Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Friday, April 26, 2013

आंबेडकरवादियों के निशाने पर मार्क्सवादी ब्राह्मण क्यों एच एल दुसाध

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद -11

आंबेडकरवादियों के निशाने पर मार्क्सवादी ब्राह्मण क्यों   

                                          एच एल दुसाध

मार्क्सवादियों की बराबर शिकायत रही है कि दलित मार्क्सवाद के सामने खुद को असहाय पा कर सिर्फ मार्क्सवादी नेतृत्व को ब्राह्मणवादी,सवर्णवादी इत्यादि कहकर अपनी भड़ास निकालते रहते हैं.उनके ऐसा कहने पर दलितों का  नुकसान यह हुआ है कि आम लोगों में यह सन्देश चला गया  है कि वे मार्क्सवाद विरोधी हैं,जोकि गलत है.हालाँकि ऐसा नहीं है कि मार्क्सवाद एक मुकम्मल वाद है,प्रश्नातीत है.किन्तु कमियों और सवालों के बावजूद जब खुद डॉ.आंबेडकर मार्क्स के प्रशंसक रहे तो दलित कैसे उसके विरोधी हो सकते हैं? डॉ.आंबेडकर ने मार्क्स की प्रशंसा करते हुए लिखा है

'मार्क्स ने इतिहास की आर्थिक व्याख्या के सिद्धान्तों  का प्रतिपादन किया इसकी वैधता पर बड़ा विवाद उठा.यदि इतिहास की  आर्थिक व्याख्या के सिद्धान्त में पूर्ण सच्चाई नहीं है तो इसका कारण है श्रमिक वर्ग का उन आर्थिक तथ्यों का बल पूर्वक नहीं प्रस्तुत कर पाना जिनके निर्धारण में सहभागी बने.श्रमिक वर्ग उस साहित्य से स्वंय को अवगत कराने में असफल रहा जिसमें मानवमात्र के शासन के विषय में लिखा गया है.शासन के आधुनिक संगठन को समझने के लिए प्रत्येक श्रमिक को रूसो की 'सामाजिक संविदा',मार्क्स की 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र',पोप लियो के श्रमिकों की दशा पर बहुत से व्यक्तियों को भेजे गए तेरहवें पत्र और जॉन स्टुअर्ट मिल के विचारों आदि चार मूल दस्तावेजों से जरुर अवगत होना चाहिए.(डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज,वाल्यूम-10,पृ-110)  

किन्तु मार्क्स और उसके सिद्धांत के प्रति यथेष्ट श्रद्धाशील आंबेडकर हिन्दू साम्यवादियों और उनके आंदोलनों से मीलों दूर रहे .तथापि उन्होंने स्वतंत्र रूप से कॉमरेड स्टालिन से संपर्क साधने का प्रयास किया था तथा इस दिशा में कुछ आगे भी बढे थे.जिस दिन स्टालिन की मृत्यु हुई थी उस दिन उन्होंने शोक स्वरूप पूरे दिन उपवास रखा था.बहरहाल आंबेडकर ने अपने संघर्ष में मार्क्सवाद को सिद्दांत के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया ,इसके कारण एकाधिक रहे .उनमें जाति आधारित समाज में मार्क्सवाद की सैद्धांतिक अनुपयुक्तता के अतिरिक्त प्रमुख कारण था भारतीय साम्यवादी आन्दोलन पर ब्राह्मणों का वर्चस्व.जिन ब्राह्मणों ने आगे बढाकर मार्क्सवाद का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया था उनके नेतृत्व में दबे कुचले लोगों की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती,ऐसा दृढ विश्वास था डॉ .आंबेडकर का.इसके लिए  उन्होंने वंचित वर्गों को सावधान करते  हुए कहा था-

'यदि ब्राह्मणों से आरम्भ करें जोकि भारत में शासक का एक दृढ व शक्तिशाली वर्ग है,तो यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे भारत में हिंदुओं की कुल जनसंख्या के 80 या 90 प्रतिशत दीन वर्ग अर्थात शूद्रों तथा अछूतों के सबसे प्राचीन व हट्ठी(inveterate) शत्रु हैं'.(डॉ.बाबासाहेब राइटिंग्स एंड स्पीचेज,वाल्यूम-9,पृ-467 ).'उनसे(ब्राह्मणों) यह आशा करना कि वे जापान के समुराइयों की भांति अपने सभी विशेषाधिकारों को त्याग देंगे,आकाश कुसुम प्राप्त करने की कल्पना जैसा होगा... देश में हम सबसे अधिक दबा-कुचला वर्ग हैं.इसका अर्थ है कि हमें आत्मविश्वास के साथ अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी है-(वही,पृ-469).' 'राज्य के साधनों के चुनाव के समय साधनों के वर्ग-पक्षपात के विचार को नकारा नहीं जा सकता.इसकी पहचान सबसे पहले कार्ल मार्क्स ने की और पेरिस कम्यून की दौरान इस पर विचार किया.यह बताना आवश्यक हो गया है कि इस समय सोवियत रूस की सरकार का आधार यही है.भारत में वंचित वर्ग द्वारा रखी गई आरक्षण की मांग आवश्यक रूप से मार्क्स द्वारा बताये और रूस द्वारा अपनाये गए इसी विचार पर आधारित है...दीन वर्ग के हितों के रक्षक के रूप में दीन वर्ग के व्यक्तियों पर ही विश्वास किया जा सकता है.और यह विचार इतना महवपूर्ण है की दक्षता के के सिद्धांत को भी इस पर हावी नहीं होने दिया जा सकता.'(वही,पृ-481).

बहरहाल सिर्फ अम्बेडकर ही नहीं फुले ,शाहूजी ,पेरियार,ललई सिंह यादव,राम स्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद,कांशीराम इत्यादि वंचित वर्गों के समस्त नायकों ने ही   अपने-अपने तरीके से, भारत के शासक वर्ग के अगुआ ब्राह्मणों को एक वर्ग के रूप में, शूद्रातिशूद्रों का सबसे खतरनाक शत्रु चिन्हित करते हुए उनसे सावधान करने का प्रयास किया है.ऐसे में जब भारत के सर्वस्वहाराओं के विरुद्ध के सब समय कट्टर शत्रु की भूमिका में अवतीर्ण होनेवाले ब्राह्मणों ने आगे बढ़कर मार्क्सवाद का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया, आंबेडकर और उनके अनुसरणकारियों  का कम्युनिज्म के प्रति आकर्षण जाता रहा.उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी में उनकी उपस्थिति को बराबर शक के नज़रिए से देखा.कारण,मार्क्सवाद का उद्देश्य शासक वर्ग को नियंत्रक के आसन से हटाकर सर्वहारा को उसकी जगह  आसीन करना  रहा है.मार्क्स  के अनुसार'सर्वहारा जोकि वर्तमान समाज के निम्नतर स्तर पर है तब तक आन्दोलित नहीं होगा और उन्नति नहीं कर पायेगा जबतक कि समूचे अधिकारयुक्त समाज के उपरिवर्ती स्तर को नहीं उतार फेंका जायेगा(मार्क्स-एंगेल्स,कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र).ऐसे में किसी के भी मन में सवाल पैदा हो सकता है कि ब्राह्मणों ने आगे बढ़कर मार्क्सवाद जैसे एक आत्मघाती सिद्धांत को क्यों अपने कब्जे में ले लिया? इसका सठिक उत्तर सुप्रसिद्ध इतिहासकार एस. के. बिस्वास ने अपनी रचना 'मार्क्सवाद की दुर्दशा' में दिया है.

'मनुवादी ब्राह्मण केवल एक ही उद्देश्य लेकर मार्क्सवादी बने और वह उद्देश्य था मार्क्सवाद का अपहरण करना तथा संस्कृतिकरण के नाम पर समूची विचारधारा का हिन्दुकरण.अपने हितों की सुरक्षा की सुरक्षा के लिए ब्राह्मण नेता 1920 से ही मार्क्सवाद का नाम लेकर दो प्रकार से कार्य कर रहे थे.प्रथम शीघ्र सत्ता हस्तांतरण की सौदेबाजी के लिए वे अंग्रेज अधिकारियों को सर्वहारा क्रांति का भय दिखा रहे थे और दूसरे डॉ.आंबेडकर तथा पेरियार  इत्यादि के सबल नेतृत्व में तेज़ी से उभरते भारत के जन्मजात वंचितों के क्रांतिकारी  आन्दोलन को हानि पहुचाने और उसकी दिशा को मोडने की चेष्टा कर रहे थे.इस मामले में भारत के शासक वर्ग को सफलता मिली .मार्क्सवाद का नाम लेकर उन्होंने  ब्राह्मणवाद की स्थापना किया.कार्ल मार्क्स ने एक पत्र में लिखा था-'अरब,तुर्क,तातार और मुगलों का ,जिन्होंने निरंतर भारत को जीता,शीघ्र ही हिन्दुकरण हो गया .इतिहास के शाश्वत नियम के अनुसार अपनी प्रजा की उत्तम सभ्यता द्वारा स्वयं के ऊपर विजय प्राप्त की.'इससे पूर्व कि उत्पादक वर्ग मार्क्सवाद के विषय में जान पाता,मनुवादी ब्राह्मण नेताओं ने आगे बढ़कर इसे अपना  लिया.उन्होंने शीघ्र ही मार्क्सवाद का अपहरण कर उसका पूर्ण रूप से हिन्दुकरण कर दिया.घृणा और शोषण के आधारवाला हिंदू-धर्म सदैव ही शक्तिशाली विरोधियों का अपहरण और आर्यीकरण करके ही जीवित रहा है.'

मार्क्सवाद की दुर्दशा के पृष्ठ 14-16 तक ब्राह्मणों द्वारा मार्क्सवाद को अपनाये जाने के उद्देश्यों पर विस्तार से आलोकपात करने के बाद बिस्वास साहब पृ-23 पर लिखते हैं-'मार्क्सवाद को अपहरण करनेवाले ब्राह्मणी - व्यस्था के पोषक साम्यवादी अपने वर्ग व जातिय प्रस्थिति से भली-भांति परिचित थे.उन्हें इस बात का पूर्ण आभास था कि शासक वर्ग होने के कारण वे साम्यवादी आन्दोलन के लिए नितांत अयोग्य हैं.अतः उन्होंने अपनी मार्क्सवाद विरोधी जातिय स्थिति की चुनौती का सामना करने के लिए एक उपयुक्त शब्दावली 'वर्गहीन'(declassed) का आविष्कार किया.भारतीय मार्क्सवादी इस शब्दावली का इस्तेमाल शासक जाति के उन सदस्यों के लिए करते हैं जो मार्क्सवाद का  प्रचार तथा अनुसरण करते हैं.ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनके वर्ग को वैध सामाजिक स्थिति प्रदान की जा सके.वे घोषणा करना चाहते हैं कि यद्यपि वे ब्राह्मण हैं किन्तु वर्ग-हीन होकर वे सर्वहारा की स्थिति में आ गए हैं.इस प्रकार मार्क्सवाद को अपहरण करनेवाले शासक वर्ग के लोग मार्क्सवाद के प्रचार=प्रसार का अधिकार प्राप्त कर साम्यवादी बन गए.                  

किन्तु इस प्रकार कि विचारधारा कि कोई युक्ति है?सबसे पहला  सवाल तो यह है कि शासक जाति कोई सदस्य क्या जातिविहीन अर्थन वर्ग विहीन  हो सकता है?और यदि ऐसा है तो क्या वह वंश परंपरा में निम्न स्तर पर आ सकता है?इन जटिल प्रश्नों का उत्तर पाए बिना ही मार्क्सवादियों ने शासक जातियों के सभी सदस्यों के वर्ग हीन होने के सिद्धांत को मान लिया.एक जातिविहीन तथा वर्ग हीन हुए  ब्राह्मण के क्या चारित्रिक गुण एवं मापदंड होंगे !सच्ची बात तो यह है कि वर्ग-हीन होने की धारणा कोरी काल्पनिक उड़ान है.मार्क्स के सम्पूर्ण साहित्य में कहीं भी इस शब्दावली का उल्लेख नहीं है.उसमें कहीं भी वर्ग विहिनता के लिए कोई प्रावधान नहीं है.'

मित्रों उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में आपके समक्ष निम्न शंकाएं रखना चाहता हूं.

1-हालांकि पहले भी इस किस्म की शंका रख चुका हूं फिर भी दुबारा बता दूं कि क्रांति के शास्त्र में जिस ब्राह्मण वर्ग का चरित्र प्रतिक्रांति वाला है , उसके हाथ में मार्क्सवाद जैसे क्रांतिकारी सिद्धांत का लगाम देखकर वंचित वर्ग  क्यों नहीं मार्क्सवाद से दूरी बनाएगा?

2-फुले से लगाये शाहूजी,पेरियार,बाबासाहेब ,रामस्वरूप वर्मा ,जगदेव प्रसाद कांशीराम इत्यादि सभी बहुजन नायकों ने मार्क्सवादी- ब्राह्मणों के खिलाफ आक्रामक तेंवर अपनाये.वही काम उनके अनुसरणकारी भी किये जा रहे हैं.आप यह बतलायें बहुजन नायकों का  विरोध क्या अकारण था?

3-यह तय है कि  एक वर्ग के रूप ब्राह्मणों ने अपनी मनीषा से मानवता को जितनी क्षति पहुचाया है,उसकी कोई मिसाल मानव जाति के इतिहास में नहीं है.इनके कारण देश की बहुसंख्यक आबादी  शक्ति के स्रोतों-आर्थिक,राजनीतक,धार्मिक- के साथ ही पिछड़े,अस्पृश्य,आदिवासी(जंगली)और विधर्मी बनकर पूर्ण मानवीय मर्यादा से भी वंचित हैं.अतः जिस जाति का किसी क्रन्तिकारी संगठन पर वर्चस्व,जगदेव प्रसाद की भाषा में कुत्ते द्वारा मांस की रखवाली करने जैसा हो;जो डॉ.आंबेडकर तथा अन्य बहुजन नायकों के शब्दों में  शूद्रातिशूद्रों(सर्वस्व-हारा)के सबसे पुराने व कट्टर दुश्मन हों,उसी वर्ग के कथित डीक्लास्ड और ज्ञानी लोगों के नेतृत्व में दलित-पिछडों के  मार्क्सवाद के झंडे तले संगठित होने की कोई युक्ति है?

4-जिस डॉ.अम्बेडकर के दलित –मुक्ति अवदानों को देखते हुए दुनिया ने अब्राहम लिंकन,बुकर टी वाशिंगटन,मोजेज इत्यादि से उनकी तुलना किया उसी डॉ.आंबेडकर को 21 वीं सदी के मार्क्सवादियों द्वारा खारिज करना क्या यह साबित नहीं करता कि वर्तमान प्रजन्म के वैदिकों की सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है और वे ब्राह्मणवादी कहलाने के ही पात्र हैं.क्या इसके पीछे उनकी यह मानसिकता नहीं झलकती कि जन्मजात सर्वस्वहारा आंबेडकरवाद से मुक्त होकर राष्ट्रवादी,गाँधीवादी या खुद उनके अर्थात मार्क्सवादी खेमे में चले जाएँ ताकि मूलनिवासियों के  मुक्ति की परिकल्पना ध्वस्त हो जाय और उनपर परम्परागत शासक जातियों का प्रभुत्व बरकरार रहे?

5-महान मार्क्सवादी विचारक महापंडित राहुल  सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ 'कार्ल मार्क्स'के विषय प्रवेश में लिखा हैं-'मानव समाज की आर्थिक विषमताएं ही वह मर्ज है,जिसके कारण मानव समाज में दूसरी विषमताएं और असह्य वेदनाएं देखी  जाती हैं.इन वेदनाओं का हर देश-काल में मानवता –प्रेमियों और महान विचारकों ने दुःख के साथ अनुभव किया और उसको हटाने का यथासंभव प्रयत्न भी किया.भारत में बुद्ध,चीन में मो-ती,इरान में मज्दक ....जैसे अनेक विचारक प्रायः ढाई हज़ार साल तक उस समाज का सपना देखते रहे ,जिसमें  मानव-मानव समान होंगे;उनमें कोई आर्थिक विषमता नहीं होगी;लूट-खसोट,शोषण-उत्पीडन से मुक्त मानव समाज उस वर्ग का रूप धारण करेगा,जिसका भिन्न -भिन्न धर्म मरने के बाद देते हैं.'महापंडित राहुल ने 2500 सालों के इतिहास में आर्थिक बिषमतारहित व शोषण व उत्पीडन-मुक्त समतामूलक समाज के लिए सक्रिय प्रयास करनेवाले चंद लोगों में उस गौतम बुद्ध का नाम बड़ी प्रमुखता से लिया था जिनके धम्म का अनुसरण डॉ.आंबेडकर ने किया था.मानवता की मुक्ति के लिए मार्क्स द्वारा  वैज्ञानिक सूत्र इजाद किये जाने के कई सदियों पूर्व विश्व में एकमात्र वैज्ञानिक धर्म का प्रवर्तन करनेवाले गौतम बुद्ध ने बेबाकी से कहा था,'किसी बात को इसलिए मत मानो कि उसका बहुत से लोग अनुसरण कर रहे  हैं या धर्म-शास्त्रों में लिखा हुआ है अथवा मैं(स्वयं बुद्ध) कह रहा हूँ.आज आंबेडकर के लोग बड़ी तेज़ी से उसी बुद्ध के धम्म की शरण में जा रहे हैं जिस बुद्ध ने इस दुनिया को को स्वर्ग से भी सुन्दर बनाने का वैज्ञानिक उपाय सुझाया था.आज आंबेडकर के साथ जिस तरह मार्क्सवादी बुद्ध को भी खारिज करने का उपक्रम चला रहे हैं उससे लगता है वे आंबेडकर के लोगों को उन धर्मों की पनाह में ले जाना चाहते जो मरणोपरांत स्वर्ग का सुख मुहैया कराते हैं.ऐसे में अगर मैं यह कहूं कि  मार्क्सवादी छुपे ब्राह्मणवादी हैं तो क्या यह गलत होगा?

6-डॉ.आंबेडकर ने जिस तरह हिंदुत्व के दर्शन को मानवता विरोधी करार देने के साथ ही 'हिदू-धर्म की पहेलियां'लिख कर  किसी धर्म की  धज्जी उड़ाई वह धर्म-द्रोह के इतिहास की बेनजीर घटना है.किन्तु पेरियार ने जिस तरह सार्वजनिक रूप से हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को झाड़ू और जूते से पिटने का अभ्यास बनाया उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.इन्ही के पद चिन्हों पर चलते हुए कांशीराम ने शोषण के यंत्र हिंदू धर्म-शास्त्र और देवी-देवताओं के खिलाफ ऐसा अभियान चलाया कि लोग घरों से  देवी-देवताओं की  तस्वीरें निकाल कर नदी तालाबों में डुबोने लगे.किन्तु जिस तरह अम्बेडकरवाद से प्रेरित होकर लोग धर्म से विमुक्त होना शुरू किये,वह काम भारत में मार्क्सवाद न कर सका .आज अम्बेडकरवाद से प्रेरित होकर जिस  तरह दलित साहित्यकारों ने लोगों को दैविक गुलामी (divine-slavery)से मुक्त करने के लिए कलम को तलवार के रूप में इस्तेमाल करने की मुहीम छेड़ा है उसके सामने भारत के गैर-आंबेडकरवादी साहित्यकार शिशु लगते हैं.इस मोर्चे पर अम्बेकर्वादियों का मुकाबला कर सकते थे मार्क्सवादी.पर,मार्क्सवादी तो शिशु ही दीखते हैं.इसका खास कारण यह है कि भारत के मार्क्सवादियों ने सिर्फ स्लोगन दिया –धर्म अफीम हैं.किन्तु लोगों को दैविक-दासत्व से मुक्त करने का आंबेडकरवादियों जैसा प्रयास बिलकुल ही नहीं किया.इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे मार्क्सवादियों के गढ़ बंगाल की  याद आ रही है .बंगाल की  राजधानी कोलकाता में प्रवेश करने के दौरान जब भी ट्रेनें दक्षिणेश्वर के सामने से गुजरती हैं,प्रायः सभी बंगाली यात्रियों  का सर माँ काली की श्रद्धा में झुक जाता है.पारलौकिक शक्ति में परम विश्वास के कारण बंगाली,जिनकी दूसरी पहचान मार्क्सवादी के रूप में है,जिस मात्रा में अंगुलियों में रत्न धारण करते हैं,वह अन्यत्र दुर्लभ है.इन सब त्रासदियों के लिए कोई जिम्मेवार है तो मार्क्सवादी.उन्होंने धर्म अफीम है का डायलाग मारने के सिवाय कुछ किया ही नहीं.ऐसे में दैविक-दासत्व से मुक्ति के मोर्चे पर मार्क्सवादियों की  शोचनीय दशा देखते हुए क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वे बेसिकली ब्राह्मणवादी हैं?

तो मित्रों आज इतना ही.फिर मिलते है कुछ और शंकाओं के साथ.

दिनांक:26अप्रैल,2013        


No comments:

Post a Comment