समाज बदलता है, तो फिल्में भी बदलती हैं अनुराग
बहस, बॉलीवुड इश्टाइल!
♦ दिलीप मंडल
देव डी के सेट पर अनुराग कश्यप
एक गांव में डकैत कई साल से अत्याचार कर रहे हैं। वे गांव से बहन-बेटियों को उठाकर ले जाते हैं। बकरियां और मुर्गे भी ले जाते हैं। दुकानों से राशन ले जाते हैं, जाहिर है पैसे नहीं देते। बात बात पर गोलीबारी करके बूढ़ों और बच्चों की जान ले लेते हैं। इस गांव को मुक्ति दिलाने शहर से एक छोरा आता है। स्टाइल बेशुमार, बिंदास अंदाज। जिसकी डिक्शनरी में डर नाम का कोई शब्द ही नहीं है। गांव की सबसे सुंदर छोरी उसके साथ नाचती है और फिर वह छोरा सभी डकैतों के मारकर सब कुछ ठीक ठाक कर देता है (तालियां)। बीच में डकैतों के अड्डे पर एक आइटम सांग और गांव के खूबसूरत दृश्य, झरना, पहाड़, बगीचे। दर्शक खुश होकर हॉल से बाहर निकलते हैं।
लगता है कि इसी अंदाज में अनुराग कश्यप हिंदी फिल्मों का सब कुछ ठीक कर देने का दावा कर रहे हैं। बिल्कुल बॉलीवुड इश्टाइल। आप कहानी तो दीजिए, बाकी अनुराग सब ठीक कर देंगे। अनुराग, आपकी सदिच्छा का आदर है। आपकी फिल्में बॉलीवुड के थके हुए मोल्ड को तोड़ने की कोशिश करती हैं, इसके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं। लेकिन बॉलीवुड की जिस समस्या की बात हो रही है, या कुछ लोग जो सवाल उठा रहे हैं, उसका जवाब यह नहीं हो सकता। देश या सिनेमा ऐसे किसी महानायक का इंतजार नहीं कर रहा है। कोई महानायक भारतीय फिल्मों को बदल देगा, ऐसी भोली इच्छा हम नहीं रखते।
भारत में प्रतिरोध का सिनेमा लगभग अनुपस्थित क्यों है, फिल्मों में असली भारत कम क्यों दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता क्यों नहीं दिखती, ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो अभी पूछे जाने बाकी हैं।
जवाब की बात तो बेहद दूर है। अभी यह बात किसी ने ढंग से उठायी भी नहीं है कि छह दर्जन फिल्मों में सलमान खान काम करता है और सिर्फ एक या दो फिल्मों में ही वह मुस्लिम करेक्टर में क्यों दिखता है। फिल्मों में दलित हमेशा लाचार क्यों होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं। दलित लगान में कचरा क्यों होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो। यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था। लेकिन नहीं। यह नहीं हो सकता। ऐसा कभी, किसी एक फिल्म में भी हुआ है क्या? इसके लिए कोई अनुराग कश्यप दोषी नहीं हैं। यह हमारे समाज की समस्या है, फिल्मों की नहीं।
प्रधानमंत्री पिछले छह साल से कह रहे हैं कि वामपंथी उग्रवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन देश के सामने जो सबसे बड़ा सवाल है, उस पर हमारी फिल्में पक्ष या विपक्ष में क्या बोलती हैं। बोलती भी हैं या चुप रहती हैं? 9/11 की थीम के आसपास भारत में न्यूयॉर्क और माई नेम इज खान जैसी फिल्में बनती हैं, लेकिन भारतीय सवालों पर चुप्पी क्यों है? गुजरात दंगों पर फिल्म बनाने के लिए केंद्र में कांग्रेस की सरकार के आने का इंतजार क्यों होता है? औद्योगीकरण, मूलनिवासियों के विस्थापन और विकास के सवालों पर जेम्स कैमरोन अवतार जैसी फिल्म बनाते हैं और पैसे भी कमाते हैं। भारत में फिल्मों के लिए यह वर्जित विषय क्यों है? यह आप भी मानेंगे कि भारतीय समाज और सिनेमा की बहस में तो अभी सवाल भी ढंग से फ्रेम नहीं हुए हैं।
अमेरिकी या यूरोपीय प्रतिरोध के सिनेमा को वहां की सत्ता ने चाहे-अनचाहे जगह दी या वह जगह उन्होंने संघर्ष के जरिये हासिल की। जब अमेरिका में रंगभेद था, तब वहां शो बोट जैसी फिल्में बनीं। भारत में तो सेंसर बोर्ड एक सिनेमा को इसलिए इजाजत नहीं दे रहा है कि उसमें नेपाल के आधुनिक इतिहास का जिक्र है और सेंसर बोर्ड को लगता है कि उसके प्रदर्शन से भारत में माओवाद बढ़ जाएगा। इस फिल्म को सेंसर से मंजूरी दिलाने के लिए आनंद स्वरूप वर्मा को इन दिनों काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।
पिछले दिनों स्टालिन नाम के एक फिल्मकार ने इंडिया अनटच्ड नाम की फिल्म बनायी थी। इस फिल्म को वे देश के कई कैंपस में ले गये और उन्हें हजारों दर्शक मिले। भारत में स्त्रियों की स्थिति पर भी उन्होंने एक फिल्म बनायी थी। वे बाजार की दृष्टि से असफल कहे जा सकते हैं, लेकिन उन्होंने फिल्म बनायी और अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह किया। अनुराग, आप सफल हैं, लेकिन स्टालिन का सिनेमा समाज के लिए ज्यादा उपयोगी है। दोनों सिनेमा को एक साथ तौलने वाला कोई तराजू नहीं है, इसलिए इस संदर्भ में तुलना करने के को-ऑर्डिनेट्स तय नहीं किये जा सकते। अनुराग जी, आपका काम भी महत्वपूर्ण है और आपको कोई यह नहीं कह रहा है कि आप सिनेमा को स्टालिन की तरह बरतें।
भारतीय लोकतंत्र ने प्रतिरोध को सहन करने की जो हदें तय की हैं और जनमाध्यमों पर उन्हें जिस तरह से लागू किया है, वे बेहद संकरी हैं। इनके होते आप उतने ही लाचार हैं, जितने कि आनंद स्वरूप वर्मा। आप प्रतिरोध का सिनेमा बनाएंगे, या भारतीय फिल्मों में दलितों को नायक बनाकर पेश करेंगे, या विस्थापन को लेकर स्पिलबर्ग की तरह अवतार जैसी कोई फिल्म बनाएंगे, ऐसी उम्मीद करना आपके साथ ज्यादती होगी। आप अपना काम अपने ढंग से कर रहे हैं, यह कम महत्वपूर्ण नहीं है।
फिल्म निर्माण के रंगमंच पर असली नायकों का आना अभी बाकी है। वे आएंगे, इसकी हम उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि दुनिया के बाकी कई देशों के अनुभव इसकी उम्मीद जगाते हैं। आपका यह कहना गलत है कि दलित भी दलित नायक और नायिका की जगह कैटरीना कैफ की फिल्म देखना पसंद करेंगे। एक तो आपकी इस बात में सौंदर्य को लेकर नस्लवादी सोच दिखती है। कैटरीना होना आकर्षक होना है, यह विचार हमें किसने बेचा है? गोरेपन की क्रीम कौन बेचता है? साथ ही यह कैसे हुआ होगा कि नस्लभेद खत्म होने के बाद दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत नायक-नायिकाओं को लेकर फिल्में बनने लगीं और सफल होने लगीं। आप अनुभवी हैं और यह तो स्वीकार करेंगे कि फिल्में शून्य में नहीं बनतीं। देश-समाज का असर उन पर होता है। 1960 के अमेरिका में अश्वेत विल स्मिथ दुनिया का सबसे महंगा एक्टर नहीं हो सकता था। अब है। ओबामा 1960 में नहीं हो सकते थे, आज हैं।
समाज बदलता है, तो फिल्में भी बदलती हैं। हम समाज के बदलने की कामना करते हैं, फिल्में उसके पीछे या साथ साथ चलेंगी। समाज से आगे चलने के लिए गोदार बनना पड़ता है, गोदार होने के खतरे उठाने पड़ते हैं। कम पैसे में फिल्में बनाने का हुनर सीखना पड़ता है। लंबे शॉट्स में बात करनी पड़ती है, ताकि ज्यादा फिल्मरोल का इस्तेमाल न करना पड़े। समाज को बदलने में फिल्मों की भूमिका हो सकती है, होनी चाहिए, लेकिन यह फिल्मकार को तय करना है कि वह इसके लिए किस सीमा तक आगे बढ़ना चाहेगा, क्योंकि व्यावसायिकता की जिस बाधा की आप बात कर रहे हैं, वह तो इसकी ज्यादा छूट नहीं देगी।
आपकी एक बात मुझे बेहद महत्वपूर्ण लगी, जिस पर आगे कभी चर्चा होनी चाहिए, "भारत में लोग दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से साथ नहीं की जाती।" आपने भारत और अमेरिका दोनों देशों का जीवन देखा है। आपकी यह बात भारतीय समाज पर बेहद कड़ी टिप्पणी है। उम्मीद है कि आप अपनी इस बात को आगे चलकर और विस्तार देंगे। आपकी फिल्मों पर लोगों की नजर होती है।
(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्ट। कई टीवी चैनलों में जिम्मेदार पदों पर रहे। अख़बारों में नियमित स्तंभ लेखन। दलित मसलों पर लगातार सक्रिय। यात्रा प्रिय शगल। इन दिनों अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
अंग्रेजी मीडिया के कुएं में भांग पड़ी है!
♦ दिलीप मंडल
भारत का संविधान और देश के तमाम कानून अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) दो अलग अलग समूह मानते हैं। लेकिन अंग्रेजी मीडिया को इसकी खबर नहीं है। कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज को ज्यादातर अंग्रेजी समाचार माध्यमों ने दलित प्रतीक और दलित नेता करार दिया है, जबकि मायावती इस प्रतीक के बहाने उत्तर प्रदेश में पिछड़ों के बीच अपनी पार्टी को मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं। देखिए दिलीप मंडल की यह रिपोर्ट: मॉडरेटर
छत्रपति शाहूजी महाराज कोल्हापुर के राजा थे। उनका कार्यकाल 1884 से 1922 तक रहा। वे भोंसले वंश के महाराजा थे। उनकी जाति मराठा-कुनबी थी। इतिहास में अपेक्षाकृत ज्यादा चर्चित शिवाजी महाराज भी भोंसले वंश के ही थे। मराठों का यह वंश खुद को क्षत्रीय मानता है लेकिन महाराष्ट्र की जाति संरचना में यह एक मंझौली जाति है। इसीलिए शिवाजी का राज्याभिषेक महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने नहीं किया था।
शाहूजी महाराज समाज सुधार के कार्यों के लिए इतिहास में प्रसिद्ध हुए। उनके समय में कोल्हापुर देश का पहला इलाका बना, जहां अवर्ण जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण (50 फीसदी) लागू हुआ। कोल्हापुर में अब्राह्मणों को पुरोहित बनाने का काम शाहूजी महाराज के समय में हुआ और बाल गंगाधर तिलक इसके सबसे मुखर विरोधी रहे। उनके कार्यकाल में कोल्हापुर में बालिका विवाह पर पाबंदी लगा दी गयी और विधवा विवाह को मान्यता दी गयी। तिलक इन सामाजिक सुधारों के भी विरोधी थे। शाहूजी महाराज ने अपने कार्यकाल में अब्राह्मण जातियों के छात्रों के लिए होस्टल खोले। भारत सरकार ने शाहूजी महाराज के नाम पर डाक टिकट भी जारी किया है।
शाहूजी महाराज के कार्यों और उपलब्धियों के बारे में स्कूल में पढ़ायी जाने वाली किताबें में कितना कुछ लिखा है, यह शोध का विषय है। अगर स्कूलों में शाहूजी महाराज के बारे में पढ़ाया जाता है, तो इंग्लिश के अखबारों और वेबसाइट के पत्रकारों ने जो किया है, वह अक्षम्य है। और यदि स्कूल की किताबों में शाहूजी महाराज के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है या नाम मात्र का लिखा है, तो इतिहास की किताबों के पुनर्लेखन की जरूरत है।
द हिंदू, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस, आईबीएन लाइव, डेक्कन हेराल्ड, फाइनांशियल एक्सप्रेस, आउटलुक, टेलीग्राफ जैसे देश के सबसे प्रतिष्ठित और नामी अखबार और उनकी साइट अगर शिवाजी के वंशज को दलित नेता या दलित प्रतीक (dalit icon) कहें तो इसे मामूली भूल कैसे कहा जा सकता है। वैसे भी भारत में किसी दलित के महाराजा होने की कल्पना कर पाने के लिए ढेर सारी कल्पनाशीलता की जरूरत होगी। बीएसपी किसी इतिहास पुरुष को स्थापित करने की कोशिश कर रही है, सिर्फ इसलिए उन्हें दलित मान लेना तो बेहद सरलीकरण है। शाहूजी-फुले-पेरियार-नारायण गुरु जैसे समाजसुधारकों को बीएसपी महापुरुष मानती है और ये दलित नहीं हैं।
बहरहाल आप देखिए कि खासकर अंग्रेजी के अखबारों ने नये जिले छत्रपति शाहूजी महाराज जिले में अमेठी को शामिल किये जाने की खबर लिखते समय शाहूजी महाराज की जाति के बारे में क्या जानकारियां दीं। नीचे जिन अखबारों और साइट के नाम हैं, सबने शाहूजी महाराज को दलित नेता या दलित प्रतीक बताया है और कुछ अखबारों ने तो उन्हें शिवाजी का वंशज बताने के साथ ही दलित भी बता दिया है।
1. इंडियन एक्सप्रेस: Amethi now a district, named after Dalit leader
2. टाइम्स ऑफ इंडिया: Maya makes Amethi part of dist named after dalit
3. डेक्कन हेराल्ड: Maya renames Amethi after Dalit leader
4. हिंदुस्तान टाइम्स: Uttar Pradesh chief minister Mayawati took her battle with the Congress to a new level: renaming Amethi – the Gandhis' pet constituency – after a Dalit icon.
5. द हिंदू : Earlier this week, in an administrative act, replete with symbolism, Ms. Mayawati carved a new district out of Sultanpur and Rae Bareli, and named it after a Dalit icon, Chhatrapati Shahuji Maharaj.
6. इंडिया टुडे: Now, Rahul's Amethi has become the ninth district to be renamed after a Dalit icon. Given her electoral success after renaming districts, Mayawati must be hoping to endear herself to the Dalits in his constituency.
7. फाइनैंशियल एक्सप्रेस: Now, Amethi falls in district named after Dalit leader
8. जी न्यूज डॉट कॉम: Opening a new front against the Congress, UP Chief Minister Mayawati today created a new district carved out of Amethi– Rahul Gandhi's Lok Sabha constituency– and named it after dalit icon Chhatrapati Shahuji Maharaj.
9. टेलिग्राफ: Her government today created a new district around Rahul Gandhi's Lok Sabha constituency of Amethi and named it after Dalit icon Chhatrapati Sahuji, grandson of the legendary Shivaji.
10. आउटलुक: Opening a new front against the Congress, UP Chief Minister Mayawati today created a new district carved out of Amethi- Rahul Gandhi's Lok Sabha constituency and named it after dalit icon Chhatrapati Shahuji Maharaj
11. आईबीएन लाइव: UP CM renames Amethi after Dalit leader
12. पीटीआई: Lucknow, Jul 2 (PTI)Opposition parties today accused UP Chief Minister Mayawati of trying to push her political agenda by naming after dalit icon Shahuji Maharaj the new district carved out of Rahul Gandhi's Lok Sabha constituency Amethi.
हिंदी के एक अखबार में भी यह गलती नजर आयी है:
13. राजस्थान पत्रिका: माया सरकार ने आज राज्य के सुल्तानपुर और अमेठी के हिस्सों को मिलाकर नया जिला बनाने को मंजूरी दे दी।…छत्रपति शाहूजी महाराज महाराष्ट्र के जाने माने दलित नेता थे
(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्ट। कई टीवी चैनलों में जिम्मेदार पदों पर रहे। अख़बारों में नियमित स्तंभ लेखन। दलित मसलों पर लगातार सक्रिय। यात्रा प्रिय शगल। इन दिनों अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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दिलीप मंडल ♦ शाहूजी महाराज के कार्यों और उपलब्धियों के बारे में स्कूल में पढ़ायी जाने वाली किताबें में कितना कुछ लिखा है, यह शोध का विषय है। अगर स्कूलों में शाहूजी महाराज के बारे में पढ़ाया जाता है, तो इंग्लिश के अखबारों और वेबसाइट के पत्रकारों ने जो किया है, वह अक्षम्य है। और यदि स्कूल की किताबों में शाहूजी महाराज के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है या नाम मात्र का लिखा है, तो इतिहास की किताबों के पुनर्लेखन की जरूरत है। देश के सबसे प्रतिष्ठित और नामी अखबार और उनकी साइट अगर शिवाजी के वंशज को दलित नेता या दलित प्रतीक (dalit icon) कहें तो इसे मामूली भूल कैसे कहा जा सकता है। वैसे भी भारत में किसी दलित के महाराजा होने की कल्पना कर पाने के लिए ढेर सारी कल्पनाशीलता की जरूरत होगी।
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शालीनता का कंडोम बनाम अनुराग कश्यप की दुनिया
सौरभ द्विवेदी ♦ सबका यही कहना है कि सांड़ है ये आदमी। परवाह नहीं करता। अभी नयी फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स की बात ही करें। सुधीर ने कहा कि उसने रशेज दिखाये हैं, लाजवाब मूवी है, मगर दुनिया कमीनी है, वो पगले उत्साही बच्चे की तरह सबको फुटेज दिखा रहा है, ऐसा नहीं करना चाहिए।
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शीबा असलम फहमी ♦ हमारी फिल्मों में तो कल्पना भी नहीं की जाती एक 'कम-जात' के प्रतिभावान होने की! अगर इसके बर-अक्स आप को कोई ऐसी फिल्म याद आ रही हो, तो मेरी जानकारी में इजाफा कीजिएगा… हां खुदा न खासता अगर कोई प्रतिभा होगी तो तय-शुदा तौर पर अंत में वो कुलीन परिवार के बिछड़े हुए ही में होगी। 'सुजाता' याद है आपको? कितनी अच्छी फिल्म थी। बिलकुल पंडित नेहरु के जाति-सौहार्द को साकार करती! अछूत-दलित कन्या 'सुजाता' को किस आधार पर स्वीकार किया जाता है, और उसे शरण देनेवाला ब्राह्मण परिवार किस तरह अपने आत्म-द्वंद्व से मुक्ति पाता है? वहां भी उसकी औकात-जात का वर ढूंढ कर जब लाया जाता है, तो वह व्यभिचारी, शराबी और दुहाजू ही होता है, और कमसिन सुजाता का जोड़ बिठाते हुए, अविचलित माताजी के अनुसार 'इन लोगों में यही होता है'।
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दिलीप मंडल ♦ प्रतिभा अवसर के अलावा कुछ नहीं है। अमर्त्य सेन को बचपन में पलामू या मिर्जापुर या कूचबिहार के किसी गांव के स्कूल में पढ़ते हुए सोचिए। प्रतिभा के बारे में सारे भ्रम दूर हो जाएंगे। जब भारत के हर समुदाय और तबके से प्रतिभाएं सामने आएंगी, तभी यह देश आगे बढ़ सकता है। चंद समुदायों और व्यक्तियों का संसाधनों और प्रतिभा पर जब तक एकाधिकार बना रहेगा, जब तक इस देश में सबसे ज्यादा अंधे रहेंगे, सबसे ज्यादा अशिक्षित रहेंगे, सबसे ज्यादा कुपोषित होंगे और आपकी सोने की चिड़िया का यूएन के वर्ल्ड ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में स्थान 134वां या ऐसा ही कुछ बना रहेगा। प्रश्न सिर्फ इस बात का है कि क्या एक सचेत व्यक्ति के तौर पर हम यह सब होते देख पा रहे हैं।
नज़रिया, मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली, समाचार »
दिलीप मंडल ♦ ऐसे अनुभव लगातार बताते हैं कि मीडिया को सर्वसमावेशी और पूरे देश के हित में सोचने वाले माध्यम के रूप में देखना बचपना होगा। मीडिया सत्ता संरचना का हिस्सा है और इसी रूप में काम करता है। कुछ लोग इसमें अपवाद के रूप में कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे माइक्रो माइनोरिटी हैं। सवाल उठता है कि क्या मीरा कुमार इस खबर पर एतराज जताएंगी। क्या वे अपने कार्यालय से एक पत्र जारी कर यह निर्देश देंगी कि इस खबर को सुधार कर दिखाया जाए और चैनल और साइट इसके लिए माफी मांगे? आप सब लोग मीरा कुमार को जानते हैं। आप बताइए कि मीरा कुमार क्या करेंगी?
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दिलीप मंडल ♦ जाति और जाति भेद भारतीय सामाजिक जीवन की सच्चाई है, इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता। राजनीति से लेकर शादी-ब्याह के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है। ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसकी हकीकत को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किये जाएं। जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है। इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना करायी जाए।
नज़रिया »
तरुण विजय ♦ तमाम ठकुराई दरकिनार रखते हुए वे पूछ ही बैठे – कौन जात हो? हमें जीवन का सत्य समझ में आ गया! लाख कहें भाई, हमार जात फकत हिंदुस्तानी है। हम हेडगेवारपंथी हैं। जात लगानी ही होती, तो बहुत साल पहले लगा चुके होते। हमारे घर में एक तेलुगू दामाद है, एक बांग्लाभाषी बहू है, दूसरा दामाद तमिल-ब्राह्मण है, हम खुद पहाड़ के जन्मे पले-बढ़े कुमइयां हों या गढ़वाली – रिश्तेदारी का दामन है। संघ की शाखा में खेले तो जात भुला दी। पर, जात सच है। भाषण व्यर्थ है। लोहिया जात तोड़ो कहते रहे। दीनदयाल उपाध्याय समरसता की बात करते रहे। श्रीगुरुजी ने कहा, सिर्फ हिंदू। पर आज 2010 का सच यह है – सिर्फ जात।
असहमति, नज़रिया »
दिलीप मंडल ♦ वैदिक जी, इसी देश के कई राज्य 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देते हैं। तमिलनाडु 69 फीसदी आरक्षण देता है। और यह किसने कहा कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण किसी हालत में नहीं दिया जा सकता। 50 फीसदी की सीमा सुप्रीम कोर्ट ने बालाजी केस में लगायी थी। इसे सुप्रीम कोर्ट की ज्यादा जजों की पीठ भी बदल सकती है और संसद भी। और नवीं अनुसूची में डालकर संसद ऐसे कानून को अदालती पड़ताल से मुक्त भी कर सकती है… जनगणना में गलत जानकारी देने पर सजा का प्रावधान है। जनगणना अधिनियम 1948 को पढ़ें। और किसी ने अपनी जाति कुछ भी लिखा दी, वह कानूनी प्रमाण है, यह किस विद्वान ने बता दिया? एक बार तथ्यों को दोबारा जांच लें।
नज़रिया, स्मृति »
दिलीप मंडल ♦ निरुपमा की हत्या का विरोध करने वालों से पूछा जा रहा है कि अगर निरुपमा की जगह आपकी बेटी होती, तो क्या आप तालियां बजाते। ऐसे प्रश्नों का उत्तर तात्कालिकता से परे ढूंढना होगा। अगर आने वाले दिनों में और कई निरुपमाओं की जान बचानी है तो उस वर्ण व्यवस्था की जड़ों को काटने की जरूरत है, जिसकी अंतर्वस्तु में ही हिंसा है। निरुपमा की हत्या करने वाले आखिर उस वर्ण व्यवस्था की ही तो रक्षा कर रहे थे, जो हिंदू धर्म का मूलाधार है। अंतर्जातीय शादियों का निषेध वर्ण-संकर संतानों को रोकने के लिए ही तो है… वर्ण व्यवस्था सिर्फ दलितों और पिछड़ों का हक नहीं मारती, निरुपमा को भी मारती है।
ख़बर भी नज़र भी, नज़रिया »
डेस्क ♦ रवीश कुमार कुत्तों के सम्मान की रक्षा करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि लालू और मुलायम की तुलना किसी और से हो सकती थी। इसलिए वे चाहते हैं कि हम सब कुत्तों के सम्मान में मैंदान में आ जाएं। दिलीप मंडल ने उनसे इस टिप्पणी को हटाने का अनुरोध किया है। दिलीप की राय में इस टिप्पणी की भाषा में जातीय घृणा है। इसलिए रवीश गडकरी को जी कहते हैं और लालू-मुलायम के साथ जी नहीं लगा पाते। इस सवाल पर फेसबुक में जबर्दस्त बहस हुई है। भारतीय समाज और इंटरनेट के कुछ उलझे तारों को समझने में यह बहस मदद कर सकती है।
शालीनता का कंडोम बनाम अनुराग कश्यप की दुनिया
सौरभ द्विवेदी ♦ सबका यही कहना है कि सांड़ है ये आदमी। परवाह नहीं करता। अभी नयी फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स की बात ही करें। सुधीर ने कहा कि उसने रशेज दिखाये हैं, लाजवाब मूवी है, मगर दुनिया कमीनी है, वो पगले उत्साही बच्चे की तरह सबको फुटेज दिखा रहा है, ऐसा नहीं करना चाहिए।
ख़बर भी नज़र भी, नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली, शब्द संगत »
तेजी ग्रोवर ♦ गगन मेरी सहोदर और समकालीन उपस्थिति हैं, और उनकी आवाज का बने रहना मेरे लिए मानी रखता है। शायद आप सबके लिए भी रखता है, जिन्होंने उनकी रचनाओं को पढ़ा और सराहा है। जिस तरह इन लेखों में निर्मल जी के नाम को लाया जा रहा है, उसका कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि वे तो निश्चित ही गगन को अपने विवेक से काम लेने देते। गगन को निर्मल जी के संदर्भ में ठेस पहुंचाना कितना सही है, इसका फैसला भी आप मित्र लोग करें, जो कवि हैं और लेखक हैं, और जिन्होंने जीवन में कोई कठिन प्रेम किया है। फिर आप वैद साहब को भी तो कोई ख़ुशी हासिल करने दीजिए न कि उनके सम्मान को बहाल करने के उपक्रम में हमारी एक प्रिय हिंदी कवि का अपमान शामिल न हो।
नज़रिया »
आनंद स्वरूप वर्मा ♦ 'टाइम्स ऑफ इंडिया' की पत्रकार अनोहिता मजुमदार ने एक दिसंबर 2001 को नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के अध्यक्ष प्रचंड (पुष्प कमल दहाल) से बातचीत की, जिसका विवरण इस अखबार के दो दिसंबर के अंक में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ। बातचीत के दौरान इस प्रतिनिधि ने सवाल किया कि माओवादी योद्धाओं और आतंकवादियों में क्या फर्क है? इस सवाल का जवाब देते हुए कामरेड प्रचंड ने कहा कि 'दोनों की किसी भी तरह से तुलना ही नहीं की जा सकती। आतंकवादी लोग निरीह और निहत्थी जनता के खिलाफ विवेकशून्य और आत्मघाती हमले करते हैं।
असहमति, नज़रिया »
विश्वदीपक ♦ साजिद रशीद की विवेकहीनता का आलम ये है कि वो 'आंतकवाद' और 'माओवाद' को एक ही तराजू पर तौल रहे हैं। उन्हें आतंकवाद और माओवाद में फर्क भी समझ में नहीं आ रहा? क्या रशीद की बातों में, अमेरिका और कांग्रेस की दलीलों में कोई फर्क नजर आ रहा है? रशीद कहते कि माओवादी 'सत्ता में परिवर्तन' के ख्वाहिशमंद है। अब जबकि भारतीय राज्य अपनी वैधानिकता की सबसे खरतनाक जद्दोजहद कर रहा है राशिद जैसे लोगों को डर क्यों लग रहा है? क्या महज इसीलिए कि वर्तमान सत्ता संरचना में उनकी जो हिस्सेदारी है, सुविधाएं हैं, सहूलियतें है वो छिन जाएंगी?
असहमति, नज़रिया »
साजिद रशीद ♦ नक्सलवादियों के पक्ष में इस समय सबसे निडर और बुलंद आवाज अरुंधती राय की है। अगरचे वे अपने उपन्यास 'द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' में कॉमरेड नंबूदरीपाद जैसे मार्क्सवादी नेता की आलोचना करके कम्युनिस्टों में 'शापित' हो चुकी हैं। अरुंधती ने साप्ताहिक 'आउटलुक' में प्रकाशित अपने लंबे लेख में नक्सलवादियों की हिंसा को दुरुस्त ठहराने के लिए जो रोशनाई खर्च की थी, उसमें अब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के उन डेढ़ सौ यात्रियों का लहू भी शामिल हो गया है, जिन्होंने अपनी आखिरी सांसें लेते हुए यह जरूर सोचा होगा कि उनके किस दुश्मन ने उन्हें यह दर्दनाक मृत्यु दी है? याद रहे, पिछले पांच वर्षों में नक्सलवादियों के हमलों में मरने वाले नागरिकों की संख्या लगभग पंद्रह सौ है।
नज़रिया »
उर्मिलेश ♦ देश में आर्थिक सुधार के मौजूदा दौर में नये ढंग के शैक्षिक सुधारों का दौर चल रहा है। इसे क्रांतिकारी बताया जा रहा है। मध्य और उच्च वर्ग का तबका इससे बहुत खुश है। वह नये तरह के शैक्षिक सुधारों से अपने आपको ग्लोबल-विलेज का हिस्सा बनता देख रहा है। लेकिन दलित-आदिवासियों के अलावा पिछड़ों के अति-पिछड़े हिस्सों तक शिक्षा और ज्ञान की रोशनी कितना पहुंचायी जा सकी है। हर समय अपने सिर पर ज्ञान की टोकरी और जुबान पर सत्ताधारी समूह व सरकार के लिए तरह-तरह की सलाह लेकर वातानुकूलित गाड़ियों में घूमने वाले महाशयों को भला इन जातियों-समुदायों की क्यों चिंता होगी। मनुस्मृति ने सदियों पहले कहा था – शूद्रों को ज्ञान मत दो। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो शूद्रों को धन देने को तो राजी हैं पर ज्ञान नहीं।
नज़रिया »
अनिल चमड़िया ♦ आखिर जनगणना में जाति पूछने से क्या दिक्कत है। जाति यहां जन्म से ही निर्धारित हो जाती है। जाति बदली नहीं जा सकती। जाति क्या केवल संख्या-बल है? जो लोग विरोध कर रहे हैं, उन्हें लगता है कि अगर पिछड़ों की आबादी के ठोस तथ्य सामने आ जाएंगे तो उन्हें नौकरियों में जो सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है, उसे बढ़ाने की मांग उठ सकती है। पिछड़ों में एक विश्वास पैदा हो सकता है कि संसदीय व्यवस्था में वे अपने वोटों से अपने जाति-समूह की सत्ता बना लेंगे। पहली बात तो यह कि संसदीय राजनीति में जातियों की भूमिका को इस सपाट तरीके से देखना उनके विरोध को सुसंगत तर्क तैयार करने में बाधाएं खड़ी कर रहा है।
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संदीप जोशी ♦ गांधी हॉल परिसर में मंच पर कुमारजी के चित्र के समक्ष मुकुल बैठे। वे तानपुरे का सुर मिलाते कुमारजी ही लगे। फिर कुमारजी के ही अंदाज में मुकुल ने पूछा, 'सुनाई बराबर दे रहा है न?' पुराने खस्ताहाल सभागार के गड़गड़ाते पंखे बंद करवाये। सुनने वालों से गर्मी सहन करने का आग्रह किया। कुमारजी की तरह बीच-बीच में स्पीकर-साउंड वालों को सचेत कर सुनाते रहे। सुनने वाले विचलित नहीं हुए। भरपूर तेवर दिखाते हुए मुकुल ने शाम को संस्मरणीय बना दिया। मुकुल के गायन में हाथों से वही लयकारी का समन्वय जमाना, अनसुलझे रिश्तों की प्रगाढ़ता दर्शा गया। आंखें मिचीं तो खुद कुमारजी सुनाई दिये। मुकुल अपने फक्कड़पन और गायन शैली में कुमारजी के कबीर लगे।
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राजकिशोर ♦ स्वर्गीय निर्मल वर्मा की जीवन संगिनी गगन गिल की मति शायद मारी गयी थी जो उन्होंने ब्लॉगरों के मुहल्ले में पैर रखा। हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्यकार सम्मान ठुकराने की घोषणा कर और फिर उसे लेने जा कर वे अपनी मिट्टी पहले ही पलीद कर चुकी थीं। बेहतर था, गगन इस पर चुप लगा जातीं, क्योंकि गलती तो उनसे हो ही गयी थी। जब जनसत्ता लगातार छाप रहा था कि पुरस्कार ठुकरानेवालों में गगन भी हैं, तब वे इस पर चुप रहीं।
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अरविंद शेष ♦ सुव्यवस्थित विकास की दिख सकने वाली तस्वीरों के बीच इस स्थिति की कल्पना भी शायद मुमकिन नहीं कि अपने जलते घरों और खुद को बचाने की कोशिश करते पुरुषों और महिलाओं के सामने हमलावर निर्वस्त्र होकर नाचने लगें! यह किसी भी तरह के विकास के तमाम दावों को खारिज करने के लिए काफी है। यह हजारों साल की 'महान' सांस्कृतिक परंपराओं पर शर्म करने के लिए काफी है। यह एक ऐसे कबीले की कल्पना लगती है जिसे अपनी सड़ांधों पर गर्व करना सुहाता है और वह इसी में जीना चाहता है। नहीं तो क्या कारण है कि अपनी प्रकृति में समान गोहाना, दुलीना या मिर्चपुर कांड शृंखला की कड़ियों की तरह आगे बढ़ते जा रहे हैं।
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Palash Biswas
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