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Wednesday, April 20, 2011

Fwd: माओवाद की जड़ जबरा मारे रोने न दे में




-- माओवाद की जड़ जबरा मारे रोने न दे में

आन्ध्र प्रदेश का उत्तरी भाग, छ्त्तीसगढ़, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल का
संथाल परगना.  खनिज सम्पदा से भरपूर. घने जंगलों से परिपूर्ण महाकान्तार.
शबर या आर्यों एवं द्रविड़ों  उच्छेदित आदिवासियों की भूमि. खनिज सम्पदा
की विपुलता का अभिशाप भोगते रत्नगर्भा धरती के अभागे लाल. गौंड और
सन्थाल.
    जमीन छीन ली गयी, भूदास बना दिये गये. सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न
की इन्तिहा हो गयी. किसी भी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली. उनके लिए
प्रस्तावित विकास योजनाओं को नेता, अफसर और माफिया डकार गये. जिस तरह
आव्रजकों और राजस्व अधिकारियों की दुरभिसंधि से हमारी तराई के थारू और
बोक्सओं की जमीन पर लगातार बड़े फार्म स्थापित  हुए उसी तरह इनकी भूमि पर
भी बडे जोतदारों और खनिज मफिया का कब्जा होता चला गया. सरकारों ने समस्या
की तह में जाने की अपेक्षा प्रभावशाली लोगों के हितों की रक्षा के लिए
दमन चक्र चलाया. समस्या बिगडती चली गयी. उनके विरोध प्रदर्शन को ही नहीं,
व्यक्तिगत रूप से उन के दुखों को कम करने का प्रयास करने वाले  विनायक
सेन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह का अभियोग जड़ दिया गया.
आदिवासी गुर्गो द्वारा आदिवासियों को मरवाने के लिए सलवा जुडूम जैसे
हथकंडे अपनाये गये.
  जो समस्या पूरी निष्ठा से आदिवासियों के विकास और उन्हें  अपनी भूमि
से उजाड़्ने से पहले उनके पुनर्वास से दूर की जा सकती थी वह अनावश्यक  बल
प्रयोग से तथाकथित माओवाद  या करो या  मरो में ढल गयी.
      वर्षों पहले खुर्पाताल में  लोहिया जी के शिविर में भाग लेने का
अवसर मिला था.   जब भी जनता के किसी उग्र विद्रोह का समाचार सुनता हूं,
उनका यह कथन याद आ जाता है कि 'कम्युनिज्म का कीड़ा कांग्रेस की कूड़े
में पैदा होता है'. दूसरे शब्दों में शासन व्यवस्था  की अन्धेरगर्दी
सशस्त्र विद्रोह को जन्म देती है.
   आखिर कब तक लोग जबरा मारे रोने न दे को सहन करें.   लाचार हो कर हतो
वा प्राप्स्यसि स्वर्ग: जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम  की मनस्थिति बन जाती
है.  कहीं भगवान कॄष्ण भी माओवादी तो नहीं थे?.

nirmaltara



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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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