Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Saturday, March 23, 2013

मार्क्सवादियों को योग्य जवाब देने के लिए हमारी अपील हिंदू-साम्राज्यवाद की ढाल:मार्क्सवादी

              

           मार्क्सवादियों को योग्य जवाब देने के लिए हमारी अपील  

           हिंदू-साम्राज्यवाद की ढाल:मार्क्सवादी

               (क्या मार्क्सवादियों के साथ मिलकर काम करना संभव है!)  

मित्रों !गत 12-15 मार्च तक चंडीगढ़ के भकना भवन में मार्क्सवादियों द्वारा जाति विमर्श पर अरविन्द स्मृति संगोष्ठी आयोजित की गई.उस संगोष्ठी  की लगभग 2200 शब्दों में विस्तृत रिपोर्ट-'सबसे बुरा दौर तो अब शुरू हुआ है.अब जब हिंदू राष्ट्र का संकट माथे पर है तब ये आंबेडकर की एक बार फिर हत्या करने की तैयारी में हैं-' शीर्षक से जाने-माने पत्रकार पलाश विश्वास ने अन्य कईयों के साथ मुझे भी मेल किया था.पांच दिनों तक चली उस संगोष्ठी में मार्क्सवादियों ने जाति समस्या और बाबासाहेब डॉ आंबेडकर पर जो टिप्पणियां की है,उससे अवगत कराने व उनका योग्य प्रत्युत्तर देने के लिए ही यह मैटर पोस्ट/मेल कर रहा हूँ.यदि उस संगोष्ठी से निकले निम्न निष्कर्षो पर किसी कों संदेह है तो वे जेएनयू के प्राख्यात प्रोफ़ेसर डॉ.तुलसीराम(मोबाइल-9868249324) के समक्ष अपनी जिज्ञासा रख सकते हैं.संयोग से  डॉ.साहब को पांचवे व आखरी दिन उस संगोष्ठी में संबोधित करने का अवसर मिला था.यह मैटर खासतौर उनके लिए है जो बीच-बीच में मार्क्सवादियों को दलित आन्दोलन का स्वभाविक मित्र बताते हुए आंबेडकर और मार्क्सवाद के मेल की एडवोकेसी करते रहते हैं.तो मित्रों उस संगोष्ठी से पांच दिनों के विचार मंथन के दौरान जो 12 महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं जरा उनपर गौर फरमाइए और अपनी विस्तृत राय दीजिए.

1-आज मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद को मिलाने की बात हो रही है लेकिन वास्तव में इन दोनों विचारधाराओं में बुनियादी अंतर है.मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष के जरिये समाज में से वर्ग विभेदों को मिटाने,मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का अंत करने तथा समाज को वर्गविहीन समाज में ले जाने का रास्ता पेश करता है जबकि अम्बेडकर की राजनीति शोषण-उत्पीडन की बुनियाद पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बनकर इसी व्यवस्था में कुछ सुधारों से आगे नहीं जाती.

2-आज सामंती शक्तियां नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था जाति-प्रथा को जिन्दा रखने के लिए जिम्मेवार है और यह मेहनतकश जनता को बांटने का एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण बन चुकी है.इसलिए यह सोचना गलत है कि पूंजीवाद और औद्योगिक विकास के साथ जाति-व्यवस्था स्वयं समाप्त हो जाएगी.

3 –जाति कभी भी जड़ व्यवस्था नहीं रही,बल्कि उत्पादन संबंधों में बदलाव के साथ इसके स्वरूप और विशेषताओं में बदलाव आता रहा है.अपने उद्भव से लेकर आज तक जाति  विचारधारा शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत आधार रही है.

4 –पूंजीवाद ने जातिगत श्रम विभजन और खानपान की वर्जनाओं को तोड़ दिया है.लेकिन सजातीय विवाह की प्रथा को कायम रखा है,क्योंकि पूंजीवाद से इसका बैर नहीं है.

5 -कहा जा रहा है कि जाति व्यवस्था तथा छुआछूत के विरुद्ध आंबेडकर के अथक संघर्ष से दलितों में नई जागृति आई लेकिन वह दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना नहीं दे सके और आंबेडकर के दार्शनिक ,आर्थिक  राजनीतिक तथा सामाजिक चिंतन से दलित मुक्ति की  कोई राह निकलती नज़र नहीं आती .इसलिए भारत में दलित मुक्ति तथा जाति –व्यवस्था के नाश के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाने के लिए आंबेडकर से आगे बढ़कर रास्ता तलाशना होगा.

6 -आंबेडकर ने जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष चलाया लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि उनके पास दलित –मुक्ति का सही रास्ता भी था.

7 -ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण आंबेडकर उपनिवेशवाद  की साजिश को समझ नहीं पाए.दलित उत्पीडन को लेकर आंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता   

8-समस्या का सही निवारण वही कर सकता है जिसके पास कारण की सही समझ हो .इसका हमें आंबेडकर में अभाव दिखाई देता है.

9 -पहचान की राजनीति जनता के संघर्षो को खण्ड-खण्ड में बांटकर पूंजीवादी व्यवस्था की  ही सेवा करती है.जाति पहचान को बढ़ावा देने की राजनीति ने दलित जातियों और उप जातियों के बीच भ्रातृघाती झगडों को जन्म दिया है.जाति,जेंडर,राष्ट्रीयता आदि विभिन्न अस्मिताओं के शोषण-उत्पीडन को खत्म करने की लड़ाई को साझा दुश्मन पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की ओर मोड़नी होगी और यह काम वर्गीय एकजुटता से ही हो सकता है.

10 -1947 के बाद वाम मोर्चे ने नमोशूद्रों से निकले मतुआ समुदाय शरणार्थियों की मांगो कों उठाया.लेकिन बाद में वाम मोर्चे पर हावी उच्च जातीय भद्रलोक नेतृत्व ने न केवल उनकी उपेक्षा की बल्कि मतुआ जाति का दमन भी किया.पिछले कई इलाकों में वाम मोर्चे की हार का अन्यतम कारण भी बना.

11 -जाति व्यवस्था को सामंती व्यवस्था से जोड़कर देखने से न तो दुश्मन की सही पहचान हो सकती और न ही संघर्ष के सही नारे तय हो सकते हैं.वास्तविकता यह है कि आज भारत में दलितों के शोषण का आधार पूंजीवादी व्यवस्था है.

12- यह सोचना होगा कि दमन-उत्पीडन के खिलाफ दबे हुए लोगों के गुस्से को हम वर्गीय दृष्टिकोण किस तरह से दे सकते हैं.

मित्रों, मेरे ख्याल से जनवरी,2013 में  राजस्थान की राजधानी जयपुर में आयोजित 'जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल' के मुकाबले मार्च,2013 में चंडीगढ़ के भकना भवन से जो सन्देश निकल कर आये हैं वह भारत में बहुजन-मुक्ति तथा समतामूलक समाज निर्माण के लिहाज़ से कई गुना खतरनाक हैं.तब वाम-दुर्ग में जन्मे आशीष नंदी ने दलित-पिछडों कों सर्वधिक भ्रष्टाचारी बता कर बहुजन समाज के चरित्र पर सवाल उठाया था जिस पर आपके तरफ से तीखी प्रतिक्रिया आई थी और मैंने भी चार लेख लिखे थे.किन्तु जयपुर के मुकाबले चंडीगढ़ का मामला इसलिए बेहद गंभीर है कि यहाँ से बहुजन-मुक्ति के वैचारिक आधार कों ध्वस्त करने का बौद्धिक-दुसाहस किया गया है.इसलिए मेरा मनाना है कि आप पर ज्यादा बड़ी जिम्मेवारी आन पड़ी है.इसलिए मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि चंडीगढ़ से जो प्रमुख 12 टिप्पणियां  सामने आईं हैं,उन्हें 12 प्रश्न मानकर आप उनका विस्तृत जवाब दें और मुमकिन हो तो लेख भी लिखें.आपका प्रश्नोत्तर और लेख आगामी 27 अगस्त,2o13 कों 'बहुजन डाइवर्सिटी मिशन' द्वारा आयोजित होनवाले 8 वें 'डाइवर्सिटी डे'के दिन पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जायेगा.

हां मित्रों ,आपने सही अंदाज़ लगाया मैं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी  के उपरोक्त निष्कर्षों पर किताब निकालने जा रहा हूँ ,जिसमें आपके उत्तर और लेख भी शामिल किये जायेंगे.वैसे बता दूं कि 2005 में मैंने डाइवर्सिटी के मुद्दे पर मार्क्सवादियों से संवाद करने के लिए एक पुस्तक लिखा था ,जिसका नाम था-'हिंदू साम्राज्यवाद के वंचितों की मुक्ति का घोषणापत्र:डाइवर्सिटी (मार्क्सवादियों से एक संवाद)'.पर, 2013 में हिंदू साम्राज्यवाद के सबसे बड़े पोषक मार्क्सवादियों ने जिस तरह सर्वस्वहाराओं के मसीहा डॉ.आंबेडकर के खिलाफ विष-वमन किया है,उससे एक बार फिर इनका जवाब देना जरुरी हो जाता है.एक एकनिष्ठ अम्बेडकरवादी होने के नाते यदि उपरोक्त टिप्पणियों से आप भी आहत हैं तो आप प्रत्युत्तर लिख भेंजे.उसे किताब में शामिल किया जायेगा.आपका जवाब एक महीने के अंदर मेरे email: hl.dusadh @gmail.com पर आ जाना चाहिए.वैसे यह अपील पाने के साथ-साथ आप उत्तर लिखना शुरू करते हैं तो जवाब स्वभाविक और बेहतर बन सकता है.ज्यादा सोचेंगे तो वह कृत्रिम और बोझिल हो सकता है.तो लिख मारिये हिंदू साम्राज्यवादियों को अपना जवाब.आप लिखते समय चाहें तो मेरे निम्न अनुभव का लाभ उठा सकते हैं.

मित्रों !मेरा विश्वास  है कि 33 वर्ष बंगाल में रहने तथा हिंदू साम्राज्यवाद से मूलनिवासी बहुजनों की मुक्ति के लिए 50 से अधिक किताबें लिखने के कारण मैं मार्क्सवादियों के चरित्र को बेहतर जानता हूँ.हिंदू साम्राज्यवाद के दूसरे पोषको-गाँधीवादी और राष्ट्रवादियों- की तुलना में बहुजन मुक्ति की राह में मार्क्सवादी ज्यादा बड़ी बाधा हैं.हिंदू साम्राज्यवाद के जन्मजात वंचितों को जो शोषण-उत्पीडन का सामना करना पड़ा है,उससे राष्ट्रवादी और गांधीवादियों में कुछ प्रायश्चितबोध है,पर,मार्क्सवादी...  कांशीराम साहब ने कहा है- 'मुझे आडवाणी से अपने लोगों को बचाने के लिए ज्यादे मेहनत नहीं करनी पड़ती.क्योंकि अडवाणी काला नाग हैं,जिसे देखकर हमारे लोग सावधान हो जाते हैं.हमें तो हरे पत्तों वाले सापों से चिंता होती है..'जिन सापों  से मान्यवर सचेत करते रहे वे यही मार्क्सवादी हैं जो हिंदू साम्रज्यवाद से ध्यान हटाने के लिए ब्रितानी से लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद  का हौव्वा खड़ा करते रहे है.हमारे जिन बहुजन नायकों-फुले,शाहूजी,पेरियार,बाबासाहेब आंबेडकर,सर छोटूराम,ललई सिंह यादव,रामस्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद,कांशीराम इत्यादि- ने हिंदू साम्राज्यवाद से बहुजनों को लिबरेट करने का अभियान चलाया ,मार्क्सवादियों ने उनकी कोई इज्ज़त नहीं की.बाबासाहेब को तो ये ब्रिटिश डॉग कहते रहे.ऐसे में मित्रों यदि बहुजन मुक्ति की आपमें चाह  है तो हिंदू साम्राज्यवाद के सबसे बड़े संरक्षक मार्क्सवादियों को एक्सपोज करना आपका अत्याज्य कर्तव्य है.हालाँकि इनसे लड़ाई करना कठिन है,कारण,इन्होंने जेएनयू जैसे शिक्षण संसथान से लेकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया तक में गहरी पैठ बना लिया है.पर,चूँकि इनके इरादे कुत्सित तथा लक्ष्य भारत के जन्मजात शोषकों(सवर्णों)का हितपोषण है इसलिए थोड़ी सी बौद्धिक कवायद के द्वारा ही इनको ध्वस्त किया जा सकता है.इसके लिए सबसे पहले इनकी सीमाओं को पहचाना जरुरी है.

  इनकी सबसे बड़ी ताकत जिस मार्क्स का विचार है,200 साल पहले जन्मे उस मार्क्स की कुछ सीमाए थीं.उसने जिस गैर-बराबरी के खिलाफ कथित वैज्ञानिक सूत्र दिया था उसकी उत्पत्ति साइंस और टेक्नोलाजी के विकास के कारण हुई थी.यूरोप मे औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पूंजीवाद के विस्तार ने वहां के लोगों के समक्ष इतना भयावह आर्थिक संकट खड़ा कर दिया था कि मार्क्स पूंजीवाद के ध्वंस और समाजवाद की स्थापना को अपने जीवन का लक्ष्य बनाये बिना नहीं रह सके.इस कार्य में वे जूनून की हद तक इस कदर डूबे कि जन्मगत आधार पर शोषण,जिसका चरम प्रतिबिम्बन भारत की जाति-भेद तथा  अमेरिका –दक्षिण अफ्रीका की नस्ल-भेद में हुआ,को शिद्दत के साथ महसूस न कर सके.पूंजीवादी व्यवस्था में जहां मुट्ठी भर धनपति शोषक की भूमिका में उभरता है,वहीँ जाति/नस्लभेद में एक पूरा का पूरा समाज शोषक तो दूसरा  शोषित के रूप में विद्यमान रहता है.पूंजीपति तो सिफ सभ्यतर तरीके से आर्थिक शोषण करते हैं ,जबकि जाति और रंगभेद व्यवस्था के शोषक अकल्पनीय निर्ममता के साथ आर्थिक शोषण करने के साथ ही शोषितों की मानवीय सत्ता को पशुतुल्य मानने के अभ्यस्त रहे.जन्मगत आधार पर शोषण के लिए कुख्यात भारत,अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में शोषकों  की संख्या क्रमशः15,73 और 9 प्रतिशत रही.जन्मगत आधार पर शोषण का सबसे बड़ा दृष्टान्त भारत में स्थापित हुआ जहां 1919 में साऊथबरो कमीशन के सामने साक्ष्य देकर डॉ.आंबेडकर ने जन्मजात वंचितों की मुक्ति का द्वारोन्मोचन कर डाला.क्या.यह महज संयोग है कि उसके अगले वर्ष अर्थात 1920 में ब्राह्मण एमएन राय ने ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुवात किया!

मित्रों जन्मगत विषमता का स्वर्ग भारत के 15 प्रतिशत जन्मजात शोषकों को ८५ प्रतिशत शोषित वर्ग के निशाने से बचाने के लिए ही भारत के मार्क्सवादियों ने पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने की परिकल्पना किया ताकि असल शोषकों से भारत के शोषितों का ध्यान हट जाये और विश्व के प्राचीनतम साम्राज्यवादियों(विदेशागत आर्यों) का शासन-शोषण अटूट रहे.हिंदू साम्राज्यवाद के वंचितों की मुक्ति का सूत्र रचने के क्रम में आंबेडकर ने जन्मगत आधार पर गैर-बराबरी के शिकार बने अश्वेतों,महिलाओं की मुक्ति का सूत्र रच दिया.उन्होंने जन्मगत कारणों से जबरन शोषण का शिकार बने दलितों को शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी दिलाने के लिए जो प्रावधान(आरक्षण अर्थात प्रतिनिधित्व) कानूनों के डंडे के जोर से थोपा वही अश्वेतों,सारी दुनिया की महिलाओं,भारत के शूद्रों  इत्यादि की मुक्ति का कारण बना.डेमोक्रेटिक व्यवस्था में तमाम देशों की महिलाओं,अल्पसंख्यकों,अश्वेतों इत्यादि का शक्ति के स्रोतों में शेयर सुलभ कराकर गैर-बराबरी मिटाने का जो कार्य चल रहा है ,उसका सर्वाधिक श्रेय किसी व्यक्ति को जाता है तो वे डॉ आंबेडकर हैं.भले ही कोई मार्क्स को लेकर समतामूलक समाज का यूटोपिया क्रियेट करे,सच्चाई यही है अम्बेडकरवाद से सारी दुनिया में मानवता को जो राहत मिली है,उसके मुकाबले मार्क्सवाद  से उपकृत लोगों  की संख्या कुछ भी नहीं है.

मार्क्स ने जिनके लिए बौद्धिक लड़ाई लड़ी वे सर्वहारा रहे,जबकि आंबेडकर ने सर्वस्व-हाराओं की लड़ाई लड़ी.मार्क्स के सर्व-हारा मात्र आर्थिक रूप से विपन्न रहे,राजनीतिक और धार्मिक क्रियाकलाप उनके लिए निषिद्ध नहीं रहे.जबकि आंबेडकर के सर्वस्व-हारा आर्थिक ,राजनीतिक धार्मिक इत्यादि शक्ति के समस्त स्रोतों से ही बहिष्कृत रहे .ऐसे लोगों की मुक्ति के महानतम नायक से मार्क्स जैसे एकांगी सोच के विचारक को श्रेष्ठ ठहराना बौद्धिक दरिद्रता का सूचक है.

मार्क्स को मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की उत्पत्ति के कारणों की सही जानकारी नहीं थी,यह दावा उस दुसाध का है जो भारत के किसी भी मार्क्सवादी से ज्यादा न सिर्फ किताबें लिखा बल्कि विषमता के खात्मे के लिए दिन-रात चिंतन किया है.दुसाध का दावा है –'आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है और सदियों से ही इसकी उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों-आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक- के विभीन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे के कारण होती रही है.पढ़े लिखे लोगों की भाषा में कहा जाय तो शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन के कारण ही सभ्यता के हर काल में ,हर देश में ही आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी की स्रष्टि होती रही है.' गैर - बराबरी के इस शाश्वत सत्य से अनजान होने के कारण ही मार्क्स दलित,आदिवासी,पिछडों,अश्वेतों,अल्पसंख्यकों,महिलाओं इत्यादि की मुक्ति का सूत्र देने में व्यर्थ रहा.विपरीत उसके बाबासाहेब विषमता के इन कारणों को जानते थे इसलिए वे सारी दुनिया के सर्वस्व-हारों की  मुक्ति का निर्भूल सूत्र देने में सफल रहे.                     

                       जय भीम-जय भारत                   निवेदक

दिनांक:20 मार्च ,2013                                       एच एल दुसाध  


No comments:

Post a Comment