Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Friday, November 14, 2014

अंतहीन बाजार

अंतहीन बाजार

- See more at: http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/editorial-endless-market/#sthash.HkJBK2xr.dpuf

संदीप जोशी

जनसत्ता 15 नवंबर, 2014: बाजार को हर मौके पर मुनाफा कमाने की चाहत रहती है। वहीं उपभोक्ता को बाजार में होड़ से सस्ते सौदे की आशा होती है। ऐसा खासतौर पर त्योहारों के मौके पर होता है। आजकल बाजार और उपभोक्ता के सीधे सौदे के बीच में इ-व्यवसाय, यानी इंटरनेट के जरिए होने वाली सौदेबाजी अहम भूमिका निभा रही है।

पिछले दिनों मुश्किल हालात के बावजूद संगीत वाद्य लेने का मन बनाया। पास की परिचित इलेक्ट्रॉनिक दुकान में गया, फिलिप्स और सोनी संगीत वाद्य के भाव जाने। बहुविधा का एक फिलिप्स संगीत वाद्य पसंद आया। घर पर बात की तो बेटे ने कहा पहले इंटरनेट पर देखते हैं। वही संगीत वाद्य 'अमेजन' पर पांच सौ रुपए और 'स्नैपडील' पर आठ सौ रुपए सस्ता था। दुविधा में घर लौटना पड़ा। अगले दिन फिर उसी दुकान गया और इस बार इ-कारोबारी व्यवस्था को समझने की कोशिश की। जानकार दुकानदार ने बही-खाते निकाले और अपनी असल खरीद कीमत निकाल कर बता दी। उस कीमत से केवल सौ रुपए ज्यादा 'स्नैपडील' ने और पांच सौ रुपए ज्यादा 'अमेजन' ने पेशकश की थी। वहीं दुकानदार ने अपने दो भाइयों के परिवार और तीन कर्मचारी की तनख्वाह के साथ सरकारी कर देने के बाद लागत से पांच रुपए ज्यादा मांगे। दुकानदार के गणित को समझने पर इ-बाजार के गणित को समझना जरूरी लगा। आखिर मुनाफा कमाने वाला बाजार, इ-उपभोक्ताओं पर मेहरबान क्यों हो रहा है और क्यों 'स्नैपडील', 'अमेजन' या 'फ्लिपकार्ट' लागत या लागत से भी कम कीमत पर सामान बेच रहे हैं? घाटा उठाना बाजार का धर्म नहीं हो सकता है!

फिर जो बाजार मुनाफे के लिए ही जन्मता है, उसके इ-कारोबारी घाटे को उठा कौन रहा है? बदलती बाजारवादी व्यवस्था के ये नए आयाम हैं। इ-कारोबार करने वाले अपने उपभोक्ताओं के आलस्य के कारण वारे-न्यारे करने में लगे हैं। बिना आए-गए, देखे-परखे महज फोटो पर वस्तु खरीदना व्यस्त दिखने की मानसिकता भर मानना चाहिए। विदेश में इ-कारोबार के गुर सीखे देशी लोग यहां की मन:स्थिति भुनाने में लगे हैं। 'फ्लिपकार्ट' और 'स्नैपडील' विदेश में काम कर आए ऐसे ही भारतीयों ने खोली हैं। इनका धन बेशक न लगा हो, लेकिन इनका दिमाग लगातार दौड़ रहा है। विदेश में भी वस्तुएं लागत से कम पर नहीं बिकती हैं। मुनाफा जरूर कम होता है, क्योंकि ऊपरी खर्चे नाममात्र हैं। लेकिन भारत में तो वे लागत से भी कम पर बेचने का दावा कर रहे हैं। आखिर वे घाटा क्यों उठा रहे हैं?

इन इ-कारोबारियों के कारण कुछ समय से खरीदार प्रसन्न हैं। लेकिन बाजार में बरसों से खड़े खुदरा विक्रेता परेशानी में पड़े हैं, क्योंकि यह व्यवस्था सीधे नहीं तो टेढ़े रास्ते से खुदरा व्यापार में एफडीआइ, यानी सीधे विदेशी निवेश है। विदेश में काम किए देशी लोगों की प्रतिभा पर विदेशी कंपनियां बेहिसाब धन का निवेश कर रही हैं। जिनके पास इफरात धन है, उन्हें कहीं तो लगाना ही है। इ-कारोबारी उपभोक्ता सूची का आंकड़ा जमा करते हैं। आंकड़ों की आड़ में मनगढ़ंत और बढ़ा-चढ़ा बाजार भाव लगाते हैं और उसके लिए विदेशी निवेश मांगते हैं। घाटा उठा कर सस्ते में सामान बेचने के बाद जो उपभोक्ता सूची का आंकड़ा जमा होता है, उसे लेकर देशी अरबपति कंपनियों को आकर्षित करते हैं। और ऐसे ही एक दिन छप्पर-फाड़ कीमत पर अपने आंकड़ों के साथ बिकने को तैयार रहते हैं।

बड़े उद्योग इन इ-कारोबारियों को इतना धन देते हैं कि वे विदेशी निवेश चुका देने पर भी करोड़पति ही रहते हैं। इसके बाद बड़े उद्योगपति उपभोक्ता आंकड़ों की सूची का इस्तेमाल नए उत्पाद को बाजार में लाने और उसके प्रचार-प्रसार में कर सकते हैं। उस वस्तु का उपभोक्ता उनके कंप्यूटर की एक क्लिक पर होता है, इसीलिए वस्तु पर उनका एकाधिकार बनता है, जिसकी मुंहमांगी कीमत मांगी जा सकती है। इंटरनेट कारोबार सिर्फ बड़े उद्योगपतियों के लिए एकाधिकार कायम करने का जरिया है। इस बिना मेहनत के दिमागी कारोबार के कारण ही खुदरा व्यापार को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है।

खैर, अपन हफ्ते भर बाद फिर उसी दुकान में गए। दो विद्वान इ-कारोबारियों से ज्यादा भरोसा बरसों विश्वास पर दुकानदारी करते दो भाइयों पर किया। उनकी कमाई पर पलते कई परिवारों की जरूरत के कारण अपन कंगाली में आटा गीला कर आए, संगीत वाद्य दो सौ रुपए महंगा खरीद कर! उसमें सरकार का 'वैट' कर भी था। आर्थिक व्यवस्था में भी सामाजिक व्यावहारिकता होनी चाहिए। आर्थिक एकाधिकार केवल जनता द्वारा चुनी सरकार का होना चाहिए। सबका कारोबारी साथ रहेगा, तभी सबका आर्थिक विकास भी होगा।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta

- See more at: http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/editorial-endless-market/#sthash.HkJBK2xr.dpuf

No comments:

Post a Comment