My father Pulin Babu lived and died for Indigenous Aboriginal Black Untouchables. His Life and Time Covered Great Indian Holocaust of Partition and the Plight of Refugees in India. Which Continues as continues the Manusmriti Apartheid Rule in the Divided bleeding Geopolitics. Whatever I stumbled to know about this span, I present you. many things are UNKNOWN to me. Pl contribute. Palash Biswas
Thursday, September 18, 2025
पहाड़ में बाढ़ कैसे आ सकती है?
बारिश का कहर जारी है। मानसून जलप्रलय में तब्दील है।पंजाब को याद करें तो दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे के सरसों के खेत जमीन से आसमान तक नजर आते हैं। पहाड़ों में भी सरसों उगता था।
डीएसबी कॉलेज में पढ़ते हुए जब हम माल रोड पर CRST कॉलेज के ठीक नीचे बंगाल होटल में रहते थे,खुद खाना बनाते थे।रोटी आज भी बना नहीं सकते।चूंकि पढ़ने से फुर्सत बहुत कम मिलती थी। चावल में आलू, या सिर्फ कुम्हड़ा या सिर्फ सरसों का साग उबालकर खाते थे।
नाश्ता अक्सर अशोक जलपानगृह में गिर्दा का स्टंट प्रिय माखन आमलेट से होता था। नैनीताल समाचार में नाश्ता और भोजन दोनों अशोक होटल से शानदार आता था। तब लिखने पर कहीं से पैसे आ जाते थे तो पैराडाइज में छोले भटूरे खा लेते थे या अशोक टॉकीज के सामने पंजाब रेस्टुरेंट में पंजाब का खाना।
तब भी पहाड़ में भूस्खलन होते थे। बाढ़ आती थी।जैसे अलकनंदा और भागीरथी की बाढ़। मैदान के लोगों को समझ में नहीं आती थी कि पहाड़ के उत्तुंग शिखरों में बढ़ कैसे आती थी।
जब मैं देश के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में मुख्य उपसंपादक था कोलकाता पहुंचने से पहले,तब एक मजेदार किस्सा हुआ।संपादकीय में कवि वीरेन डंगवाल और सुनील सह जैसे लोग हमारे साथ थे।
हमेशा चूंकि मैने अखबार निकाला, उस वक्त भी सभी संस्करण मैं ही निकालता था। तब भी पहाड़ में बाढ़ आई थी।हमने पहले पेज पर पहाड़ में बाढ़ की खबर लगाई। अगले दिन किसी साथी ने मालिक से शिकायत कर दी।
मालिक संपादक भी थे।उन्होंने अपने कमरे में मुझे बुलाकर पूछा,इतने ऊंचे तो पहाड़ होते हैं,वहां बाद कैसे आ सकती है?
उन्होंने वीरेन दा को भी बुला लिया था।
मैंने संपादक जी को जवाब देने के बजाय वीरेन दा से पूछा, दा क्या पहाड़ों में नदियां नहीं होती? बांध नहीं होते? घाटियां नहीं होती?
पहाड़ के बारे में तीस चालीस साल पहले भी पत्रकारों की समझ यही थी। अब तकनीक से लैस पत्रकारों की पहाड़ की समझ कितनी समृद्ध हुई है,मैं नहीं जानता।लेकिन उन्हें पहाड़ के जलवायु, मौसम और भू पारिस्थितिकी की तनिक समझ होती तो विकास का इतना शोर नहीं मचाते।
खैर, घाटियों की अब शामत आ गई है। सारी नदियां बंद गई हैं। अंधाधुंध निर्माण इतना तेज हो गया है कि नैनीताल जाने का मन नहीं होता।अल्मोड़ा और पौड़ी जैसे शहर सिरे से बदल गए।गांवों,कस्बों का अंधाधुंध शहरीकरण हो गया।फिरभी रोजगार और आजीविका का यह हाल है कि पहाड़ के गांव वीरान हो रहे हैं और हम बेशर्मी से इसे प्लेन कह रहे हैं। बेदखली और विस्थापन की हकीकत को झुठलाने में न सरकार, न मीडिया और न आंदोलनकारियों को शर्म आती है।
भूकंप अब बार बार हो रहे हैं।राजधानी दिल्ली भी बार बार कांपती रहती है। कश्मीर,हिमाचल और उत्तराखंड की क्या कहें,पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तबाही का मंजर दिल्ली के डूब बन जाने के बावजूद नजर नहीं आते।
तो साहब बताइए,सरसों के खेत कैसे बचेंगे?

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