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Saturday, July 25, 2015

‘द आइडियल भंगी’: अरुंधति रॉय


पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है-2: अरुंधति रॉय

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/25/2015 12:52:00 AM


यहां पेश है आंबेडकर-गांधी बहस के संदर्भ में राजमोहन गांधी को अरुंधति रॉय के जवाब 'ऑल द वर्ल्ड'ज अ हाफ-बिल्ट डैम' के हिंदी अनुवाद की दूसरी किस्त. पहली किस्त यहां पढ़ें. इस अनुवाद में गांधी की रचनाओं या भाषणों के उद्धरणों के हिंदी अनुवाद के लिए भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा हिंदी में प्रकाशित गांधी के अधिकृत समग्र लेखन संपूर्ण गांधी वांग्मय से मदद नहीं ली जा रही है क्योंकि उसमें हिंदी में दिए गए पाठ और उसके अंग्रेजी संस्करण (सीडब्ल्यूएमजी) के पाठ में काफी फर्क है, जिसका हवाला इस बहस में बार बार दिया जा रहा है. इसलिए बहस को उसकी सही शक्ल में पेश करने के लिए इस अनुवाद में उद्धृत अंशों का भी अनुवाद किया जा रहा है. अनुवाद: रेयाज उल हक

 

अब मुझे राजमोहन गांधी के कुछ खास और बड़े आरोपों पर गौर करने दीजिए:

'द आइडियल भंगी'

वे कहते हैं,
यहां (अनगिनत संभावित छूटों में से) एक और चीज छोड़ी गई है. वे गांधी की एक रचना 'द आइडियल भंगी' के काफी मजे लेती हैं (पृ.132-33) और सफाई को लेकर गांधी की चिंता का मजाक उड़ाती हैं और इसमें से कई वाक्य पेश करती हैं. लेकिन वे बड़ी सावधानी से उस वाक्य को छोड़ देती हैं जो भंगियों के साथ तब/अब होने वाले व्यवहार पर गांधी के गुस्से को जाहिर करता है. यह 28 नवंबर 1936 को हरिजन में प्रकाशित हुआ था: 'लेकिन मैं इतना जानता हूं कि भंगी को तुच्छ मान कर हम – हिंदू, मुसलमान, ईसाई और सभी – पूरी दुनिया की नफरत के लायक हो गए हैं.' (सीडब्ल्यू 64:86) हां, गांधी जातीय नाइंसाफियों से और भारत की गंदगी से और बहुत कुछ से परेशान थे (आरजी.कॉम).

नीचे मैं 'द आइडियल भंगी' से वह हिस्सा पेश कर रही हूं, जिसे मैंने 'द डॉक्टर एंड द सेंट' में अपनी टिप्पणी के साथ उद्धृत किया है (रॉय 2014: 132-33). पढ़नेवाले खुद ही फैसला कर सकते हैं कि जिस वाक्य को मैंने बड़े 'शरारती तरीके से' छोड़ दिया था, क्या उसकी गैरमौजूदगी से निबंध के मतलब या उसकी आत्मा पर कोई फर्क पड़ रहा है:

1936 में उन्होंने [आंबेडकर ने] आग लगा देने वाली (और महंगी, जैसा कि गांधी ने सरपरस्ती वाले लहजे में टिप्पणी की थी) रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट प्रकाशित की […] उसी साल गांधीजी ने भी साहित्य में यादगार योगदान दिया. वे अब तक अड़सठ साल के हो चुके थे. उन्होंने 'द आइडियल भंगी' नाम से एक प्रतिष्ठित निबंध लिखा: ब्राह्मण का धर्म जैसे आत्मा को साफ रखना है, उसी तरह भंगी का धर्म समाज के शरीर को साफ रखना है...ऐसा होते हुए भी अभागा भारतीय समाज भंगी को सामाजिक अछूत बताता है, उसे पायदान की सबसे निचली सीढ़ी पर रखा जाता है, उसे गाली और लात खाने लायक माना जाता है, वह एक ऐसा जीव है जो जाति के लोगों की जूठन पर पलता है और कूड़े के ढेर पर रहता है. 

अगर हमने सिर्फ भंगी की हैसियत को ब्राह्मण के बराबर मान लिया होता, हमारे गांव और उनके निवासी साफ-सफाई और व्यवस्था की तस्वीर बन गए होते. इसलिए मैं बिना किसी हिचक या संदेह के यह कहने का साहस करता हूं कि जब तक ब्राह्मण और भंगी के बीच अपमानजनक फर्क को मिटा नहीं दिया जाता, तब तक हमारा समाज सेहत, समृद्धि और शांति का सुख नहीं उठा सकेगा और खुशहाल नहीं हो पाएगा.

फिर [गांधी ने] उन शैक्षणिक जरूरतों, व्यावहारिक कौशल और हुनर का एक खाका दिया जो एक आदर्श भंगी में होनी चाहिए:

'तब समाज के ऐसे एक सम्मानित सेवक के व्यक्तित्व में किन गुणों की झलक होनी चाहिए? मेरी राय में एक आदर्श भंगी को सफाई के उसूलों का पूरा ज्ञान होना चाहिए. उसे पता होना चाहिए कि एक सही शौचालय कैसे बनता है और उसे साफ करने का सही तरीका क्या है. उसे पता होना चाहिए कि पेशाब-पाखाने की बदबू से कैसे पार पाएं और उसे खत्म कैसे करें. इसको नुकसान रहित बनाने के लिए विभिन्न असंक्रामकों के बारे में भी उसे पता होना चाहिए. इसी तरह उसे पेशाब और पाखाने को खाद में बदलने के तरीके के बारे में पता होना चाहिए. लेकिन इतना ही काफी नहीं है. मेरे आदर्श भंगी को पाखाने और पेशाब की गुणवत्ता के बारे में पता होगा. वह उन पर नजदीकी से नजर रखेगा और संबद्ध व्यक्ति को सही वक्त पर चेतावनी देगा...'

मनुस्मृति कहती है कि काबिलियत होने के बावजूद शूद्र को धन जमा नहीं करना चाहिए, क्योंकि धन जमा करने वाला शूद्र ब्राह्मण को खटकता है. गांधी एक बनिया थे, जिसके लिए मनुस्मृति सूदखोरी को ईश्वरीय धंधा करार देती है, यही गांधी कहते हैं:

'ऐसा आदर्श भंगी अपने पेशे से अपनी रोजी हासिल करते हुए, इसे सिर्फ एक पवित्र धर्म मानेगा. दूसरे शब्दों में, वह धनी बनने के सपने नहीं देखेगा.'

इसे ध्यान में रखें कि गांधी नहीं चाहते थे कि 'भंगी' (पाखाना साफ करने वालों को वे यही कहना पसंद करते थे) कथित तौर पर ईश्वर द्वारा तय किए गए, दूसरे लोगों के पाखाने को साफ करने के अपने इस पेशेवर धंधे से भी धन जमा नहीं करें, जबकि दूसरी ओर उन्होंने ट्रस्टीशिप का अपना मशहूर उसूल विकसित किया था: 'अमीर लोगों की दौलत उनकी मिल्कियत में रहने दी जानी चाहिए...' (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी यानी सीडब्ल्यूएमजी 79:133-34, रॉय 2014: 90 पर उद्धृत). तब की तरह अब भी बनिया लोग ही अमीर हैं. यकीनन गांधी जातीय नाइंसाफियों से परेशान थे, लेकिन खुद जाति से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी. उन्होंने एक बार भी साफ साफ और निश्चित शब्दों में इसको खारिज नहीं किया. अपने बाद के जीवन में कुछ मौकों पर जब उन्होंने नरमी के साथ इसकी आलोचना भी की तो उन्होंने सुझाव दिया कि इसकी जगह वर्ण व्यवस्था को लाया जाना चाहिए – जिसको आंबेडकर ने जाति व्यवस्था का 
'जनक' बताया था. गांधी ने वंशानुगत पेशों की परंपरा में अपने यकीन को लगातार दोहराया. और चूंकि राजमोहन गांधी हमें ऐसी तारीफ के साथ 'द आइडियल भंगी' पेश करते हैं तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि वे अपने दादा के नजरिए से सहमत हैंॽ

इत्तेफाक से, ऐसा एक और इंसान भी है जो इस नजरिए से सहमत है: अपनी किताब कर्मयोगी में (जिसको बाल्मीकि समुदाय के विरोध के बाद उन्होंने वापस ले लिया), नरेंद्र मोदी ने लिखा है:

मैं नहीं मानता कि वो यह काम केवल अपनी आजीविका चलाने के लिए करते रहे हैं. अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे काम को जारी नहीं रखा होता...किसी समय किसी व्यक्ति को यह ज्ञान प्राप्त हुआ होगा कि समग्र समाज और देवताओं की खुशी के लिए काम करना उनका (बाल्मीकियों का) धर्म है; कि देवताओं द्वारा उन्हें सौंपा गया यह काम करना होगा; और यह काम सदियों से आंतरिक आध्यात्मिक गतिविधि की तरह जारी रहना चाहिए. (शाह 2012 से उद्धृत, रॉय 2014: 133).

महाड सत्याग्रह

राजमोहन गांधी ने मुझ पर इल्जाम लगाया है कि मैंने मार्च 1927 में महाड सत्याग्रह पर गांधी की टिप्पणियों को जानबूझ कर और बेईमानी से महज यह कहते हुए दबा दिया है कि गांधी ने 'हमले के सामने अछूतों के सब्र बारे में सहमति जताते हुए' लिखा. उनका कहना है कि मुझे यह जोड़ना चाहिए था कि सत्याग्रह के एक महीने के बाद 28 अप्रैल 1927 में यंग इंडिया में गांधी ने लिखा था कि 'डॉ. आंबेडकर द्वारा कथित अछूतों को तालाब पर जाकर अपनी प्यास बुझाने की सलाह देते हुए बंबई लेजिस्लेटिव काउंसिल और महाड म्युनिसिपैलिटी के प्रस्ताव को परखना न्यायोचित था.' यह भी कि महात्मा ने 'छुआछूत का विरोध करनेवाले हरेक हिंदू' से कहा कि वे महाड के अछूतों का सार्वजनिक बचाव करें 'भले ही उनका अपना सिर फूट जाने का जोखिम हो' (सीडब्ल्यू 33: 268). यह सच है कि मैंने इन उद्धरणों को शामिल नहीं किया था. (हालांकि इसे बेईमानी से दबाया जाना कहना, मेरे ख्याल से, थोड़ा ज्यादा ही है.)

'द डॉक्टर एंड द सेंट' में तथ्यों को इस तरह पेश किया गया है. गांधी पहले महाड सत्याग्रह में मौजूद नहीं थे. आंबेडकर और उनके साथियों ने मंच पर उनकी एक तस्वीर लगाई क्योंकि तब वे उनकी प्रेरणा के स्रोत थे. राजमोहन गांधी ने जिस बात का जिक्र छोड़ दिया है वो यह है कि उस साल बाद में एक दूसरा महाड सत्याग्रह भी हुआ था (दिसंबर 1927) जिसमें पहले के मुकाबले ज्यादा तादाद में लोग जमा हुए थे. उसी महीने में गांधी, लाहौर में ऑल इंडिया सप्रेस्ड क्लासेज कॉन्फ्रेंस में बोले थे, जहां उन्होंने अछूतों से कहा था कि वे अपने अधिकारों की खातिर लड़ने के लिए 'मीठी मीठी बातों से समझाने-बुझाने से काम लें, न कि सत्याग्रह से क्योंकि जब लोगों के भीतर गहराई तक जड़ें जमाए बैठे पूर्वाग्रहों को झटका पहुंचाने के मकसद से इसका [सत्याग्रह का] उपयोग किया जाता है तो यह दुराग्रह बन जाता है.' 'दुराग्रह' को उन्होंने 'शैतानी शक्ति' बताया, जो सत्याग्रह यानी 'आत्मिक शक्ति' के ठीक उल्टा है (प्रशाद 1996: 2015 में उद्धृत, सीडब्ल्यूएमजी 16: 126-28 भी देखें – रॉय 2014: 106-07 में उद्धृत).

महाड सत्याग्रह पर गांधी की प्रतिक्रिया पर व्हाट कांग्रेस एंड महात्मा हैव डन टू द अनटचेबल्स(पहली बार 1945 में प्रकाशित) में लिखते हुए आंबेडकर ने कहा था:

अछूत मि. गांधी का नैतिक समर्थन पाने को लेकर नाउम्मीद नहीं थे. असल में उन्हें इसको पाने की बहुत अच्छी वजह भी थी. क्योंकि सत्याग्रह का हथियार – जिसकी बुनियादी बात यह है कि अपनी तकलीफों से अपने विरोधी के दिल को पिघला दिया जाए – वह हथियार था जिसको मि. गांधी ने बनाया था और जिन्होंने स्वराज हासिल करने के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कांग्रेस से इसका अमल कराया था. स्वाभाविक बात थी कि अछूतों ने हिंदुओं के खिलाफ अपने सत्याग्रह में मि. गांधी से पूरी हिमायत की उम्मीद की थी, जिसका मकसद सार्वजनिक कुओं से पानी लेने और हिंदू मंदिरों में दाखिल होने के अधिकार को कायम करना था. हालांकि मि. गांधी ने सत्याग्रह को समर्थन नहीं दिया. सिर्फ इतना ही नहीं कि उन्होंने समर्थन नहीं दिया, बल्कि उन्होंने कड़े शब्दों में इसकी निंदा की (बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज या बीएडब्ल्यूएस 9: 247, रॉय 2014: 109-10 में उद्धृत).

क्या राजमोहन गांधी की दलील यह हो सकती है कि आंबेडकर सच्चाई को 'दबा' रहे थेॽ

(जारी)
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