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Saturday, April 6, 2013

आगामी चुनाव में साम्प्रदायिक ताकतों को शिकस्त दो

आगामी चुनाव में साम्प्रदायिक ताकतों को शिकस्त दो

इरफान इंजीनियर

 संप्रग-2 अब अल्पमत में है और सपा, बसपा व राजद द्वारा बाहर से दिये जा रहे समर्थन पर उसकी सरकार जिन्दा है। अब से लगभग एक साल बाद, उसे आम चुनाव का सामना करना है। अपने आखिरी साल में सरकार को अपने गठबंधन के साथियों और मित्र दलों के भारी दबाव और खींचातानी का सामना करना पड़ रहा है। संप्रग-2 का सबसे बड़ा दल कांग्रेस, आर्थिक सुधारों के अपने एजेन्डे को लागू करने के लिये बेचैन है। इन सुधारों से मूलतः उच्च आर्थिक वर्ग और कॉरपोरेट जगत को लाभ मिलेगा, जो कि अपनी सम्पत्ति व आमदनी में दिन-दूनी, रात-चौगुनी वृद्धि करना चाहता है। इसे ही अर्थशास्त्री व राजनीतिज्ञ आर्थिक प्रगति बता रहे हैं।

क्षेत्रीय क्षत्रप, संप्रग-2 सरकार को जीवनदान देने और मध्यावधि चुनाव टालने के बदले लूट में अपना हिस्सा माँग रहे हैं। नीतीश कुमार ने केन्द्र सरकार को इस बात के लिये मजबूर कर दिया है कि वह पिछड़े राज्य की परिभाषा पर पुनर्विचार करे, ताकि इन राज्यों की सूची में बिहार शामिल हो सके और वे अपने राज्य के विकास के लिये केन्द्र से विशेष पैकेज प्राप्त कर सकें। मुलायम सिंह यादव भी अपने राज्य के लिये अधिक केन्द्रीय सहायता प्राप्त करने के लिये रूठने-मनाने का खेल खेल रहे हैं।

संप्रग-2 का गठन, साम्प्रदायिक ताकतों से मुकाबला करने और उन्हें सत्ता से दूर रखने के लिये किया गया था। संप्रग-2 सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और उसे विदेशी निवेशकों के लिये खोलने की दिशा में आक्रामक प्रयास किये। भारतीय बाजार के उदारीकरण और उसमें कॉर्पोरेट जगत का दबदबा बढ़ने से आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे देशों की कम्पनियों को, भारत में निवेश कर, यहाँ की श्रमशक्ति का शोषण करने और यहाँ के बाजार से मुनाफा कमाने का मौका मिला। यह भी सही है कि संप्रग ने सरकार की जवाबदेही बढ़ाने के लिये कुछ कानून भी बनाये यद्यपि अब वह सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रयास कर रही है। कुछ और कल्याणकारी विधिनिर्माण भी हुआ, जिसमें शामिल है खाद्य सुरक्षा अधिनियम। परन्तु इन नये कानूनों को उतने अच्छे ढँग से लागू नहीं किया गया जितना कि किया जा सकता था। विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों ने संप्रग-2 की छवि को गहरी चोट पहुँचायी।

यद्यपि संप्रग का गठन फिरकापरस्ती से लड़ने के लिये किया गया था तथापि उसने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया। फर्जी मुठभेड़ों में मुसलमानों को मारने का सिलसिला जारी रहा। कांग्रेस-शासित राज्यों में भी,

इरफान इंजीनियर, लेखक स्तम्भकार एवं Institute for Peace Studies & Conflict Resolution के निदेशक हैं,

हर बम धमाके के बादबिना किसी सुबूत केबड़ी संख्या में मुसलमान युवकों को गिरफ्तार किया जाता रहा। जाँच खत्म होने तक इन्तजार करना तो दूर की बात रही, जाँच शुरू होने से पहले ही आतंकी हमलों के लिये मुसलमानों को दोषी करार दे देना आम बात बनी रही। अफजल गुरु को चोरी-छिपे फाँसी दे दी गयी ताकि वह फाँसी में विलम्ब के आधार पर, अपनी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने की अपील न कर सके। उसे उसके कानूनी अधिकारों से वंचित किया गया। अफजल गुरु को जल्दी से जल्दी फाँसी देने की माँग साम्प्रदायिक ताकतें कर रही थीं। धुले में दंगों के दौरानपुलिस ने निर्दोष मुसलमानों को निशाना बनाया। असम में हिंसा में 70 से अधिक लोग मारे गये और चार लाख को अपने घरबार छोड़ कर भागना पड़ा। अभी भी बोडोलैंड में मुसलमान स्वयं को असुरक्षित अनुभव कर रहे हैं।

संप्रग शासनकाल में मुसलमानों और ईसाईयों के साथ भेदभाव जारी रहा और वे दूसरे दर्जे के नागरिकों का जीवन बिताने पर मजबूर रहे। सच्चर समिति की सिफारिशों को नज़रअंदाज कर दिया गया और केवल प्रधानमन्त्री के 15-सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत, बहुत मामूली राशि, अल्पसंख्यकों के अत्यन्त गरीब तबके को उपलब्ध करवायी गयी। यह वह तबका है जिसे अपने ही समुदाय में भी भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है। अल्पसंख्यक-बहुल जिलों के विकास के लिये धनराशि तो आवंटित की गयी परन्तु इससे अल्पसंख्यकों को कोई खास लाभ नहीं पहुँचा क्योंकि गलत नीतियों और पर्यवेक्षण की कमी के कारण, इस धनराशि को उन जिलों में अन्य विकास कार्यों पर खर्च कर दिया गया। मुस्लिम-बहुल इलाकों में शैक्षणिक संस्थाओं की कमी और गरीबी के चलते मुसलमान, शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े बने रहे। यूपीए ने साम्प्रदायिक दंगे और चिन्हित हिंसा रोकने के लिये कानून बनाने के अपने चुनावी वायदे को इस तथ्य के बावजूद पूरा नहीं किया कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इस कानून का एक मसविदा तैयार कर दिया था।

कांग्रेस पर यह आरोप भी है कि उसने राज्यों की शक्तियों और अधिकारों पर अतिक्रमण किया और देश के संघीय ढाँचे को कमजोर किया। एनआईए व एनसीटीसी का गठन इसी दिशा में उठाया गया कदम था। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में लिये गये निर्णय भी राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण थे। यूपीए के कुछ गठबंधन साथियों ने कांग्रेस पर यह आरोप भी लगाया कि वह उनके हितों को नुकसान पहुँचा रही है।

दोनों बड़े राजनैतिक गुट – यूपीए और राजग-परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान यूपीए का हुआ है। छोटे दल अपने मतदाताओं को संतुष्ट करने के लिये ऐसी माँगें कर रहे हैं जिन्हें पूरा करना असम्भव है। गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के छोटे दलों की विरोधाभासी माँगों के बीच सन्तुलन स्थापित करने की हर सम्भव कोशिश के बाद भी, असंतुष्ट दलों और व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है। परन्तु इस सन्दर्भ में हमें यह भी याद रखना होगा कि राजग जब शासन में आया था तब वह 23 पार्टियों का गठबंधन था परन्तु जब वह सत्ताच्युत हुआ, तब उसमें मात्र छह पार्टियाँ बची थीं।

यूपीए से टीआरएस ने स्वयं को इसलिये अलग कर लिया क्योंकि उसका मानना था कि कांग्रेस, तेलंगाना राज्य की स्थापना के लिये पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही है। तमिलनाडू में चुनाव के ठीक पहले, एमडीएमके ने गठबंधन को इसलिये अलविदा कह दिया क्योंकि उसकी शिकायत थी कि डीएमके उसे पर्याप्त सीटें नहीं दे रही है। पीडीपी ने कांग्रेस का साथ इसलिये छोड़ दिया क्योंकि कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन कर लिया। मुस्लिम इत्तेहादुल मुसलमीन इसलिये अलग हो गई क्योंकि उसके विचार में कांग्रेस, साम्प्रदायिक हो गई थी। टीएमसी और झारखण्ड विकास मोर्चा ने खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों में वृद्धि के मुद्दों पर यूपीए से नाता तोड़ लिया। और अभी हाल में, डीएमके ने यूपीए से अलग होने की घोषणा कर दी क्योंकि वह श्रीलंका सरकार के एलटीटीई के विरूद्ध चलाये गये सैन्य अभियान के दौरान किये गये युद्ध अपराधों के विरोध में, संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग में प्रस्तुत प्रस्ताव पर भारत सरकार के रूख से प्रसन्न नहीं थी।

राजग भ्रष्टाचारअल्पसंख्यकों का तुष्टिकरणदेश की सुरक्षा से समझौता और अकुशल शासन के मुद्दों को लेकर यूपीए पर लगातार हमले कर रहा है। वह आक्रामक राष्ट्रीयता की हामी है, जिसका उद्धेश्य है आर्थिक और सामाजिक श्रेष्ठिवर्ग, अर्थात् उत्तर भारतीय उच्च जाति के पुरूषों, का प्रभुत्व बनाये रखना। राजग चाहता है कि दलित, महिलाएं, आदिवासी, श्रमिक व अल्पसंख्यक जो कि शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं, वंचित और दमित बने रहें। नितिन गडकरी और येदियुरप्पा के बारे में मीडिया द्वारा किये गये खुलासों से भाजपा का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान कुछ कमजोर पड़ा है।जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं भाजपा को अयोध्या का राम मन्दिर फिर से याद आने लगा है। हाल में विहिप ने अहमदाबाद में एक बैठक आयोजित कर राम मन्दिर के जिन्न को बोतल से निकालने का भरपूर प्रयास किया।

यद्यपि राजग ने प्रधानमन्त्री पद के अपने उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है तथापि यह साफ है कि चूँकि भाजपा इस गठबंधन का सबसे बड़ा दल है इसलिये उसी का कोई नेता प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार होगा। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भाजपानरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित करने की दिशा में बढ़ रही है। परन्तु अंततः ऐसा होगा या नहींयह केवल समय ही बताएगा। नरेन्द्र मोदी के रास्ते में कई भाजपा नेता और राजग के अनेक सदस्य दल रोड़ा बने हुए हैं। नरेन्द्र मोदी ने और अधिक आक्रामक निजीकरण-उदारीकरण नीतियाँ अपनाने का वायदा किया है, जिनसे विकास के नाम पर मुख्यतः कॉरपोरेट जगत को लाभ पहुँचेगा।

(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

http://hastakshep.com/?p=31227

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