| Friday, 06 July 2012 10:46 |
अरविंद कुमार सेन मगर यह भी सच है कि अकेले रुपए की कीमत में गिरावट के सहारे ही आयात बिल को कम नहीं किया जा सकता है। हमारे आयात बिल का बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों के रूप में है और सरकारी सबसिडी होने के कारण पेट्रो पदार्थों की मांग पर कमजोर रुपए से खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। इंडिया इंक ने अर्थव्यवस्था की कथित बदहाली के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को भी लंबे समय से खलनायक घोषित कर रखा है। आरबीआई ने मांग में कमी करके मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरों को महंगा किया, लेकिन परेशानी यह रही कि केंद्रीय विनियामक बैंक को आपूर्ति के मोर्चे पर सरकार से सहयोग नहीं मिला। सरकार से तारतम्य नहीं होने के कारण मांग आधारित मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने का यह हथियार नाकाम साबित हुआ, मगर रियल स्टेट और आॅटोमोबाइल क्षेत्रों की हवाई उड़ान पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सका है। असली दिक्कत यही है। महंगी ब्याज दरों के कारण बड़ी कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और निवेशकों से किए गए मुनाफे के लंबे-चौड़े वादे पूरे नहीं हो पा रहे हैं। यही कारण है कि पूंजीपतियों की अगुआई में बिजनेस मीडिया ने आरबीआई को निशाने पर ले रखा है, मगर किसी भी कंपनी ने महंगी ब्याज दरों के कारण अपना कारोबार समेटने की घोषणा नहीं की है। भारत के विशाल बाजार का दोहन करने का लालच ऐसी मिठाई है, जिसे कोई भी कंपनी नहीं छोड़ना चाहेगी। यहां तक कि वोडाफोन-हच कर मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद सरकार की ओर से कानून बदलने की घोषणा किए जाने के बावजूद वोडाफोन ने भारतीय परिचालन बंद करने का कोई संकेत नहीं दिया। यही हाल रोजमर्रा का सामान (एफएमसीजी) बनाने वाली कंपनियों का है। भारत का बाजार कीमतों के मामले में बेहद संवेदनशील है और अस्सी फीसद गरीब आबादी वाले देश में ब्रांड वफादारी की बात करना मजाक होगा। बहुराष्ट्रीय एफएमसीजी कंपनियां अपने उत्पाद छोटे पैकेटों में मुहैया कराने और लागत में कमी करके महंगी ब्याज दरों का असर कम करने में जुटी हैं। बड़ी एफएमसीजी कंपनियों के उत्पादों के महंगा होते ही उपभोक्ता छोटी कंपनियों और गैर-ब्रांडेड कंपनियों का रुख करेंगे, ऐसे में ये कंपनियां अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए आरबीआई पर ब्याज दरों में कटौती का दबाव बना रही हैं। अगला सवाल उठता है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई संकट नहीं है और अगर है तो उसका समाधान क्या है। इसमें दो राय नहीं कि वैश्वीकरण के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी यूरोप और अमेरिका में छाई आर्थिक मंदी का असर पड़ा है, मगर इसकी तुलना 1991 के भुगतान संकट से करना समस्या को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना है। पश्चिमी देशों की पूंजीवादी ऐनक लेकर घरेलू अर्थव्यवस्था के हरेक पहलू में संकट खोज कर नकारात्मक प्रचार में लगा हमारा मीडिया जोसेफ स्कंपटेरियन के बताए रचनात्मक विनाश के सिद्धांत में फंस गया है। यह सिद्धांत कहता है कि सकारात्मक चीजों की अनदेखी करके केवल निराशाजनक तथ्यों को उभारा जाता है, तो अर्थव्यवस्था रचनात्मक विनाश की तरफ बढ़ती है। हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है, क्योंकि कृषि, शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र गहरे संकट में फंसे हैं और अगर वक्त रहते इन तीनों बुनियादी क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया गया तो भारतीय विकास गाथा का खात्मा तय है। हमारी अर्थव्यवस्था का चौथा सबसे बड़ा संकट युवा आबादी और बेरोजगारी में एक साथ हो रहा इजाफा है। विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत बना कर युवा हाथों में बंदूक पहुंचने से पहले रोजगार पहुंचाना होगा। विडंबना है कि अर्थव्यवस्था के इन वास्तविक सुधारों का जिक्र हमारे मीडिया में कहीं नहीं है और कंपनियों के बोर्डरूमों में ईजाद की गई मंदी से बाहर निकलने के एकमात्र उपाय के रूप में वही घिसे-पिटे दूसरे दौर के सुधारों, मसलन बहुब्रांड खुदरा, पेंशन और बीमा क्षेत्रों में एफडीआई की बात दोहराई जा रही है। अगर इन क्षेत्रों पर लागू विदेशी पूंजी की मौजूदा सीमाएं हटा ली जाती हैं तो भी संभावित विदेशी पूंजी से भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई क्रांति नहीं होने वाली है। यह मामूली रकम दो-तीन तिमाहियों के लिए जीडीपी की विकास दर में बढ़ोतरी करके कथित विकास का बुलबुला पैदा कर सकती है, मगर इससे अर्थव्यवस्था की बुनियादी दिक्कतें दूर नहीं होने वाली हैं। विकास का मर्सिया पढ़ रहे बिजनेस मीडिया के लिए सुधारों का मतलब चुनिंदा निजी कारोबारियों की कंपनियों के रोड़े हटाना और वित्तीय सेवाओं के प्रभुत्व वाली शेयर बाजार आधारित नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं में डेमोक्रेसी को प्लूटोक्रेसी में बदलना है, जहां पूंजीपतियों को आजादी और वैश्वीकरण के नाम पर गरीब जनता के बीच मुनाफे के ढेर पर सुरक्षित रखा जाता है। |
My father Pulin Babu lived and died for Indigenous Aboriginal Black Untouchables. His Life and Time Covered Great Indian Holocaust of Partition and the Plight of Refugees in India. Which Continues as continues the Manusmriti Apartheid Rule in the Divided bleeding Geopolitics. Whatever I stumbled to know about this span, I present you. many things are UNKNOWN to me. Pl contribute. Palash Biswas
Saturday, July 7, 2012
विकास का मातम
विकास का मातम
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