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Sunday, July 11, 2010

राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!

राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!

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: 'हंस' के जलसे में अरुंधति और विश्वरंजन को आमने-सामने खड़ा कर तमाशा कराने की तैयारी : देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

इसे सनसनी माने या सच, मगर कार्यक्रम तय है कि इस बार साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधति राय और सलवा जुडूम अभियान के मुखिया छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन आमने-सामने होंगे। यह जानकारी सबसे पहले हिंदी समाज के जनपक्षधर लोगों में पढ़ी जाने वाली मासिक पत्रिका 'समयांतर' के माध्यम से मिली, जिसकी पुष्टि अब 'हंस' भी कर चुका है। 'हंस' से मिली जानकारी के मुताबिक इन दो मुख्य वक्ताओं के अलावा अन्य वक्ता भी होंगे।

हर वर्ष 31 जुलाई को होने वाले इस कार्यक्रम का महत्व इस बार इसलिए भी अधिक है कि 'हंस' अपने प्रकाशन के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव की कोशिश होगी कि धमाकेदार ढंग से पत्रिका की सिल्वर-जुबली का मजा लिया जाये। मजा लेने के शगल में पक्के अपने राजेंद्र बाबू ने माओवाद के मसले पर बहस का विषय रखा है, 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।'

'हंस' ऐसे किसी ज्वलंत मसले को लेकर ऐसा संस्कृतनिष्ठ और घुमावदार शीर्षक रखेगा, हतप्रभ करने वाला है। खासकर तब जबकि पत्रिका के तौर पर 'हंस' और संपादक के बतौर राजेंद्र यादव खुल्लमखुल्ला, खुलेआमी के हमेशा अंधपक्षधर रहे हों। वैसे में देश के मध्य हिस्से में चल रहे माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का शीर्षक रखने में राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये हैं,जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

हिंदी में प्रतिष्ठित कही जाने वाली इस पत्रिका के संपादक का यह शीर्षक चिंता का विषय है और अनुभव का भी। अनुभव का इसलिए कि एक कार्यक्रम के दौरान एक दूसरे राजनीतिक मसले पर श्रोता उनके इस रूप से रू-ब-रू हुए थे। संसद हमले मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी करार दिये जाने के बाद फांसी की सजा पाये अफजल गुरु को लेकर 'जनहस्तक्षेप' दिल्ली के  गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम किया था जिसमें अन्य वक्ताओं के साथ राजेंद्र यादव भी आमंत्रित थे।

बोलने की बारी आने पर संचालक ने जब इनका नाम उदघोषित  किया तो अपने राजेंद्र बाबू ने मामले को कानूनी बताते हुए वकील कमलेश जैन को बोलने के लिए कहा। कमलेश जैन ने अफजल गुरु को लेकर वही बातें कहीं जो कि सरकार का पक्ष है। कमलेश सरकारी पक्ष को इस तरह पेश करने लगीं कि मजबूरन श्रोताओं ने हूटिंग की और आयोजकों को शर्मशार होना पड़ा। जबकि हम सब जानते हैं कि अफजल का केस लड़ रहे वकील,सामाजिक कार्यकर्ता और जन पक्षधर बुद्धिजीवी इस मामले में फेयर ट्रायल की मांग करते रहे हैं। कारण कि सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को फांसी की सजा 'कंसेंट आफ नेशन' के आधार पर मुकर्रर की थी।

अफजल से ही जुड़ा एक दूसरा मसला 'हंस' में लेख प्रकाशित करने को लेकर हुआ। जाने माने पत्रकार और कश्मीर मामलों के जानकार एवं 'हंस' के सहयोगी गौतम नौलखा ने कहा कि, 'अफजल मामले की सच्चाई हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि 'हंस' में इस मसले पर लेख छपे।' गौतम के इस सुझाव पर राजेंद्र यादव ने लेख आमंत्रित किया। लेख उन तक पहुंचा। उन्होंने तत्काल पढ़ा और लेख के बहुत अच्छा होने का वास्ता देकर अगले अंक में छापने की बात कही। मगर बात आयी-गयी और वह लेख नहीं छपा।

अब सवाल यह है कि पिछले छह वर्षों से सलवा जुडूम अभियान के तमाशबीन बने रहे राजेंद्र यादव कहीं इस तमाशायी उपक्रम के जरिये अपने होने का प्रमाण देने की तो कोशिश में नहीं लगे हैं। तमाशायी कार्यक्रम इसलिए कि लेखिका अरुंधति राय सलवा जुडूम अभियान, माओवादियों और सरकार के रवैये पर क्या सोचती हैं, उनके लेखन के जरिये हम सभी जान चुके हैं। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के प्रिय डीजीपी विश्वरंजन 'सलवा जुडूम'को एक जन अभियान मानते हैं,यह छुपी हुई बात नहीं है। याद होगा कि पिछले वर्ष दर्जनों जनपक्षधर बुद्धिजीवियों ने रायपुर में विश्वरंजन के इंतजाम से हो रहे 'प्रमोद वर्मा स्मृति'कार्यक्रम में इसी आधार पर जाने से मना कर दिया था। इस बाबत विरोध में पहला पत्र विश्वरंजन के नाम कवि पंकज चतुर्वेदी ने लिखा था। विरोध का मजमून हिंदी पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा'में छपे विश्वरंजन के एक साक्षात्कार के आधार पर कवि ने लिखा था जिसमें डीजीपी ने सलवा जुडूम को जनता का अभियान बताया था।

ऐसे में फिर बाकी क्या है जिसके लिए राजेंद्र बाबू अरुंधति-विश्वरंजन मिलाप कराने को लेकर इतने उत्साहित हैं। क्या हजारों आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन से उजाड़े जाने, माओवादियों के सफाये के बहाने आदिवासियों को विस्थापित किये जाने की साजिशों से राजेंद्र बाबू वाकिफ नहीं हैं। राजेंद्र बाबू क्या आप माओवाद प्रभावित इलाकों में सैकड़ों हत्याएं,बलात्कार आदि मामलों से अनभिज्ञ हैं जो आपने विश्वरंजन को आत्मस्विकारोक्ति के लिए दिल्ली आने का बुलावा भेज दिया है। रही बात उन भले मानुषों की सोच का जो यह मानते हैं कि इस बहाने माओवाद के मसले पर बहस होगी और राष्ट्रीय मसला बनेगा फिर तो राजेंद्र बाबू आप ऐसे सेमीनारों की झड़ी लगा सकते हैं।

जैसे अभी विश्वरंजन को बुलाने की बजाय भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को बुलाइये जिससे राष्ट्र के सामने वह अपना पक्ष रख सके कि उसने त्रासदी बुलायी थी या आयी थी। इसी तरह सिख दंगों के मुख्य आरोपियों और गुजरात मसले पर गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को भी दंगे,हत्याओं और बलात्कारों की मजबूरियां गिनाने के लिए एक चांस आप 'ऐवाने गालिब सभागार'में जरूर दीजिए। समय बचे तो निठारी हत्याकांड के सरगना पंधेर और कोली को बुलावा भिजवा दीजिए जिससे कि उसके साथ अन्याय न हो,कोई गलत राय न बनाये। राजेंद्र बाबू आप ऐसा नहीं करेंगे और मुझे अहमक कहेंगे क्योंकि इन सभी पर राज्य ने अपराधी होने या संदेह का ठप्पा लगा दिया है। तब हम पूछते हैं राजेंद्र बाबू आपसे कि जिसको जनता ने अपराधी मुकर्रर किया है,उसकी गवाहियों में मुंसिफ बनने की अनैतिकता आप कैसे कर सकते हैं?

राजेंद्र बाबू अगर आप कुछ बहस की मंशा रखते ही हैं तो गृहमंत्री पी.चिदंबरम को बुलवाने का जुगाड़ लगाइये। मगर शर्त यह रहेगी कि 5 मई को जेएनयू में जिस तरह की डेमोक्रेसी वहां के छात्रों को झेलनी पड़ी, जिसे वहां के छात्रों ने चिदंबरी डेमोक्रेसी कहा, इस बार उनके आगमन पर माहौल वैसा न हो। गर यह संभव नहीं है तो विश्वरंजन से क्या बहस करेंगे, वह कोई कानून बनाते हैं?

राजेंद्र बाबू आप बड़े साहित्यकार हैं। सुना है आपने दलितों-स्त्रियों को साहित्य में जगह दी है। इस भले काम के लिए मैं तहेदिल से आपको बधाई देता हूं। साथ ही सुझाव देता हूं कि साहित्य में पूरा जीवन लगा देने के बावजूद गर आप दण्डकारण्य को एक आदिवासी साहित्यकार नहीं दे सके तो,आदिवासियों के हत्यारों की जमात से आये प्रतिनिधियों को साहित्यकार बनाने का तो पाप मत ही कीजिए।

राजेंद्र बाबू आप भी जानते हैं कि साहित्यकारों की संवेदनशीलता और संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। आज बाजार का रोगन चढ़ा है, मगर ऐसा भी नहीं है सब अपना पिछवाड़ा उघाड़े खडे़ हैं और फिर हमारे युवा मन का तो ख्याल कीजिए। हो सकता है उम्र के इस पड़ाव पर आप डीजीपी कवि की कविताओं को सुनने में ही सक्षम हों,मगर हमारी निगाहें तो उन खून से सने लथपथ हाथों को देखते ही ताड़ जायेंगी। एक बात कहें राजेंद्र बाबू, एक दिन आप अपने नाती-पोतों को वह हाथ दिखाइये, अच्छा ठीक है किस्सों में अहसास ही कराइये। यकीन मानिये आप बुद्धना, मंगरू, शुकू, सोमू, बुद्धिया को अपने घरों में पायेंगे जो पिछले छह वर्षों से दण्डकारण्य क्षेत्र में तबाह-बर्बाद हो रहे हैं। इन जैसे हजारों लोग जो आज मध्य भारत में युद्ध की चपेट में हैं, आपको एक झटके में पड़ोसी लगने लगेंगे और आप साहित्य के वितण्डावादी आयोजन की जगह एक सार्थक पहल को लेकर आगे बढ़ेंगे।

उम्मीद है कि अर्जी पर आप गौर करेंगे। गौर नहीं करने की स्थिति में हमें मजबूरन अरुंधति राय से अपील करनी पड़ेगी। फिर वही बात होगी कि देखो हिंदी से बड़ी अंग्रेजी है और न चाहते हुए भी सारा क्रेडिट अरुंधति के हिस्से जायेगा। हिंदीवालों की पोल खुलेगी सो अलग। इसलिए राजेंद्र बाबू घर की इज्जत घर में ही रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हमारी भाषा में जनपक्षधरता को गहराई मिले। कम-से-कम अपने किये पर समाज के सबसे कमजोर तबके (आदिवासियों)के सामने तो शर्मसार न होना पड़े। खासकर तब जबकि उस तबके ने हमारे समाज और सरकार से सिवाय अपनी आजादी के किसी और चीज की उम्मीद ही न की हो।

लेखक अजय प्रकाश का यह आलेख उनके ब्लाग जनज्वार से साभार लिया गया है.

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written by anju, July 11, 2010
विश्वरंजन, नरेंद्र मोदी और पंधेर को एक ही श्रेणी में रखने की कोशिश बेहद शर्मनाक है।
कृपया सलवाजुडूम और विश्वरंजन के संबध को जाने बिना कुछ भी टिप्पणी करना ग़लत है। खैर बोस आजकल तो चलन ही चल पड़ा है माओवादियों को कहीं से सहीं ठहरा दिया जाए ओर सुर्खियां बटोर ली जा । आगर लेखक को राजेन्द्र यादव जी से कोई समस्या है तो उन पर सीधा निशाना साधे , ना की विश्वरंजन , चिदम्बरम को जरिया बनाएं

रिटायर हो गए वीरेनदा

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वीरेनदा

वीरेनदा

वीरेन डंगवाल उर्फ वीरेनदा बरेली कालेज से रिटायर हो गए. 30 जून का दिन वीरेन डंगवाल के लिए कई मायनों में न भूलने वाला रहा. एक तो यह कि उनका उनके प्यारे बरेली कालेज से कई दशकों का सीधा नाता टूट गया. अब भावनात्मक रिश्ता ही रहेगा. और, इसी 30 जून के दिन वीरेन दा ने अपने शहर बरेली में पहली बार कविता पाठ किया. गर्मी की छुट्टियों के कारण 30 जून को बरेली कालेज बंद रहा, सो, वीरेन डंगवाल के रिटायरमेंट पर कोई आयोजन नहीं किया जा सका.

या, यों कहिए कि बरेली कालेज को अपने इस मशहूर कवि व सम्मानित प्रोफेसर के रिटायरमेंट का दिन याद नहीं रहा. जो भी हो, पर इस दिन आयोजन हुआ, बरेली कालेज के बिना. वीरेन डंगवाल के रिटायरमेंट से परे. इसमें शामिल हुए वीरेन डंगवाल. आनंद स्वरूप वर्मा, असद जैदी, शीतला सिंह, इब्बार रब्बी जैसे अपने घनिष्ठ दोस्तों की मौजूदगी में मानवाधिकार पर हुए एक कार्यक्रम में कविता पाठ भी हुआ. वीरेन डंगवाल ने बरेली के अपने दोस्त और बरेली कालेज के शिक्षक बलदेव साहनी की मृत्यु पर लिखी गई कविता 'मरते हुए दोस्त के लिए' का पाठ किया. 'दुश्चक्र में श्रष्टा' और 'उजले दिन जरूर' का भी पाठ किया.

शाम के वक्त अपने दोस्तों आनंद स्वरूप वर्मा, इब्बार रब्बी, असद जैदी के साथ वीरेनदा ने बरेली में घूम-टहल, खा-पी और हंसी-ठट्टा कर अपने रिटायरमेंट को इंज्वाय किया. अतीत के पन्ने पलटे तो वर्तमान पर बातचीत की. भविष्य के सपने बुनना बंद नहीं किया. लगता है आपने एक पड़ाव पार कर लिया, पूछने पर वे कहते हैं- 'अब तो पड़ाव ही पड़ाव है बेटे, बड़ा चूतियापा है जीवन का, लंबी-छोटी जिंदगी, जो भी है, कटेगी, तुम लोगों के साथ रहकर कटेगी. मिलेंगे, घूमेंगे, लिखेंगे, सोचेंगे... कट जाएगी बेटे.'

साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय लोग वीरेन डंगवाल से खूब परिचित हैं, पर जो नहीं जानते, उनके लिए ये लिंक हैं, जिस पर क्लिक कर वीरेन डंगवाल के बारे में थोड़ा-बहुत जान सकते हैं-

  1. मेरे अंदर काफी गुस्सा है

  2. पत्रकार महोदय

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written by Prem Arora, July 10, 2010
25 march 2010 ko pauri garhwaal mein umesh dobhal memorial trust kee aur se ayojit programme mein Veeren Da se Rubru Hua. Uske Baad Dehradoon mein Doon Readers Ke Banne Tale Rajpur Road ek hotem mein Veeren da ka Kavi Path Suna, Veeren Da Jintne Ache Kavi Hain, Utne Hee Ache Person bhee, Woh Saral Hain par sath mein sapashtwaadi Bhee. Unka Reitement Nahin Hua Balki, Pahad ke liye ho unhone Lekhan Kiya Usme Ab Tezi Aaegi. Rajen Todriya, PC Tiwari, Narendera Negi Jaise Ankek Unke Mittar Bhee Achha kar rahe hain.
Prem Arora
9012043100
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written by Jagmohan Phutela, July 09, 2010
मैं था तो जनसत्ता चंडीगढ़ में.पर,दिल्ली अक्सर जाता था.राय साहब (आदरणीय रामबहादुर राय जी) ने पहली बार मिलवाया वीरेन दा से.यों जानता उन्हें मैं हिंदी के अपने पहले गुरु 'बटरोही' जी के कारण भी था.तब से आज तक वे पत्रकारीय लेखन में साहित्य और उसकी संवेदनाओं के समावेश के लिए मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं.मेरा सौभाग्य है कि मैं अपने शब्द चयन के लिए उनका आशीर्वाद पा सका. मैं मान के चलता हूँ कि मुझ जैसे कृपापात्र उनके और भी होंगे और वे अभी बहुत लम्बे समय तक मुझ जैसों को लेखन,कथन और उसमें उत्तरदायित्त्व का एहसास कराते रहेंगे.
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written by सुभाष गुप्ता, देहरादून, July 09, 2010
माननीय डंगवाल साहब तो एक ज्योति पुंज हैं। उन्होंने साहित्य को कई कालजयी रचनाओं से नवाज़ा है। बहुत से साहित्यकारों और पत्रकारों को राह दिखाई है। काम के दबावों के बीच ज़िन्दगी को हंसते मुस्कराते और स्नेह बांटते हुए कैसे जिया जा सकता है, डॉ. डंगवाल का हर दिन इसकी मिसाल नजर आता है। बहुत शालीन और बहुत सह्रदय, लेकिन उनकी शालीनता भी इतनी धारदार होती है कि कोई गलती से भी उसे कमजोरी नहीं मान सकता। वे अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं करते, चाहे कोई भी कीमत चुकानी पडे।
हर किसी से अपनेपन से मिलना और अपने खास अंदाज में उसकी हौसला अफजाई करना कोई उनसे सीखे। वे रिटायर तो क्या होंगे, अब नई सामाजिक और साहित्यिक जिम्मेदारियां ओढने के लिए उन्हें कुछ समय मिल गया है। मैं उन भाग्यशाली लोगों में से एक हूं, जिन्हें उन्हें नजदीक से देखने और काफी कुछ सीखने का मौका मिला।

रिटायर हो गए वीरेनदा

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वीरेनदा

वीरेनदा

वीरेन डंगवाल उर्फ वीरेनदा बरेली कालेज से रिटायर हो गए. 30 जून का दिन वीरेन डंगवाल के लिए कई मायनों में न भूलने वाला रहा. एक तो यह कि उनका उनके प्यारे बरेली कालेज से कई दशकों का सीधा नाता टूट गया. अब भावनात्मक रिश्ता ही रहेगा. और, इसी 30 जून के दिन वीरेन दा ने अपने शहर बरेली में पहली बार कविता पाठ किया. गर्मी की छुट्टियों के कारण 30 जून को बरेली कालेज बंद रहा, सो, वीरेन डंगवाल के रिटायरमेंट पर कोई आयोजन नहीं किया जा सका.
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पत्रकारिता को अंतरानुशासनिक भी होना पड़ेगा

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: उदयपुर में बनास का लोकार्पण समारोह : साहित्य संस्कृति के संचयन 'बनास' के विशेषांक ''गल्पेतर गल्प का ठाठ'' का लोकार्पण फतहसागर झील के किनारे स्थित  बोगेनवेलिया आर्ट गेलेरी परिसर में एक गरिमामय आयोजन में हुआ. काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर केन्द्रित इस अंक का लोकार्पण सुविख्यात चित्रकार पीएन चोयल, चर्चित चित्रकार अब्बास बाटलीवाला, वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी और वरिष्ठ समालोचक नवल किशोर ने किया.

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'राजेन्द्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार' के लिए आवेदन आमंत्रित

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राजस्थान के कवि एवं मीडियाकर्मी राजेन्द्र बोहरा की स्मृति में स्थापित पांचवे राजेन्द्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार के लिये आवेदन आमंत्रित हैं. यह पुरस्कार हिंदी कविता के प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह के लिये दिया जाता है. पुरस्कार की राशि पांच हजार रुपये है.

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पत्रकार रविन्द्र दाणी की पुस्तक विमोचित

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: नागपुर में गडकरी बोले- हाथ से निकल गई है कश्मीर की समस्या : आज कश्मीर की स्थिति हाथ से निकल चुकी है। चीन ने भी भारत में अतिक्रमण शुरू कर दिया है। इसमें मासूम जनता बेवजह पिस रही है। कुछ दिनों बाद आसाम व तिब्बत के हालात भी ऐसे ही हो जाएंगे। यह कहना है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का। वे पत्रकार रविंद्र दाणी की पुस्तक 'मिशन कश्मीर' के विमोचन कार्यक्रम में बोल रहे थे।

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'बनास' का 'काशी का अस्सी' पर केंद्रित अंक

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विशेषांक ''गल्पेतर गल्प का ठाठ'' का लोकार्पण : साहित्य संस्कृति के संचयन 'बनास' के विशेषांक ''गल्पेतर गल्प का ठाठ'' का लोकार्पण उदयपुर के फतहसागर झील के किनारे स्थित बोगेनवेलिया आर्ट गेलेरी परिसर में एक गरिमामय आयोजन में हुआ.

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'रचनाक्रम' नाम से साहित्यिक पत्रिका लांच

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एक भोली उम्मीद जगाती पत्रिका : पाठकों की कमी के निरंतर आलाप के बावजूद हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं की अच्छी खासी तादाद है। फिर एक और पत्रिका क्यों? नई पत्रिका निकालने वाला कोई भी संपादक सबसे पहले इसी सवाल से रूबरू होता है।

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हैप्पी बर्थडे विश्वनाथजी

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20 जून को 70 बरस पूरे कर रहे संगम की इस प्रतिमूर्ति के व्यक्तित्व के बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय : प्रयाग में संगम की सी शालीनता की स्वीकार्यता अगर किसी व्यक्ति में निहारनी हो तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से मिलिए। गंगा का प्रवाह, यमुना का पाट और सरस्वती का ठाट एक साथ समेटे मद्धिम-मद्धिम मुसकुराते हुए वह कई बार शिशुओं सी अबोधता बोते मिलते हैं।

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पत्रकार कलानिधि की किताब का विमोचन

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कलानिधि और बीएल जोशी

कलानिधि और बीएल जोशी

राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ के चीफ रिपोर्टर डा. कलानिधि मिश्र की किताब 'संस्कृत विद्वान एवं उनकी रचनाएं' (बीसवीं सदी में गोरखपुर मंडल के संदर्भ में) का पिछले दिनों लखनऊ में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने विमोचन किया. संस्कृत में एमए, बीएड और पीएचडी कर चुके डा. कलानिधि की इस किताब की भूमिका में डा. दशरथ द्विवेदी लिखते हैं-

 

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राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!

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: 'हंस' के जलसे में अरुंधति और विश्वरंजन को आमने-सामने खड़ा कर तमाशा कराने की तैयारी : देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

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नागपुर पुलिस का डंडा और पत्रकारिता

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: सच के पक्ष में आएं पुलिस आयुक्त : प्रेस, पुलिस, पब्लिक के बीच परस्पर सामंजस्य को कानून-व्यवस्था के लिए आवश्यक मानने वाले आज निराश हैं। दुखी हैं कि इस अवधारणा की बखिया उधेड़ी गई कानून-व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदार पुलिस के द्वारा! ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं मजबूर हूं अपने इस मंतव्य के लिए कि सोमवार 5 जुलाई को भारत बंद के दौरान नागपुर पुलिस ने अमर्यादा का जो नंगा नाच दिखाया उससे पूरा पुलिस महकमा विवेकहीन, अनुशासनहीन दिखने लगा है। दो दशक बाद नागपुर पुलिस का डंडा कर्तव्यनिर्वाह कर रहे पत्रकारों पर पड़ा।

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जार्ज, जया और लैला... तमाशा जारी है....

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:  पिंजड़े में बूढ़े 'शेर' की सूनी आंखें! :  कई बार वक्त ऐसा त्रासद मोड़ लेता है कि दहाड़ लगाने वाला शेर भी 'म्याऊं-म्याऊं' बोलने के लिए मजबूर हो जाता है। जब कभी ऐसे मुहावरे किसी की जिंदगी के यथार्थ बनने लगते हैं, तो उलट-फेर होते हुए देर नहीं लगती। शायद ऐसा ही बहुत कुछ स्वनाम धन्य जार्ज फर्नांडीस की जिंदगी में इन दिनों घट रहा है। इमरजेंसी के दौर में शेर कहे जाने वाले इस शख्स को लेकर 'अपने' ही फूहड़ खींचतान में जुट गए हैं। अल्जाइमर्स और पार्किंसन जैसी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे जार्ज एकदम लाचार हालत में हैं। जो कुछ उनके आसपास हो रहा है, उसका कुछ-कुछ अहसास उन्हें जरूर है। इसका दर्द उनकी सूनी-सूनी आंखों में अच्छी तरह पढ़ा भी जा सकता है।

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खबर बनाते हुए सुनाने की आदत

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: भाग 25 : पलाश दादा अपनी प्रखरता से जल्द ही पूरे संपादकीय विभाग पर छा गये। उनकी कई खूबियां थीं। पढ़ते बहुत थे। जन सरोकारों से उद्वेलित रहते थे। जुनूनी थे। सिस्टम से भिडऩे को हमेशा तैयार रहते। शोषितों-वंचितों की खबरों पर उनकी भरपूर नजर रहती। उनके अंग्रेजी ज्ञान से नये पत्रकार बहुत आतंकित रहते थे। बोऊदी (सविता भाभी) की शिकायत रहती कि उनकी तनखा का एक बड़ा हिस्सा अखबारों-पत्रिकाओं-किताबों पर ही खर्च हो जाता है। पलाश दा के संघर्ष के दिन थे वे। नया शहर, नया परिवेश, मामूली तनखा और ढेर सारा काम। पर उन्होंने कभी काम से जी नहीं चुराया। वे पहले पेज के इंचार्ज हुआ करते थे। उनके साथ नरनारायण गोयल, राकेश कुमार और सुनील पांडे काम करते थे। इनमें से कोई एक डे शिफ्ट में होता। वह अंदर का देश-विदेश का पेज देखता। उनके साथ होता कोई नया उपसंपादक।

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मीडिया को रोक रहे हैं पुलिस व नक्सली

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पुलिस और नक्सली, दोनों अब मीडिया पर शिकंजा कसने में लगे हैं. इसकी बानगी छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में औड़ाई में हुई नक्सली घटना के बाद देखने को मिली. वहां मीडियाकर्मियों को जाने से रोक दिया. एक तरफ तो नक्सलियों का तालिबानी चेहरा साफ नजर आ रहा है दूसरी ओर पुलिस ने भी मीडियाकर्मियों को रोक कर अपने अलोकतांत्रिक चेहरे का दर्शन कराया है.

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फिर लौटेंगे छोटे से ब्रेक के बाद

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कई बार लगने लगता है कि चीजें यूं ही चलती चली जा रही हैं, बिना सोचे-विचारे. तब रुकना पड़ता है. ठहरना पड़ता है. सोचना पड़ता है. भड़ास4मीडिया को लेकर भी ऐसा ही है. करीब डेढ़-दो महीने पहले भड़ास4मीडिया के दो साल पूरे हुए, चुपचाप. कोई मकसद, मतलब नहीं समझ आ रहा था दो साल पूरे होने पर कुछ खास लिखने-बताने-करने के लिए. पर कुछ सवाल जरूर थे, जिसे दिमाग में स्टोर किए हुए आगे बढ़ते रहे, चलते रहे. पर कुछ महीनों से लगने लगा है कि जैसे चीजें चल रही हैं भड़ास4मीडिया पर, वैसे न चल पाएंगी. सिर्फ 'मीडिया मीडिया' करके, कहके, गरियाके कुछ खास नहीं हो सकता. बहुत सारे अन्य सवाल भी हैं.

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आरु तन्ग पदक्कम वेल्लुवदर्कु नन्द्री...

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नौनिहाल शर्मा: भाग 24 : मेरठ में अखिल भारतीय ग्रामीण स्कूली खेल हुए, तो मेरे लिए वह मेरठ में सबसे बड़ा खेल आयोजन था। एक हफ्ते चले इन खेलों की मैंने जबरदस्त रिपोर्टिंग की। मैं सुबह आठ बजे स्टेडियम पहुंच जाता। चार बजे तक वहां रहकर रिपोर्टिंग करता। वहां से दफ्तर जाकर पहले दूसरे खेलों की खबरें बनाता। फिर मेरठ की खबरें। सात बजे तक यह काम पूरा करके फिर स्टेडियम जाता। लेटेस्ट रिपोर्ट लेकर आठ बजे दफ्तर लौटता। इन खेलों की खबरें अपडेट करता। पेज बनवाकर रात 11 बजे घर पहुंचता।

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लाइबेरिया - सोमालिया सा भारतीय मीडिया

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हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं तो इसके जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सरकुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सरकुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सरकुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी।

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मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा है

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हृदयनाथ मंगेशकर

हृदयनाथ मंगेशकर

इंटरव्यू : हृदयनाथ मंगेशकर (मशहूर संगीतकार) : मास एक-एक सीढ़ी नीचे लाने लगता है : जीवन में जो भी संघर्ष किया सिर्फ ज़िंदगी चलाने के लिए किया, संगीत के लिए नहीं : आदमी को पता चलता ही नहीं, सहज हो जाना : बड़ी कला सहज ही हो जाती है, सोच कर नहीं : इतने लोगों से सीखा है कि अगर सबका गंडा बांध लेता तो हाथ भर जाता मेरा : लता मंगेशकर की सफलता से मेरा कोई संबंध नहीं है, मैं कभी उसका हाथ पकड़ कर चला ही नहीं : राज ठाकरे का निर्माण मराठियों ने नहीं, मीडिया ने किया है : अगर मेरे पिता जीवित रहते, हमारा बचपन अनाथ न होता तो हमारे परिवार में कोई भी प्ले बैक सिंगर नहीं हुआ होता, लता मंगेशकर भी नहीं : छः साल छोटी है दीदी से आशा, फिर भी आवाज़ मोटी हो गई है, दीदी की वैसी ही है जैसी पहले थी : ढाई हज़ार से अधिक बंदिशें याद हैं, इन्हें सहेज कर रख जाना चाहता हूं :

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केवल कलम चलाने गाल बजाने से कुछ न होगा

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मुकेश कुमारइंटरव्यू : मुकेश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार और निदेशक, मौर्य टीवी) : टेलीविज़न में ज़्यादातर काम करने वालों के पास न तो दृष्टि होती है न ज्ञान : 'सुबह सवेरे' की लोकप्रियता का आलम ये था कि हर दिन बोरों मे भरकर पत्र आते थे : सहारा प्रणाम के चक्कर में प्रभात डबराल जी से बोलचाल बंद है : लाँच के वक्त सुब्रत रॉय का संदेश चलने के बजाय उनके मेकअप के शाट्स चलने लगे : विजय दीक्षित ऐसे लोगों के चंगुल में फँस गए जिन्होंने चैनल को ठिकाने लगा दिया : वीओआई में मालिकान ने तय किया कि ख़बरों का धंधा कराना है तभी मैंने इस्तीफा देने का फैसला कर लिया : टीआरपी की वजह से कंटेंट घटिया हुआ, मीडिया की साख गिरी है, पत्रकार-पत्रकारिता बदनाम हुए हैं : मीडिया की सबसे बड़ी खराबी है समाज-सरोकारों से हटना : मुझमें सबसे बड़ी बुराई है साहस की कमी : हिंदी का अंतरराष्ट्रीय स्तर का अंतरराष्ट्रीय चैनल शुरू करना-चलाना चाहता हूँ :

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रामोजी राव संग काम करना स्पीरिचुवल प्लीजर

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NK Singhइंटरव्यू : एनके सिंह (वरिष्ठ पत्रकार) : ईटीवी की व्यूवरशिप बहुत है पर टीआरपी नहीं, ऐसा फाल्टी टीआरपी सिस्टम के कारण : ईटीवी से अलग होना मेरा खुद का फैसला, नाराजगी बिलकुल नहीं है : मैं बहुत डिसीप्लीन्ड आदमी हूं :

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टीआरपी पर विधवा विलाप ठीक नहीं : सुप्रिय

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सुप्रिय प्रसाद

इंटरव्यू : सुप्रिय प्रसाद (न्यूज डायरेक्टर, न्यूज 24) : पार्ट 2 : जिद छोड़िए, खबरों की बदलती दुनिया को समझिए : कई गड़बड़ियां मुझसे भी हुई हैं, इसे मैं स्वीकार करता हूं : कुछ लोगों को अब भी लगता है कि खबरें वैसे ही दिखाई जानी चाहिए जैसी पंद्रह बीस साल पहले दिखाई जाती थीं : चाहे टीआरपी का दबाव हो या न हो, सरकारी कोड़ा हो या न हो, समय के साथ खबरें तो बदलेंगी ही : किसी एक चैनल की गड़बड़ी से पूरे मीडिया को गैर-जिम्मेदार नहीं बताया जा सकता : जिन लोगों ने मेरे साथ काम किया है, वे आज भी मेरे साथ काम करना चाहते हैं : सुबह घर से निकलता हूं तो दिन भर का रनडाउन दिमाग में तय करके जाता हूं : हमारे चैनल का डिस्ट्रब्यूशन और मार्केटिंग कुछ हद तक उस तरीके से नहीं हो पाया जैसे दूसरों का है : न्यूज कंटेन्ट के मामले में राजीव शुक्ला जी का कोई दखल नहीं है : 24 घंटे के न्यूज चैनल का कामयाब प्रोड्यूसर तो मुझे उदय शंकर जी ने बनाया : टीवी पूरी तरह से एक टीम वर्क है और टीम वर्क में सभी को साथ काम करना होता है :

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काटे नहीं कट रही थी वो काली रात : सुप्रिय प्रसाद

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सुप्रिय प्रसाद

इंटरव्यू : सुप्रिय प्रसाद (न्यूज डायरेक्टर, न्यूज 24) : पार्ट 1 : टीवी न्यूज इंडस्ट्री के ऐसे धुरंधर हैं सुप्रिय प्रसाद जो बेहद कम समय में सफलता की उस उंचाई पर पहुंच गए जहां जाने की हसरत हर एक टीवी जर्नलिस्ट पाले होता है। आईआईएमसी से पास किया और सीधे आजतक में घुस गए। धीरे-धीरे इतना बढ़ गए कि पूरे आज तक को कंट्रोल करने लगे। कौन-सी खबर चलनी है, किसे गिरा देना है, इसका मंत्र सुप्रिय देने लगे। किस खबर से टीआरपी आएगी, किससे नहीं, इसका वाचन सुप्रिय करने लगे। कैसे दूसरे न्यूज चैनलों को आगे न बढ़ने दिया जाए, इसकी रणनीति सुप्रिय तैयार करते। सुप्रिय ने एसपी, नकवी, उदय शंकर जैसे कई दिग्गजों से बहुत कुछ सीखा तो अपने से ज्यादा अनु्भवी व उम्रदराज कई दिग्गजों को बहुत कुछ सिखाया भी।

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कोशिश करके भी वामपंथी न बन सका : सुभाष राय

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सुभाष राय

सुभाष राय

इंटरव्यू : सुभाष राय : वरिष्ठ पत्रकार और संपादक (विचार), डीएलए : भाग दो : कई मामलों पर असहमतियों के कारण मुझे शशि शेखर से अलग होना पड़ा था : गलत लोग हर दौर में आगे बढ़े पर वे नष्ट भी हुए : कई बार ऐसा लगता है कि शब्द से भी आगे जाने की जरूरत है : मीडिया के लिए कठिन समय, पत्रकार को नयी भूमिका तलाशने का वक्त है : तब लगता था कि हम वही काम कर रहे हैं जो कभी भगत-सुभाष-चंद्रशेखर ने किया : गुरु चंद्रनाथ योगेश्वर ने तांत्रिक दीक्षा दी,  मिथुन भाव वर्जित था पर मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा के प्रयोग की इजाजत : मैं नाथ पंथ का योगी 'सुभाषानंदनाथ' घोषित हो गया : इलाहाबाद ने मेरे जेहन से संघ के प्रभाव को खत्म कर दिया : फिर तो लगा कि उनके शरीर से एक मधुर विद्युत धार मेरे शरीर में प्रवेश कर रही है : मैं बहुत सक्रिय और आलसी प्रवृत्ति का हूं : ज्यादा भगदड़ व भागदौड़ पसन्द नहीं करता : मैं पूरी दुनिया घूमना चाहता हूं, धीमी गति से चलने वाले वाहन से : सफलता के लिए जीवन में हमेशा असंतुष्ट रहने की सोच अधकचरी : खाने और पीने में न किसी को पकड़ा है और न किसी को छोड़ा है :
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वे केमिस्ट्री पूछते, मैं कविता सुनाता : सुभाष राय

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सुभाष राय

सुभाष राय

इंटरव्यू : सुभाष राय : वरिष्ठ पत्रकार और संपादक (विचार), डीएलए : भाग एक : सुभाष राय. कई दशकों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय. लंबे समय से आगरा में हैं. दशक भर से ज्यादा समय तक अमर उजाला में रहे. जब अमर उजाला का बंटवारा हुआ तब भी निदेशक अजय अग्रवाल का साथ नहीं छोड़ा. वे इन दिनों डीएलए, आगरा में ही संपादक (विचार) हैं. सुभाष राय जब छात्र थे तो इमरजेंसी का दौर था. वे इसका विरोध करते हुए जेल चले गए. तंत्र-मंत्र और ध्यान में दिलचस्पी रही तो गुरु को तलाश कर उच्चस्तरीय दीक्षा ली. घर से पैसा मिलना बंद हो गया तो लिख-पढ़ कर जो कुछ मिल जाता, उससे जिंदगी चला लेते. कभी किसी से मांगा नहीं. जब मिला तो खाया. न मिला तो भूखे सो गए. ईमानदार संपादकों की जो इस देश में परंपरा रही है, उसके प्रतीक हैं सुभाष राय. बेईमानी, झूठ और हायतौबा के बल पर कभी आगे बढ़ने की कोशिश नहीं की. जो कुछ अपने आप हासिल होता गया, उसी में संतुष्ट रहे. हमेशा अपना सर्वोत्तम देने की कोशिश की.

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घटिया कंटेंट पापुलर हो, जरूरी नहीं : प्रकाश झा

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प्रकाश झा

प्रकाश झा

27 फरवरी 1952 को पश्चिमी चंपारण (बिहार) में जन्मे प्रकाश झा निर्माता-निर्देशक के रूप में पूरे देश में स्थापित होने के बाद अब कई नए क्षेत्रों में भी सक्रिय हो गए हैं. राजनीति, उद्यम, मीडिया में वे कई नई चीजें कर रहे हैं. हाल-फिलहाल उन्होंने बिहार-झारखंड पर केंद्रित चैनल 'मौर्य टीवी' को लांच किया है. हिंदी भाषी इलाके के जन-मानस की नब्ज समझने-बूझने वाले प्रकाश ने फिल्मी दुनिया में अपनी मेहनत, समझ-बूझ और विशिष्ट शैली के चलते जो मुकाम हासिल किया है, वह अनुकरणीय है. अपनी नई फिल्म 'राजनीति' की शूटिंग पूरी करने के बाद 'मौर्य टीवी' की लांचिंग कराने के बाद इसे स्थापित कराने के लिए कमर कसे हुए प्रकाश झा से भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने कई मुद्दों पर बातचीत की. पेश है बातचीत के अंश-
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भारतीय मीडिया

बुरी तरह बेइज्जत हुए लखनऊ के पत्रकार

: क्वीन्स बेटन की कवरेज में गये थे : अधिकारियों ने कइयों को पिटवाया : गोली मारने की धमकी : धूप में बैठाये रखा : वाहनों की चाबियां छीनीं : राष्ट्रमण्डल खेलों को लेकर निकाली गयी क्वीन्स बेटन रिले की कवरेज मे लगे पत्रकारों के साथ गोमतीनगर के अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल चौराहे पर प्रशासन व पुलिस के अफसरों ने जमकर बदसलूकी की।

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राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!

: 'हंस' के जलसे में अरुंधति और विश्वरंजन को आमने-सामने खड़ा कर तमाशा कराने की तैयारी : देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

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गलत खबर चलाने पर चैनल पर ठोका केस

श्रीनगर : जम्मू कश्मीर में निजी समाचार चैनल पर गलत खबर चलाने के आरोप में मुकदमा दायर किया है. पुलिस ने बताया चैनल पर पिछले दिनों पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत के बारे में गलत खबर प्रसारित होने के बाद चैनल के खिलाफ केस दर्ज किया गया है. मामला चैनल और उसके एक संवाददाता पर दर्ज किया है.

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कब धरे जाएंगे पत्रकार अवनीश के हत्यारे?

यूपी के बस्ती जिले में 'आज' अखबार के पत्रकार अवनीश कुमार श्रीवास्तव के हत्यारे अभी तक पकड़े नहीं जा सके हैं. हत्या के दो हफ्ते बीत गए पर पुलिस कोई खुलासा नहीं कर सकी. पुलिस के इस रवैये से अवनीश के परिजन व पत्रकार खफा है. बस्ती जिले के पत्रकारों ने शनिवार को जर्नलिस्ट प्रेस क्लब के बैनर तले हत्यारोपियों की जल्द गिरफ्तारी की मांग को लेकर मौन जुलूस निकाला.

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पहले तड़पाया, फिर सिर में गोली मारी

: अपहृत पत्रकार की निर्ममतापूर्वक हत्या : बिहार सरकार के एक मंत्री पर उठी उंगली : हत्या के विरोध में बंद,  मौन जुलूस निकाला : कुशीनगर : अपहृत पत्रकार तेजबहादुर की लाश शनिवार को नौरंगिया (बिहार) थाना क्षेत्र के दिल्ली कैम्प के पास से बरामद हुई है. पत्रकार को क्रूरतापूर्वक यातना देने के बाद हत्यारों ने सिर में गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था.

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पत्रकारिता से मन भरा, अब पढ़ाएंगे जाखड़

दैनिक जागरण, पानीपत में रिपोर्टर के रूप में कार्यरत प्रदीप जाखड़ ने मीडिया ...

आई-नेक्स्ट के तीन पत्रकार भास्कर पहुंचे

रांची में उठापटक जारी है. आई-नेक्स्ट, रांची से तीन लोगों के इस्तीफा देकर दै...

आलोक पांडेय ने दैनिक जागरण छोड़ा

दैनिक जागरण, कानपुर के सीनियर सब एडिटर आलोक पांडेय ने इस्तीफा दे दिया है. व...

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गलत खबर चलाने पर चैनल पर ठोका केस

श्रीनगर : जम्मू कश्मीर में निजी समाचार चैनल पर गलत खबर चलाने के आरोप में मु...

स्टार में इनक्रीमेंट, इंडिया टीवी में आक्रोश

स्टार न्यूज में देर से ही सही, इनक्रीमेंट लगने से यहां काम करने वाले लोग प्...

आउटपुट हेड व प्रोग्रामिंग हेड ने चैनल छोड़ा

: इंडिया न्यूज से मुक्त हुए इसरार व अतुल : 'इंडिया न्यूज' के आउटपुट एडिटर इसर...

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राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!

: 'हंस' के जलसे में अरुंधति और विश्वरंजन को आमने-सामने खड़ा कर तमाशा कराने की तैयारी : देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर ...

नागपुर पुलिस का डंडा और पत्रकारिता

: सच के पक्ष में आएं पुलिस आयुक्त : प्रेस, पुलिस, पब्लिक के बीच परस्पर सामंजस्य को कानून-व्यवस्था के लिए आवश्यक मानने वाले आज निराश हैं। दुखी हैं कि इस अवधारणा की बखिया उधेड़ी गई कानून-व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदार पुलिस के द...

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मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा है

मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा है

इंटरव्यू : हृदयनाथ मंगेशकर (मशहूर संगीतकार) : मास एक-एक सीढ़ी नीचे लाने लगता है : जीवन में जो भी संघर्ष किया सिर्फ ज़िंदगी चलाने के लिए किया, संगीत के लिए नहीं : आदमी को पता चलता ही नहीं, सहज हो जाना : बड़ी कला सहज ही हो जाती है, सो...

केवल कलम चलाने गाल बजाने से कुछ न होगा

केवल कलम चलाने गाल बजाने से कुछ न होगा

इंटरव्यू : मुकेश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार और निदेशक, मौर्य टीवी) : टेलीविज़न में ज़्यादातर काम करने वालों के पास न तो दृष्टि होती है न ज्ञान : 'सुबह सवेरे' की लोकप्रियता का आलम ये था कि हर दिन बोरों मे भरकर पत्र आते थे : सहारा प्रण...

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Palash Biswas
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