पिछले बारह वर्षों में झारखंड की आठ सरकारें अपने ही राज्य के लोकरंग एवं लोकसंस्कृति से बेखबर बाजारवादी शक्तियों की चाकरी करने में व्यस्त रहीं. बाजारबाद अपनी तथाकथित आधुनिक संस्कृति द्वारा झारखंड की लोक संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू है...
राजीव
झारखंड आदिवासी बहुल इलाका है. लगभग तीस आदिवासी समुदाय राज्य के विभिन्न जिलों में निवास करते हैं, जिनकी संख्या 2011 जनगणना के अनुसार लगभग 80 लाख है. झारखंड में लोक चित्रकला की परम्परा सदियों पुरानी है.
भारत में मानव सभ्यता जिसे सिन्धु घाटी सभ्यता के नाम से जाना जाता है, में चित्रकला की उत्पति सर्वप्रथम हुयी. झारखंड जंगलों और पहाड़ों से भरा-पूरा क्षेत्र है इसलिए आदिवासियों का प्रिय क्षेत्र रहा है. असुर, बिरहोर, बिरजिया एवं खडि़या झारखंड की प्राचीनतम जनजातियां है जिनमें असुर सबसे प्राचीन या आदिम जनताति है.
कोरबा जनजाति भी काफी प्राचीन है. मुंडा, उरांव जनजातियां बाद की हैं. क्षेत्रीय राजवंशों को समृद्ध इतिहास मिलता है. जैसे छोटानागपूर का नाग, पलामू को रक्सेल तथा सिंहभूम का सिंह वंश. क्षेत्रीय राजवंशों की छत्रछाया में कला और संस्कृति का विकास ऐतिहासिक रहा है झारखंड में.
झारखंड में चित्रकला खासकर लोक चित्रकला की समृद्ध परम्परा पायी जाती है, जिसमें आदिवासी समुदायों की जीवन शैली, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताएं परिलक्षित होती हैं. आदिवासियों का प्रकृति प्रेम जगजाहिर है. इनका जन्मजात जुड़ाव जल, जंगल और जमीन से रहा है. आदिवासी प्राकृतिक सौंदर्य के उपासक माने जाते हैं, इसलिए उनके आसपास का प्राकृतिक वातावरण चित्रकला का प्रेरणास्रोत रहा है.
प्रकृति की विविधताओं की तरह झारखंड की चित्रकला में काफी विविधता पायी जाती है. चित्रकला का सहज रूप उनके घरों की सजावट में आज भी देखा जा सकता है. घर की दीवारों पर चिकनी मिट्टी और गोबर का लेप लगाकर स्त्रियां विशेषकर अविवाहित लड़कियां वनस्पतियों से प्राप्त रंगों से विभिन्न प्रकार की आकृतियां एवं ज्यामितिक कलाकृतियां बनाती हैं.
झारखंड के आदिवासियों द्वारा कपड़ा या कागज के छोटे-छोटे टुकड़े को जोड़कर बनाये जाने वाले चित्रफलक को जादोपटिया चित्रकारी कहते हैं. चित्रकार यानी जादो तथा कपड़ा या कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर बनायी गयी पट्टियों पर की जाने वाली चित्रकारी को जादोपटिया चित्रकारी कहते हैं. यह चित्रकारी झारखंड-बंगाल की सीमा क्षेत्र के संथालों में विशेष रूप से प्रचलित है. प्रत्येक पट्टी लगभग पंद्रह से बीस फीट तक चौड़ी होती है और एक पट्टी पर लगभग दस से पंद्रह चित्र संथाल समाज के मिथकों पर आधारित लोक गाथाओं, धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों तथा नैतिक मान्यताओं को दर्शाया जाता है.
जादोपटिया चित्रकला में चित्रकार कपड़े पर सुई-धागे से सिलाई कर लगभग पंद्रह से बीस फीट तक चौड़ा पट तैयार करता है तथा कपड़े पर कागज को बेल के गोंद से चिपकाया जाता है. एक पट में प्रचलित मिथकों पर आधारित पांच से दस चित्रों को संयोजित किया जाता है, जिसे दिखाने में लगभग आधे घंटे का समय लिया जाता है. प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा रंगों को भरने के लिए बकरी के पूंछ से लिए गए बालों से बनायी गयी कूंची का प्रयोग किया जाता है.
प्रत्येक पट्टी में बार्डर का प्रयोग लगभग अनिवार्य होता है. रंगों में प्रायः काला, पीला और हरा का प्रयोग किया जाता है. इन चित्रों को चित्रकार घूम-घूम कर दिखाते हैं तथा दिखाने का तरीका कथा वाचन के रूप में किया जाता है. चित्रकारों का जीवनयापन इसी चित्रकारी द्वारा कथा वाचन से ही चलता है. हालाँकि तेजी से वैश्वीकरण और बाजारवाद से आए आदिवासी समाज में बदलाव से जादोपटिया चित्रकला का ह्रास होने लगा है. चित्रकार या जादो अब सिर्फ चित्रकला के माध्यम से अपना जीवनयापन नहीं कर पा रहे हैं. आर्थिक तंगी के कारण दो जून की रोटी भी जुगाड़ने में भी ये असमर्थ हैं और दूसरे पेशों की तरफ उम्मुख होते नजर आ रहे हैं.
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पूर्व में चित्रकला की विषय वस्तु रामायण, महाभारत, कृष्णलीला, यमराज द्वारा दिए जाने वाले दंड, सिद्दू-कान्हू, तिलका मांझी, बिरसा मुंड़ा की शौर्य और विद्रोह गाथा से ली जाती थी, लेकिन वर्तमान में चित्रकला के विषय कम होते जा रहे हैं. आजकल यमराज द्वारा दिए गए दंड़ तक ही यह चित्रकला सीमित होकर रह गयी है.
जादोपटिया चित्रकारी हर पीढ़ी को अपने पिछली पीढ़ी से विरासत में मिलती रही है. परंतु दुर्भाग्य से वर्तमान में विरासत को पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाने की प्रवृति में जबरदस्त ह्रास हुआ है, परिणामस्वरूप जादोपटिया विलुप्त होने के कगार पर है. अगर राज्य सरकार जादोपटिया चित्रकारी को संरक्षण देते हुए कला समाज के वृहतर लोगों के साथ जोड़ने एवं अलग से अकादमी बनाने का कार्य नहीं करेगी तो जादोपटिया चित्रकला का नामोनिशान मिट जाएगा.
आदिवासी समाज में प्रचलित दूसरी प्रसिद्ध चित्रकला है सेहराय चित्रकला. सोहराय का त्योहार दीपावली के एक दिन बाद पशुओं को श्रद्धा अर्पित करने के लिए मनाया जाता है. सोहराय चित्रकारी वर्षा ऋतु के बाद घरों की लिपाई-पुताई से आरंभ होता है. आदिवासी महिलाओं के परम्परागत हुनर के कारण ही सोहराय चित्रकारी आज भी अस्तित्व में है. कोहबर चित्रकारी की तरह सोहराय चित्रकारी भी आदिवासी महिलाओं द्वारा फरवरी से जून महीने तक कतिपय प्रटीकों को अपने घरों में चित्रित किया जाता है. प्रतीक चयन ही दोनों चित्रकलाओं यथा सोहराय और कोहबर में अंतर स्थापित करता है.
कोहबर चित्रकारी में आदिवासियों के धार्मिक देवी अर्थात सिकी को चित्रित किया जाता है, जबकि सोहराय चित्रकारी में कला के देवता पशुपति या प्रजापति को चित्रित किया जाता है. कोहबर चित्रकारी में सबसे प्रचलित चित्रकारी है पशुपति को सांड की पीठ पर खड़ा चित्रित करना. कोहबर चित्रकारी में जहां स्त्री-पुरुष संबंधों के विभिन्न आयामों को चित्रित किया जाता है, वहीं सोहराय चित्रकारी में पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं एवं पशु-पक्षियों को चित्रित किया जाता है.
चित्रण शैली के दृष्टिकोण से सोहराय चित्रकला की दो प्रमुख शैलियां यथा मंझू सोहराय एवं कुर्मी सोहराय प्रचलित है. चित्रों में प्रायः सखुआ पेड़ की टहनी से बनाए गए दातुन के आकार की कूंची से रंग भरने का कार्य किया जाता है. कोहबर शब्द की उत्पति फारसी भाषा के 'कोह' अर्थात गुफा तथा हिन्दी भाषा के 'वर' शब्द अर्थात दूल्हा या विवाहित जोड़ा से हुआ है. इसका अर्थ हुआ 'गुफा में विवाहित जोड़ा'.
प्रत्येक विवाहित महिला अपने पति के घर 'कोहबर' कला का चित्रण विवाह के मौसम जनवरी से जून महीने तक करती है. इसमें घर-आंगन में विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों में फूल-पत्ती, पेड़-पौधे एवं स्त्री-पुरुष प्रतीकों की चित्रकारी की जाती है. कोहबर चित्रकला शैली बिरहोर जनजाति में विशेष रूप से प्रचलित है, जो अपने कुम्बास यानी घरों की दीवारों पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर कोहबर चित्रकारी करते हैं. आज भी हजारीबाग व गिरिडीह जिले के बगोदर प्रखंड एवं आसपास के क्षेत्रों में निवास कर रहे बिरहोर जनजाति के घरों में कोहबर चित्रकारी को देखा जा सकता है. बिरहोर जनजाति ही विलुप्ति के कगार पर है, तो उनका चित्रकारी की दशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
बिड़म्बना है कि संस्कृति के आधार पर बिहार से अलग हुआ झारखंड राज्य आज आदिवासी संस्कृति के पतन का कारण बन गया है, क्योंकि पिछले बारह वर्षों में राज्य की आठ सरकारें अपने ही राज्य के लोकरंग एवं लोकसंस्कृति से बेखबर बाजारवादी शक्तियों की चाकरी करने में व्यस्त रहीं. बाजारबाद अपनी तथाकथित आधुनिक संस्कृति द्वारा झारखंड की लोक संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू है.
अगर संस्कृति नष्ट हो गयी तो अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा. समय आ गया है कि राज्य के कलाप्रेमी एक हो जाएं और सरकार को कोसने के बजाए एक बृहद सांस्कृतिक क्रांति की तैयारी करें. एक मंच का निर्माण करें और उस मंच पर एकत्रित होकर सांस्कृतिक चेतना को जगाएं. तभी हमारी संस्कृति, लोककलाएं, अस्मिता बचेगी. जब ये बचेंगी. तभी हम लोगों का अस्तित्व बचेगा.
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