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Friday, June 6, 2014

अल्पसंख्यक अधिकार और राज्य हिंसा





शासक वर्ग के संकट के नतीजे में जिस तरह से राज्य की केंद्रीय भूमिका के साथ अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ रहे हैं उसमें सुभाष गाताड़े का यह लेख एक जरूरी पाठ है. यह अगस्त 2013 'साहित्य और मानवाधिकार' शीर्षक पर इंग्लिश विभाग, पांडिचेरी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित सेमिनार में प्रस्तुत व्याख्यान है.

अगर मैं नहीं जलता
अगर आप नहीं जलते 
हम लोग नहीं जलते
फिर अंधेरे में उजास कौन करेगा
- नाजिम हिकमत

1.
कुछ समय पहले एक अलग ढंग की किताब से मेरा साबिका पड़ा जिसका शीर्षक था 'रायटर्स पुलिस' जिसे ब्रुनो फुल्गिनी ने लिखा था। जनाब बुल्गिनी जिन्हें फ्रांसिसी संसद ने पुराने रेकार्ड की निगरानी के लिए रखा था, उसे अपने बोरियत भरे काम में अचानक किसी दिन खजाना हाथ लग गया जब दो सौ साल पुरानी पैरिस पुलिस की फाइलें वह खंगालने लगे। इन फाइलों में अपराधियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अलावा लेखकों एवं कलाकारों की दैनंदिन गतिविधियों का बारीकी से विवरण दिया गया था। जाहिर था कि 18 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में महान लेखकों पर राजा की बारीकी निगरानी थी।

जाहिर है कि अन्दर से चरमरा रही हुकूमत की आन्तरिक सुरक्षा की हिफाजत में लगे लोगों को यह साफ पता था कि ये सभी अग्रणी कलमकार भले ही कहानियां लिख रहे हों, मगर कुलीनों एवं अभिजातों के जीवन के पाखण्ड पर उनका फोकस और आम लोगों के जीवनयापन के मसलों को लेकर उनके सरोकार मुल्क के अन्दर जारी उथलपुथल को तेज कर रहे हैं। उन्हें पता था कि उनकी यह रचनाएं एक तरह से बदलाव के लिए उत्प्रेरक का काम कर रही हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि कानून एवं सुरक्षा के रखवालों द्वारा विचारों के मुक्त प्रवाह पर बन्दिशें लगाने के लिए की जा रही वे तमाम कोशिशें बेकार साबित हुई और किस तरह सामने आयी फ्रांसिसी क्रान्ति दुनिया के विचारशील, इन्साफपसन्द लोगों के लिए उम्मीद की किरण बन कर सामने आयी।

या आप 'अंकल टॉम्स केबिन' या 'लाईफ अमंग द लोली' नामक गुलामी की प्रथा के खिलाफ अमेरिकी लेखिका हैरिएट बीचर स्टोव द्वारा लिखे गए उपन्यास को देखें। इसवी 1852 में प्रकाशित इस उपन्यास के बारे में कहा जाता है कि उसने अमेरिका के ''गृहयुद्ध की जमीन तैयार की'। इस किताब की लोकप्रियता का अन्दाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 19 वीं सदी का वह सबसे अधिक बिकनेवाला उपन्यास था। कहा जाता है कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, जिन्होंने गुलामी की प्रथा की समाप्ति के लिए चले गृहयुद्ध की अगुआई की, जब 1862 में पहली दफा हैरिएट बीचर स्टोव से मिले तो उन्होंने चकित होकर पूछा '' तो आप ही वह महिला जिन्होंने लिखे किताब ने इस महान युद्ध की नींव रखी।'

ईमानदारी की बात यह है कि मैं कभी भी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा हूं मगर मैं साहित्य में समाहित इस जबरदस्त ताकत का हमेशा कायल रहता हूं। यह अकारण नहीं कि पहली समाजवादी इन्कलाब के नेता लेनिन ने, लिओ टालस्टॉय को 'रूसी क्रान्ति का दर्पण' कहा था या उर्दू-हिन्दी साहित्य के महान हस्ताक्षर प्रेमचन्द अपनी मृत्यु के 75 साल बाद आज भी लेखकों एवं क्रान्तिकारियों द्वारा समान रूप से सम्मानित किए जाते हैं।

और जब मैं यह विवरण पढ़ता हूं और 'भविष्य को देखने की' साहित्य की प्रचण्ड क्षमता का आकलन करने की कोशिश करता हूं तब यह उम्मीद करता हूं कि अब वक्त़ आ गया है कि इस स्याह दौर में साहित्य उस भूमिका को नए सिरेसे हासिल करे।

2.

इसमें कोई दोराय नहीं कि यह एक स्याह दौर है, अगर आप निओन साइन्स और चमक दमक से परे देखने की या हमारे इर्दगिर्द नज़र आती आर्थिक बढ़ोत्तरी के तमाम दावों के परे देखने की कोशिश करें। जनता की बहुसंख्या का बढ़ता दरिद्रीकरण और हाशियाकरण तथा अपनी विशिष्ट पहचानों के चलते होता समुदायों का उत्पीड़न अब एक ऐसी सच्चाई है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। तरह तरह के अल्पसंख्यक – नस्लीय, एथनिक, धार्मिक आदि – को दुनिया भर में बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। दक्षिण एशिया के इस हिस्से में स्थितियां वाकई बेहद विपरीत दिखती हैं। बहुसंख्यकवाद का उभार हर तरफ दिखाई देता है। एक दिन भी नहीं बीतता जब हम पीड़ित समुदायों पर हो रहे हमलों के बारे में नहीं सुनते। दक्षिण एशिया के इस परिदृश्य की विडम्बना यही दिखती है कि एक स्थान का पीड़ित समुदाय दूसरे इलाके में उत्पीड़क समुदाय में रूपान्तरित होता दिखता है।

कुछ समय पहले इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि महात्मा बुद्ध के सिद्धान्त के स्वयंभू रक्षक 'बर्मा के बिन लादेन' में रूपान्तरित होते दिखेंगे। मुमकिन है कि आप सभी ने 'गार्डियन' में प्रकाशित या 'टाईम' में प्रकाशित उस स्टोरी को पढ़ा हो जिसका फोकस विराथू नामक बौद्ध भिक्खु पर था, जो 2,500 बौद्ध भिक्खुओं के एक मठ का मुखिया है और जिसके प्रवचनों ने अतिवादी बौद्धों को मुस्लिम इलाकों पर हमले करने के लिए उकसाया है। बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों की दुर्दशा जिन पर बहुसंख्यकवादी बौद्धों द्वारा जबरदस्त जुल्म ढाये जा रहे हैं सभी के सामने है।

बर्मा की सीमा को लांघिये, बांगलादेश पहुंचिये और आप बिल्कुल अलग नज़ारे से रूबरू होते हैं। यहां चकमा समुदाय – जो बौद्ध हैं, हिन्दू और अहमदिया – जो मुसलमानों का ही एक सम्प्रदाय है – वे सभी इस्लामिक अतिवादियों के निशाने पर दिखते हैं। कुछ समय पहले 'हयूमन राइटस वॉच' ने हिन्दुओं के खिलाफ वहां जारी हिंसा के बारे में रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें उनके मकानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों या मन्दिरों को जलाने का जिक्र था। यह उसी वक्त की बात है जब बांगलादेश जमाते इस्लामी के वरिष्ठ नेताओ ंके खिलाफ 1971 में किए गए युद्ध अपराधों को लेकर मुकदमे चले थे और कइयों को सज़ा सुनायी गयी थी। हालांकि वहां सत्ता में बैठे समूहों या अवाम के अच्छे खासे हिस्से ने ऐसे हमलों की लगातार मुखालिफत की है, मगर स्थितियां कब गम्भीर हो जाए इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

पड़ोसी पाकिस्तान में इस्लामीकरण की तेज होती प्रक्रिया के अन्तर्गत न केवल हिन्दुओं, अहमदियाओं और ईसाइयों पर बल्कि शिया मुसलमानों पर भी हमले होते दिखते हैं। एक वक्त़ था जब पाकिस्तान में प्रचलित इस्लाम अपनी सूफी विरासत का सम्मान करता था, मगर स्थितियां इस मुका़म तक पहुंची है कि ऐसी सभी सूफी परम्पराएं अब निरन्तर हमले का शिकार हो रही हैं। जाने माने पाकिस्तानी विद्धान एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता परवेज हुदभॉय इसे पाकिस्तान का 'सौदीकरण' या 'वहाबीकरण' कहते हैं। सूफी मज़ारों पर आत्मघाती हमले और बसों को रोक कर हजारा मुसलमानों का कतलेआम या लड़कियों को शिक्षा देने वाले स्कूलों पर बमबारी जैसी घटनाएं अब अपवाद नहीं रह गयी हैं। ईशनिन्दा के कानून के अन्तर्गत वहां किस तरह गैरमुस्लिम को निशाने पर लिया जा रहा है और किस तरह पंजाब (पाकिस्तान) के गवर्नर सलमान तासीर को इस मानवद्रोही कानून को वापस लेने की मांग करने के लिए शहादत कूबूल करनी पड़ी, इन सभी घटनाओं के हम सभी प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं।

'सार्क' प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा मालदीव भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ता दिखता है। श्रीलंका जो तमिल विद्रोहियों की सरगर्मियों के चलते दशकों तक सूर्खियों में रहा, वह इन दिनों सिंहल बौद्ध अतिवादियों की गतिविधियों के चलते इन दिनों चर्चा में रहता है, जो वहां की सत्ताधारी तबकों के सहयोग से सक्रिय दिखते हैं। कुख्यात बोडू बाला सेना के बारे में समाचार मिलते हैं कि किस तरह वह मुस्लिम प्रतिष्ठानों पर हमले करती है, 'पवित्रा इलाकों' से मस्जिदों तथा अन्य धर्मों के प्रार्थनास्थलों को विस्थापित करने का निर्देश देती है, यहां तक कि उसने मुसलमानों के लिए धार्मिक कारणों से प्रिय हलाल मीट को बेचने पर भी कई स्थानों पर रोक लगायी है। बर्मा की तरह यहां पर भी मुस्लिम विरोधी खूनी मुहिम की अगुआई बौद्ध भिक्खु करते दिखते हैं।

अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र कहलानेवाला भारत भी इस प्रक्रिया से अछूता नहीं है।

3.

जहां तक अल्पसंख्यक अधिकारों का सवाल है तो यहां की परिस्थितियां भी अपने पड़ोसी मुल्कों से गुणात्मक तौर पर भिन्न नहीं हैं। संविधान को लागू करने के वक्त़ डा अम्बेडकर ने साठ साल पहले दी चेतावनी आज भी मौजूं जान पड़ती है कि एक व्यक्ति एक वोट से राजनीतिक जनतंत्रा में प्रवेश करते इस मुल्क में एक व्यक्ति एक मूल्य कायम करना अर्थात सामाजिक जनतंत्रा कायम करना जबरदस्त चुनौती वाला काम बना रहेगा।

कई अध्ययनों और सामाजिक परिघटनाओं के अवलोकन के माध्यम से अल्पसंख्यक अधिकारों की वास्तविक स्थिति को जांचा जा सकता है। इनमें सबसे अहम है साम्प्रदायिक हिंसा की परिघटना। इसकी विकरालता को समझने के लिए हम साम्प्रदायिक विवाद को लेकर चन्द आंकड़ों पर निगाह डाल सकते हैं।

केन्द्रीय गृहमंत्रालय से सम्बद्ध महकमा ब्युरो आफ पुलिस रिसर्च एण्ड डेवलपमेण्ट द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक 1954 से 1996 के बीच हुए दंगों की 21,000 से अधिक घटनाओं में लगभग 16,000 लोग मारे गए, जबकि एक लाख से अधिक जख्मी हुए। इनमें से महज मुट्ठीभर लोगों को ही दंगों में किए गए अपराध के लिए दंडित किया गया। और हम यह नहीं भूल सकते कि यह सभी 'आधिकारिक' आंकड़े हैं, वास्तविक संख्या निश्चित ही काफी अधिक होगी।
प्रधानमंत्राी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद आयोजित सिख विरोधी जनसंहार को हम याद कर सकते हैं जब राष्ट्रीय स्तर पर सिख हमले का शिकार हुए और आधिकारिक तौर पर दिल्ली की सड़कों पर एक हजार से अधिक निरपराध – अधिकतर सिख – गले में जलते टायर डाल कर या ऐसे ही अन्य पाशवी तरीकों से मार दिए गए। हर कोई जानता है कि यह कोई स्वतःस्फूर्त हिंसा नहीं थी, वह बेहद संगठित, सुनियोजित हिंसा थी जिसमें तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के नेता शामिल थे। इसकी जांच के लिए कई आयोग बने, जिनमें सबसे पहले आयी थी 'सिटिजन्स फार डेमोक्रेसी' द्वारा तैयार की रिपोर्ट। इस रिपोर्ट ने स्पष्टता के साथ कांग्रेस के नेताओं को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था।

क्या आज कोई यकीन कर सकता है कि दिल्ली, जो भारत जैसे सबसे बड़े जनतंत्र की राजधानी है, वह महज तीस साल पहले आधिकारिक तौर पर एक हजार से अधिक निरपराधों के – जिनका बहुलांश सिखों का था – सरेआम हत्या का गवाह बनी और आज दस जांच आयोगों और तीन विशेष अदालतों के बाद, सिर्फ तीन लोग दंडित किए जा चुके हैं और बाकी मुकदमे अभी उसी धीमी रफ्तार से चल रहे हैं, जबकि इस सामूहिक संहार के असली कर्ताधर्ता एवं मास्टरमाइंड अभी भी बेदाग घूम रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब तक हम सिखों के खिलाफ हुई इस हिंसा के असली कर्णधारों को दंडित नहीं करते, वह हमारे वक्त़ के 'हिन्दू हृदय सम्राटों' को वैधता प्रदान करता रहेगा जिन्होंने 2002 में गुजरात की अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा को 'क्रिया-प्रतिक्रिया' के पैकेज में प्रस्तुत किया है।
जैसे कि एक वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है गुजरात 2002 की इस संगठित हिंसा के तीन विचलित करनेवाले पहलुओं को लेकर सभी की सहमति होगी। ''एक यही कि यह जनसंहार शहरी भारत की हृदयस्थली में मीडिया की प्रत्यक्ष मौजूदगी में हुआ', 'दूसरे जिन्होंने इस जनसंहार को अंजाम दिया वह इसके तत्काल बाद इन अपराधों के चलते सत्ता में लौट सके' और 'तीसरे, इतने सालों के बाद भी कहीं से भी पश्चात्ताप की कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती है।'

यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हर सम्वेदनशील, मानवीय, न्यायप्रिय व्यक्ति तथा संगठन इस समूची परिस्थिति को लेकर आंखें मूंद कर रह सकता है या चुप्पी के इस षडयंत्र को तोड़ने के लिए तैयार है। क्या हमारे स्तर पर यह मानना उचित होगा कि हम उस जनसंहार को चन्द 'बीमार हत्यारों', 'कुछ धूर्त मस्तिष्कों की हरकतों' तक सीमित रखें और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों – जिन्होंने इसकी योजना बनायी और उस पर अमल किया – को बेदाग छोडें़ ?

इस हक़ीकत को देखते हुए कि आज की तारीख में दंगा कराने का काम बकौल पाल आर ब्रास 'संस्थागत दंगा प्रणालियों' की अवस्था तक पहुंचा है, यह मुनासिब नहीं होगा कि हम किसी भी दंगे में स्वतःस्फूर्तता के तत्व तक अपने आप को सीमित रखें। हमें इस बात पर बार बार जोर देना पड़ेगा क्योंकि आज दंगा पीड़ितों से न्याय से बार बार इन्कार को लेकर 'स्वतःस्फूर्तता' का यही जुमला दोहराया जाता है। इस पहलू की चर्चा करते हुए सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश सुश्री इंदिरा जयसिंह ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया था:

    ' हमारी कानूनी प्रणाली इस बुनियादी प्रश्न को सम्बोधित करने में असफल रही है: आखिर ऐसी जनहत्याओं को लेकर राज्य के मुखिया की संवैधानिक और व्यक्तिगत जिम्मेदारी क्या होती है' और उनकी सिफारिश थी: 'वे सभी जिन्होंने ऐसी हत्याओं को अंजाम दिया हो उन्हें जिम्मेदार ठहराने के अलावा, हमें उन लोगों को भी जिम्मेदार मानना होगा जिनके हाथों में सत्ता के सूत्रा रहे हैं, जो न केवल हत्याओं को रोकने में असफल रहे, बल्कि घृणा आधारित वक्तव्यों से ऐसी हत्याओं की जमींन तैयार करते हुए उन्होंने उसे समझ में आने लायक प्रतिक्रिया घोषित किया।''

इस समूची बहस की याद नए सिरेसे ताज़ा हो जाती है जब हम देखते हैं कि यह नेल्ली कतलेआम का इकतीसवां साल है और इस जघन्य हत्याकाण्ड के कर्ताधर्ता आज भी खुलेआम घुम रहे हैं। वह फरवरी 18, 1983 का दिन था जब हथियारबन्द समूहों ने असम के जिला नागौन में 14 गांवों में छह घण्टे के अन्दर 1,800 मुसलमानों को (गैरसरकारी आंकड़ा: 3,300) मार डाला। आज़ाद हिन्दोस्तां के धार्मिक-नस्लीय जनसंहार के इस सबसे बर्बर मामले में हमलावरों ने यह कह कर अपने हत्याकाण्ड को जायज ठहराया कि मरनेवाले सभी बांगलादेश के अवैध आप्रवासी थे। इस मामले की जांच के लिए बने आयोग – तिवारी कमीशन – की रिपोर्ट, जो ढाई दशक पहले सरकार को सौंपी गयी, आज भी वैसी ही पड़ी हुई है। उसकी सिफारिशों पर कार्रवाई होना दूर रहा। और सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों के बीच वहां एक अलिखित सहमति बनी है कि इस मामले को अब खोला न जाए।

4.

कई तरीके हो सकते हैं जिसके माध्यम से बाहरी दुनिया के सामने भारत को प्रस्तुत किया जाता है, प्रोजेक्ट किया जाता है। कुछ लोगों के लिए वह दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्रा है, जबकि बाकियों के लिए वह दुनिया की तेज गति से चल रही अर्थव्यवस्था है जिसका अब विश्व मंच पर 'आगमन' हो चुका है। लेकिन शायद ही कोई हो यह कहता है कि वह 'जनअपराधों की भूमि' है जहां ऐसे अपराधों के अंजामकर्ताओं को शायद ही सज़ा मिलती हो। जनमत को प्रभावित करनेवाले लोग कहीं भी उस अपवित्रा गठबन्धन की चर्चा नहीं करते हैं जो सियासतदानों, माफियागिरोहों और कानून एवं व्यवस्था के रखवालों के बीच उभरा है जहां 'जनअपराधों को अदृश्य करने' की कला में महारत हासिल की गयी है। और ऐसे जनअपराधों के निशाने पर – धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लोग, सामाजिक श्रेणियों में सबसे नीचली कतार में बैठे लोग या देश के मेहनतकश – दिखते हैं।

क्या कोई इस बात पर यकीन कर सकता है कि 42 दलितों – जिनमें मुख्यतः महिलाएं और बच्चे शामिल थे – का आज़ाद हिन्दोस्तां का 'पहला' कतलेआम तमिलनाडु के तंजावुर जिले के किझेवनमन्नी में (1969) में सामने आया था जहां तथाकथित उंची जाति के भूस्वामियों ने इसे अंजाम दिया था, मगर सभी इस मामले में बेदाग बरी हुए क्योंकि अदालती फैसले में यह कहा गया कि 'इस बात से आसानी से यकीन नहीं किया जा सकता कि उंची जाति के यह लोग पैदल उस दलित बस्ती तक पहुंचे होंगे।' गौरतलब है कि कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में मजदूरों ने वहां हड़ताल की थी और अदालत में भले ही उन शोषितों को न्याय नहीं मिला होगा मगर वहां के संघर्षरत साथियों ने भूस्वामियों के हाथों मारे गए इन शहीदों की स्मृतियों को आज भी संजो कर रखा है, हर साल वहां 25 दिसम्बर को – जब यह घटना हुई थी – हजारों की तादाद में लोग जुटते हैं और चन्द रोज पहले यहां उनकी याद में एक स्मारक का भी निर्माण किया गया।

अगर हम स्वतंत्र भारत के 60 साला इतिहास पर सरसरी निगाह डालें तो यह बात साफ होती है कि चाहे किझेवनमन्नी, यहा हाशिमपुरा (जब यू पी के मेरठ में दंगे के वातावरण में वहां के 42 मुसलमानों को प्रांतीय पुलिस ने सरेआम घर से निकाल कर भून दिया था 1986), ना बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बम्बई में शिवसेना जैसे संगठनों द्वारा प्रायोजित दंगों में मारे गए 1,800 लोग (जिनका बहुलांश अल्पसंख्यकों का था, 1992 और जिसको लेकर श्रीकृष्ण आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी दी है), ना ही राजस्थान के कुम्हेर में हुए दलितों के कतलेआम (1993) और न ही अतिवादी तत्वों द्वारा किया गया कश्मीरी पंडितों के संहार (1990) जैसे तमाम मामलों में किसी को दंडित किया जा सका है। देश के विभिन्न हिस्सों में हुए ऐसे ही संहारों को लेकर ढेर सारे आंकड़े पेश किए जा सकते हैं।

और हम यह भी देखते हैं कि उत्तर पूर्व और कश्मीर जैसे इलाकों में, दशकों से कायम सशस्त्रा बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे दमनकारी कानूनों ने सुरक्षा बलों को एक ऐसा कवच प्रदान किया है कि मनगढंत वजहों से उनके द्वारा की जानेवाली मासूमों की हत्या अब आम बात हो गयी है। हम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मणिुपर की फर्जी मुठभेड़ों को लेकर बनाए गए सन्तोष हेगडे कमीशन की रिपोर्ट हालिया रिपोर्ट पढ़ सकते हैं और जिन चुनिन्दा घटनाओं की जांच के लिए उन्हें कहा गया था उसका विवरण देख सकते हैं। बहुत कम लोग इस तथ्य को स्वीकारना चाहेंगे कि कश्मीर आज दुनिया का सबसे सैन्यीकृत इलाका है और विगत दो दशकों के दौरान वहां हजारों निरपराध मार दिए गए हैं।

आप यह जान कर भी विस्मित होंगे कि किस तरह ऐस जनअपराधों को या मानवता के खिलाफ अपराधों को सत्ताधारी तबकों द्वारा औचित्य प्रदान किया जाता है या वैधता दी जाती है, जहां मुल्क का प्रधानमंत्राी राजधानी में सिखों के कतलेआम के बाद – जिसे उसकी पार्टी के सदस्यों ने ही अंजाम दिया – यह कहता मिले कि 'जब बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती ही है।' या किसी राज्य का मुख्यमंत्राी उसके अपने राज्य में मासूमों के कतलेआम को न्यूटन के 'क्रिया प्रतिक्रिया' के सिद्धान्त से औचित्य प्रदान करे।

ऐसे तमाम बुद्धिजीवी जो 'हमारी महान संस्कृति' में निहित सहिष्णुता से सम्मोहित रहते हैं और उसकी समावेशिता का गुणगान करते रहते हैं, वह यह जान कर आश्चर्यचकित होंगे कि किस तरह आम जन, अमनपसन्द कहलानेवाले साधारण लोग रातों रात अपने ही पड़ोसियों के हत्यारों या बलात्कारियों में रूपान्तरित होने केा तैयार रहते है और किस तरह इस समूचे हिंसाचार और उसकी 'उत्सवी सहभागिता' के बाद वही लोग चुप्पी का षडयंत्रा कायम कर लेते हैं। बिहार का भागलपुर इसकी एक मिसाल है – जहां 1989 के दंगों में आधिकारिक तौर पर एक हजार लोग मारे गए थे, जिनका बहुलांश मुसलमानों का था – जहां लोगाईं नामक गांव की घटना आज भी सिहरन पैदा करती है। दंगे में गांव के 116 मुसलमानों को मार दिया गया था और एक खेत मंे गाड़ दिया गया था और उस पर गोबी उगा दिया गया था।

निस्सन्देह अल्पसंख्यक अधिकारों के सबसे बड़े उल्लंघनकर्ता के तौर पर हम राज्य और दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवादी संगठनों को देख सकते हैं मगर क्या उसे सामाजिक वैधता नहीं होती। यह बात रेखांकित करनेवाली है कि एक ऐसे मुल्क में जहां अहिंसा के पुजारी की महानता का बखान करता रहता है, एक किस्म की हिंसा को न केवल 'वैध' समझा जाता है बल्कि उसे पवित्रता का दर्जा भी हासिल है। दलितों, अल्पसंख्यकों और अन्य उत्पीड़ित तबकों के खिलाफ हिंसा को प्राचीन काल से धार्मिक वैधता हासिल होती रही है और आधुनिकता के आगमन ने इस व्यापक परिदृश्य को नहीं बदला है। भारत एकमात्रा ऐसा मुल्क कहलाता है जहां एक विधवा को अपने मृत पति की चिता पर जला दिया जाता रहा है। अगर पहले कोई नवजात बच्ची को बर्बर ढंग से खतम किया जाता था आज टेक्नोलोजी के विकास के साथ इसमें परिवर्तन आया है और लोग यौनकेन्द्रित गर्भपात करवाते हैं। यह बात आसानी से समझ आ जाती है कि आखिर क्यों भारत दुनिया का एकमात्रा मुल्क है जहां 3 करोड 30 लाख महिलाएं 'गायब' हैं। रेखांकित करनेवाली बात यह है कि ऐसी तमाम प्रथाओं एवं सोपानक्रमों की छाप – जिनका उदगम हिन्दू धर्म में दिखता है – अन्य धर्मों पर भी नज़र आती है। इस्लाम, ईसाइयत या बौद्ध धर्म में जातिभेद की परिघटना – जिसकी बाहर कल्पना नहीं की जा सकती – वह यहां मौजूद दिखती है।

इस परिदृश्य को बदलना होगा अगर भारत एक मानवीय समाज के तौर पर उभरना चाहता है। यह चुनौती हम सभी के सामने है। अगर इस उपमहाद्वीप के रहनेवाले लोग यह संकल्प लें कि 'दुनिया का यह सबसे बड़ा जनतंत्रा' भविष्य में 'जन अपराधों की भूमि' के तौर पर न जाना जाए तो यह काम जल्दी भी हो सकता है। इसे अंजाम देना हो तो सभी न्यायप्रिय एवं अमनपसन्द लोगों एवं संगठनों को भारत सरकार को इस बात के लिए मजबूर करना होगा कि वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के जनसंहार के लिए बने कन्वेन्शन के अनुरूप अपने यहां कानून बनाए। गौरतलब है कि भारत ने इस कन्वेन्शन पर 1959 में दस्तख़त किए थे मगर उसके अनुरूप अपने यहां कानूनों का निर्माण नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जनअपराधों को लेकर न्याय करने की भारत के आपराधिक न्याय प्रणाली की क्षमता हमेशा ही सन्देह के घेरे में रही है। यह बात रेखांकित करनेवाली है कि उपरोक्त 'कन्वेन्शन आन द प्रीवेन्शन एण्ड पनिशमेण्ट आफ द क्राइम आफ जीनोसाइड' के हिसाब से जीनोसाइड अर्थात जनसंहार की परिभाषा इस प्रकार है:

    - ऐसी कोईभी कार्रवाई जिसका मकसद किसी राष्ट्रीय, नस्लीय, नृजातीय या धार्मिक समूह को नष्ट करने के इरादे से अंजाम दी गयी निम्नलिखित गतिविधियां
    क) समूह के सदस्यों की हत्या ;
    ख) समूह के सदस्यों को शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाना ;
    ग) किसी समूह पर जिन्दगी की ऐसी परिस्थितियां लादना ताकि उसका भौतिक या शारीरिक विनाश हो
    घ) ऐसे कदम उठाना ताकि समूह के अन्दर नयी पैदाइशों को रोका जा सके
    च) समूह के बच्चों को जबरन किसी दूसरे समूह को हस्तांतरित करना

हम आसानी से अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि अगर असली जनतंत्र पसन्द लोग सत्ताधारी तबकों पर हावी हो सकें तो हम जनअपराधों पर परदा डाले रखने या दंगाइयों या हत्यारों के सम्मानित राजनेताओं में रूपान्तरण को रोक सकते हैं और जनअपराधों पर परदा डालने के दोषारोपण से मुक्त हो सकते हैं।

5

हमें यह बात कभी भी नहीं भूलनी चाहिए कि साम्प्रदायिक हिंसा भले ही अल्पसंख्यक अधिकारों पर हमले की सबसे क्रूर अभिव्यक्ति हो, मगर भेदभाव के बहुविध स्तर अस्तित्व में रहते हैं। मुस्लिम समाज की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति को जानने पर केन्द्रित रही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर सरसरी निगाह डालें – जिसे संसद के सामने नवम्बर 2006 में प्रस्तुत किया गया था – तो विचलित करनेवाली स्थिति दिखती है। शिक्षा और सरकारी रोजगार तथा विभिन्न स्तरों पर वंचना की उनकी स्थिति को रेखांकित करने के अलावा उसने दो महत्वपूर्ण तथ्यों की तरफ इशारा किया था। भारतीय मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति और जनजाति की स्थिति से भी नीचे है और भले ही भारत की आबादी में मुसलमानों की तादाद 14 फीसदी हो, मगर नौकरशाही में उनका अनुपात 2.5 फीसदी ही है। उसने आवास, काम और शैक्षिक क्षेत्रा में समानता विकसित करने के लिए बहुविध सुझाव भी पेश किए थे। 

यह बात अधिक विचलित करनेवाली है कि वास्तविक व्यवहार में कुछ नहीं किया जा रहा है। नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्युरो की हालिया रिपोर्ट इस पर रौशनी डालती है, जो बताती है कि आज भले ही भारत में पुलिस की संख्या बढ़ा रहे हैं मगर जहां तक अल्पसंख्यक समुदाय के हिस्से की बात है, तो वह प्रतिशत कम हुआ है।

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कुछ समय पहले आप सभी ने डब्लू डब्लू डब्लू गुलैल डाट कॉम पर प्रख्यात खोजी पत्रकार आशीष खेतान द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को देखा होगा जिसमें इस बात का दस्तावेजीकरण किया गया था कि 'गोपनीय फाइलें इस तथ्य को उजागर करती हैं जिसका मुसलमानों को पहले से सन्देह रहा है: यही कि राज्य जानबूझ कर निरपराधों को आतंकवाद के आरोपों में फंसा रहा है।' जबकि इलाकाई मीडिया में या उर्दू मीडिया में इस रिपोर्ट को काफी अहमियत मिली मगर राष्ट्रीय मीडिया ने एक तरह से खेतान के इस खुलासे को नज़रअन्दाज़ किया कि किस तरह आधे दर्जन के करीब आतंकवाद विरोधी एंजेन्सियों के आन्तरिक दस्तावेज इस बात को उजागर करते हैं कि राज्य जानबूझ कर मुसलमानों को आतंकी मामलों में फंसा रहा है और उनकी मासूमियत को परदा डाले रख रहा है।

पत्रकार ने 'आतंकवाद केन्द्रित तीन मामलों की-ं 7/11 टेªन बम धमाके, पुणे ; पुणे जर्मन बेकरी विस्फोट ; मालेगांव धमाके 2006 जांच की है और पाया है कि इसके अन्तर्गत 21 मुसलमानों को यातनाएं दी गयीं, अपमानित किया गया और बोगस सबूतों के आधार पर उन पर मुकदमे कायम किए गए। और जब उनकी मासूमियत को लेकर ठोस सबूत पुलिस को मिले तबभी अदालत को गुमराह किया जाता रहा।''

हम अपने हालिया इतिहास के तमाम उदाहरणों को उदधृत कर सकते हैं जहां ऐसी आतंकी घटनाओं में संलिप्तता के लिए – जिनको हिन्दुत्व आतंकियों ने अंजाम दिया था – अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को जेल में ठंूसा जाता रहा है। फिर चाहे मालेगांव 2006 के बम धमाके का मामला हो या मक्का मस्जिद धमाके की घटना हो या समझौता एक्स्प्रेस बम विस्फोट की घटना हो – हम यही देखते हैं कि इन्हें संघ के कार्यकर्ता अंजाम देते रहे – मगर दोषारोपण मुसलमानों पर होता रहा। यह भी सही है कि राज्य मशीनरी के एक हिस्से की ऐसे मामलों में संलिप्तता के बिना ऐसा सम्भव नहीं था।

जांच एजेंसियां अब तक देश के अलग अलग हिस्सों में सक्रिय हिन्दुत्ववादी संगठनों को देश के अलग अलग हिस्सों में हुई बम विस्फोट की सोलह (मुख्य) घटनाओं के लिए जिम्मेदार मानती हैं। आम लोगों को लग सकता है कि ऐसे सभी बम विस्फोट राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के असन्तुष्ट तत्वों द्वारा किए गए हैं, इससे बड़ा झूठ दूसरा हो नहीं सकता।

अगर हम विकसित होते गतिविज्ञान पर गौर करें तो पाएंगे कि यह 'आतंकी मोड़' एक तरह से हिन्दुत्व संगठनों द्वारा तैयार की गयी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है जब उन्होंने तय किया कि वह 'दंगे के आतंक' से वह अब 'बम के आतंक' की तरफ मुडेंगे। उन्होंने पाया कि अब पुरानी रणनीति अधिक 'लाभदायक' साबित नहीं हो रही हैं और नयी रणनीति अधिक उचित हैं और मुल्क में फासीवाद के निर्माण के लिए लाभदायक है।

हम देख सकते हैं कि वह दो प्रक्रियाओं – एक राष्ट्रीय और दूसरी अन्तरराष्ट्रीय – का परिणाम है। गुजरात 2002 के जनसंहार में हिन्दुत्व ब्रिगेड की संलिप्तता की वैश्विक स्तर पर जितनी भर्त्सना हुई कि उसे दंगे की राजनीति की तरफ नये सिरेसे देखने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस बात का एहसास गहराया कि साम्प्रदायिक दंगों को अंजाम देने का वांछित राजनीतिक लाभ नहीं मिलता बल्कि साम्प्रदायिक राजनीति के माध्यम से निकले राजनीतिक लाभ अन्य कारणों से निष्प्रभावी हो जाते हैं। एक दूसरा कारक जो हिन्दुत्व ब्रिगेड की इस नयी कार्यप्रणाली के लिए अनुकूल था वह यह सहजबोध जिसका निर्माण 9/11 के बहाने अमेरिका ने किया था। 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' के नाम पर अमेरिका ने जो मुहिम शुरू की थी उसमें एक विशिष्ट समुदाय और उसके धर्म – इस्लाम – को निशाना बनाया गया था।

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ऐसे अवसर आते हैं जब आप अपने आप को बहुत निराशा की स्थिति में पाते हैं – ऐसी स्थिति जब धरती के इस हिस्से में रहनेवाले हर शान्तिकामी एवं न्यायप्रिय व्यक्ति के सामने आयी वर्ष 2002 में उपस्थित हुई थी जब हम सूबा गुजरात में सरकार की शह या अकर्मण्यता से सामने आ रहे जनसंहार से रूबरू थे। आज़ाद हिन्दोस्तां के इतिहास का वह सबसे पहला टेलीवाइज्ड दंगा अर्थात टीवी के माध्यम से आप के मकानों तक चौबीसों घण्टे 'सजीव' पहुंचनेवाला दंगा था।
अगर भारत सरकार ने जीनोसाइड कन्वेन्शन अर्थात जनसंहार कन्वेन्शन पर दस्तखत किए होते तो हिंसा के अंजामकर्ता या जिनकी संलिप्तता के चलते दंगे हो सके उन्हें मानवता के खिलाफ अपराध के लिए सलाखों के पीछे डाला जाता। समय का बीतना और शान्ति का कायम हो जाना इस सच्चाई को नकार नहीं सकता कि आज भी वहां न्याय नहीं हो सका है।

बदले हुए हालात पर गौर करें। एक ऐसा शख्स – जिसने आधुनिक नीरो की तर्ज पर इन 'दंगों' को होने दिया वह आज की तारीख में 'विकास पुरूष' में रूपान्तरित हुआ दिखता है और उसके नए पुराने मुरीद उसे ही देश के भविष्य का नियन्ता बनाने के लिए आमादा हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस मुल्क का चुनावी गतिविज्ञान इस तरह आगे बढ़े कि यह शख्स भारतीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे। मुमकिन है कि एक अधिक समावेशी, अधिक सहिष्णु, अधिक न्यायपूर्ण और अधिक शान्तिप्रिय मुल्क बनाने की हमारी ख्वाहिशें, हमारी आकांक्षाएं और हमारी कोशिशें फौरी तौर पर असफल हों।

क्या हमें इस परिणाम के लिए तैयार रहना चाहिए और अपनी 'नियति' के प्रति समर्पण करना चाहिए।

निश्चितही नहीं।

इसका अर्थ होगा जनतंत्र के बुनियादी सिद्धान्तों को बहुसंख्यकवाद के दहलीज पर समर्पित करना। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बहुमत के शासन के अलावा जनतंत्रा का मतलब होता है, अल्पमत के जीवन के अधिकारों एवं मतों की सुरक्षा और अधिक महत्वपूर्ण, यह कानूनी सम्भावना कि आज का राजनीतिक अल्पमत भविष्य में चुनावी बहुमत हासिल करेगा और इस तरह शान्तिपूर्ण तरीके से व्यवस्था को बदल देगा।

यह वर्ष 2001 का था जब नार्वे में अफ्रीकी नार्वेजियन किशोर बेंजामिन हरमानसेन की नवनात्सी गिरोह ने हत्या की, जो उस मुल्क के इतिहास की पहली ऐसी हत्या थी। आगे जो कुछ हुआ उसकी यहां कल्पना करना भी सम्भव नहीं होगा। अगले ही दिन दसियांे हजार नार्वे के निवासी राजधानी ओस्लो की सड़कों पर उतरे और उन्होंने किशोर को न्याय दिलाने की मांग की और इस विशाल प्रदर्शन की अगुआई नार्वे के प्रधानमंत्राी जेन्स स्टोल्टेनबर्ग ने की जिन्होंने यही कहा: 'यह हमारा तरीका नहीं है ; अपने समाज में नस्लीय अपराधों के लिए कोई स्थान नहीं है।'' एक साल के अन्दर पांच सदस्यीय पीठ ने दो हमलावरों को दोषी ठहराया और उन्हें 15 साल की सज़ा सुनायी।

''यह हमारा तरीका नहीं है…।''

मुझे यह किस्सा तब याद आया जब नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्राी डा अमर्त्य सेन, भारत की सरजमीं पर यहां के नवनात्सी समूहों के निशाने पर आए जब उन्होंने कहा कि वह मोदी के देश का प्रधानमंत्राी बनने के हक में नहीं हैं क्यांेकि उनके शासन में धार्मिक अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं होंगे। अधिकतर लोगों ने डा सेन के वक्तव्य को गौर से नहीं पढ़ा होगा: ''मुझे लगा कि बहुसंख्यक समुदाय का सदस्य होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है, न केवल मेरा अधिकार, कि मैं अल्पसंख्यकों के सरोकारों पर बात करूं। अक्सर बहुसंख्यक समुदाय का हिस्सा होने के नाते हम अक्सर इस बात को भूल जाते हैं।''
हमारी अपनी आंखों के सामने जनतंत्रा को खोखला करने की इन तमाम कोशिशों पर हमें गौर करना ही होगा।

अल्पसंख्यक अधिकारों को सुरक्षित करने में अहमियत इस बात की होगी कि हम जनतंत्र के बुनियादी मूल्य को अपनाएं और तहेदिल से उस पर अमल करे ताकि हम ऐसे शासन का निर्माण कर सकें जहां धर्म और राजनीति में स्पष्ट फरक हो। राज्य की धर्मनिरपेक्षता और नागरिक समाज का धर्मनिरपेक्षताकरण हमारा सरोकार बनना चाहिए।

दोस्त अक्सर मुझे पूछते हैं कि आप क्यों जनतंत्र को गहरा करने और धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने पर जोर देते हो। इसका एकमात्रा कारण यही है कि जिस दिन हम अपने इस 'ध्रुवतारे' को भूल जाएंगे, फिर वह दिन दूर नहीं होगा जब हम भी अपने पड़ोसी मुल्क के नक्शेकदम पर चलेंगे जिसने राष्ट्र के आधार के तौर पर धर्म को चुना और जो आज विभिन्न आंतरिक कारणों से अन्तःस्फोट का शिकार होता दिख रहा है।

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जब हमारे इर्दगिर्द ऐसे हालात हों और आप के इर्दगिर्द खड़ी उन्मादी भीड़ किसी नीरो को अपना नेता मानने के लिए आमादा हो तब उम्मीद के सोतों के लिए कहां देखा जा सकता है ?

साहित्य ही ऐसा स्त्रोत हो सकता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि उसी ने लोगों को शीतनिद्रा से जगाने का काम किया है और उनमें बड़े बड़े दुश्मनों को ललकारने की हिम्मत पैदा की है।

मैं अपनी प्रस्तुति को फ्रांसिसी इतिहास के एक प्रसंग से समाप्त करना चाहूंगा जिसे 'द्रेफ्यू काण्ड' कहा जाता है। वह 1890 का दौर था जब फ्रांस में एक यहुदी सैन्य अधिकारी द्रेफ्यू को 'देशद्रोह' के आरोप में गिरफ्तार कर सेण्ट हेलेना द्वीप भेज दिया गया था। उसे तब गिरफ्तार किया गया था जब वह अपने बच्चे के साथ खेल रहा था। पुलिस ने उसके खिलाफ इतना मजबूत मामला बनाया था कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इससे उसे जिन्दगी भर जेल में ही रहना पड़ेगा।

संयोग की बात कही जा सकती है कि महान फ्रांसिसी लेखक एमिल जोला ने इस काण्ड के बारे में जाना और इस घटना को लेकर अख़बारों में लेखमाला लिखी जिसका शीर्षक था 'आई एक्यूज' अर्थात 'मेरा आरोप है' जिसमें यहुदी सैन्य अधिकारी की मासूमियत को रेखांकित किया गया था और यहभी बताया गया था कि किस तरह वह एक साजिश का शिकार हुए। े उपरोक्त लेख में जोला ने यह भी बताया कि द्रेफ्यू के खिलाफ झूठा मुकदमा दर्ज करनेवाले सभी लोग किस तरह 'यहुदियों से घृणा' करते थे। लेखों की इस श्रृंखला का असर यह हुआ कि द्रेफ्यू को रिहा करने की मुहिम अधिक तेज हुई और सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा।

क्या अब वक्त़ नहीं आया है कि आतंकवाद के फर्जी आरोपों को लेकर आज जो तमाम द्रेफ्यू जेल में हैं या अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले तेज हो रहे हैं, उस परिस्थिति में साहित्य के रचयिता और विद्यार्थी एक सुर में अपनी आवाज़ बुलन्द करें और कहें 'आई एक्यूज'।

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