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Thursday, July 15, 2010

Fwd: महंगाईः व्यवस्था का झूठ और जनता का यथार्थ



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/7/15
Subject: महंगाईः व्यवस्था का झूठ और जनता का यथार्थ
To: abhinav.upadhyaya@gmail.com


महंगाईः व्यवस्था का झूठ और जनता का यथार्थ


अब किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता गांवों से कोई रचनात्मक कार्य नहीं करता है. राजनीतिक दलों के आयोजन शहर केंद्रित हो गये हैं. नेताओं की जीवन शैलियां बदल चुकी हैं. उनका जन प्रतिनिधि रहना एक बडा झूठ है. सरकार को केवल चुनाव के समय जनता से मतलब होता है. वे जनोन्मुखी नहीं, बाजारोन्मुखी हैं. लोकसभा में तीन सौ से अधिक सांसद करोड़पति हैं. किस तर्क से उन्हें गरीबों और बेरोजगारों का प्रतिनिधि कहा जायेगा? बंद एक अभिव्यक्ति है, दबाव है, प्रतीक है, जिसका संबंध व्यापक जन समूह से नहीं है. वेतन-वृद्धि का भी मूल्य वृद्धि से संबंध है. 80-90 करोड़ की जनता के लिए महंगाई का जो अर्थ है, वही अर्थ 10-20 करोड़ लोगों के लिए नहीं है. नौकरी करनेवालों का वेतन पांच-10 वर्ष बाद बढता है. वर्ष में दो-चार बार महंगाई भत्ता बढता चलता है. यह वर्ग सरकार और व्यवस्था के साथ है. भारतीय मध्यवर्ग अपनी सकारात्मक-विधेयात्मक भूमिका त्याग चुका है. वह महंगाई से प्रभावित नहीं है. सरकार भयावह भारतीय यथार्थ को देखना नहीं चाहती. एक दिन का भारत बंद उसे परेशान करता है. जबकि इसका कोई बडा प्रभाव नहीं पडता. बंद कई कारणों से होते हैं. धार्मिक कारणों से होनेवाले बंद और सामाजार्थिक कारणों से होनेवाले 'बंदों' में अंतर है. राजनीतिक दल वास्तविक विपक्ष की भूमिका में नहीं हैं. संसद में वे अपनी वास्तविक भूमिका का कम निर्वाह करते हैं. संसद और सडक, दोनों ही जगहों में विरोध जरूरी है.

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Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]

महंगाईः व्यवस्था का झूठ और जनता का यथार्थ

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/15/2010 07:45:00 PM
रविभूषण
प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता 'महंगाई' में महंगाई घटाने में 'राजतंत्र' के असमर्थ होने की बात कही है. 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में इंदिरा गांधी की सरकार थी. उस समय केंद्र में कांग्रेस की अकेली सत्ता थी. आज केंद्र में संप्रग की सरकार है. कांग्रेस के साथ उसके अन्य सहयोगी दल हैं. राजनीति में अब स्थितियां बदल चुकी हैं. उस समय केदारनाथ अग्रवाल ने 'लोकतंत्र' नहीं 'राजतंत्र' का प्रयोग किया था. वास्तविक लोकतंत्र और छद्म या दिखावटी लोकतंत्र में अंतर है. महंगाई आज कहीं अधिक ज्यादा है और प्रायः सभी राजनीतिक दल कांग्रेसी संस्कृति से प्रभावित हैं. प्रेरित-संचालित भले न हों. एक सप्ताह पहले (5 जुलाई) का भारत बंद एक लंबे समय के बाद संपन्न-सफल हुआ. इस बंद में दो-चार विपक्षी दलों को छोड कर सभी विपक्षी दल एक साथ थे. भाजपा व वामदलों के साथ के कारण वामदलों की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल भी उठाये गये. अब वामदलों ने भाजपा से अपने को अलग कर लिया है. पेट्रोलियम की मूल्य-वृद्धि और महंगाई के मुद्दे पर दो अलग विचारधाराओं के दल कुछ समय के लिए ही एक साथ हुए. सांप्रदायिकता के प्रश्न को बार-बार उठाना सही है क्योंकि भाजपा की विचारधारा उससे जुडी है, पर सबसे बडा प्रश्न जीवनयापन का है. एक समय था, जब समाजवादी 'दाम बांधो आंदोलन' चलाते थे. अब तो कहीं 'काम दो आंदोलन' भी नहीं है. 'बंद' और 'आंदोलन' में अंतर है. बंद ज्यादा नहीं खिंच सकता, जबकि आंदोलन लंबे समय तक चलता है. आंदोलन में व्यापक जन-समुदाय की भागीदारी होती है. बंद में ऐसा नहीं होता. स्वतः स्फूर्त बंद के अब कम उदाहरण हैं. बंद से शहरी जीवन प्रभावित होता है, न कि ग्रामीण जीवन. बंद का संबंध भय से भी हैं. बंद में उपद्रवी तत्व भी होते हैं, जिनका उपद्रवी राजनीति से किसी-न-किसी रूप में संबंध होता है. बंद में तोड-फोड की घटनाएं भी होती हैं. बंद होता कम है, कराया अधिक जाता है. आंदोलन सरकार के अतिरिक्त तंत्र को भी प्रभावित करता है. बंद का अपना तर्क और समाजशास्त्र भी है. जेपी आंदोलन के बाद कोई आंदोलन व्यापक स्तर पर नहीं हुआ. भारत बंद की घटनाएं भी विगत दो दशकों में नगण्य हैं. 5 जुलाई 2010 के भारत बंद की सफलता के बाद भी क्या पेट्रोल, डीजल आदि की मूल्य-वृद्धि घटेगी? संसद के मानसून सत्र के आरंभ केपूर्व का यह बंद प्रतीकात्मक है. 12 घंटे के भारत बंद से क्या सरकार सचमुच महंगाई पर पुनर्विचार करेगी?
विपक्षी दलों के कई नेताओं ने यह कहा था कि यह बंद बहरी सरकार को सुनाने के लिए है. बहरी सरकार को सुनाने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंका था. ब्रिटिश सरकार बहरी थी, पर स्वतंत्र भारत की सरकार भी क्या सचमुच बहरी नहीं है? हकीकत यह है कि हमारे देश की सरकार शहरी होने के कारण बहरी है. भारत की कुल एक अरब 16 करोड़ की जनसंख्या में से आज भी शहरी आबादी का प्रतिशत कितना है? भारत की अधिसंख्य आबादी आज भी गांवों में रहती है. शहरों में भी साधारण जनों व दैनिक मजदूरों की एक संख्या है. महंगाई का सीधा संबंध सामान्य जन से है. भारतीय नागरिकों की आज कई कोटियां हैं. भ्रष्टाचारी-सदाचारी, पूंजीपति-किसान-श्रमिक, संपन्न-विपन्न, शिक्षित-अशिक्षित सभी भारतीय हैं. भारत बंद में विपक्ष की एकता मात्र 12 घंटे की थी. क्या ऐसी एकता से सत्ताधारी वर्ग और शासक पर कोई प्रभाव पडता है? सरकार बहरी ही नहीं, अंधी भी है. वह न सामान्य जन को देखना चाहती है, न उसकी आवाज सुनना चाहती है. विपक्षी दल महंगाईको सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के स्वाभाविक परिणाम के रूप में देखता है. क्या विपक्षी दलों की आर्थिक नीतियां सचमुच सरकारी आर्थिक नीतियों से भिन्न है? क्या सचमुच विपक्षी दल महंगाई के खिलाफ सडक से संसद तक केवल आवाज उठाने में नहीं, सार्थक ढंग से उसे सही मुकाम तक पहुंचाने में प्रयत्नशील रहेगा? क्या सचमुच वह चार-पांच गुना वेतन-भत्तादि की वृद्धि को नामंजूर करेगा?
समाज का एक तबका, जिसमें अब मीडिया भी शामिल है, बंद के दुष्प्रभावों की बात करता है- विशेषतः बंद होने से होनेवाला आर्थिक नुकसान. इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स ने भारत बंद से 13 हजार करोड़ के आर्थिक नुकसान की बात कही है. संख्या में थोडा-बहुत जो भी फर्क हो, पर आर्थिक नुकसान की बात करनेवालों के साथ मीडिया भी है. इन सबके अनुसार बंद बंद होना चाहिए. इनकी बात करनेवाले सामान्य जनों की बातें कम करते हैं. एक दिन का बंद किसे परेशान करता है? क्या गांवों और सामान्य कस्बों में भी बंद का असर होता है. सरकारें अब सामान्य भाषा नहीं सुनतीं वे दबाव की भाषा से, जिसके कई रूप हैं, प्रभावित होती हैं. अभी अर्थशास्त्री विवेकओबेराय ने अपने एक लेख 'प्राइस ऑफ ए बंद' (इंडियन एक्सप्रेस, 9 जुलाई 2010) में 2009-10 के सकल घरेलू उत्पाद का वर्तमान मूल्य 57,91,268 करोड़ बताया है. उनके अनुसार 2010-11 का सकल घरेलू उत्पाद 65,15,177 करोड़ होगा. इस हिसाब से एक दिन का सकल घरेलू उत्पादन 17,849 करोड़ रुपये होगा. यह माना जा सकता है कि एक दिन के बंद से इतनी राशि का नुकसान हुआ. विवेक ओबेराय ने अपने देश में वर्ष भर के अवकाश दिवस की चर्चा की है. सामान्य तौर पर 50 अवकाश-दिवस हैं. वेतन आयोग की संस्तुति के अनुसार यह संख्या 11 होनी चाहिए. अर्थात 39 अवकाश दिवस अधिक हैं. इसका नुकसान एक वर्ष में 696111 करोड़ रुपये है, जो सप्ताह के अंतिम दो दिवसों को छोडने के बाद है. विवेक देवराय के इस कथन से सबकी सहमति होगी कि बंद शहरी फेनोमेना है. उनके अनुसार भारत में दैनिक मजदूरों की संख्या एक करोड़ 40 लाख है और स्वयं नियुक्त दो करोड़ 10 लाख हैं. पहली श्रेणी के लोगों की दैनिक आय प्रतिदिन सौ रुपये है. बंद से इनके 140 करोड़ रुपये और दूसरी श्रेणी के लोगों की 420 करोड़ रुपये अर्थात कुल 560 करोड़ रुपये कीहानि होती है. उनके अनुसार बंद से किसी भी तरह 250 करोड़ से अधिक का नुकसान नहीं होता.
प्रश्न बंद के समर्थन व विरोध का नहीं है. इससे शायद ही किसी को असहमति होगी कि बंद से शहरी जीवन प्रभावित होता है. अब किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता गांवों से कोई रचनात्मक कार्य नहीं करता है. राजनीतिक दलों के आयोजन शहर केंद्रित हो गये हैं. नेताओं की जीवन शैलियां बदल चुकी हैं. उनका जन प्रतिनिधि रहना एक बडा झूठ है. सरकार को केवल चुनाव के समय जनता से मतलब होता है. वे जनोन्मुखी नहीं, बाजारोन्मुखी हैं. लोकसभा में तीन सौ से अधिक सांसद करोड़पति हैं. किस तर्क से उन्हें गरीबों और बेरोजगारों का प्रतिनिधि कहा जायेगा? बंद एक अभिव्यक्ति है, दबाव है, प्रतीक है, जिसका संबंध व्यापक जन समूह से नहीं है. वेतन-वृद्धि का भी मूल्य वृद्धि से संबंध है. 80-90 करोड़ की जनता के लिए महंगाई का जो अर्थ है, वही अर्थ 10-20 करोड़ लोगों के लिए नहीं है. नौकरी करनेवालों का वेतन पांच-10 वर्ष बाद बढता है. वर्ष में दो-चार बार महंगाई भत्ता बढता चलता है. यह वर्ग सरकार और व्यवस्था के साथ है. भारतीय मध्यवर्ग अपनी सकारात्मक-विधेयात्मक भूमिका त्याग चुका है. वह महंगाई से प्रभावित नहीं है. सरकार भयावह भारतीय यथार्थ को देखना नहीं चाहती. एक दिन का भारत बंद उसे परेशान करता है. जबकि इसका कोई बडा प्रभाव नहीं पडता. बंद कई कारणों से होते हैं. धार्मिक कारणों से होनेवाले बंद और सामाजार्थिक कारणों से होनेवाले 'बंदों' में अंतर है. राजनीतिक दल वास्तविक विपक्ष की भूमिका में नहीं हैं. संसद में वे अपनी वास्तविक भूमिका का कम निर्वाह करते हैं. संसद और सडक, दोनों ही जगहों में विरोध जरूरी है.

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