Sunday, October 24, 2021

अगर मास्साब से मुलाकात नहीं होती

 दिनेशपुर आये हुए पूरे चार साल हो गए।कोलकाता से दिल्ली होकर 21 अक्टूबर 2017 को अपने गांव बसंतीपुर स्थायी तौर पर वापस आ गया।



घर लौटना चाहता था। लेकिन घर से एक बार निकल जाने के बाद घर वापस लौटना उतना आसान भी नहीं होता। हम कोलकाता में 27 साल बीता चुके थे। सोदपुर में हर कोई जानता था।उस समाज में एकाकार हो गए थे।


 रिफ्यूजी कालोनी की तराई की ज़िंदगी से अलग कोलकाता में मुख्यधारा के बंगाली समाज,बांग्ला भाषा और संस्कृति के भूगोल से लौटकर फिर विस्थापित होना भारत विभाजन की त्रासदी को नए सिरे से जीने के बराबर था।हमारे लोग इसीतरह अनचाहे बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर हो गए थे 1947 में।


पिताजी तो 1947 से पहले से तेभागा आंदोलन की वजह से कोलकाता में ही थे।चाचा और ताउजी कोलकाता पुलिस में थे।


सिर्फ दादी और ताई जी जैशोर में थीं। तब पिताजी और चाचाजी अविवाहित थे।


रातोंरात पूर्वी बंगाल के लोग भारत में जहां भी थे,शरणार्थी बन गए।कोलकाता और पश्चिम बंगाल,बिहार,असम में जो जहां थे,वहीं खड़े खड़े शरणार्थी बन गए। 


जन्मने से पहले हम और  हमारी अजन्मी पीढियां शरणार्थी बन गए अपने ही देश में। 

यह सिलसिला जारी है।

जारी रहेगा अनन्तकाल।


भारत में जन्म होने के बावजूद पूर्वी बंगाल मूल के सभी बच्चे जन्मजात 1947 के बाद शरणार्थी ही बनते हैं। पश्चिम पंजाब या सिंध या म्यांमार य से आए लोगों के साथ ऐसा नहीं होता।


फिर सचमुच शरणार्थी होने का अहसास अक्टूबर 2017 में हुआ। कोलकाता से वापसी के वक्त।


कोलकाता में 27 साल से नियमित अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी में देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में लिखते छपते रहने के बाद रचनाकर्म का फेसबुक तक सीमित हो जाना सचमुच कायापलट जैसा हो गया।


36 साल तक पेशावर संपादकी करने के बावजूद में हमेशा लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता रहा। सिर्फ संपादकी में कभी सीमाबद्ध नहीं रहा।


छात्र जीवन की घुमक्कड़ी आखिर तक जारी रही। पैर कभी थके नहीं, रुके नहीं। 


पिता पुलिनबाबू की तरह मेरे पांवों के नीचे सरसों रहा है। जो चैन से कहीं बैठने नहीं देता। कानों में चीखें गूंजती रहती है। पीडितों के बीच जाकर खड़े होने के सिवाय ज़िंदा रहने का कोई मकसद नज़र ही नहीं आता।


कोलकाता से वापसी पर वह सरसों अब गायब हैं। लेकिन चीखें फिर भी गूंजती हैं।


बंगाल के हर कोने में और देश के हर हिस्से में मेरी जो दौड़ थी,वह तराई में सीमित हो गयी। 


दफ्तर से घर और घर से दफ्तर की दिनचर्या हो गयी।

ऐसा कभी था नहीं। सपने मरे भी नहीं,लेकिन सपनों के लिए दौड़ना भी जरूरी है।

जड़ हो जाना जीवन नही है।


सविता जी कोलकाता और पूरे दक्षिण बंगाल में सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहती थी। उनकी वह ज़िन्दगी वही थम गई।


उनका गीता संगीत खत्म हो गया।

हमारे जीवन के रंग,रंगकर्म का अवसान हो गया।


इतनी कीमतें अदा करने के बाद जो घर लौटा,उसके बाद क्या इतना आसान था यहाँ नये सिरे से सेट होना?


 दिनेशपुर और पूरे तराई क्षेत्र में मेरे उठने बैठने की कोई जगह नहीं थी। 

अपना गांव सिरे से बदल गया है।

अपने लोग भी बदल गए।

साझा चूल्हा लापता हो गया।


अलगाव और अवसाद में अभिजीत कुमार जैसे रंगकर्मी के अवसान के बाद सोचने को मजबूर हूँ कि मास्टर प्रताप सिंह कैंसर से दम तोड़ने से पहले प्रेरणा अंशु की जिम्मेदारी अगर मुझे देकर नहीं जाते तो मेरी नियति अभिजीत से कितनी अलग होती!


लोग पूछ रहे हैं कि अभिजीत कुमार को क्या हुआ?

जब अपने लोग,अपने साथी किसी को अकेला छोड़ दें और अंतिम दर्शन से पहले खोज खबर न लें,जैसे कि पहाड़ और उत्तराखण्ड का नया दस्तूर,नई संस्कृति, पैसे की संस्कृति हो गयी,तो अलगाव,समझौते,भटकाव और अवसाद में जो होता है,वहीं हुआ। समाज के लिए काम करने वालों की सामाजिक सुरक्षा न हो तो जो होता है,वहीं हुआ।ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है।


न जाने कितनों के साथ ऐसा हो रहा है।

अपने लोगों में लौटकर कोई काम करने की चनौतियाँ कम नहीं हैं। अपने ही लोग खारिज कर दें तो?


जनवरी 2018 तक मैं उन्हीं के भरोसे रहा, जिनके भरोसे  में घर लौट आया। किसी ने कोई सहयोग नहीं किया।


जनवरी  में मास्साब से बात हुई।

रूपेश से मुलाकात हुई।


 तुरन्त प्रेरणा अंशु की जिम्मेदारी मास्साब ने पहली मुलाकात में ही मुझे दे दी।


फरवरी 2018 का अंक मैंने मास्साब के साथ निकाला। अंक लेट हो गया। मास्साब के निधन के कुछ घण्टे बाद अंक छपकर प्रेस से आया।


सीसी टीवी फुटेज में देखा गया कि मृत्यु शय्या से उठकर मास्साब आधी रात के बाद प्रेरणा अंशु के दफ़्तर में जाकर बैठे और नए अंक की तलाश करते रहे।


अब अंक लेट होता है तो मुझे हमेशा लगता है कि मास्साब नया अंक का इंतज़ार कर रहे होंगे।

Monday, October 18, 2021

हिंदुओं की परवाह किसे है? अल्पसंख्यक और शरणार्थी कब मनुष्य मने गए? पलाश विश्वास

 पलाश विश्वास



इसे दिमाग में जरूर रखे कि हम न किसी राजनीतिक दल में हैं और न उनके आईटी सेल के लिए कैंपेन या प्रोजेक्ट या पेड न्यूज वाले हैं।


 इसपर लोग लगातार लिख रहे हैं। 


बांग्लादेश में भी लोग लिख रहे हैं।


 तस्लीमा से स्लैम आज़ाद तक।लेकिन इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने से बचना चाहिए।


राजनीतिक मुद्दा तक  भी सही है,इससे साम्प्रदायिक मुद्दा नहीं बनना चाहिए। 


हम फेसबुक पर नहीं,बांग्लादेश के ही प्रमुख अखबारों में न्यूज फ्रॉम बांग्लादेश, ढाका टाइम्स, इत्तेफाक,भोरेर आलो,जुगान्तर,जनकनथ आदि में लिखते रहै हैं। अंग्रेज़ी और बांग्ला में।


बांग्लादेश के शीर्ष लेखक हुमायूं कबीर ने बाकायदा बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न का ensyclopedia तैयार किया है।


दशकों से हम कहते लिखते रहे हैं कि जब तक बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के खिलाफ भारत सरकार सख्त रवैया नहीं अपनाती,शरणार्थी समस्या का हल नहीं है।


हर साम्प्रदायिक दंगे के साथ भारत में शरणार्थी सैलाब उमड़ता है। 1947 से 1952 तक लोग पूर्वी बंगाल से बहुत कम निकले। दंगे इसके बाद शुरू हुए,जो कभी थमे ही नहीं। 


पश्चिम पाकिस्तान में इतना भयानक खून खराबा हुआ कि लोग 1947 के तुरन्त बाद चले आये। पूर्वी बंगाल से 1952 के बाद ज्यादातर लोग निकले।बड़ी संख्या में लोग 1971 के बाद निकले। अब भी वहां एक करोड़ से ज्यादा हिन्दू हैं। 


दंगे तो भारत में भी होते हैं। तो क्या मुसलमान भारत छोड़कर चले गए? दंगे बांग्लादेश में भी होते हैं।इसे राज इटिक मुद्दा बनाने से इसका असर सीधे बांग्लादेश के हिंदुओं पर होगा।उनपर राजनीतिक हमले और टाइज़ होंगे।


बांग्लादेश में रह रहे हिन्दू भी मानते हैं कि या दंगे धार्मिक कम,राजनीतिक ज्यादा हैं।बिल्कुल भारत की तरह।


उनके मुताबिक  ज्यादातर दंगे भारत की घटनाओं की राजनीतिक प्रतिक्रिया में होती रही है।


लज्जा बाबरी विध्वंस की पृष्ठभूमि की कथा है।


बांग्लादेश में सैकड़ों लेखक पत्रकार कवि हर साल इस धर्मोन्माद के खिलाफ लिखने के लिए मारे जाते हैं।शीर्षक कवि और लेखक भी।


  धर्मनिरपेक्षता के लिए इतनी  शहादतें  दुनिया में कहीं नहीं दी गयी।तभारत में भी नहीं दी गई,पुरस्कार वापसी और कुछ गिने चुने लोगों के बलिदान के लिए।


भारत में जो लोग अल्पसंख्यक उत्पीड़न के जिम्मेदार हैं,उन्हीं के साझे की राजनीति करने वाले बांग्लादेश के जमात रज़ाकर ही इन दंगों के लिए जिम्मेदार हैं।


यह नीतिगत अंतरराष्ट्रीय मामला है लेकिन सरकार 7 दशकों से बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न के मुद्दे पर खामोश है। 1971 को छोड़कर ।


इस मुद्दे को सुलझाने के बजाय इसके साम्प्रदायिक राजनीतिक इस्तेमाल की परंपरा है।


शरणार्थी समस्या सुलझाने के बजाय राजनीति शरणार्थियों को बंधुआ वोटबैंक बनाती रही है।


सरकारें शरणार्थियों को ही निपटाने की जुगत में रहती है।जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प और उनके सारे दोस्त करते रहे हैं।आधी दुनिया इसी राजनीति की वजह से या विस्थापित हैं कश्मीरी पंडितों की तरह,आदिवासियों की तरह या फिर समुंदर के रास्ते डूब मरने को अभिशप्त।


कंटीली तार की दीवार पर तंगी रहती है फैलानी की लाशें और सरहदों पर दुश्मनों से ज्यादा मारे जाते हैं शरणार्थी। किसी देश में उन्हें नागरिक अधिकार मिलते हैं और न मानवाधिकार।


भारत नें भी नहीं।