्शीद कुली खान था। शुकलाल उपाध्याय के बेटे आनंदलाल उपाध्याय की लड़ाई जमींदार दुर्गा प्रसाद चौधुरी से हुई थी। उन्होंने दुर्गाप्रसाद चौधुरी की जमींदारी के कई हिस्से महिषादल में शामिल किए। उनकी विधवा पत्नी रानी जानकी ने 1770 ई में जमींदारी संभाली, अपनी सेना गठित की और कई मंदिरों का निर्माण किया। उनके दौहित्र गुरूप्रसाद गर्ग को जमींदारी मिली और जमींदारी उपाध्याय परिवार से गर्ग परिवार को प्राप्त हुई। गुरू प्रसाद गर्ग के पुत्र राजा जगन्नाथ गर्ग थे। रामनाथ गर्ग राजा जगन्नाथ गर्ग के पुत्र थे। डॉ शर्मा ने राजा रामनाथ की चर्चा की है, जिनके निधन के बाद रानी पति का शव लेकर चिता पर चढ़ गई। राजा लक्ष्मण प्रसाद गर्ग राजा रामनाथ गर्ग के दत्त्तक पुत्र थे। इनके बड़े पुत्र थे राजा ईश्वरप्रसाद गर्ग, जिनके समय में निराला के पिता रामसहाय तेवारी महिषादल आए।
रामविलास शर्मा की सभी 'साहित्येतर पुस्तकें' गिरीश मिश्र ने नहीं पढ़ी हैं। क्या उन्होंने 'गांधी, लोहिया, अम्बेडकर' पुस्तक भी ध्यान पूर्वक पढ़ी है? लोहिया पर अंग्रेजी में उनकी एक किताब 1992 में प्रकाशित हुई थी- 'राम मनोहर लोहिया- द मैन एंड हिज इज्म'. उनके और डॉ शर्मा के लोहिया-संबंधी विचार क्या एक समान हैं? क्या सचमुच डॉ शर्मा की 'गांधी लोहिया अम्बेडकर' पुस्तक में 'गहरे अध्ययन और मौलिक शोध' का अभाव है? यह पुस्तक 'लद्धड़', कहाँ से है? इस पुस्तक के संबंध में मैंने पीसी जोशी और पीएन सिंह के विचार रखे थे। गिरीश मिश्र ने 'प्रभात खबर' के सम्पादक को लिखा- '' मेरे प्रिय मित्र डॉ पीसी जोशी ने डा शर्मा के बारे में जो कहा है, वह अलग है''। अलग नहीं, साथ है। हरिमोहन झा की कहानियाँ मैंने छात्र-जीवन में पढ़ी थीं। मान लीजिए ('प्रतीत होता है' नहीं) मुझे 'हिन्दुस्तानी हो या यूनानी', तर्कशास्त्र, दोनों में से किसी का 'ज्ञान' नहीं है, पर पीसी जोशी और पीएन सिंह ने डॉ शर्मा की 'गांधी, लोहिया', वाली पुस्तक की क्यों प्रशंसा की है?पत्र-लेखक के मित्र पीएन सिंह रामविलास शर्मा को 'भारतीय लूकाच' क्यों कहते हैं? वे मित्र-संबंध का निर्वाह नहीं करते। प्रश्न 'वर्तमान राजनीतिक विमर्श में एक गंभीर हस्तक्षेप' का है, जिसे पीएन सिंह डॉ शर्मा की पुस्तक में देखते हैं। क्या पत्र-लेखक वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक विमर्श में गंभीर हस्तक्षेप' के पक्ष में नहीं हैं?
गिरीश मिश्र यह नहीं जानते कि हिन्दी का 'वर्तमान साहित्यिक संसार' पी0सी0 जोशी का कितना गहरा सम्मान करता है! पीसी जोशी का कथन है कि डॉ शर्मा ने ''गाँधी वाङ्‌मय का गहरा व्यापक अध्ययन किया है.'' गिरीश मिश्र कहते हैं कि पुस्तक में 'गहरे अध्ययन' का अभाव है। किसके कथन को पाठक 'गहरे' ढंग से ले? सबने डॉ शर्मा की पुस्तक पढ़ी भी नहीं होगी! 'वसुधा' के 51वें अंक में पूरनचंद जोशी का लेख' 'गाँधी, रामविलास शर्मा और हम' बीस पृष्ठों का है। गिरीश मिश्र एक वाक्य में फतवा देते हैं। जोशी जी रामविलास शर्मा के 'मार्क्सवाद, स्वाधीनता आंदोलन और प्राचीन भारत' पर किये गये काम को आवश्यक और महत्वपूर्ण, मानते हैं, पर डॉ शर्मा के 'साहित्येतर कार्य' की गिरीश मिश्र खिल्ली उड़ाते हैं। पूरनचन्द जोशी के लिए डॉ शर्मा का ऋग्वेद पर किया गया काम महत्वपूर्ण है। ''उन्होंने ऋग्वेद की तस्वीर ही बदल दी।'' वे इसे 'अपने इतिहास की अतीत की वैज्ञानिक और ऐतिहासिक व्याखया' कहते हैं। उनके अनुसार डॉ शर्मा का दोष यह है कि ''उन्होंने ऐसी गंभीर और महत्वपूर्ण पुस्तकें हिन्दी में लिखीं।'' गिरीश मिश्र एक -एक पंक्ति लिखकर डॉ शर्मा की पुस्तकों को अगंभीर और गौण कहते (सिद्ध करते नहीं!) हैं। जोशी जी लिखते हैं ''डॉ शर्मा से प्रेरणा लेकर हमें काम करने की जरूरत है''। पता नहीं, गिरीश मिश्र किसकी प्रेरणा से डॉ शर्मा पर टिप्पणियाँ कर रहे हैं? जोशी जी गाँधी पर किये गये डॉ शर्मा के कार्य को 'बृहत बौद्धिक परियोजना का हिस्सा' कहते हैं. उन्हें ''इस दृष्टि से आज बौद्धिक परिदृश्य में उनकी टक्कर का कोई भी बुद्धिजीवी हिन्दी क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि किसी भी भारतीय भाषा में नजर नहीं आता।'' गिरीश मिश्र भी संभव है, किसी बड़ी बौद्धिक परियोजना के हिस्सा हों ! जोशी जी ने राहुल सांकृत्यायन और रामविलास शर्मा को 'एक दूसरे का सहयोग और पूरक' ही नहीं, 'एक दूसरे की अपूर्णताओं के संशोधन भी' कहा है. जोशी जी ने लिखा है कि रामविलास शर्मा''बहुआयामी प्रतिभा, क्षमता, सर्जनात्मकता और कृतित्व के सहित्यकार, आलोचक और विचारक थे, जिन्होंने साहित्य-समालोचना, सौन्दर्यशास्त्र, पुरातत्व, इतिहास, धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दर्शन, पारम्परिक और आधुनिक सामाजिक चिंतन, भाषाशास्त्र, सभ्यता और संस्कृति के गहन अन्वेषण, अध्ययन, मनन आदि अनेक क्षेत्रों को अपनी मौलिक और रचनात्मक समीक्षा से समृद्ध किया।'' इस धारणा के संबंध में  गिरीश मिश्र के क्या विचार हैं! वे पीसी जोशी के विचारों से सहमत हैं या असहमत?
गिरीश मिश्र ने अपने बारे में लिखा है कि वे ''पाँव पूजने की संस्कृति में विश्वास नहीं रखते''। करबद्ध होकर नत मस्तक होने में भी नहीं! यह अच्छी बात है, पर क्या हाथ जोड़कर प्रणाम करने वाले सभी गलत हैं? नामवर सिंह के सैकड़ों शिष्य, पाठक और प्रशंसक, उनका चरण-स्पर्श करते हैं। उनमें से कुछ में ज्ञान के प्रति सम्मान भाव भी हैं। ज्ञान के प्रति सम्मान-भाव सबमें नहीं होता।
रामशरण शर्मा 'मुंशी' डॉ शर्मा के छोटे भाई हैं। वे अट्ठासी वर्ष के हैं। उनसे गिरीश मिश्र ने अपने 'मधुर संबंध' की बात लिखी हैं। मुंशी जी ने उनके द्वारा अनुदित कई पुस्तकें सम्पादित की हैं। गिरीश मिश्र ने 'प्रभात खबर' के सम्पादक को लिखा है ''आपके स्तंभकार इसकी पुष्टि कर सकते हैं''। मैंने 'मुंशी जी' से फोन पर बातें की। 'मधुर संबंध' के बारे में उन्होंने यह बताया कि एक जमाने में गिरीश मिश्र उनके निकट थे। अब वे उनकी 'समझदारी से सहमत नहीं' हैं. हिन्दी का वर्त्तमान साहित्यिक संसार' अगर 'अज्ञानियों' का है, तो वे भी गिरीश मिश्र की समझदारी से कैसे सहमत होंगे? उन्होंने मुझे टिप्पणी करने को कहा था। बड़े और ज्ञानी लोग कम शब्दों में अपनी बात कहते हैं। सब के लिए ऐसा संभव नहीं है।

रविभूषण
राँची
23.07.2010


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3. नामवर और चंद्रबली को छोड़ हिंदी अज्ञानियों से भरी पड़ी है

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