अपने गांवों को तुम जानो.10
लेखक : उमा भट्ट :
त्रासदी का गाँव: किमाणा
यही केदार घाटी है, मन्दाकिनी किनारे। 2013 की आपदा की शिकार। आपदा में 17 व्यक्ति अभी तक लापता हैं इसी घाटी के किमाणा गाँव से। सर्वाधिक नुकसान सामने लम्बगोटी गाँव में हुआ है।
19 जून 2014 की सन्ध्या में हमारे यात्रीदल के सदस्य किमाणा से नीचे सड़क में गाड़ी से उतरे। हमारे बुजुर्गवार साथी शशिभूषण जोशी का यहाँ स्थायी रूप से एक कमरा है। वे अपने काम के बारे में ज्यादा जिक्र नहीं करना चाहते। कुछ लोग चुपचाप काम करते हैं। वे उन्हीं में से हैं लेकिन आभास होता है कि वे यहाँ बच्चों की शिक्षा और महिलाओं की जागरूकता के लिए काम करते हैं। उन्होंने रास्ते से ही किमाणा गाँव की बहिनों से फोन पर बात कर ली थी कि हम लोग वहाँ गाँव में आना चाहते हैं और आप लोगों से बातें करना चाहते हैं। गाँव सड़क के ऊपर है। हम गाँव को जाने वाले रास्ते के निकट प्रतीक्षा करने लगे। रुनझुन वर्षा भी हो रही थी। तभी देखते क्या हैं कि ऊपर चढ़ाई से काफी महिलाएं नीचे को उतर रही हैं। हमने समझा, यहीं कहीं सड़क के आस-पास बैठक की जायेगी। लेकिन वे सब हमें लेने आ रही थीं। हँसी-खुशी से सबसे भेंट-मुलाकात हुई और हम सब उन बहिनों के पीछे-पीछे चले। वे चाहतीं तो हमें फोन पर ही ऊपर गाँव में आने का सन्देश दे सकती थीं। पर वे स्वयं लेने आईं। काफी चढ़ाई थी। चढ़ाई के बाद हम दाईं ओर को तिरछा-तिरछा चले। अन्ततः गाँव के बीच में एक आंगन में पहुँचे। आंगन में दरियाँ बिछीं थीं, चारों ओर कुर्सियाँ लगी थीं। पहुँचते ही फूलमालाएं पहनाईं गईं सबको। फिर पिठाईं लगाई गई और उसके बाद जो हुआ, वह और भी चौंकाने वाला था। सबको दक्षिणा दी गई लिफाफों में रखकर।
हमारी इन बहिनों ने जो आपदा में अपने गाँव के सत्रह पुरुषों को खो चुकीं थीं, हमारे स्वागत-सत्कार में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उनके लिए कौन थे हम? पहली बार उनके गाँव में आये थे। आपदा में भी हममें से कोई उनकी खोज-खबर लेने नहीं आया था। हाँ, शशिभूषण जोशी जी जरूर उनके अपने थे। उन्हीं की वजह से यह स्नेह हमें मिल रहा था। हमें यह भी आश्चर्य हो रहा था कि इस औपचारिकता में कोई पुरुष उनके साथ नहीं था। कुछ लोग इधर-उधर बैठे थे, दूर से देख रहे थे लेकिन आयोजन में महिलाएं ही तत्पर थीं। फिर चाय आ गई। तब जाकर कहीं सभा शुरू हुई।
जिला रुद्रप्रयाग का यह गाँव उखीमठ तहसील में हैं। जिला मुख्यालय से 40 किमी की दूरी पर तथा तहसील मुख्यालय से 3 किमी की दूरी पर है। लगभग 90 परिवारों वाले गाँव की जनसंख्या 600 के आसपास है। ब्राह्मण और राजपूत बाशिन्दों की संख्या यहाँ आधी-आधी होगी। लगभग 30-35 जन यहाँ सेना की नौकरी में होंगे। कुछ अध्यापन तथा अन्य नौकरियों में। बाकी अधिकांश जन केदारनाथ यात्रा से जुड़े रोजगारों में लगे हुए थे। यह नदी किनारे का गाँव नहीं है, कुछ ऊँचाई पर, लगभग पहाड़ के कन्धे पर बसा हुआ है। जमीन भी उपराऊ है। खेती-पाती की दृष्टि से किमाणा समृद्ध गाँव नहीं है। महिलाएं कहती हैं- हमारा मुख्य रोजगार चला गया। अब हम क्या करें। लोग केदारनाथ गये थे, पुजारी, होटल वाले, होटलों में काम करने वाले, सामान ढोने वाले, दुकानदार, केवल चाय की दुकान वाले- कई तरह के रोजगार थे गौरी कुण्ड से केदारनाथ तक। रोजगार भी गया और हमारे लोग भी गये- हर उम्र के। खेती में बन्दरों, सुअरों से कुछ बचता नहीं। धान, गेहूँ, मडुआ मुख्य फसलें हैं यहाँ की। देशी नस्ल के पशु पालते हैं लोग। नारंगी, माल्टा आदि खट्टे फलों का बाहुल्य है लेकिन ये फल अब सूख रहे हैं। पूरे यात्रा पथ में जहाँ-जहाँ ये फल हैं, सभी जगह इनके सूखने की शिकायत थी। इस ओर ध्यान देना जरूरी है व इस पर शोध करना भी कि क्यों ऐसा हो रहा है।
देवरियाताल के नीचे पिङवापानी से 12 किमी लम्बी पाइपलाइन से गाँव में पानी आता है। रखरखाव की कमी से पानी की सुचारु व्यवस्था नहीं है। शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए क्रमशः उखीमठ, अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग और श्रीनगर जाना होता है। उखीमठ के अंग्रेजी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा के लिए यहाँ से बच्चे जाते हैं हालांकि गाँव में प्रायमरी पाठशाला है। गाँव में जिलाधिकारी, परगनाधिकारी तो आते ही हैं, विधायक शैलारानी रावत भी आईं हैं। अलबत्ता सांसद को नहीं देखा गया गाँव में। गाँव में शराब का आतंक है। उखीमठ में दारू की भट्टी में धरना दिया था तो भट्टी टूट गई थी लेकिन फिर खुल गई है। गाँव में विकास के साधन नहीं हैं। केदारनाथ यात्रा से रोजगार था पर 2013 की आपदा के बाद डरे हुए हैं लोग। केदारनाथ में रोजगार के लिए ऋण भी लिया था लोगों ने।
जब हमारी सभा हो रही थी तो तीन युवा महिलाएं सामने बैठीं थीं, जिनके पति केदारनाथ से नहीं लौटे थे। हमारे साथी ऐसी महिलाओं के लिए विधवा शब्द का प्रयोग करने से नहीं हिचकते जबकि औरत की असहायता को व्यक्त करता हुआ यह शब्द एक प्रहार की तरह लगता है। कुछ शब्द अब व्यवहार से हटा दिये जाने चाहिए। शशिभूषण जोशी जी आपदा या एकल महिलाओं पर बातचीत नहीं करना चाहते थे- दिल दु:खाने वाली बात थी, हम लोग कुछ कर सकने वाले तो थे नहीं, पर बार-बार जिक्र आ जाता था। उस आपदाग्रस्त गाँव में जब पूछा गया कि यहाँ की प्रचलित बीमारियाँ क्या-क्या हैं तो उत्तर मिला- दुर्घटनाएं ही यहाँ मुख्य बीमारी है। विकास हो रहा है लेकिन वही विनाश का सबब भी बन रहा है। 2013 में आपदा आई लेकिन आपदा यहाँ निरन्तर है, उससे पहले भी और बाद में भी, हमेशा आशंका से घिरे ही हैं लोग।
चौदह साल के नये राज्य के अनुभवों से लोग निराश हैं। उत्तर प्रदेश से कुछ अलग ढंग दिखाई नहीं देता। 1994 में सारा गाँव आन्दोलन में था। कई लोग जेल गये। उखीमठ से एक व्यक्ति शहीद भी हुआ था। गाँव में युवक मंगल दल तथा महिला मंगल दल बने हैं, इसलिए जागरूकता भी है। महिलाओं की जागरूकता तो हम देख ही रहे थे। जंगलों के रखरखाव में महिलाएं बहुत सक्रिय हैं, ऐसा गाँव के पुरुषों का कहना था। महिलाओं के लिए काम बहुत ज्यादा है, उस हिसाब से खाना-पीना नहीं है। प्रसव के तुरन्त बाद से भारी काम करने से बच्चेदानी बाहर निकलने की परेशानी यहाँ भी है। यह शिकायत सब जगह हमने सुनी। महिलाओं की जागरूकता अपने जल, जंगल, जमीन के प्रति अधिक है, अपने स्वास्थ्य के प्रति नहीं। यह तभी हो सकती है, जब पुरुष वर्ग इस ओर ध्यान दे और सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाएं अपलब्ध हों। सिर्फ महिलाओं के जागरूक होने से महिलाओं की स्थिति में सुधार होना कठिन है। हालांकि सेव द चिल्ड्रन, एटीआई आदि गैर सरकारी संस्थाएं यहाँ भी काम कर रहीं हैं। गाँव में लोगों ने स्वीकार किया कि यहाँ सब गढ़वाली बोलते हैं, बूढ़े भी और बच्चे भी।
हम यहाँ देर शाम को पहुँचे। और थोड़ी ही देर में अंधेरा हो गया। वर्षा भी आ गई बहुत तेजी से हमारे स्वागत में। अंधेरे में ही देर से हम किमाणा से उखीमठ को चले गये तो गाँव पूरा देख नहीं पाये पर बहुत सम्पन्नता नहीं थी। घर छोटे-छोटे थे। आगे आंगन जरूर थे। बहुत खुला-सा गाँव नहीं था। उदासी का माहौल भी था। पुरुष उस बैठक में नहीं आये जो आंगन में हुई और जो अन्दर कमरों में खाना बनाते या खाते वक्त हुईं। लेकिन हमने कुछ से बातें करने का अवसर निकाल ही लिया। गाँव में पुरुषों की संख्या कम होगी तब भी महिलाओं में किसी प्रकार का संकोच क्यों नहीं था ? क्यों वे हमारे लिए लगी हुईं थीं ?
किमाणा से हमें उखीमठ जाकर भारत सेवा संघ में रहना था। यह इमारत अलग से दिखाई देती है, दूर से, पहाड़ के कोने पर बनी हुई। देखकर लगता है, अब गिरी, तब गिरी। हमें भोजन भी वहीं करना था पर सूचना मिली कि वहाँ भोजन की व्यवस्था नहीं हो पायेगी। किमाणा की बहिनों को जब पता चला तो उन्होंने तनिक भी विलम्ब किये बिना निश्चित कर दिया कि यहीं से भोजन करके आप लोग जाओगे। पूरे गाँव की महिलाओं ने मिलजुल कर व्यवस्था की। जिसके बच्चे छोटे थे या घर में सास-ससुर वृद्ध थे, उन्हें घर भेज दिया गया। जो रुक सकती थीं, उन्होंने दो-तीन घरों में खाना बनाने की व्यवस्था की। कहीं दाल बनी, कहीं सब्जी तो कहीं रोटियाँ। काम के साथ-साथ हँसी-मजाक, गीत-भाग भी चलते रहे। हमारे साथी अखिल ने भी गीत सुनाये। कई साथी रसोई में ही बैठ गये थे।
भोजन के बाद बहिनों से विदा लेकर र्च की रोशनी में पीठ में अपना-अपना सामान लादे, सधे, अनुशासित कदमों से एक के पीछे एक हम यात्री गाँव से उतरे और सड़क-सड़क चलकर उखीमठ से एक किमी पहले भारत सेवा संघ के भवन में एक रात के लिए अपना डेरा डाल दिया। अगली सुबह फिर प्रस्थान होगा नये पड़ाव के लिए। (जारी है)
http://www.nainitalsamachar.com/know-thy-village-aaa-2014-10/
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