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Monday, July 12, 2010

Fwd: हंस के संपादक राजेंद्र यादव को एक और चिट्ठी



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/7/12
Subject: हंस के संपादक राजेंद्र यादव को एक और चिट्ठी
To: reyazul haque <tahreeq@gmail.com>


हंस के संपादक राजेंद्र यादव को एक और चिट्ठी

दिल्ली में होने जा रहे हंस के सालाना जलसे पर जनज्वार ने कुछ सवाल उठाये थे. उन सवालों पर ज्यादातर पाठकों ने सहमति जाहिर की. मसला जलसे पर न अटके और बात साहित्य के सरोकारों तक पहुंचे, इसके मद्देनज़र जनज्वार अगला लेख युवा पत्रकारविश्वदीपक का प्रकाशित कर रहा है. लेख के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित की जा रही है जो वामपंथी लेखकों के मौजूदा सरोकारों की घनीभूत अभिव्यक्ति है. उम्मीद है कि लेख और तस्वीर दोनों ही बहस को एक नए धरातल पर पहुंचाने का जरिया बनेंगी-अजय प्रकाश.


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Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]

हंस के संपादक राजेंद्र यादव को एक और चिट्ठी

http://hashiya.blogspot.com/2010/07/blog-post_12.html
Posted by Reyaz-ul-haque on 7/12/2010 06:37:00 PM
दिल्ली में होने जा रहे हंस के सालाना जलसे पर जनज्वार ने कुछ सवाल उठाये थे. उन सवालों पर ज्यादातर पाठकों ने सहमति जाहिर की. मसला जलसे पर न अटके और बात साहित्य के सरोकारों तक पहुंचे, इसके मद्देनज़र जनज्वार अगला लेख युवा पत्रकारविश्वदीपक का प्रकाशित कर रहा है. लेख के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित की जा रही है जो वामपंथी लेखकों के मौजूदा सरोकारों की घनीभूत अभिव्यक्ति है. उम्मीद है कि लेख और तस्वीर दोनों ही बहस को एक नए धरातल पर पहुंचाने का जरिया बनेंगी-अजय प्रकाश.

आदरणीय राजेंद्र जी,

पहले 'जनज्वार' से जानकारी मिली और फिर 'समयांतर' से इसकी पुष्टि हुई कि आप इस बार 'हंस' की सालाना गोष्ठी में छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को बोलने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। 'हंस' अपनी स्थापना की सिल्वर जुबली मना रहा है-ये हम सब के लिए खुशी की बात है, लेकिन अपनी पच्चीसवीं सालगिरह पर आप 'हंस' को ये तोहफा देंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। अब जबकि 'हंस' अपनी भरी जवानी को महसूस कर सकता है इस तरह इसे 'को-आप्ट' होने की प्रक्रिया में ले जाने का क्या मतलब?

'प्रगतिशील चेतना के वाहक' के तौर पर 'हंस' निश्चित रूप से आपका व्यक्तिगत प्रयास है, पर ये इस देश की संघर्षशील जनता की आकाक्षांओं का प्रतिबिंब भी है। इस पत्रिका के जरिए आप उन लाखों के संघर्ष से तादात्मय बिठाने में सफल रहे हैं जिन्हे हर समय की सत्ता ने हाशिए पर धकेल रखा है। यही वो बिंदु है जहां आपकी चेतना एक पहचान पाती हैं, लेकिन इस बार आपने 'हंस' की गोष्ठी में विश्वरंजन को आमंत्रित कर खुद को उन्ही लोगों की जमात में शामिल कर दिया है जो ये मानते हैं कि बीच का भी कोई रास्ता होता है, कि माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का मुख्य मुद्दा 'विकास' है! सरकार पिछले साठ सालों से उपेक्षित हिस्से का विकास करना चाहती है और माओवादी विकास के खिलाफ हैं!

कमजोरों के खून से सने इन तर्कों के पीछे की मंशा आप नहीं समझते ऐसा नहीं है! फिर राज्य प्रायोजित हिंसा के सबसे बड़े कमांडर को मंच देकर आप क्या साबित करना चाहते हैं? क्या आपको लगता है कि सरकार के पास अभी भी अपनी सफाई में कुछ कहने को बाकी है? भारतीय राज्य की नेक नीयत पर अगर आपको इतना ही भरोसा है तो फिर आप जो चाहें कर सकते हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या विश्वरंजन जैसे लोगों को मंच देने के बाद आपकी साख यथावत रहेगी? जिस छवि को आपने व्यक्तिगत रिश्तों की कुर्बानी और साहित्य की स्थापित वैचारिक सत्ताओं के खिलाफ संघर्ष करके अर्जित किया है उसको मिट्टी में  मिलाने में क्यों तुले हैं आप?

संभवत: आप मानते हैं कि विश्वरंजन जैसे हत्यारों को मंच देकर आप राज्य प्रायोजित हिंसा के विरोधाभास को उजागर कर पाएंगे- तो ऐसा नहीं है। आप जानते हैं विश्वरंजन बीजेपी की फासीवादी सरकार के चहेते हैं, इसलिए नहीं कि वो बहुत काबिल अधिकारी हैं बल्कि इसलिए कि बीजेपी की नस्लवादी और बुनियादी तौर पर हिंसक सोच को अमल में लाने और वैधता प्रदान करवाने के लिए विश्वरंजन अधिकारी की सीमा से बाहर जाकर व्यक्तिगत प्रयास भी करते हैं। इसी तरह वो कांग्रेस के भी विश्वसनीय हैं। वजह यहां भी साफ हैं। मध्यवर्ग की राजनीति करते-करते कांग्रेस जिस हिंस्र-कॉर्पोरेट-डेमोक्रेसी को एक मॉडल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में है विश्वरंजन उसके लिए मैंदान साफ कर रहे हैं।

 ये अनायास नही है कि अरुंधति भारतीय राज्य को 'बनाना रिपब्लिक' की संज्ञा देती है। क्या आप भारतीय लोकतंत्र के क्लप्टोक्रेसी में तब्दील होने को नहीं समझ पा रहे हैं? या जानबूझकर इससे अनजान बने हुए हैं? भारतीय लोकतंत्र की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जिस संख्या बल के आधार पर ये दुनिया के सबसे बड़े और विविध लोकतंत्र होने का दंभ भरता है वही अब इसके निशाने पर है। भारतीय राज्य अब अपने ही आदमियों की हत्या पर आमादा है। और आप हत्यारों के सरदार को मंच देने के लिए बेताब हैं!


आप जानते हैं कि अमेरिकी कारपोरेट-साम्राज्यवाद के छोटे उस्ताद के तौर पर भारत ने कल्याणकारी राज्य होने की चाहत खो दी है। अब भारतीय राज्य की चिंता ये नहीं है कि हमारे जनगण का जीवन कैसा है, बल्कि उसकी चिंता अब ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लिए कैसे माहौल उपल्ब्ध कराया जाय, कैसे मिशन-चंद्रयान को पूरा किया जाय और कैसे अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत के बाजार को हरम में तब्दील कर दिया जाय!

लेकिन इससे भी शातिराना मंशा ये है कि इस पूरी साजिश को विकास के लुभावने नारे की शक्ल में पेश किया जा रहा है। विश्वरंजन जैसे लोग आज २०१० में वही भूमिका अदा कर रहे हैं जिसकी कल्पना औपनिवेशिक काल में मैकाले ने की थी। अमेरिकी सैन्य साम्राज्यवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार करवाने वाले वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर हम विश्वरंजन को चिन्हित करते हैं। और आप इसे उस बौद्धिक सरकारी प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में हैं जो कवि है और इसीलिए प्रगतिशील भी है? सही भी है? आपकी भावभंगिमा से लगता है कि आप उस हिंसक और कठोर सामंत के साथ है जिसे कल्याण की मंशा के तहत जनता पर चाबुक चलाने का दैवी अधिकार प्राप्त होता है!

आप ये कह सकते हैं कि 'लोकतंत्र' की परंपरा में विरोधी को भी बोलने की आजादी है और विचारों का संघर्ष दरअसल एक स्वस्थ्य परंपरा है। ये तर्क 'सुअरबाड़े' (चिदंबरम ने दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद के मसले पर संसद में बयान देते वक्त इस शब्द को कोट किया था) में तब्दील हो चुकी संसद के बारे में भी कहा जाता है, लेकिन आजादी के वर्तमान ढांचे के अंदर सत्ता और विपक्ष जो खेल खेलता है उससे आप अच्छी तरह वाकिफ है।

सर, वक्त कम है और शिकायतें ज्यादा। नुकीली चुभती हड्डियों और आंसुओं के अलावा हमारे पास कुछ नहीं...इसी से हमारा प्रतिरोध खड़ा हो रहा है। मनमोहन और सोनिया के राज में जिस दलाल-हत्यारे वर्ग का उदय हुआ है उसे आप जस्टीफाई कैसे कर सकते हैं? सलवा जुडूम के दौर में हुई हत्याओं, बलात्कारों और मासूमों के कत्ल के बारे में विश्वरंजन की भूमिका को लेकर अगर अभी भी आपके मन में संदेह की गुंजाइश है तो फिर आपसे संवाद की कोई जमीन नहीं बचती है। (In Maoist Country, by Gautan Navlaka and John Myrdal, Economic and political weekly april 17-31, 2010 में गौतम नौलखा ने लिखा है कि सलवा जुडूम के दौर में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 640 गांव बंदूक की नोंक पर खाली कराए गए, 3 लाख 50 हजार यानि दंतेवाड़ा जिले की आधी जनसंख्या अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हुई है, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बहू बेटियों को मार दिया गया.

आप उन कुछ दुर्गों में  हैं जो अभी तक ढहे नहीं है. फिर भी आप ढहने को  तैयार हैं तो हमारे पास इस विध्वंस को  मंजूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं।


आपका
विश्वदीपक 

और एक तसवीर, ताकि सनद रहे 
यारी देख ली, अब ईमान खोजें : दाहिने से खगेंद्र ठाकुर,  नामवर सिंह,  किताब विक्रेता अशोक  महेश्वरी, डीजीपी विश्वरंजन, कवि अरुण कमल और आलोकधन्वा : चचा आलोक आप  गाय घाट पर माला जपते,  तो भी अपने बुजुर्गों  हम शर्मिंदा न होते.


अग्रसारित- उन सुधीजनों को जिन्हें मुल्क के बेहतरी की चिंता है.

अजय प्रकाश के ब्लॉग जनज्वार से साभार


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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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