भूकंप के केंद्र से एक रिपोर्ट और कुछ तस्वीरें
Posted by Reyaz-ul-haque on 5/20/2015 10:58:00 PMबिक्किल स्थापित नेपाल में मार्क्सवाद शिक्षण केंद्र के संयोजक और इग्नाइट साउथ एशियापत्रिका के संपादक हैं. पूजा पंत वॉयसेज ऑफ वुमन मीडिया की सह निदेशक, स्वतंत्र फिल्मकार और फोटोग्राफर हैं. मार्टिन ट्रैवर्स एक विजुअल आर्टिस्ट और म्यूरलिस्ट हैं जो काठमांडू में आर्टिस्ट-इन-रेजिडेंस कार्यक्रम के तहत रह रहे हैं. नेपाल में 25 अप्रैल को आए भूकंप के वक्त वे तीनों इस भूकंप के केंद्र लांगतांग घाटी में नागथाली पहाड़ पर थे. उनकी एक रिपोर्ट, हाशिया पर कुछ विशेष तस्वीरों के साथ, जिनमें से कई अब तक अप्रकाशित हैं.
हम लोग काठमांडू के उत्तर में लांगतांग घाटी में ट्रेकिंग के लिए गए थे और अभी बस नागथाली पहाड़ के शिखर की तरफ महज 3500 मीटर की ऊंचाई तक ही चढ़ाई की थी. यह चोटियों के बीच एक खड़ी चढ़ाई रही थी, हम थके हुए थे और अभी अभी हमने ठहरने के लिए एक जगह खोजी थी और चाय की चुस्की लेने ही वाले थे कि धरती हिली. यह इतना तेज था कि हमें लगा कि हम पहाड़ से किसी भी समय गिर जाएंगे. यह बात तो बाद में गांव वालों ने बताई कि भले ही हम बुरी तरह झटका खा रहे थे, लेकिन भूकंप के दौरान पहाड़ की चोटी पर होना सुरक्षित था. नीचे की तरफ, भू-स्खलन की वजह से हुई तबाही बहुत बुरी थी.
इत्तेफाक से, नागथली पहले भूकंप के केंद्र के बेहद करीब था और दूसरे भूकंप का केंद्र था.
मौसम खराब था, जमीन धंस रही थी, फोन भी काम नहीं कर रहा था और हम पहाड़ पर करीब 18 घंटे तक फंसे रहे. रात में हम एक बंगले में दूसरे करीब दस लोगों के साथ रुके, और रेडियो पर सुना कि पूरा मुल्क बुरी तरह इसकी चपेट में आया था. स्थानीय लोग रुक कर हमें उस तबाही और मौतों के बारे में बताते, कि जिन गांवों से होकर हम आए थे और जिन गांवों को जा रहे थे, वो पूरी तरह नक्शे से मिट गए हैं.
आखिरकार हम नीचे की ओर आठ घंटे पैदल चल कर सबसे करीब के बड़े शहर और स्याफ्रुबेसी स्थित बेस में पहुंचे जो कि काठमांडू से गाड़ी के सफर पर सात से आठ घंटे दूर है. हम एक आपातकालीन राहत शिविर में ठहरे जहां हमें खाना और पानी मिला. ये सारी जगहें नेपाल के रसुआ जिले में हैं.
पहाड़ को पीछे छोड़ते हुए एक के बाद एक उन गांवों से होकर चलना बहुत मुश्किल था, जो पूरी तरह तबाह हो चुके थे. उनमें से कुछ जगहों में तो हम बस कुछ ही दिन पहले, ऊपर जाते हुए स्थानीय घरों में ठहरे थे. अब वे मलबा बन चुके थे. भूकंप के केंद्र के नजदीक होने के कारण इन इलाकों में मौत की दरें काफी ऊंची थीं. हम खुशकिस्मत थे कि हम बच गए थे.
अगले दिन हम एक खौफनाक इलाके से होकर 50 किमी लंबी का सफर तय किया. ऐसा लग रहा था मानो हम पर कयामत टूट पड़ी हो. सारी राहें वीरान और टूटी पड़ी थीं, हर जगह धरती धंसी हुई थी और टूटे-फूटे वाहन बिखरे पड़े थे. हरेक गांव और शहर एक तबाही बन चुका था, जहां बचे हुए लोग कामचलाऊ शिविरों में रह रहे थे और जख्मियों की देखभाल कर रहे थे. हम काठमांडू लौटने के लिए आखिर में जाकर कालिकास्थान में हमें एक बस मिली. जब हम काठमांडू पहुंचे तो हमें यहां भी खासी तबाही देखने को मिली. यह एक अति-यथार्थवादी, किसी जोंबी फिल्म जैसा नजारा लग रहा था, जिसमें हमारी नजरों के सामने ही शहर गायब हो गया हो. ऐसा था मानो किसी ने हमारे साथ कोई शैतानी खेल खेला हो.
हमने इतनी तबाही और इतनी तकलीफ देखी, खास कर पहाड़ों के जिन दूर दराज के गांवों में हम फंसे थे, कि हम अब भी उस दर्दनाक अहसास को थाहने की कोशिश ही कर रहे हैं. अभी हमें आराम चाहिए.
हम लोग काठमांडू के उत्तर में लांगतांग घाटी में ट्रेकिंग के लिए गए थे और अभी बस नागथाली पहाड़ के शिखर की तरफ महज 3500 मीटर की ऊंचाई तक ही चढ़ाई की थी. यह चोटियों के बीच एक खड़ी चढ़ाई रही थी, हम थके हुए थे और अभी अभी हमने ठहरने के लिए एक जगह खोजी थी और चाय की चुस्की लेने ही वाले थे कि धरती हिली. यह इतना तेज था कि हमें लगा कि हम पहाड़ से किसी भी समय गिर जाएंगे. यह बात तो बाद में गांव वालों ने बताई कि भले ही हम बुरी तरह झटका खा रहे थे, लेकिन भूकंप के दौरान पहाड़ की चोटी पर होना सुरक्षित था. नीचे की तरफ, भू-स्खलन की वजह से हुई तबाही बहुत बुरी थी.
इत्तेफाक से, नागथली पहले भूकंप के केंद्र के बेहद करीब था और दूसरे भूकंप का केंद्र था.
मौसम खराब था, जमीन धंस रही थी, फोन भी काम नहीं कर रहा था और हम पहाड़ पर करीब 18 घंटे तक फंसे रहे. रात में हम एक बंगले में दूसरे करीब दस लोगों के साथ रुके, और रेडियो पर सुना कि पूरा मुल्क बुरी तरह इसकी चपेट में आया था. स्थानीय लोग रुक कर हमें उस तबाही और मौतों के बारे में बताते, कि जिन गांवों से होकर हम आए थे और जिन गांवों को जा रहे थे, वो पूरी तरह नक्शे से मिट गए हैं.
आखिरकार हम नीचे की ओर आठ घंटे पैदल चल कर सबसे करीब के बड़े शहर और स्याफ्रुबेसी स्थित बेस में पहुंचे जो कि काठमांडू से गाड़ी के सफर पर सात से आठ घंटे दूर है. हम एक आपातकालीन राहत शिविर में ठहरे जहां हमें खाना और पानी मिला. ये सारी जगहें नेपाल के रसुआ जिले में हैं.
पहाड़ को पीछे छोड़ते हुए एक के बाद एक उन गांवों से होकर चलना बहुत मुश्किल था, जो पूरी तरह तबाह हो चुके थे. उनमें से कुछ जगहों में तो हम बस कुछ ही दिन पहले, ऊपर जाते हुए स्थानीय घरों में ठहरे थे. अब वे मलबा बन चुके थे. भूकंप के केंद्र के नजदीक होने के कारण इन इलाकों में मौत की दरें काफी ऊंची थीं. हम खुशकिस्मत थे कि हम बच गए थे.
अगले दिन हम एक खौफनाक इलाके से होकर 50 किमी लंबी का सफर तय किया. ऐसा लग रहा था मानो हम पर कयामत टूट पड़ी हो. सारी राहें वीरान और टूटी पड़ी थीं, हर जगह धरती धंसी हुई थी और टूटे-फूटे वाहन बिखरे पड़े थे. हरेक गांव और शहर एक तबाही बन चुका था, जहां बचे हुए लोग कामचलाऊ शिविरों में रह रहे थे और जख्मियों की देखभाल कर रहे थे. हम काठमांडू लौटने के लिए आखिर में जाकर कालिकास्थान में हमें एक बस मिली. जब हम काठमांडू पहुंचे तो हमें यहां भी खासी तबाही देखने को मिली. यह एक अति-यथार्थवादी, किसी जोंबी फिल्म जैसा नजारा लग रहा था, जिसमें हमारी नजरों के सामने ही शहर गायब हो गया हो. ऐसा था मानो किसी ने हमारे साथ कोई शैतानी खेल खेला हो.
हमने इतनी तबाही और इतनी तकलीफ देखी, खास कर पहाड़ों के जिन दूर दराज के गांवों में हम फंसे थे, कि हम अब भी उस दर्दनाक अहसास को थाहने की कोशिश ही कर रहे हैं. अभी हमें आराम चाहिए.
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