| Thursday, 17 May 2012 10:44 |
आनंद प्रधान इसके साथ ही कथित रूप से रुके हुए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की मांग का कर्कश कोरस भी कान के परदे फाड़ने लगा है। हालांकि इन आरोपों में नया कुछ नहीं है। पिछले डेढ़-दो साल खासकर 2-जी समेत भ्रष्टाचार के बडेÞ-बडेÞ मामलों के सामने आने के बाद से आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकामी और कई नीतिगत मामलों में अनिर्णय या निर्णय को लागू कराने में हिचक या गतिरोध को लेकर यूपीए सरकार पर नीतिगत लकवे के आरोप लगते रहे हैं। टू-जी मामले में 122 लाइसेंसों के रद्द होने के बाद जिस तरह से देशी और खासकर विदेशी कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और सरकार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने पर मजबूर किया, उससे पता चलता है कि कथित नीतिगत अपंगता का स्रोत क्या है? इसी तरह दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए आधार-मूल्य तय करते हुए जो सिफारिशें दी हैं, उनके खिलाफ देश की सभी बड़ी टेलीकॉम कंपनियों ने युद्ध-सा छेड़ दिया है। उनकी लॉबिंग की ताकत के कारण सरकार की घिग्घी बंध गई है। वह फैसला नहीं कर पा रही है। वोडाफोन के मामले में टैक्स लगाने को लेकर सरकार डटी हुई जरूर है लेकिन जिस तरह से उसे वापस लेने के लिए उस पर देश के अंदर और बाहर दबाव पड़ रहा है, उससे साफ है कि सरकार के लिए बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता जा रहा है। एक और उदाहरण देखिए। कृष्णा-गोदावरी घाटी से गैस उत्पादन के मामले में रिलायंस न सिर्फ सरकार पर गैस की कीमत बढ़ाने के लिए जबर्दस्त दबाव डाल रही है बल्कि भयादोहन के लिए उसने जान-बूझ कर गैस का उत्पादन गिरा दिया है। शुरुआती दृढ़ता दिखाने के बाद अब सरकार रिलायंस की अनुचित मांगों के आगे झुकती हुई दिख रही है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें कंपनियों के दबाव के आगे सरकार या तो समर्पण कर दे रही है, उनके हितों के मुताबिक नीतियां बना रही है या फिर कंपनियों के आपसी टकराव में कोई फैसला नहीं कर पा रही है। सच यह है कि अर्थव्यवस्था का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में नीतियां स्वतंत्र और जनहित में बन रही हों। इसके उलट मंत्रालयों से लेकर योजना आयोग और नियामक संस्थाओं तक हर समिति में या तो कॉरपोरेट प्रतिनिधि खुद मौजूद हैं या लॉबिंग के जरिए नीतियां बनाई या बदली जा रही हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला-लौह अयस्क जैसे सार्वजनिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट क्षेत्र के हवाले करने के घोटालों का पर्दाफाश होने और बढ़ते जन-प्रतिरोध के कारण यूपीए सरकार के लिए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के नाम पर इस कॉरपोरेट लूट को खुली छूट देने वाले फैसले लेने में बहुत मुश्किल हो रही है। कारपोरेट जगत और उसके प्रवक्ता इसे ही नीतिगत लकवा बता रहे हैं। असल में, यह एक बहुत सुनियोजित प्रचार अभियान है जिसका मकसद नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाना, उसके विरोधियों को खलनायक घोषित करना, सरकार और उसके आर्थिक नीतिकारों पर कॉरपोरेट समर्थित सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव बनाना है। इस मुहिम के कारण सरकार इतना अधिक दबाव में है कि वह देशी-विदेशी कॉरपोरेट समूहों को खुश करने के लिए बिना सोचे-समझे, हड़बड़ी में फैसले कर रही है। इसी अभियान का दबाव है कि सरकार जहां पेट्रोल-डीजल और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की तैयारी कर रही है वहीं खाद्य सुरक्षा विधेयक को लटकाए हुए है। सच पूछिए तो असली नीतिगत लकवा यह है कि सरकार रिकार्ड (छह करोड़ टन) अनाज भंडार के बावजूद उसे गरीबों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जाएगा और आवारा पूंजी नाराज हो जाएगी। इसी तरह कॉरपोरेट की ओर से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को और हल्का करने का दबाव है और इसी कारण विधेयक लटका हुआ है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा हो या सभी नागरिकों के लिए पेंशन का या फिर सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का- सरकार इन वायदों को पूरा करने और नीतिगत फैसले करने से बचने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रो रही है, लेकिन कॉरपोरेट क्षेत्र और अमीरों को ताजा बजट में भी 5.40 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट और रियायतें देते हुए उसे संसाधनों की कमी का खयाल नहीं आता है। क्या यह नीतिगत लकवा नहीं है? |
My father Pulin Babu lived and died for Indigenous Aboriginal Black Untouchables. His Life and Time Covered Great Indian Holocaust of Partition and the Plight of Refugees in India. Which Continues as continues the Manusmriti Apartheid Rule in the Divided bleeding Geopolitics. Whatever I stumbled to know about this span, I present you. many things are UNKNOWN to me. Pl contribute. Palash Biswas
Thursday, May 17, 2012
नीतिगत लकवे का सच
नीतिगत लकवे का सच
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