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Monday, July 26, 2010

अनिल पुसदकर का ‘शिखंडियों’ की जमात से जंग का एलान

Home » आमुख, नज़रिया

अनिल पुसदकर का 'शिखंडियों' की जमात से जंग का एलान

♦ अनिल पुसदकर

हालांकि रायपुर से प्रभाष परंपरा न्‍यास पर चली बहस की कड़ी में एक और प्रतिक्रिया आयी है, लेकिन यह सिवाय आक्रोश के बहुत ठोस बात नहीं कहती है। एक और बात ध्‍यान देने की है कि इस प्रतिक्रिया में स्‍त्री विरोधी विशेषणों का बार-बार इस्‍तेमाल किया गया है। वैसे भी प्रभाष की परंपरा में स्त्रियों और दलितों के लिए कम जगह थी – इस पर मोहल्‍ला लाइव में भारी विमर्श चल चुका है : मॉडरेटर

मर्दानगी! एक शब्द जो पूरी कहानी कह देता है। कम से कम प्रभाष परंपरा न्यास के मामले में तो यही नजर आ रहा है। प्रभाष जी के नाम को भगवा रंग में रंगने की कोशिशों का विरोध करने वाले साथी आलोक तोमर के लिए तो मर्दानगी पर्यायवाची नजर आता है, मगर उनके विरोध का विरोध करने वाले न्यासी के चमचे के मामले में नहीं। आलोक तोमर प्रभाष जी की परंपरा का निर्वाह करने में आज भी पीछे नहीं रहे। वे एक साथ दो बड़े भगवा नेता और उनसे कहीं ज्यादा और कई हजार गुना ताकतवर कैंसर से लड़ रहे हैं। झुकना उन्होंने सीखा नही था और गलत उन्हें बर्दाश्त नही था। सो आवाज उठा दी। पूरी दमदारी और मर्दानगी के साथ। मगर उनका जिस तरीके से प्रभाष परंपरा न्यास के एक न्यासी के चमचे ने विरोध किया, उसे कम से कम मर्दानगी तो नहीं कहा जा सकता।

आप खुद ही सोचिए, कैंसर से जूझ रहा कोई योद्धा किसी अन्याय के खिलाफ तब मैदान पर उतरे, जब सब खामोश हों, तो शायद सबके मन में उसके लिए श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़े। और अगर कर्ण जैसी मजबूरी की वजह से भी आपको उसका मुकाबला करना पड़े, तो भी आप दुःशासन या दुर्योधन की भांति उसकी पत्नी पर कटाक्ष करके अपनी बहादुरी या मर्दानगी नही दिखाएंगे। मगर ऐसा किया प्रभाष जी के नाम को भगवा रंग से रंगने की कोशिश करने वाले देश के दो सबसे बड़े फेल्वर भगवा नेताओं के समर्थक एक न्यासी के चमचे ने। अब इसे आप क्या कहेंगे?

पहले ही कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर ने तो उनका जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा और आदरणीय भाभीजी ने भी खामोश रहना ज्यादा उचित समझा मगर जुझारू अंबरीश जी से शायद ये बर्दाश्त नहीं हुआ। हो भी नहीं सकता था, सो वे सामने आ गये शिखंडियों की पूरी जमात से लड़ने। और लड़ते हुए तो हमने उन्हें पहले भी देखा था। तब, जब पत्रकारिता को विज्ञापनों के दम पर कुचलने की कोशिश में सरकार लगभग सफल होती नजर आ रही थी, अंबरीश जी ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। न झुके और न समझौता किया। मुझे उनका साथी होने पर गर्व है। मैं और संजीत आज भी उनकी परंपरा को कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं। और इस संघर्ष में भी हम उनके साथ हैं। चाहे हमें शिखंडियों से ही क्यों न लड़ना पड़े, हम पीछे नही हटेंगे और कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर के जायज विरोध का नाजायज विरोध करने वालों को छोड़ेंगे नहीं।

(अनिल पुसदकर जनसत्ता के छत्तीसगढ़ संस्करण के ब्यूरो चीफ रहे हैं। वे रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष हैं।)


[25 Jul 2010 | One Comment | ]
अनिल पुसदकर का 'शिखंडियों' की जमात से जंग का एलान

उड़ान : एक स्‍त्रीवादी फिल्‍म, जिसमें स्‍त्री नहीं है!

[25 Jul 2010 | Read Comments | ]

मिहिर पंड्या ♦ किसी भी महिला किरदार की सचेत उपस्थिति से रहित फ़िल्म 'उड़ान' हमारे समय की सबसे फिमिनिस्ट फिल्म है। अनुराग की पिछ्ली फिल्म 'देव डी' के बारे में लिखते हुए मैंने कहा था – दरअसल मेरे जैसे हर लड़के की असल लड़ाई तो अपने ही भीतर कहीं छिपे 'देवदास' से है।

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अनिल पुसदकर ♦चाहे हमें शिखंडियों से ही क्यों न लड़ना पड़े, हम पीछे नही हटेंगे और कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर के जायज विरोध का नाजायज विरोध करने वालों को छोड़ेंगे नहीं।
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नज़रिया, मोहल्ला पटना »

[26 Jul 2010 | 5 Comments | ]
बिहार में प्रतिक्रांति के पांच साल

प्रमोद रंजन ♦ नीतीश कुमार पिछड़ी जाति से आते हैं। यह तथ्य, उस मासूम उम्मीद की मुख्य वजह बना था कि वह सामाजिक परिवर्तन की दिशा में काम करेंगे। समान स्कूल प्रणाली आयोग तथा भूमि सुधार आयोग के हश्र तथा अति पिछड़ा वर्ग आयोग व महादलित आयोग के प्रहसन को देखने के बाद यह उम्मीद हवा हो चुकी है। इसके विपरीत नीतीश कुमार बिहार में पिछड़ा राजनीति या कहें गैरकांग्रेस की राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने वाले मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। 2005 में राश्ट्रपति शासन के बाद अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार भारी बहुमत से चुनाव जीत कर आये थे। उसके बाद से जिस रफ्तार से उनकी लोकप्रियता गिरी है, उसी गति से कांग्रेस का उठान हुआ है।

शब्‍द संगत, स्‍मृति »

[26 Jul 2010 | One Comment | ]
ज्ञेय-अज्ञेय

ओम थानवी ♦ जब कभी उन्हें फोन पर पूछा जाता, अज्ञेयजी हैं? उनका जवाब होता था : नहीं; मैं वात्स्यायन बोल रहा हूं। हालांकि यह उनकी चुहल होती थी। वे अपने रचनाकार रूप का नाम 'अज्ञेय' मानते थे, व्यक्ति के नाते सच्चिदानंद वात्स्यायन थे! इतना ही नहीं, कविता-कथा यानी रची हुई कृति 'अज्ञेय' नाम से छपवाते थे; पत्रकारिता हो, विचार-मंथन या आलोचना आदि, वह सब असल नाम से। लेकिन यह भी सच है कि उपनाम उनके जीते-जी हिंदी समाज में असल नाम की प्रतिष्ठा पा चुका था। उनके अजीज उद्धरण-चिह्न देखते-न-देखते निरर्थक हो गये। हालांकि अब यह बात जगजाहिर है कि किस तरह विकट परिस्थिति में यह नाम उनके पल्ले अनचाहे आ पड़ा।

uncategorized »

[26 Jul 2010 | Comments Off | ]

नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली, समाचार »

[25 Jul 2010 | 6 Comments | ]
जनगणना में जाति पर अधिवेशन आज, खुला आमंत्रण

जनहित अभियान ♦ हर दशक में एक बार होने वाली जनगणना को लेकर इस समय देश में भारी विवाद चल रहा है। विवाद के मूल में है जाति का प्रश्न। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना करायी जाए, ताकि किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े मौजूद हों। इसके बावजूद 2001 की जनगणना बिना इस प्रश्न को हल किये संपन्न हो गयी। लेकिन इस बार यानी 2011 की जनगणना में जाति की गिनती को लेकर राजनीतिक हलके में भारी दबाव बन गया है। इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है। इसी चिंता को लेकर 25 जुलाई, 2010, रविवार को राष्‍ट्रीय अधिवेशन बुलाया गया है।

नज़रिया, विश्‍वविद्यालय »

[25 Jul 2010 | 7 Comments | ]
वर्धा के छात्र आलोचना से बाज आएं, रचनात्‍मक बनें

संदीप मधुकर सपकाले ♦ विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों से मैं मोहल्ला के इस मंच से आग्रह करना चाहूंगा कि अपनी राजनीतिक समझ का उपयोग एक ऐसी दिशा में करें, जिसमें संस्थागत विकास की कमियों को पूरा किया जा सके। न कि केवल आलोचना ही उसका जंग लगा हथियार बने। जिसे दिखाकर कुछ शातिर लुंपेन ताकतें अपने स्वार्थ को साध जाएं। सर नदीम हसनैन ने अपना एक शानदार समय विश्वविद्यालय में गुजारा है। उन पर लिखी गयी पोस्ट से मैं ज्यादातर असहमत ही हूं क्योंकि जिस तरह इसका शीर्षक (चोरगुरु से चिढ़ कर वर्धा से विदा हुए नदीम हसनैन) दिया गया है और कहीं की बात का कहीं पर जोड़ लगाकर व्यर्थ सनसनी पैदा करने का प्रयास किया गया है, वह हास्‍यास्‍पद है।

नज़रिया, मोहल्‍ला लाइव »

[24 Jul 2010 | 7 Comments | ]
मोहल्‍ला लाइव में झगड़े बढ़ रहे हैं, इसे रोकिए!

कैलाश चंद चौहान ♦ मुझे एक साथी ने बताया कि मोहल्ला लाइव पर अच्छी सामग्री आती है। जब मैंने इसे देखना शुरू किया किया तो मैं भी इसका प्रशंसक हो गया। लेकिन कुछ दिनों से इसका कुछ अलग रंग देख रहा हूं। आप सभी से निवेदन है कि बुद्धिजीवियों की छोटी छोटी बातों पर लड़ाई के अलावा भी बहुत कुछ है। साथियो, बुद्धिजीवियों की लड़ाई पर ज्यादा ध्यान न देकर अन्य सामयिक, ज्वलंत मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दो ताकि वो सामग्री मैं ज्यादा मात्रा में देख सकूं, जिसके लिए मैं मोहल्ला लाइव से जुड़ा व रोज खोलकर देखता हूं। बाकी आपकी मर्जी। इन झगड़ों में आपको भी मजा आता होगा। षडयंत्र, झगड़े के कारण ही महिलाएं रोज टीवी सीरियल देखती हैं। टीवी की TRP बढ़ती है। आपकी भी बढ़ती होगी।

नज़रिया, मीडिया मंडी »

[24 Jul 2010 | 8 Comments | ]
प्रभाष परंपरा को मोहल्ला छाप परंपरा से अलग करके देखें

आलोक तोमर ♦ प्रभाष जी की परंपरा को किसी मोहल्ला छाप नेता या टटपूंजिया पत्रकार की परंपरा से अलग कर के देखें। प्रभाष जी के सामने विकल्प खुलते थे और वे दूसरों को दे देते थे। नवभारत टाइम्स के संपादक वे खुद नहीं बने मगर अपने मित्र राजेंद्र माथुर को बनवाया। मुझे कई जगहों से बड़े पदों और ज्यादा पगार के प्रस्ताव मिले मगर प्रभाष जी ने कहीं जाने नहीं दिया। फिर एक दिन अपने आप विदा कर दिया। रामबहादुर राय जनसत्ता का नाम चमकते ही नवभारत टाइम्स में नजर आये और शायद उन्होंने प्रभाष जी से जाने के बारे में पूछा भी नहीं था। वैसे वे नवभारत टाइम्स में बैठ कर भी जनसत्ता की खबरों की दैनिक समीक्षा का दुस्साहस किया करते थे।

मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली, समाचार »

[23 Jul 2010 | 13 Comments | ]
नवभारत टाइम्‍स को चाहिए उपसंपादक, पर पैरवी से नहीं

एनबीटी डेस्‍क ♦ नवभारतटाइम्स.कॉम में उपसंपादक (कॉपी एडिटर) की एक पोस्ट खाली है। हम अपने लिए एक ऐसा साथी चाहते हैं जिसने एक या दो साल तक कहीं काम किया हो। जर्नलिज़म में डिप्लोमा या डिग्री ज़रूरी नहीं लेकिन आज की पत्रकारिता क्या है, इसकी जानकारी उसे होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में उसकी पत्रकारिता की दुनिया सिर्फ आडवाणी-सोनिया- कांग्रेस-बीजेपी तक सीमित न हो बल्कि आसपास की हर खबर की भी उसको समझ हो। टेक्नॉलजी से जो न घबराता हो। टि्वटर और फेसबुक जिसके लिए दूसरी दुनिया के शब्द न हों। और इनस्क्रिप्ट/ फनेटिक कीबोर्ड के अनुसार टाइप करना जानता हो। आखिर में एक ज़रूरी बात। भूलकर भी किसी की सिफारिश न लगवाएं।

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Palash Biswas
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