| Sunday, 13 May 2012 14:15 |
जनसत्ता 13 मई, 2012: एक अखबार के जीवन में पच्चीस बरस का वक्फा बड़ा नहीं होता। स्व. प्रभाष जोशी ने हिंदी में एक आधुनिक दैनिक की कल्पना की। भाषा, शैली और तेवर की दकियानूसी परंपरा को तोड़ते हुए 17 नवंबर, 1983 को जनसत्ता पहले दिल्ली में निकला। फिर 1987 में चंडीगढ़ से। छह मई को चंडीगढ़ संस्करण की रजत जयंती मनाई गई। बड़े लोगों में सुरक्षाकर्मी रखने का खब्त तब भी था। कुछ जरूरत भी रहती होगी। पर एक-दो संपादकों ने अपनी रक्षा के लिए वहां केंद्रीय रिजर्व पुलिस (सीआरपीएफ) के अनेक सुरक्षाकर्मी लिए। वे अपनी जीप में संपादक की गाड़ी के पीछे चलते थे, जैसा मंत्रियों के साथ होता है। कुंवरपाल सिंह गिल जब सीआरपीएफ के महानिदेशक बने तो चंडीगढ़ और पंजाब के संपादकों पर उनका यह अनुग्रह हुआ। शहर में यों मुख्यत: पांच ही दैनिक थे, तीन ट्रिब्यून समूह के और दो हमारे एक्सप्रेस के। जो हो, मुझे सुरक्षा की गर्ज नहीं थी! पहले ही दिन से उस सुरक्षाकर्मी की उपस्थिति से मुझे बेचैनी हुई। दफ्तर जाऊं या किसी के घर या पान खाने जाऊं तब भी साथ। फिर इस तरह के सुरक्षाकर्मी बदलते रहते हैं। इसका भी कोई कायदा काम करता होगा। मुझे एक बार इतना डरावना सुरक्षाकर्मी मिला कि पुलिस और अपराध की बीट देखने वाले सहकर्मी मुकेश भारद्वाज को कहा, कोई सुदर्शन व्यक्ति नहीं मिल सकता? किसी के घर जाएं तो वे डरें तो नहीं! मुकेश ने शायद महानिरीक्षक से बात की, जिसका उलटा असर हुआ। एक और भी बांका मुच्छड़ आ पहुंचा! एक सुरक्षाकर्मी सबसे अलग था। एक रोज उसका तमंचा उलट-पलटकर देख रहा था। उसने कहा, साहब लोग तो हाथ लगाते हुए डरते हैं। मैंने तमंचे कीचरखी को खाली कर साफ किया। हैमर को खींचा, छोड़ा। गोलियां फिर चैंबर में फिट कीं और फिर उसे कुछ प्रभावित करते हुए कहा कि यह तो पंद्रह साल पुराना मॉडल है। चंडीगढ़ में अपने सुरक्षाकर्मी के तमंचे से इस चुहल का नतीजा कुछ यों हुआ कि 'वैपन'—वह तमंचे के लिए हमेशा यही शब्द बरतता था—दिन में मेरे पास छोड़कर घर या अपने काम निपटाने जाने लगा। एक रोज प्रमुख संवाददाता महादेव चौहान (अब दिल्ली में) मेरे कमरे में अचानक आ गए। फुरसत में भावी सुरक्षा के लिए मैं तमंचे के चैंबर को चमका रहा था। शायद उन्हें मैंने अचानक कुछ सफाई पेश की! पर मजा तब हुआ जब एक रोज प्रभाष जी आए और कहा, लिखियों (शहर में उनका मित्र परिवार) के यहां चलते हैं। अब, सुरक्षाकर्मी तो लौटा नहीं था। मैंने उसका 'वैपन' उठाया तो प्रभाष जी ने पूछा यह क्या माजरा है। मैंने किस्सा बताया। उन्होंने कहा, ऐसी सुरक्षा किस काम की। उस वक्त तो हथियार ठूंस कर प्रभाष जी के 'गनमैन' की तरह छत्तीस सेक्टर को चल दिया। पर कुछ रोज बाद बाकायदा पत्र लिखकर उस सुरक्षाकर्मी से मैंने मुक्ति पा ली। अगली दफा प्रभाष जी आए तो बोले—मगर पंडित, कुछ सुरक्षा तो रखनी चाहिए। अगले रोज उन्होंने पंजाब के नए राज्यपाल जनरल ओमप्रकाश मल्होत्रा से मिलने का वक्त लिया, जो नियमानुसार चंडीगढ़ के प्रशासक भी थे। आजकल वे 'शिक्षा' और 'चिकित्सा' नामक दो स्वयंसेवी संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। हम सचिवालय पहुंचे तो छूटते ही प्रभाष जी ने मांग रखी, हमारे संपादक को सुरक्षा नहीं, सुरक्षा के लिए रिवाल्वर चाहिए। ये जरूरत के वक्त उसका प्रयोग कर सकते हैं। क्या आपका प्रशासन मुहैया करवाएगा? जनरल मल्होत्रा ने कहा, हमें कोई दिक्कत नहीं, अगर एक औपचारिक पत्र इस आशय का दे दें। मुझे एक नई आफत की कल्पना कर झुंझलाहट-सी हुई। अखबार निकालेंगे या चांदमारी जाकर निशाना साधेंगे! और सचमुच नौबत आ पड़ी तो एके-47 के सामने टिकेगा कौन? वह पत्र मैंने कभी नहीं दिया। बाद में एक ही बार प्रभाष जी ने इस बारे में पूछा तो मैंने कहा, हालात अब बेहतर हो रहे हैं। लेकिन हालात आगे और विकट हो गए। इसकी कुछ शुरुआत जनरल मल्होत्रा के आने से पहले ही हो चुकी थी। जनरल को शायद इसीलिए लाया गया कि उनसे पहले के राज्यपाल वीरेंद्र वर्मा ढीले थे। मुझे याद है, जलंधर में एक सलाहकार समिति की बैठक में चाय के कप में तीन चम्मच चीनी डालते हुए वर्मा ने कहा था, मैं गन्ना उगाने वाले इलाके से आता हूं जनाब। लेकिन पत्रकारों को वर्मा ने कड़वी झिड़की दी। कुछ अखबारों में आतंकवादियों की तरफ से मिलने वाली विज्ञप्तियां और आपत्तिजनक विज्ञापन प्रमुखता से छपने लगे थे। पंजाब सरकार ने अखबारों को एक धमकी भरी हिदायत जारी की। उसका कुछ असर पड़ा। पर ज्यादा नहीं। तब सरकार ने छपते अखबार रोके, छपे अखबारों का वितरण रोका। इस पर आतंकवादियों ने नया दांव खेला। डॉ. सोहन सिंह के नेतृत्व वाली पंथक कमेटी ने- जो पांच प्रमुख आतंकवादी गुटों का समूह थी- पूरे मीडिया के लिए एक ''आचार संहिता'' जारी की। आतंकवादियों को खबरों में आतंकवादी, उग्रवादी आदि की जगह ''मिलिटैंट, खालिस्तानी सेनानी या खालिस्तानी मुजाहिद्दीन'' लिखने का ''निर्देश'' दिया गया। इसी तरह, भिंडरांवाले के नाम से पहले संत लिखना जरूरी था। पंथिक कमेटी के साथ पाकिस्तान स्थित लिखने की मनाही थी। ऐसी ही कई हिदायतों के साथ पीटीआई-यूएनआई समाचार समितियों को अलग निर्देश था कि वे जब मिलिटैंट लिखें और कोई अखबार ये शब्द बदल दे तो उस अखबार के तार काट दिए जाएं। इस ''आचार संहिता'' का पालन न करने वालों को सीधे मौत के घाट उतार देने का एलान था। साथ में यह निर्देश भी कि ''मौत की सजा'' के खिलाफ कोई पत्रकार ''अपील'' करना चाहे तो पंथक कमेटी को करेगा, सरकार को नहीं। इस विज्ञप्ति रूपी ''आचार संहिता'' पर सोहन सिंह, वाधवा सिंह बब्बर, हरमिंदर सिंह सुल्तानविंड, महल सिंह बब्बर और सतिंदर सिंह के हस्ताक्षर थे। उसे 1 दिसंबर, 1990 से ''लागू'' करना था और ''संपूर्ण विज्ञप्ति बगैर कोई शब्द काटे हुए'' हर अखबार को छापनी थी। विज्ञप्ति पढ़ते ही मैंने अपने वरिष्ठ सहयोगियों को बुलाया। जनसत्ता को तात्कालिक तौर पर कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। आतंकवादियों के लिए हम स्थानीय शब्दावली में प्रचलित ''खाड़कू'' शब्द प्रयोग करते थे। अखबार चलाए रखने के लिए भिंडरांवाले को शायद 'संत' भी लिख सकते थे। लेकिन पूरी विज्ञप्ति का प्रकाशन, जिसका अनुवाद अखबार का पूरा पन्ना भरने को काफी था? विज्ञप्ति के पीछे आतंकवादियों की एक मंशा यह लगी कि लोकतंत्र के बाकी खंभे पंजाब में लगभग चरमरा गए थे, निशाने के लिए चौथा खंभा ही बचा था जो अब तक उनके काबू से बाहर था। पंजाब के स्कूल-कालेजों में सलवार-कुरते के अलावा कोई पोशाक नहीं पहनी जाती थी। केसरिया दपुट्टे, केसरिया पगड़ियां हर तरफ दिखाई देती थीं। नीली पगड़ी पहनने वाले कई अकाली भी केसरिया पगड़ी धारण कर चुके थे। दुकानों-दफ्तरों के सारे नाम-पट्ट, गाड़ियों के नंबर आदि गुरुमुखी में ही हो सकते थे। पंजाब की हवा के झोंके बड़ी तेजी से चंडीगढ़ पर थाप देने लगे थे। सहयोगियों से बातचीत में यह भी अनुभव किया गया कि अखबारों पर सरकार की आचार संहिता पहले से लागू है, आतंकवादियों की नियमावली उन्हें ऐसे मोड़ पर ले आई है जहां अखबार 'ना' कहें, वरना वे बंद होने के रास्ते पर हैं। यानी चौथा खंभा भी ढहने के कगार पर। इस आशंका के पीछे मेरा एक तर्क यह था कि यह विज्ञप्ति पहला 'टैस्ट फायर' है; अगली दफा अगर आतंकवादियों ने हुक्म दिया कि पंजाब राज्य को सब अखबार खालिस्तान लिखेंगे, तब हम क्या करेंगे? इस विचार-विमर्श के बाद अगले ही रोज दिल्ली पहुंचा। प्रभाष जी ने फौरन ट्रिब्यून समूह के प्रधान संपादक वीएन नारायणन को फोन मिलाया। प्रभाष जी जानना चाहते थे कि संपादकों को अंतत: क्या अब भी साफ रुख अख्तियार नहीं करना चाहिए। प्रभाष जी को उधर से जो जवाब मिला, उसे सुन अक्सर मस्ती में रहने वाले प्रभाष जी गुमसुम हो गए। नारायणन साहब ने कहा था, हमने तो ''विज्ञप्ति'' आज ही छाप दी है, एक हफ्ता कौन जोखिम ले। बाद में पता चला कि हिंदी संस्करण में विज्ञप्ति कुछ कट कर छपी थी, जिसे अगले रोज हू-ब-हू दुबारा भी छाप दिया गया। आतंकवादियों को हिंदी अखबारों ने सर्वत्र 'मिलिटैंटों' लिखा। प्रभाष जी ने मेरी ओर देखकर पूछा, फिर? मैंने कहा, जोखिम जरूर है। फिलहाल कोई संकट सामने नहीं है। पर यह ''विज्ञप्ति'' हम नहीं छापेंगे। एक संदेश जाना चाहिए कि बीच का रास्ता हम तलाश रहे हैं। शायद यह गीदड़-भभकी ही हो। न हो तो आर, नहीं तो पार! ''मैं तुम्हारे साथ हूं। अपन वही'च करेंगे न जो अपना जमीर बोला। गणेश! चांदनी चौक जाओ और हल्दीराम से लड्डू-समोसे लेकर आओ!'' गणेश उनके सेवक का नाम था। और जनसत्ता चंडीगढ़ में अकेला अखबार रहा जिसने आतंकवादियों की ''आचार संहिता'' प्रकाशित नहीं की। यह इतिहास है, जो वहां अखबार की फाइलों में दर्ज है। इसका स्मरण कर पुराने साथियों ने गए हफ्ते वहां गर्व अनुभव किया। गल्त कित्ता? |
My father Pulin Babu lived and died for Indigenous Aboriginal Black Untouchables. His Life and Time Covered Great Indian Holocaust of Partition and the Plight of Refugees in India. Which Continues as continues the Manusmriti Apartheid Rule in the Divided bleeding Geopolitics. Whatever I stumbled to know about this span, I present you. many things are UNKNOWN to me. Pl contribute. Palash Biswas
Sunday, May 13, 2012
फिर उस शहर में
फिर उस शहर में
ओम थानवी
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