| Friday, 31 August 2012 10:31 |
प्रफुल्ल कोलख्यान आजादी के आंदोलन के दौरान और आजादी मिलने के बाद पहले दौर में भारत की राष्ट्रीय संरचना राष्ट्रवाद और जनतंत्र के सापेक्ष विकसित हुई। यह संरचना अब बाजारवाद और विकास की सापेक्षता में बदल रही है। जाहिर है, इस बदलाव को समझने के लिए विकास के चरित्र को समझना होगा। विकास के लिए चाहिए पूंजी। चूंकि राष्ट्र ही सिकुड़ रहा है इसलिए स्वाभाविक है कि पूंजी की राष्ट्रवादी पहचान भी खत्म हो रही है। पूंजी है देशी-विदेशी पूंजीपतियों के पास। पूंजी चाहे देशी हो या विदेशी, उसका स्वाभाविक लक्ष्य है निष्कंटक मुनाफा। यह मुनाफे का कांटा ही था जिसके चलते पश्चिम बंगाल में लगा कारखाना उखड़ कर अपेक्षया निष्कंटक मुनाफा-क्षेत्र गुजरात चला गया। मुनाफे के कांटे पर भी गौर करना जरूरी है। जिस तरह पूंजी का लक्ष्य होता है निष्कंटक मुनाफा, उसी तरह आम आदमी का लक्ष्य होता है निर्बाध रोजगार। हमारी सरकारों की राजनीतिक कुशलता यह होनी चाहिए कि वे मुनाफे के कांटों और रोजगार की बाधाओं, दोनों को व्यावहारिक स्तर पर कम करें। कठिनाई यह है कि मुनाफे के कांटे कम करने पर रोजगार निर्बाध नहीं रह पाता। रोजगार की बाधाओं को कम किया जाए तो मुनाफा में कांटे बढ़ जाते हैं। यहीं राजनीतिक कुशलता की जरूरत होती है। एक बात और समझने की है कि पूर्णत: अंतर्विरोध-मुक्त सिर्फ यूटोपिया होता है। जीवन को अंतर्विरोधों में सामंजस्य साधते हुए ही आगे बढ़ना पड़ता है। राष्ट्रवाद के दौर से बाहर निकलते ही क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता और नागरिकता के अंतर्संबंध में एक भिन्न तरह का तनाव उत्पन्न हो रहा है। इसके कारकों को समझना होगा। भारत के सभी क्षेत्रों में एक तरह की विकास प्रक्रिया नहीं चल रही है। सभी क्षेत्रों में जनसंख्या और राजनीतिक गुणवत्ता भी एक जैसी नहीं है न कुदरती और सांस्कृतिक समृद्धि एक जैसी है। जाहिर है, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास, रोजगार सहित सामाजिक सुरक्षा और नागरिक अधिकार की उपलब्धता सभी जगह एक जैसी नहीं है। नागरिकता राष्ट्रीय है, लेकिन नागरिक अधिकार से जुड़े शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास, रोजगार सहित सामाजिक सुरक्षा के अधिकार की उपलब्धता एक क्षेत्रीय प्रसंग बनती जा रही है। रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश में लोग पूरी दुनिया का चक्कर लगाते हैं। भारत के एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र में अधिकारपूर्वक जाते हैं। लेकिन नागरिक अधिकार के क्षेत्रीय प्रसंग बनते जाने से अपने मूल क्षेत्र से बाहर रहने वाले लोगों को कदम-कदम पर यह अहसास होने लगा है कि उनका नागरिक अधिकार मूल निवासियों से कमतर है। वैधानिक स्थिति चाहे जो हो, वास्तविक स्थिति यही है। चुनाव में प्राप्त वोट-प्रतिशत या अपनी विचारधारा के तर्क पर खुद को राष्ट्रीय दल बताने वालों में भी क्षेत्रीयता का मनोभाव बढ़ रहा है, क्षेत्रीय दलों में तो वह है ही। राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर निकल कर बाजारवाद के परिसर में प्रवेश करने के उपक्रम में राष्ट्रीय संरचना बुरे अर्थ में क्षेत्रीयता के दबाव में है। अधिकतर मामलों में राज्य सरकारें न सिर्फ क्षेत्रीयता के दबाव में काम कर रही हैं, बल्कि क्षेत्रीय भावनाओं को खतरनाक ढंग से उभारे रखने की कोशिश भी लगातार करती रहती हैं। राजनीतिक विकास-क्रम को देखने पर यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि केंद्र में किसी एक दल की सरकार बनने के दिन नहीं रहे। भारतीय राज्य और भारतीय संघ के पारस्परिक संबंध को व्याख्यायित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के साक्ष्य से यह प्रमाणित है कि भारत की राष्ट्रीय संरचना का मूल चरित्र एकात्मक है। राष्ट्र के एकात्मक होने और सरकार के संघात्मक बनने की संभावनाओं के कारण तीखा अंतर्विरोध उभर रहा है। राष्ट्र और सत्ता की संरचना पर इसका दूरगामी असर पड़ सकता है। तात्कालिक असर तो अपने मूल राज्य से बाहर निकल कर छोटे-मोटे रोजगार तलाशने या खुदरा कारोबार करने वालों पर दिखने लगा है। एक तरफ खुदरा क्षेत्र में बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के लिए जगह बनाने की कोशिश हो रही है, तो दूसरी ओर, अपने ही राज्य में छोटे-मोटे कारोबारियों के लिए जगह कम पड़ रही है। ऐसे में भिन्न राज्य से रोजगार या खुदरा कारोबार की तलाश में आने वाले भारतीय नागरिक को बाहरी बता कर व्यावहारिक स्तर पर बाहर कर देने की स्थिति बन रही है। इसमें जो प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं उनसे नागरिक अधिकार खंडित होता है। यहां राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों की एक सकारात्मक भूमिका के लिए महत्त्वपूर्ण जगह है। लेकिन क्षेत्रीयता की भावनाएं उभार कर अपना हित साधने में लगे राजनीतिक दलों और क्षेत्रीयता के दबाव में काम करने वाली सरकारों से इस सकारात्मक भूमिका की अपेक्षा कैसे की जाए! इस मामले में स्थिति काबू से बाहर होने के पहले ही राष्ट्र को कानूनी प्रावधान करने के बारे में सोचना चाहिए। |
My father Pulin Babu lived and died for Indigenous Aboriginal Black Untouchables. His Life and Time Covered Great Indian Holocaust of Partition and the Plight of Refugees in India. Which Continues as continues the Manusmriti Apartheid Rule in the Divided bleeding Geopolitics. Whatever I stumbled to know about this span, I present you. many things are UNKNOWN to me. Pl contribute. Palash Biswas
Friday, August 31, 2012
अपने वतन में पराए
अपने वतन में पराए
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