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Saturday, February 16, 2013

बीच बहस में

बीच बहस में


Saturday, 16 February 2013 11:59

कुमार प्रशांत 
जनसत्ता 16 फरवरी, 2013: अपनी बात आगे बढ़ाने से पहले ही कह देना चाहिए कि मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अंतिम हद तक समर्थक हूं और एक ऐसे चेतन समाज की कल्पना करता हूं जहां कोई भी, किसी भी बात पर अपनी कैसी भी राय दे, कोई इसलिए उसे रोके-टोके-पकड़े-मारे नहीं कि उसने ऐसा क्यों कहा जिससे हम सहमत नहीं हैं। असहमति के आधार पर किसी की जान ले ली जाए, इसका अंतिम उदाहरण महात्मा गांधी का ही हो, ऐसी प्रार्थना करने वाला मैं अभी के विवाद में सलमान रुश्दी, आशीष नंदी और कमल हासन के साथ नहीं हूं तो इसके कारण हैं।
कमल हासन की ताजातरीन फिल्म विश्वरूपम मैंने अब तक देखी नहीं है। लेकिन जितना देखा-पढ़ा है उस आधार पर इतना कह सकता हूं कि यह पूर्णतया काल्पनिक फिल्म है और यह आज के चालू फिल्मी फार्मूले से तालमेल कर सफल होने की चाह रखती है। इसके साथ कमल हासन जैसे बला के प्रतिभाशाली फिल्मकार का जुड़ाव है तो इसका कई लिहाज से अच्छा होना बनता ही है। लेकिन आतंकवाद के जिस सांप्रदायिक चेहरे की बात कमल हासन अपनी फिल्म में करते हैं वह तथ्यहीन भी है और अपनी सामाजिक जिम्मेवारी को न समझना भी! इसलिए जो विवाद हुआ, वह इस दृष्टि से अच्छा ही हुआ कि इससे कई ऐसे पहलू चर्चा में आए जिनसे हम बचते रहते हैं।  
कई बार होता है, आगे भी हो सकता है कि आप कोई ऐसी फिल्म या नाटक या कहानी-उपन्यास आदि को साकार करें जिसका आधार ऐतिहासिक हो, भले आज वह आधार बहुत सामयिक या लोकप्रिय न रह गया हो। ऐसा हो तो उस रचना को देखने-पढ़ने-सुनने के आधार बदल जाते हैं। एक सभ्य और स्वतंत्रचेता समाज के नाते हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि इतिहास के साथ, तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए, फिर वह इतिहास या तथ्य हमें जितना भी नागवार गुजरे। राज्यसत्ताओं ने खुद को बचाने के लिए ईसा को सूली पर चढ़ाया या सुकरात को जहर पिलाया से लेकर संकीर्ण राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले लोगों और संगठनों ने एक हिंदू युवक के हाथों महात्मा गांधी को गोली मरवाई, इस ऐतिहासिक सच्चाई को हम बदल नहीं सकते हैं और इसे केंद्र में रख कर कोई रचनाकार या विचारक जब अपनी बात करता है तो उसे पूरी आजादी मिलनी ही चाहिए। 
ऐसे कितने ही ऐतिहासिक तथ्य हैं जो आज किसी को नागवार भी गुजर सकते हैं। उन पर काम करने वाले लोग भी आते रहते हैं। अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए बल्कि हमें बौद्धिक रूप से इतना परिपक्व होना चाहिए कि हम अपने इतिहास के काले पन्नों को पढ़ सकें, तथ्यों को समझ सकें और इन सबको पचा भी सकें। 
मगर इसी तर्क का दूसरा पहलू यह है कि अगर आप किसी समस्या का कोई एक पहलू पकड़ कर, कोई काल्पनिक कथा गढ़ रहे हों तब इस बात का खयाल रखें कि आप जो कह या दिखा रहे हैं वह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है, आपका अपना नजरिया है जिसे दिखाने-कहने-सुनाने की आपकी आजादी वहीं तक है जहां से दूसरे की आजादी के साथ उसकी टक्कर नहीं होती है। किसी भी विधा के रचनाकार की यह सामाजिक जिम्मेवारी बनती है कि वह अपनी काल्पनिक कथा के माध्यम से ऐसा कुछ न कहे जो सामाजिक वातावरण को विषाक्त बनाए, दूसरों की भावनाओं को नाहक आहत करे और किसी भी बहाने सामाजिक शांति को भंग करे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विवेकशून्य नहीं हो सकती। 
कमल हासन को इस बात का पता होना ही चाहिए कि हर मुसलमान आतंकवादी भले न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है, ऐसा प्रचार हिंदुत्ववादी ताकतों ने बड़े सुनियोजित तरीके से चला रखा है। यह कोई नहीं कह सकता कि मुसलमानों में आतंकवादी नहीं हैं। मुसलमानों के बीच से भी ऐसी पहचान करने वाली आवाजें बराबर उठती रहती हैं। यह भी सच है कि मुसलमानों में ऐसे तत्त्व हैं जो आतंकवादियों का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए, विदेशी ताकतों के फायदे के लिए करते हैं। ऐसे तत्त्वों के खिलाफ भी मुसलमानों के बीच से आवाजें उठती रही हैं। 
मेरी तरह किसी को भी यह मलाल हो सकता है कि यह आवाज जितने बड़े पैमाने पर और जितनी जोर से उठनी चाहिए, उतनी जोर से नहीं उठती। लेकिन इससे जो और जितनी आवाजें उठती हैं उनका वजन कम नहीं हो जाता बल्कि वे ज्यादा अहमियत रखती हैं। लेकिन हम इस दूसरी और ज्यादा मजबूत सच्चाई से कैसे आंख मूंद सकते हैं कि हमारे अपने देश में पूर्वांचल में हिंदू या ईसाई आतंकवादी हैं, पंजाब में सिख आतंकवादी हैं, तमिलनाडु में हिंदू आतंकवादी हैं। और तो और, हिंदुत्व के दर्शन में विश्वास करने वाले संघ परिवारी कैसी आतंकवादी गतिविधियों के सहायक-सलाहकार-प्रेरक और सिपाही रहे हैं, इसका खुलासा तो अब अदालतों और जांच समितियों में होने लगा है।
अगर कमल हासन आतंकवाद को केंद्र में रख कर एक काल्पनिक फिल्म बुनते हैं तो उन्हें इसका पूरा अधिकार है लेकिन तब उनकी यह पूरी जिम्मेवारी है कि वे आधी-अधूरी तस्वीर पेश न करें। वे चाहें तो बेताल की कथा बनाएं जिसमें बेताल हर बुराई से लड़ता है, कमल हासन ने जैसा तिलिस्म रचा है उससे कहीं ज्यादा आकर्षक तिलिस्म रचता है, लेकिन यह नहीं कहता कि बुरी ताकतें किस जाति, धर्म, प्रांत या देश की हैं। आप बेताल जितना विवेक भी न करें और काल्पनिक गाथाओं को किसी धर्म या जातिविशेष से जोड़ दें और फिर उसे बनाने में अपनी सारी गाढ़ी कमाई फूंक दें, मकान गिरवी रख दें तो इसकी   जिम्मेवारी किसकी बनती है? 

आप ऐसा करने के बाद जार-जार रोएं और सरकारों को दोजख भेजें, देश छोड़ने की धमकी दें तो इससे आपकी असहायता तो समझी जा सकती है लेकिन आपके साथ खड़ा नहीं हुआ जा सकता। फिर सबसे सम्मानजनक रास्ता वही बचता है जो जयललिता ने सुझाया और जो कमल हासन के काम भी आया कि आप नाराज लोगों के साथ बैठें, अपनी फिल्म को फिर से उनसे सेंसर करवाएं और फिर बाजार में उतरें। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि से न जोड़ें बल्कि अपनी गलती सुधारने का प्रकरण समझ कर, आगे के लिए गांठ बांध लें। हमें यह समझना ही चाहिए कि इस प्रकरण में, और ऐसे हर प्रकरण में, जो हुआ उससे वे ही संकीर्ण ताकतें मजबूत हुर्इं जिनसे हम लड़ रहे हैं और जिन्हें हम समाज के हाशिये पर धकेलना चाहते हैं।
भ्रष्टाचार और पिछड़ी जातियों के संदर्भ में आशीष नंदी ने जो कहा वह एकदम तथ्यहीन है। उन्हें मैंने जितनी बार, अपनी वह बात कहते टीवी पर देखा, हर बार मुझे लगा कि वे अपनी बौद्धिकता को एक अंगुली ऊपर स्थापित करने के तेवर में बोल रहे थे और उस रौ में ऐसे बहे कि बेलगाम बोल गए। क्या इस बात से कोई इनकार कर सकता है कि इस देश में अनगिनत स्तरों पर, अनगिनत किस्म के भ्रष्टाचार की बजबजाती नालियां बह रही हैं और हम उसमें लोटपोट हो रहे हैं! इसमें सारी तथाकथित उच्च जातियां बगैर किसी अपवाद के लिप्त हैं, ठीक वैसे ही जैसे बगैर किसी अपवाद के इन सारी जातियों में ऐसे लोग हैं जो इस बुराई से लड़ भी रहे हैं।
जब हमारी पिछड़ी जातियों को मौका मिला कि वे भी सत्ता-संपत्ति के इस पापकुंड में उतरें तो वे भी इसी में लोटपोट होने लगीं और इसमें भी अपवाद कोई नहीं बचा। तो इसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण यही हो सकता है कि अलग-अलग स्तरों पर जीने वाली जातियां चाहे कितनी भी भिन्न हों, मानवीय कमजोरियों के क्षण में उनमें कोई फर्क नहीं रहता है। और यह भी इसी सांस में कहने की जरूरत है कि पिछड़ी जातियों में भी ऐसे लोग हैं जो इस बुराई से लड़ रहे हैं। फिर समाजशास्त्री कहेगा कि जहां तक बुराइयों से लड़ने का सवाल है, जातियों की घेरेबंदी वहां भी कमजोर पड़ जाती है।
इसलिए भ्रष्टाचार कई कारणों से चलता और फैलता है और उस पर काबू पाने के लिए कई स्तरों पर, कई तरह की पहल करनी होगी। लेकिन इसे समझना बहुत जरूरी है कि अंतत:यह मानवीय चरित्र की समस्या है जिससे नैतिक स्तर पर ही लड़ा जा सकता है। अगर आशीष नंदी इस विश्लेषण से सहमत हों तो उन्हें इस तरह से ही यह बात कहनी चाहिए थी और बार-बार दी गई अपनी उलझी हुई सफाई में भी इसे पेश करना चाहिए था।     
लेकिन एक सवाल फिर भी बचा रहता है कि क्या हम ऐसा कहना चाहते हैं कि हमारे देश में किसी को भी यह अधिकार नहीं होगा कि वह ऐसी बातें कह सके जो आमतौर पर कही नहीं जाती हैं? आशीष नंदी को जो जानते-पढ़ते रहे हैं, जानते हैं कि वे पिछड़ी-वंचित जातियों के लिए सामाजिक न्याय और समता की बात करते रहे हैं। इसलिए आशीष नंदी की बहक को अपनी राजनीतिक गोटी लाल करने का मौका बना कर दलित राजनीतिक जिस तरह मैदान मारने में लग गए, वह हमारे समय का सबसे शर्मनाक मंजर है। इससे दलितों का कोई भला नहीं होगा। अदालत ने ठीक ही किया कि इस बहस को एक अच्छा मोड़ देकर छोड़ दिया। 
सलमान रुश्दी, ऐसा लगता है कि उन लोगों में हैं जो विवादों से ऊर्जा पाते हैं। पिछले साल की, जयपुर की बौद्धिक फैशन परेड में भी उनका ही नाम छाया रहा। इस बार जयपुर नहीं, तो उन्हें मिला कोलकाता! वे कोलकाता आ रहे थे लेकिन आए नहीं। क्यों? इसलिए कि ममता बनर्जी की तरफ से उन्हें धमकी मिली। लेकिन भाई रुश्दी, कलम उठाने में हिम्मत नाम की एक चीज भी तो लगती है। हम रचनाकारों के पास वह है, इसका भी तो प्रमाण मिलना चाहिए! ममता बनर्जी ने क्या धमकी दी थी आपको? बकौल आप ही, ऐसा कहवाया गया था कि अगर आप कोलकाता आते हैं तो हवाई अड््डे से ही गिरफ्तार कर, वापसी के जहाज में बिठा दिया जाएगा। यह तो मजे की बात थी! मुफ्त की यात्रा भी हो जाती आपकी और रंग भी चोखा आता! 
अपने विश्वास के लिए क्या हमें इतनी हिम्मत भी नहीं दिखानी चाहिए? कोलकाता हवाई अड््डे से आपको पकड़ कर वापस कर देती ममता बनर्जी सरकार तो आसमान फट पड़ता कि धरती डोल जाती? इसकी फिक्र तो ममता बनर्जी को होनी चाहिए थी कि उनकी सरकार ऐसा करेगी तो किसे क्या मुंह दिखाएगी! अपनी आस्था की जमीन पर जो पांव धरते भी डरे, वह दूसरा कुछ भी हो, कलम की आबरू रखने वाला रचनाकार नहीं हो सकता।
बहुत धूल उड़ चुकी है। वक्त है कि हम अपना चेहरा साफ करें।

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