चाहता हूं, इतिहास के गोरे पन्ने थोड़े सांवले हो जाएं
अविनाश ♦ कवि नीलाभ किसी से रणेंद्र की एक कविता की तारीफ किये जा रहे थे। मुझे लगा कि मामला गंभीर है और मैंने उन्हीं से लेकर कविता पढ़ी। कविता में कवि कहता है कि वह उन तमाम चीजों पर कविता लिखने की कोशिश कर रहा है, जिनको इतिहास और जीवन के धवल-सवर्ण पन्नों पर जगह नहीं मिलती।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया, मोहल्ला पटना, शब्द संगत »
प्रसन्न कुमार चौधरी ♦ 'त्रिवेणी संघ' पिछड़े वर्गों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करने वाला पहला संगठन था। 90 का दशक आते-आते पिछड़े वर्गों का राजनीतिक सशक्तीकरण संपन्न हो गया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि 50 के दशक और 90 के दशक के विधानसभा की संरचना देखें तो ये फर्क आपको साफ दिखाई देगा। वैसे भी किसी भी सामाजिक वर्ग के उत्थान में राजनीतिक सशक्तीकरण सबसे पहले होता है, बाद में उसके लिए और भी बहुत सारी चीजें चाहिए। तो एक त्रिवेणी संघ से जो आंदोलन शुरू हुआ, वो बिहार में लगभग पूरा हो गया है। अब है कि उसको हम किस रूप में पुर्नजीवित कर सकते हैं या उसको पुर्नजीवित करने के लिए अब क्या नया कार्यक्रम ले सकते हैं?
समाचार »
डेस्क ♦ जाति आधारित जनगणना पर चर्चा के लिए गुरुवार को मंत्रियों के समूह की बैठक बिना किसी फैसले के समाप्त हो गई। समूह ने शीघ्र ही एक अन्य बैठक करने का निर्णय लिया है। कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सहित सभी बड़े राजनीतिक दलों में इस मुद्दे पर मतभेद की पृष्ठभूमि में यह बैठक हुई। संसद के बजट सत्र के दौरान समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल (यूनाइटेड) ने जाति आधारित जनगणना का मुद्दा उठाया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था कि सरकार सदस्यों के रुख से परिचित है और इस मुद्दे पर मंत्रिमंडल फैसला करेगा। मामले को इसके बाद मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह के हवाले कर दिया गया।
नज़रिया, मोहल्ला रायपुर »
दिवाकर मुक्तिबोध ♦ …जब ऐसी स्थितियां हों तो ग्रामीण नक्सलियों के खिलाफ होने के बावजूद पुलिस के सूचनादूत कैसे बन सकते हैं? इसीलिए पुलिस का सूचना तंत्र कमजोर है और नक्सलियों का मजबूत। पुलिस जब तब इसे ठीक नहीं कर पाएगी, नक्सलियों के खिलाफ जंग जीतना मुश्किल है। जाहिर है, लड़ाई बहुत लंबी है। यदि इसे जीतना है तो पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को आम आदमी बनकर गांवों में आदिवासियों के बीच रहना होगा। जंगलों को ठीक से जानना होगा तथा ग्रामीणों का विश्वास जीतना होगा। तभी वे भेड़ों के बीच भेड़िये की पहचान कर पाएंगे और फिर उन्हें मारने में आसानी होगी। वरना नक्सलियों के हमले इसी तरह जारी रहेंगे और जानें जाती रहेंगी।
मोहल्ला दिल्ली, मोहल्ला पटना, स्मृति »
विकास वैभव ♦ शशि की मृत्यु के बाद जो कुछ हुआ, उसमें एनएसडी की भूमिका हमेशा ही संदिग्ध रही है। एनएसडी ने हमेशा यही कोशिश की कि किसी भी तरह से इस प्रकरण को जल्द से जल्द समाप्त किया जाए। एक तरह से उसकी भूमिका पल्ला झाड़ने वाली ही रही है क्यूंकि इस प्रकरण में अगर जांच बढ़ती, तो एनएसडी और अस्पताल प्रशासन की सांठ-गांठ के कच्चे-चिठ्ठे सामने आने का डर था। इसके अलावा भी एनएसडी में जिस तरह की धांधलियां निरंतर चलती रहती हैं, उसका भी बाहर आने का खतरा था। यही कारण रहा कि एनएसडी प्रशासन और उसके निदेशक ने पूरे प्रकरण पर पानी डालने की कोशिश की और इसे सामान्य मौत बताया और पोस्टमार्टम करवाने की भी जरूरत नहीं समझी।
नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली »
रंग प्रसंग ♦ हिंदी अपने विकास-क्रम में एक केंद्रीय स्थान ग्रहण कर चुकी है, इसलिए हिंदी रंगकर्म पर कोई भी विचार दूसरी देशी-विदेशी भाषाओं पर विचार किये बिना अधूरा ही रहेगा। हिंदी के नाटक भले ही दूसरी भाषाओं में अनूदित हो कर मंचित न हुए हों, लेकिन दूसरी भाषाओं के अनगिनत नाटक हिंदी में तर्जुमा करके खेले गये हैं। और इसके साथ-साथ उन भाषाओं में जो नाट्य-चिंतन हुआ है, उसका असर हिंदी रंगमंच पर पड़ा है। हिंदी रंगकर्म की इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए यह जायजा लेने की जरूरत शिद्दत से महसूस होती है कि हिंदी नाटक और रंगमंच के डेढ़ सौ साल के मौजूदा दौर में आज इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के आखिरी साल में हम कहां खड़े हैं।
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अब्राहम हिंदीवाला ♦ विक्रमादित्य मोटवाणी की 'उड़ान' कान फिल्म फेस्टिवल के 'अनसर्टेन रिगार्ड' खंड के लिए चुनी गयी थी। सात सालों के बाद किसी भारतीय फिल्म को यह अवसर मिला था। मजेदार तथ्य यह है कि उन दिनों कान में मौजूद हमारे स्टारों को इतनी फुर्सत भी नहीं मिली कि वे 'उड़ान' के शो में जाकर भारत के गौरव में शामिल हों। और मीडिया… उसकी आंखें तो कंगूरों (लंगूरों) से हटती ही नहीं… इसलिए 'उड़ान' की कोई खबर और फुटेज नहीं दिखी। निराश न हों अनुराग, संजय और विक्रमादित्य… आप अपने दर्शकों का नया समूह तैयार कर रहे हैं। (किसी भी मीडिया में पहली बार पेश है उड़ान की एक्सक्लूसिव तस्वीरें)
फ फ फोटो फोटो, समाचार »
डेस्क ♦ इन तस्वीरों को पूरी दुनिया ने देखा है। ये तस्वीरें 17 और 18 जून को अख़बारों में छपी थीं। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में सुरक्षाबलों ने अपने अभियान में जिन लोगों को मारा था, उनके शवों भेड़-बकरियों की तरह टांग कर ले गये थे। इन्हीं तस्वीरों के आधार पर अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को नोटिस भेजा है। आयोग ने मंत्रालय से इस मसले पर 27 जुलाई तक अपनी रिपोर्ट सौंपने को कहा है। मानवाधिकार आयोग की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि अख़बारों में छपी रिपोर्ट सही हैं तो यह एक गंभीर मसला है।
नज़रिया »
हिमानी दीवान ♦ समाज में फैली तमाम बुराइयों को अपने बर्ताव में शामिल कर लेने के बाद भी मां बाप बच्चे को अपनी आंचल में छुपा लेते हैं। बल्कि ऐसे कामों में कई बार उनका साथ भी देते हैं और उन्हें बचाने के लिए तमाम हथकंडे भी अपनाते हैं। हंगामा मचता है तो सिर्फ इस बात पर कि उसने इस जात की… उस गोत्र की… ऐसे खानदान की… लड़की से प्यार कर लिया। शादी कर ली। इस गुनाह के लिए जोड़ियों की हत्या तक कर दी जाती है। फिर अचरज ये कि इसे ओनर किलिंग का नाम दिया जाता है। इज्जत के नाम पर की गयी हत्या। क्या तब इज्जत बढ़ती है, जब बच्चा गैरकानूनी काम करता है?
मीडिया मंडी »
डेस्क ♦ प्रबंधन की आपसी लड़ाई का खामियाजा कुछ पत्रकार भी भुगत रहे हैं। इनकी कमी यह है कि उनका इंटरव्यू और सेलेक्शन ज्योति नारायण ने किया था। इसके बाद बाकायदा उन्हें ऑफर लेटर भी दिये गये। उनमें से तीन-चार को 17 मई को पी7 के दफ्तर बुलाया भी गया। उन्हें सम्मानपूर्वक चाय-पानी भी दिया गया। कंपनी की ओर से कर्मचारी को ज्वाइनिंग के वक्त भरवाया जाने वाला फॉर्म भी भरवाया गया। इसके बाद सिर्फ औपचारिकता ही रह गयी थी। इसी दौरान विधुशेखर और पी दत्ता ने ज्वाइन करने जा रहे पत्रकारों को एक-एक करके बुलाया और उनसे तीन-चार दिनों का वक्त मांगा और फिर उन्हें बाहर जाने को कह दिया गया। ये सभी पत्रकार अपने दफ्तरों से इस्तीफे देकर आये थे।
नज़रिया »
महाश्वेता देवी ♦ मैं यह देखकर विस्मित हूं कि जिन्होंने मेरे साथ मिलकर 'परिवर्तन चाहिए' का नारा दिया था, वे भी लालगढ़ के सवाल पर प्रतिवाद नहीं कर रहे। ममता बनर्जी क्यों खामोश हैं? इससे जनता में गलत संदेश जा रहा है। हर क्षेत्र में बुद्धदेव विफल रहे, इसीलिए उनकी सरकार के परिवर्तन की मांग हमने की थी। ममता से बंगाल की जनता को बड़ी उम्मीदें हैं। कहीं-कहीं वह उम्मीदों पर खरा भी उतर रही हैं। रेल बस्तियों के बाशिंदों को वह निःशुल्क मकान बनाकर दे रही हैं। पंचायतों की तरह कई पालिकाओं पर भी उनकी पार्टी का बोर्ड बना है। ममता को हर जगह कड़ी निगरानी रखनी होगी कि काम ठीक ढंग से हो रहा है या नहीं? उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि बुद्धदेव ने जनता को लंगड़ी मारी, तो जनता क्या जवाब दे रही है?
नज़रिया »
जनहित अभियान ♦ सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर रहा सीएसडीएस इन दिनों भारतीय लोकतंत्र में जनता के विचारों की सबसे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक संस्था लोकसभा में जाति जनगणना पर बनी आम सहमति के खिलाफ अभियान चला रहा है। सामाजशास्त्रीय शोध के लिए चलाया जा रहा यह संस्थान सामाजिक विविधता के आंकड़े जुटाये जाने के खिलाफ अभियान क्यों चला रहा है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। सीएसडीएस पर भारतीय समाज के कथित रूप से उच्च वर्ण कहे जाने वालों का वर्चस्व स्पष्ट नजर आता है और जो अवर्ण लोग वहां मौजूद हैं वो फौरी फायदे, सरकारी समितियों में जाने की हड़बड़ी या दब्बूपन की वजह से प्रभावी विचार के साथ हां में हां मिलाते हैं।
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
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