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Thursday, June 25, 2015

हिंदू राष्ट्र के फर्जी लोकतंत्र के किस्से में आपातकाल का मतलब क्या है? अब मत चुको चौहान कि दूध का दूध और पानी का पानी साफ साफ है! पलाश विश्वास

हिंदू राष्ट्र के फर्जी लोकतंत्र के किस्से में आपातकाल का मतलब क्या है?

अब मत चुको चौहान कि दूध का दूध और पानी का पानी साफ साफ है!

पलाश विश्वास

बंगाल की भुखमरी जारी है।


लोक में कहे बिना बात कोई जमती नहीं है।वैसे भी तंत्र मंत्र यंत्र के तिलिस्म में दिमाग का दही है।हम पहले ही लिख चुके हैं कि अनाड़ी हलवाहा तो जमीन की फजीहत।


कृपया इसे स्त्रीविरोधी मंतव्य न समझें।


हमने हउ की बात नहीं की है और जो ससुरा एकच ब्रह्मचारी और चार चार नारी से घिरा हुआ मौनी बाबा हुआ करे हैं,जो एसे मर्यादा पुरुषोत्तम ह के सीता मइया को वनवास दे दिहल।उनके खातिर कोई मर्दों के लायक मंतव्य हम कर भी न सकत।


आपातकाल की बरसी मनाने के मूड में हम तनिको न हैं क्योंकि हमारे हिसाब से इस देश के जल जंगल जमीन हवा पानी दरख्त नदी पहाड़ समुंदर के लिए आपातकाल आपातकाल की घोषणा होने से पहले से जारी है और आपातकाल खत्म होने की घोषणा के बाद भी जारी है।


सुबह सुबह इस मसले पर लिखने का मन बनाकर बइठल बा के फेसबुक वाल पर यशवंत का स्टेटस देख दिमाग गड़बड़ा गया।ताजा जवान पट्ठा है।


हम मानते हैं कि मीडिया में उत्पीड़ित शोषित अपमानित तबका जो है,नौकरी में उनकी भूमिका जो कूकूरगति की है,वे मेहनतकश पुरखों की जड़ों को टटोलें तो अजब गजब हो जाये।


मीडिया में जो जहर का कारोबार है,वही यह उपभोक्ता संस्कृति है और वही है मुक्तबाजार का असल तामझाम कि सुंदरियों और आइकन और आइटम का सारा तानाबाना जो मुक्तबाजार का है,वह कारपोरेट मीडिया की पैदावर है।जो दस दिगंत धर्म अधर्म का जनसंहारी कारोबार है,वह भी मीडिया का काला धंधा है।


हम लोग सत्तर के दशक से वैकल्पिक मीडिया के लिए लगातार सक्रिय हैं।


आनंदस्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट,वीरेन डंगवाल और हमारे अग्रज तमाम लोगों ने जमीन आसमान एक करके कारपोरेट मीडिया के मुकाबले हम लोगों को खड़ा करने का करतब कर दिखाया है।


अब हम इस जुगत में हैं कि सोशल मीडिया से लेकर तथाकथित मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया के तमाम ईमानदार साथियों को लामबंद कर दिया जाये।


यशवंत हमारी तरह आर्थिक सामाजिक राजनीतिक मुद्दों को संबोधित नहीं करता।लोकिन इन मुद्दों का गुड़गोबर करने वाले खिलाड़ियों के खिलाफ उसकी भड़ास बेहद काम की है।यशवंत के कारण हम अपनी बिरादरी को संबोधित कर सकते हैं।


भड़ास का काम अलग है तो हस्तक्षेप का काम अलग।


हम परस्परविरोधी नहीं


को हम जनसुनवाई का मच बनाना चाहते हैं हर भारतीय भाषा में तो मीडिया के काले धंधे से चालू कारपोरेट केसरिया सत्तावर्ग का सीधा पर्दाफाश है भड़ास का काम।


इसलिए यशवंत के सर्पदंश के शिकार हो जाने से थोड़ी घबड़ाहट हुई।अब वह जहर के असर से मुक्त है और अस्पताल से उसे छुट्टी भी मिल गयी है।


महाजिन्न के मन में अडानी और अंबानी के सिवाय कौन कौन हैं,इंडियाइंक को भी नहीं मालूम।


देश के मौजूदा केसरिया सत्ता पर संघ परिवारे पुराने तमामो सेवक आपातकाल का तमगा लगा चुके हैं और फिरभी मंकी बातें सुनने से बाज नहीं आ रहे हैं।


अंध भक्तवृंद तो समझ लें कि उनके तार कहां कहां जुड़े हैं।


बेतार जो जनता हैं,जो बहुसंख्य हैं,बहिस्कृत हैं,अस्पृश्य हैं गैरनस्ली हैं,उनके लिए दूध का दूध और पानी का पानी है।


वैदिकी संस्कृति की विरासत की बरखा बहार हुई गइलन।

उनके महाभारत के शतरंज के पांसे हम उलट पुलट देख रहे हैं।


सड़कों पर उनकी अलमारियां खुल रही हैं धकाधक और सारे के सारे नरकंकाल बाहर आ रहिस।


अब न आपातकाल से डरने की जरुरत है और न फासीवाद का खतरा चिल्लाने की गुंजाइश कोई है।


चोर हमेशा भरमाता है चोर चोर जोरे से चिल्लाये हैं,चोरों का जिन जिने पीछा किया है,वे खूब जाने हैं।


आपातकाल को लेकर जो खूब पादे हैं देहली से नागपुर और नागपुर से वाशिंगटन तक वे तमामो आदरणीय महामहियअसल में ललित मोदी आईपीएल में चियारिये या चियारिनें हैं।


मुक्तबाजार के हक में मेहनतकशों के हक हकूक में संसदीय थाली और थैली में साझेदार लोग क्या बोल रहे हैं ,हमें इससे कोई मतलब नहीं है।


डर का हव्वा जो खड़ा कर दिया है,वह इस सैन्य राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र की असलियत है।


आपातकाल के खिलाफ  बोल बोलकर महाजिन्न की ताकत न बढ़ायें न जश्न मनायें आपातकाल ख्तम होने का।


आपातकाल कहां खत्म हुआ जी,कृपया बताइये।


जिनने न पढ़ा हो,जार्ज बर्नार्ड शाह के मशहूर नाटक एप्पिल कर्ट जरुर पढ़ लीजिये।

इसी नाटक की 32 पेज की प्रस्तावना में लोकतंत्र की मशहूर परिभाषा हैः जनता के लिए,जनता द्वारा और जनता का।


इस लोकतंत्र की असलियत शा ने खोली है नाटक में।राजनेता को वे डैमोगाग कहते हैं जो इस वक्त तमाम बगुला संप्रदाय आइडियोलाग है।


शा ने चेताया है कि लोकतंत्र आखेर धन तंत्र है।

डेमोक्रेसी आखेर आटोक्रेसी है।

विशुद्ध धनतंत्र।

बाहुबली धनपशुओं का रामराज है यह लोकतंत्र।


लोकतंत्र के नाम यह केसरिया कारपोरेट राज वही आटोक्रेसी है।


हम इन दिनों जिंदगी पर पाकिस्तानी सीरियल देख रहे हैं इस गरज से कि मुसलमानों की जिंदगी कैसी है,उनके रीति रिवाज,अदब कायदे क्या है और पाकिस्तान में लोग हम लोगों से कितने अलहदा है क्योंकि इस देश में मुसलमानों के बारे में अजब गजब घृणा अभियान हैं।


हम जानते हैं कि पाकिस्तान के आभिजातों के पास पैसे हमारे आभिजातों से कम नहीं है।इसीतरह बांगालदेश या नेपाल या श्रीलंका में देखें तो लोकतंत्र हो या न हो,सत्ता वर्ग के ऐशो आराम तामझाम में हमारे कुलीन वर्चस्ववादी माइक्रो माइनारिटी गोरों के मुकाबले कोई कमी नहीं है।


जैसे हम पड़ोसी देशों के बहुसंख्य जनगण के बारे में कुछ भी नहीं जानते ,वैसे ही हम अपने हैव नाट स्वजनों के बारे में,अपनी जड़ों के बारे में तेजी से पनपते सीमेंट के जंगल में कुछ भी नहीं जानते।


मीडिया,कला, साहित्य और साहित्य में जनता लेकिन कहीं नहीं है।कहीं भी नहीं है।


पाकिस्तान,श्रीलंका,बांग्लादेश या नेपाल,यहां तक कि अफगानिस्तान में जो लोकतंत्र हो सकता है,उससे बेहतर कोई लोकतंत्र हमारे यहां नहीं है।


लोकतंत्र न हो तो आपातकाल हो या न हो,इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।


वैश्विक जो बंदोबस्त है मुक्तबाजार का,वह ज्वालामुखी के मुहाने पर विस्थापित मनुष्यता का किस्सा है।


अमेरिका और यूरोप से लेकर चीन तक जो विकास की हरिकथा अनंत है,वह वर्ग वर्ण संपन्नता है,इसके सिवाय बाकी जनता बुनियादी जरुरतों के लिए मोहताज है और वह न नागरिक है और न उसके कोई नागरिक मानवाधिकार है।


जल जंगल जमीन से बेदखली के लिए जो सलवाजुड़ुम निर्बाध है अबाध पूंजी प्रवाह की तरह,उस सैन्यतंत्र की तुलना वियतमनाम और इराक युद्धों से कम विभीषिका नहीं है,जो निरंतर जारी है।


आदिवासी भूगोल और गैरनस्ली हिमालयी जनता का जो दमन है,जो अविराम आपदा धुंआधार रचनाकर्म है,वहां लोकतंत्र और कानून का राज कहां है।


संविधान भी पवित्र धर्म ग्रंथ जैसा कुछ हो गया है।

धर्मग्रंथों में जो धर्म लिखा है,प्रवचन में जो धर्म है,धर्मोन्माद जिस धर्म के लिए है,वह दरअसल अब अधर्म है।


संघ परिवार कैसा हिंदू राष्ट्र बना रहा है,महाजिन्न के राजकाज में उसका रोजाना खुलासा हो रहा है।


वैदिकी हिंसा की शास्वत विशुद्धता के अश्वमेध निर्मम अमानवीय के अलावा जगत मिथ्या है और मनुस्मृति अनुशासन सत्ता के वर्गीयवर्णीय शासन का पुरुषार्थ है।


नियतिःसारे जघन्य मनुष्यता विरोधी युद्ध अपराध मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम।

कर्मफलः बांझ नपुंसक समय यह।


रामराज का अंखड प्रताप है कि संघ परिवार अपराध साबित होने के बावजूद अपने अपराधियों के बचाव में है।


कोई सबूत काफी नहीं है न्याय के लिए,ऐसी है न्याय प्रणाली।


कोई अपराध नहीं है साबित करने को,लेकिन पुरखे हमारे अपराधी हैं और हम भी राजकाज के सुसासन में बिना अपराध किये अपराधी हैं,ऐसा श्वेत साम्राज्यवाद है अश्वेतों के विरुद्ध जो दरअसल बहुसंख्य जनगण है और राजनीति जिन्हें ढोर डंगर मानती है और जो जैसा हांक लें,वैसे जनता की भी भेड़चाल है।


समता और न्याय के सारे सिद्धांत राजनीति के कारोबार के नोट हैं ,जब चाहे तब भुना लें।खरीद की सारी ताकत लेकिन उनकी हैं और खरीददार भ वे ही हैं।यही समरसता है।


हमारे हिस्से में बाबाजी का ठुल्लु।

हमारे लिए कानून का रास्ता अलग है।


हिंदू राष्ट्र के धर्माधिकारी,धर्मात्मा बजरंगी सिपाहसालारों के लिए कानून अलग है।


मर्यादा पुरुषोत्तम के भेष में महाजिन्न है कारपोरेट राज का नरसंहारी युद्धअपराधी और आप उससे नैतिकता की उम्मीद लगाये बैंठे हैं।



जो काले दिनों के सौदागर हैं,जो जमीन पर आग बोते हैं और पानी में जहर घोलते हैं,उनके इस लोकतंत्र के झांसे में हम नपुंसकों के मुकाबले नपुंसक बांझ है।


असल में आपातकाल यही है।


जुबान पर फिरभी लग नहीं सकता ताला और इंसानियत का किस्सा कभी होता नहीं खत्म।कायनात पर जुल्मोसितम के नतीजे भी भयंकर होते हैं।कोई फरेब सच को छुपा सकता नहीं है।



सच का खुलासा होने लगा है।

झूठ अंधेरे के तार तोड़कर सहर होते वक्त के सिलसिले के मुकाबले बेनकाब होने लगा है।यह तिलिस्म अब टूटने ही वाला है।


जनता के लिए आपातकाल नहीं है यह समझ लीजिये।

आपातकाल है वर्गीय वर्णीय शासन का।

आपातकाल है सेन्यतंत्र के इस हिंदू राष्ट्र का।


कृपया आपातकाल का रोना धोना करें बंद और देश जोड़ने जनता को फासिज्म के राजकाज के खिलाफ लामबंद करने के लिए कुछ कीजिये।


निंदा और विरोध,फतवे और सेमीनार का सिलसिला तोड़कर जनता को बताइये असलियत।


ताकि देश बेचो ब्रिगेड के देशद्रोहियों के धर्मांध ध्रूवीकरण तोड़कर,अस्मिताओं की दीवारे ढहाकर सचमुच के लोकतंत्र और सचमुच की आजादी की निर्णायक लड़ाई शुरु हो सकें।


मौका है जबर्दस्त।

अब मत चूको चौहान।

The Apple Cart - Project Gutenberg Australia

gutenberg.net.au/ebooks03/0300431h.html

Title: The Apple Cart Author: George Bernard Shaw * A Project Gutenberg of Australia eBook * eBook No.: 0300431h.html Language: English Date first posted: ...

The Apple Cart - Wikipedia, the free encyclopedia

https://en.wikipedia.org/wiki/The_Apple_Cart

The Apple Cart: A Political Extravaganza is a 1928 play by George Bernard Shaw. It is satirical comedy about several political philosophies which are ...

[PDF]2012 PREFACE TO G.B. SHAW'S "THE APPLE CART" By ...

www.shawsociety.org.uk/WINNER%202012%20(Preface%20to%20The...

believing that Bernard Shaw, who had an opinion on everything and who let ... 1929 play "The Apple Cart" I fantasized that in a Britain some forty years hence a ...

The Apple Cart by author George Bernard Shaw- Free ...

www.bookchums.com › Books › Free ebooks

Mar 30, 2012 - The Apple Cart is written by George Bernard Shaw. You can download The Apple Cart eBook at Bookchums.com for Freet in PDF format.

George Bernard Shaw - eBooks in PDF format from eBooks ...

www.ebooks-library.com/author.cfm/authorid/291

50+ items - eBooks-Library publishes George Bernard Shaw and other ...

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Title/Sub-Title

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EGBS006

Androcles and the Lion [Play]

1912

128

EGBS034

The Apple Cart [Play]

1930

95

[PDF]The Apple Cart - KDC Theatre

www.kdctheatre.com/wp-content/.../The-Apple-Cart-Audition-Notice.pdf

by GB Shaw - ‎Cited by 12 - ‎Related articles

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