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Thursday, July 1, 2010

Fwd: अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/6/30
Subject: अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
To: abhinav.upadhyaya@gmail.com


अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ

हम इन्हें पहचानते हैं. इससे पहले उनकी शानदार कविताएं पढ़ चुके हैं. उनके साथ हम कुछ संबल देती कविताओं से संवाद करते हैं, हम उनके जरिए जानते हैं कि जंगल में सपने देखना कितना खतरनाक है, लेकिन यह सारी दुनिया की सांसों और सपनों के लिए कितना जरूरी है, उनकी कविताएं हमें बताती हैं कि शब्दों नहीं, सिर्फ जमीन पर हो रहे बदलाव ही हमें आश्वस्त कर सकते हैं. उनकी हर कविता की तरह यह भी रणेंद्र की कविता है, जहां एक-एक शब्द निरंतर युद्ध है

कविता पढ़िएः अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ

--

Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]

शब्दों का हाशिया

अभी तो
रणेन्द्र

शब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन

जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार

जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछुए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ

अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताए मीडिया के
आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता

अभी तो,
राजपथ की
एक-एक ईंच सौन्दर्य सहेजने
और बरतने की अद्‌भुत दमक से
चौंधियायी हुई हैं हमारी आँखें

अभी तो,
राजधानी के लाल सुर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं

अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है

अभी तो,
राजपरिवारों और सुखयात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की वर्दियाँ पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चन्द जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैं

अभी तो,
बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लम्बी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैं


अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आँचल की छाँह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फँस कर छूट गया है

अभी तो,
तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गए
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिवाइयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है

अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी

अभी तो,
चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहूका सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें

लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही

अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएँ
द्रौपदी संताल, सीके जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ... और ...

गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ

अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ


--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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