By 9 hours 27 minutes ago
२८ अगस्त १९४९ को शंकर्स वीकली में छपे एक कार्टून को लेकर डॉ अंबेडकर के नाम पर वोट की भीख मांगने वालों ने हल्ला मचाया और डॉ अंबेडकर की राजनीति और दर्शन शास्त्र के जानकारों ने चुप्पी साध ली. उस कार्टून का सन्दर्भ नहीं जाना और नेताओं की हाँ में हाँ मिलाते नज़र आये. यह इस देश का दुर्भाग्य है.
यह मानने का कोई कारण नहीं है कि इस देश में डॉ अंबेडकर की राजनीति को समझने वालों की कमी है. हालांकि मैं यह भी अब मुकम्मल तौर पर मानने लगा हूँ कि डॉ अंबेडकर के नाम पर वोट की भीख माँगने वालों को उनके राजनीतिक दर्शन के बारे में बिलकुल सही जानकारी नहीं है. जिस कार्टून के हवाले से संसद में हंगामा हुआ वह हमारे नेताओं की बौद्धिक क्षमता का एक अहम नमूना है.
सबको मालूम है कि संसद में हमेशा ऐसे लोगों का बहुमत होता है जो इस देश के इतिहास और राजनीति को अच्छी तरह से समझते हैं. हाँ इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संसद में कुछ ऐसे लोग भी पंहुच गए हैं जिनको भारत के समकालीन इतिहास की कोई जानकारी नहीं है. यहाँ यह जान लेना बहुत ज़रूरी है कि डॉ अंबेडकर उदारवादी राजनीतिक दार्शनिक थे. अपनी आलोचना करने वालों को हमेशा ही अपने मिशन को पूरा करने वालों में शामिल मानते थे. अपने विरोधियों के प्रति कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया.
जिन लोगों ने संविधान सभा की बहस के दौरान हुए भाषणों को पढ़ा है उन्हें मालूम है कि उसी सभा में मौजूद तरह तरह की मान्यता वाले लोगों को आनरेबल डाक्टर बी आर अंबेडकर (बाम्बे) किस तरह से निरुत्तर कर दिया करते थे. हम जानते हैं कि संविधान सभा में एक बहुत बड़ी संख्या में राजाओं के प्रतिनिधि थे. बहुत सारे धार्मिक पुरातनपंथी थे, बहुत सारे ऐसे लोग थे जो मानते थे कि शूद्रों को इस देश में बराबरी का हक नहीं है. यह सारे लोग बहुत सारी कमेटियों के सदस्य भी थे. उन्हीं कमेटियों से वह सुझाव आये थे जो बाद में ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष आनरेबल डॉ बी आर अंबेडकर (बाम्बे) के विचार के लिए प्रस्तुत किये गए थे. उन सुझावों को अगर कोई ध्यान से देखे तो समझ में आ जाएगा कि संविधान सभा में किस तरह के दकियानूसी विचारों के लोग मौजूद थे. उन सुझावों पर बहुत लम्बी बहस चली. हर बहस के दौरान ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर वहां मौजूद रहते थे और हर उल्टी सीधी बात का तार्किक जवाब देते थे.
१५ अगस्त १९४७ की आज़ादी के बाद यह उम्मीद की गयी थी कि संविधान दो साल में तैयार हो जाएगा. महात्मा गाँधी की मृत्यु हो चुकी थी. डॉ अंबेडकर को राजनीतिक समर्थन देनेवालों में केवल जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल बचे थे. बाकी लोग डॉ अंबेडकर को मिल रहे महत्व से बहुत दुखी थी इसलिए वे उनके काम में मीन मेख निकालते रहते थे. इन्हीं महानुभावों की प्रेरणा से संविधान सभा में बेमतलब की बहसें चलती रहती थीं. जब दो साल पूरे होने के बाद भी संविधान तैयार नहीं हो सका तो अगस्त १९४९ में बहुत सारे अखबारों में खबरें छप रही थीं कि संविधान में हो रही बहसों के चलते संविधान तैयार नहीं हो पा रहा है. सरदार पटेल दिन रात देशी रियासतों को भारतीय गणराज्य में विलय कारवाने की कोशिश कर रहे थे. संविधान को सही तरीके से पेश करने का काम शुद्ध रूप से जवाहर लाल नेहरू और डॉ अंबेडकर के जिम्मे आ पड़ा था.
दोनों ही नेता संविधान सभा के ज़रिये संविधान निर्माण की प्रक्रिया में अडंगा डालने वालों से नाराज़ थे. यह कार्टून उसी नाराज़गी की अभिव्यक्ति है. इसमें उन लोगों को आइना दिखाया गया है जो संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को कछुआ चाल चलने के लिए मजबूर कर रहे थे. इसमें न तो डॉ अंबेडकर का कहीं अपमान है और न कहीं नेहरू का. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू जैसे लिबरल नेताओं के समर्थक इन दोनों ही नेताओं के नाम पर वोट की याचना करने वालों के सामने बौने साबित हो रहे हैं. अगर इस देश में तानाशाही राजनीति की ताकतें डॉ अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू के उदारवादी राजनीतिक विचारों को रौंदने में कामयाब हो गयीं तो देश की आज़ादी की रक्षा कर पाना बहुत मुश्किल होगा. इस पूरे विवाद में एक बात साबित हो गई कि यह कार्टून इस बात का भी संकेत है कि संविधान के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू की ही थी.


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